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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Thursday, November 19, 2015

पश्चिम व पूर्व की अध्यात्मिक विचाराधाराओं को आधार प्रथक-हिन्दी चिंत्तन लेख(Pashchim Poorava ki Adhyatmik vichardharaon ko Adhar Prathak-Hindu Thought article)


                           एक अखबार में यह किस्सा पढ़ने को मिला कि एक कार्यक्रम में अमेरिका के राष्ट्रपति ने चीन के उद्योगपति से पूछा-जुनून की हद तक संघर्ष व्यवसाय में किस तरह मदद करता है?’
                           जेक मा ने कहा-यह जुनून नहीं दूसरों के लिये की गयी चिंता है।
                           यह एक सामान्य वार्तालाप है पर गौर से सवाल करने और जवाब देने वाले का व्यक्तित्व देखा जाये तो इसमें पूर्व पश्चिम के दृष्टिकोण दिखाई देंगे।  पश्चिमी विचाराधारा के अनुसार अपना कर्म अपनी निजता के लिये किया जाना चाहिये जबकि पूर्वी विचाराधारा के अनुसार अपना कर्म सभी के हित के लिये हो तो निजी लाभ स्वयं होता है। पश्चिमी में लोग अपना लक्ष्य अपने लिये तय करते हुए सक्रिय होते हैं जबकि पूर्व में युवक समाज, परिवार तथा अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिये अपना अभियान प्रारंभ करते हैं। चीन  भले ही राजनीतिक रूप से साम्यवादी विचाराधारा पर चलता हो पर वहां आज भी उस बौद्ध धर्म का प्रचलन है जो भारतीय अध्यात्मिक विचाराधारा से निकला है।  सच तो यह है कि एक तरह से साम्यवादी विचाराधारा और तानाशाही के कारण ही वहां बौद्ध धर्म संरक्षित है वरना तो पश्चिमी विचाराधाराओं ने उसे भी ध्वस्त कर दिया होता
                           भारतीय अध्यात्मिक विचाराधारा के अनुसार अपने मन, विचार और देह के विकार भक्ति, ज्ञान तथा योग के अभ्यास से निकालने के बाद सांसरिक विषयों में कार्य करने की सात्विक शैली स्वयं ही हो जाती है। प्रातः धर्म, दोपहर अर्थ, सांय काम या मनोरंजन तथा रात्रि मोेक्ष का समय होता है।  प्रातः अपने मन, विचार और बुद्धि के विकार निकालना ही धर्म है और दोपहर के अर्थ का विषय केवल जीवन निर्वाह के लिये न कि उस समय किये जाने वाले कर्म तथा लक्ष्य को हृदय से लगाकर उसमें चिपककर कर स्वयं को मानसिक संताप देने से हैं।
                           कोई भौतिक विषय, वस्तु तथा विषय किसी का माईबाप नहीं हो सकता।  सांसरिक विषयों में सफलता वह असफलता लगी रहती है उसे लेकर अधिक चिंता नहीं करना चाहिये। हमारा ध्येय अध्यात्मिक साधना से अपना ही मनोबल बनाये रखना हो तो सांसरिक विषयों से जूझने की कला भी आ ही जाती है। सबसे बड़ी बात यह कि उच्च पद, लंबे कद और धन के मद के आकर्षण का शिकार पूर्व का आदमी नहीं होता।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Wednesday, November 11, 2015

कामना अर्थ व रूप की कभी उपेक्षा भी करना चाहिये-हिन्दी चिंत्तन लेख(Kamna Arth Roop ki kabhi upeksha karna chahiye-Hindi thought article)


               भौतिक साधनों के नितांत उपभोग से जहां लोगों में बौद्धिक तीक्ष्णता का प्रमाण मिलता है वहीं सुविधा के संपर्क से मस्तिष्क के आलस्य से  आंतरिक चेतना शक्ति भी कम हो रही है।  प्रश्न यह नहीं है कि लोग उपभोग से विरक्त क्यों नहीं हो रहे वरन् समस्या यह है कि लोग अपने मस्तिष्क को विराम नहीं दे रहे। उपभोग की एकरसता के बीच उन्हें अध्यात्मिक रस का आनंद लेने की इच्छा होती है पर ज्ञान के अभाव में वह पूरी कर नहीं पाते। मन की कामनायें, अर्थ का अनर्थ से भरा मोह तथा आकर्षक वस्तुओं को देखने की नितांत इच्छा के बीच मनुष्य को थकाने वाला मनोरंजन मिल जाता हे पर उससे उबरने की इच्छा अंततः निराशा कर देती है।
अष्टावक्रगीता में कहा गया है कि
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विहाय वैरिणं काममर्थ चानर्थसङ्कुलम्।
धर्ममप्येतयोहेंतुं सर्वत्रानादरं कुरु।।
 
                                   हिन्दी में भावार्थ-वैर स्वरूप कामनायें तथा अनर्थ से भरे अर्थ का त्याग कर रूप धर्म को भी छोड़कर उनकी उपेक्षा करें।
                                   अध्यात्मिक चेतना के लिये कुछ समय सांसरिक विषयों की उपेक्षा करना होती है।  मन की चंचलता को नियंत्रित कर स्वयं में दृष्टा का भाव लाना हो्रता है।  उपभोग की तरफ केंद्रित प्रवृत्ति का निवृत्ति मार्ग अपनाये बिना दृष्टा होना सहज नहीं है।  हम मिठाई खायें या करेला वह पेट में अंततः कचड़ा ही बनता है जिसका निष्कासन हमें करना ही है।  उसी तरह दृश्यों का भी है। मनभावन हो या सताने वाला दृश्य आंखें देखती हैं पर दोनों ही अंततः मन में तनाव का कारण बन जाते हैं। उन्हें भुलाकर निष्पादन करना आवश्यक है। जो धन आया है उसमें से हम जितना व्यय करते हैं वही सार्थक है जो बचा रहा वह निरर्थक हैं।  जिसका हम उपयोग नहंी कर उस धन पर अहंकार करना व्यर्थ है।  हम धन का सेवक के रूप में उपभोग करते हैं न कि वह हमारा स्वामी है जिसे हम अपने मस्तिष्क पर धारणकर घूमें।  जीवन निर्वाह के लिये उपभोग सीमा के बाद कामना, अर्थ और रूप की उपेक्षा करना ही योग है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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