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Saturday, March 22, 2014

ज्ञानी कभी राजसुख पाने का प्रयास नहीं करते-भर्तृहरि नीति शतक के आधार पर चिंत्तन लेख(gyani kabhi rajsukh pane ka prayas nahin karte-bharitihari neeti shatak ke aadhar par chinntan lekh)



      जैसे जैसे 2014 के लोकसभा  चुनाव का समय पास आता जा रहा है वैसे टीवी चैनलों तथा समाचार पत्र पत्रिकाओं की खबरों में इससे संबंधित जानकारी दिलचस्प होती जा रही है।  इसमें कोई संदेह नहीं है कि मनुष्य समाज में राजपद की स्थापना की अनिवार्यता की शर्त पूरी करने के लिये सभी नागरिकों को अपनी भागीदारी निभानी ही होगी। कोई जनप्रतिनिधि पद का प्रत्याशी तो  कोई मतदाता के रूप में अपनी भागीदारी निभायेगा।  इसमें कोई संदेह नहीं है कि मतदाताओं को प्रभावित करने के लिये सभी प्रत्याशी अपनी तरह से कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।  सबसे ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि इन चुनावों में धर्म के नाम पर कार्यरत कुछ विद्वान इस चुनावी राजनीति में अपने व्यक्तिगत प्रभाव के लिये सक्रिय होना चाहते हैं। पहली बात तो हम यहां यह बता दें कि धर्म से हमारा आशय उच्च आचरण से होता है।  इस आचरण के भी तीन रूप हैं-सात्विक, राजस और तामस।  एक चौथा रूप भी होता है- वह है योगी या सन्यासी- जिसकी चर्चा बहुत कम होती है यह अलग बात है कि धर्म के नाम पर सक्रिय कुछ पेशेवर लोग यही रूप धारण कर समाज में विशेष रंग के कपड़े पहनकर विचरते हैं।
      चुनावी राजनीति में सामान्य लोग भी सक्रिय होते हैं और कहीं न कहीं उन पर भी अन्य की तरह इन विशेष वस्त्रधारी कथित धर्म विशेषज्ञों के प्रति रुझान रहता हैं। चुनावी राजनीति में सक्रिय शिखर पुरुष भी  यह मानकर चलते हैं कि इन कथित धर्म रक्षकों के पास शिष्यों का  एक ऐसा समुदाय रहता है जो चुनाव को प्रभावित कर सकता हैं।  इसलिये अभी तक वह इनके इर्दगिर्द मंडराते थे पर अब तो यह हालत हो गयी है कि अनेक धर्मों के कथित विशेषज्ञ बाकायदा चुनाव मैदान में उतरने के लिये इन शीर्ष पुरुषों से संपर्क रखने लगे हैं। टिकट मिलने पर अपने धर्म की जीत और न मिलने पर संकट बताकर अपने समुदाय को यह समझाने का प्रयास करते हैं कि वह उनके बताये अनुसार मतदान करे।  हमें इस पर आपत्ति नहीं है पर इतना अवश्य कह सकते हैं कि यह राजसी आचरण है।  इसे सत्वगुण या योग से तो कतई नहीं जोड़ा जा सकता है।  जब यह कथित पेशेवर धार्मिक विद्वान यह दावा करते हैं कि उनका आचरण सात्विक है या वह स्वयं सन्यासी हैं तब उनका इस तरह का व्यवहार उनकी निष्ठा पर ही संदेह पैदा करता है।

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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रम्यं हर्म्यतलं न किं वसतये श्रव्यं न गवादिकं किंवा प्राणसमासमगमसुखं नवाधिकप्रीतये।
किं तद्भ्रान्तपत्पतङ्गपवनव्यालोलदीपाङ्करच्छायचञ्वलामाकरूय सकलं सन्तो वनान्तं गताः।।
     हिन्दी में भावार्थ-क्या प्राचीन समय में संतों को रहने के लिये सुंदर महल नहीं थे? क्या उनके सुनने के लिये संगीत नहीं था। क्या उन्हें प्राण प्रिय सुंदर स्त्रियों से समागम हृदय को प्रिय नहीं लगता था? जो उन्होंने संसार को गिरते पतंगे के पंखों की हवा से विचलित हुई दीपक का लौ की छाया के समान विचलित मानकर त्याग दिया।

