केंद्र सरकार को बजट अपनी घोषणा के अनुसार 1 फरवरी को ही रखना चाहिये क्योंकि इससे मध्यम वर्ग आयकर में अपने लिये सुविधा की आशा कर रहा है। इतना ही नहीं यह भी अपेक्षा है कि नोटबंदी के बाद सरकार करढांचे को सरल बनाने का प्रयास इस बजट में करेगी। यदि यह बजट टाला जाता है तो मध्यम वर्ग यह मानेगा कि उसे चुनाव से पहले भरमाने का प्रयास होगा मगर बाद में उसे पहले की तरह सब कुद झेलना पड़ेगा। इतना ही नहीं भक्तों के इष्ट के हार्दिक भावों पर भी संदेह खड़ा हो जायेगा। हम याद दिला दें कि जिस मध्यम वर्गीय भक्तों के सहारे इष्ट सिंहासन के शीर्ष पर पहुंचे हैं वह उनके अभी तक के राजकीय बजटों से भारी निराश हुआ है। यह तो नोटबंदी थी जिसने उनकी छवि को वापस प्रतिष्ठित किया है पर अगर बजट निराशाजनक हुआ और मध्यम वर्ग ने जो अभी तक तकलीफ उठाई है वह यथावत रहीं तो फिर कहना मुश्किल है कि अच्छे दिन आने वाले हैं। जो करना है इसी बजट में किया जा सकता है। फिर तो अवसर मिलना संभव नहीं लगता। हो सकता है कि नोटबंदी से जो प्रतिष्ठा मिली है वह एक सामान्य मध्मय वर्गीय विरोधी बजट से मिट्टी में मिल जाये। उनके वित्तमंत्री तो साफ कह चुके हैं कि मध्यमवर्ग अपनी रक्षा स्वयं करे-जिसका अर्थ का अनर्थ कर लोगों ने उसमें जोड़ा कि हम तो अमीर और गरीब के लिये ही काम करते रहेंगे।
जिस तरह शक्तिशाली लोग मुद्रा की स्थिति सामान्य होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं उससे तो लगता है कि वह नई मुद्रा के काली होने की राह देख रहे हैं और जब वह सफल होंगे तो पहले से अधिक भयावह होंगे। अभी उनके चेहरे लटके हुए हैं पर अगर बजट में मध्यम वर्ग को सहारा नहीं मिला तो यह मान लीजिये कि इस शक्तिशाली वर्ग के पास कालेधन की वापसी हो जायेगी। मध्यम वर्ग कर चुकाता रहेगा और वह करचोरी कर सीनातानकर चलेगा। ऐसे में भक्तों के इष्ट का काम केवल शाब्दिक चातुर्य से चलने वाला नहीं है क्योंकि अभी तक उनके सद्प्रयासों का धरातल पर अवतरण नहीं हुआ और नायक की छवि बचाने रखने के लिये मध्यम वर्ग का प्रसन्न रहना जरूरी है। अभी भी सब कुछ पहले की तरह चल रहा है और अगर आगे भी चला तो सवाल पूछा ही जायेगा कि ‘अच्छे दिनों का क्या हुआ?
यह ध्यान अवश्य रखना होगा कि भक्त अधिकतर मध्यम वर्ग के हैं-वह केवल उनके दल के सदस्य होने तक ही सीमित नहीं है वरन् हर क्षेत्र में सक्रिय हैं-अतः उसके प्रसन्न होने पर ही अब आगे इष्ठ की छवि प्रतिष्ठित रह सकती है।
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