      हमारा मानना है कि आम आदमी की चिंतायें उसके परिवार के इर्दगिर्द ही रहती हैं।  धर्म के नाम पर वह अपने इष्ट की आराधना से अधिक कुछ नहीं करता। अधिक से अधिक अपने आसपास किसी पर विपत्ति होने पर आदमी उसकी सहायता कर अपने सात्विक होने का बोध अवश्य कराता है पर उसमें  हमेशा ही राजसी वृत्तियां ही उपस्थित रहती हैं।  वह इन कथित पेशेवर धार्मिक लोगों को इस डर से सम्मान देता है कि वह कहीं उसे धर्मद्रोही घोषित कर समाज में बदनाम न कर दें। वह इन मध्यस्थों को सर्वशक्तिमान का रूप माने यह सोचना ही भ्रम है। अनेक धर्म के ऐसे व्यवसायी यह जानते हैं इसलिये अपने साथ समाज पर नियंत्रण रखने के लिये दबंग तथा प्रभावशाली लोग साथ लेकर चलते हैं। वह सद्भाव से प्रीति की बजाय भय बिन भये न प्रीति का सिद्धांत मानते हैं।
      समस्या यह है कि श्रीमद्भागवत गीता का कर्म तथा गुण विभाग का ज्ञान आम लोगों को नहीं है । जिनसे वह श्रीगीता ज्ञान ग्रहण करते हैं वह केवल शाब्दिक अर्थ बताते हैं। आज के परिप्रेक्ष्य में यह ज्ञान किस तरह प्रासांगिक है इसकी जानकारी आम लोगों को नहीं है।
 राजनीति एक व्यापक शब्द है जिसका चुनावी राजनीति एक रूप है।  परिवार, रिश्तेदारी, व्यवसाय, नौकरी तथा खेल में भी बिना राजनीति के किसी को सफलता नहीं मिलती। जहां प्रतिफल की आशा है वह अपनायी जाने वाली नीति ही राजनीति है। पहले राजतंत्र था तो राजा अपने जीवन तक बना रहता था पर आजकल लोकतंत्र है और उसमें अदलाबदली होती रहती है। यह अदलाबदली चुनाव से ही होती है।  इस चुनावी राजनीति में धार्मिक पहचान वालों के शामिल होने  पर प्रश्न चिन्ह केवल ज्ञानी ही उठा सकते हैं पर उनको सुनने या पढ़ने वाली भीड़ तो अपने इन्ही शीर्ष पुरुषों के पीछे रहती है इसलिये कोई प्रभाव नहीं होता।
      देखा जाये तो वर्तमान काल में कोई देहधारी मनुष्य  हमारे देश में कोई धार्मिक रूप से लोकप्रिय या जनमानस में प्रतिष्ठत नहीं है। जब तक प्रचार माध्यम सीमित थे तब लोगों के सामने कथित रूप से अनेक महापुरुष विराजमान थे पर धीमे धीमे यह पता लगा कि इनमें बहुत लोग  पाखंडी और व्यापारी हैं। इन लोगों को देखकर हमें प्राचीन महापुरुषों की याद आती है जो सभी सुखों का त्यागकर सत्य की खोज में निकले। उन्होंने ज्ञान प्राप्त कर समाज को चिंत्तन शक्ति प्रदान की। उन्होंने राजसुख का इस तरह त्याग किया कि राजा लोग भी उनके सामने नतमस्तक हो गये।  अब इन नवीन धार्मिक पुरुषों से यह पूछने का साहस कौन कर सकता है कि वह किसलिये राजसी सुखों के चक्कर में पड़े हैं? इससे उनके समाज को कौनसा अध्यात्मिक लाभ होने वाला है? बहरहाल ज्ञान साधकों के लिये चुनावी राजनीति में सक्रिय होने की इन पेशेवर धार्मिक लोगों की कोशिश दिलचस्पी का विषय होती है। 

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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