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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Saturday, May 30, 2015

लोकतंत्र में मध्यम वर्ग का योगदान-हिन्दी चिंत्तन लेख(participation in demicracy of middile class-hindi thought article)


      आमतौर से यह माना जाता है कि राजनीति कोई भी कर सकता है पर विद्वान मानते हैं कि शास्त्र का ज्ञाता ही यह काम करे तो बहुत अच्छा रहेगा। राजनीति का सबसे पहला सिद्धांत यह है कि अपने लोगों को खुश करो और उसके बाद दूसरों की सोचो। इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि दूसरों को खुश करने से पहले अपने लोगों को खुश करो और यह भी कि अपनो को खुश करने के बाद दूसरों पर भी कृपा करो। एक बात तय रही कि राजनीति शिखर पर बैठकर अपनी प्रसन्नता के लिये काम करना संभव नहीं है। अगर कोई ऐसा करेगा तो वह पूरे समाज में प्रतिष्ठा भी गंवा सकता है।
     विश्व के अधिकतर देशों में  आधुनिक लोकतांत्रिक पद्धति से राजकीय व्यवस्थाओं का निर्माण होता है।  लोकतांत्रिक पद्धति से व्यवस्थापकों का चुनाव होता है जिनमें प्रचार के लिये ढेर सारा पैसे खर्च होता है। इसके लिये प्रत्याशियों को धनपतियों से सहायता लेनी पड़ती है। चुनाव बाद यही धनपति चुने गये प्रतिनिधियों से अपने पैसे की अप्रत्यक्ष वापसी के रूप में व्यवसाय के लिये अनेक सुविधायें चाहते हैं। देखा यह गया है कि अनेक बुद्धिजीवी इन धनपतियों पर ही असली शासक होने का आरोप लगाते हैं। समाज के मध्यम और निम्न वर्ग के लोग तब बहुत निराश होने लगते हैं।  गरीब लोग तो आह भरकर रहते हैं पर मध्यम वर्ग अपनी बौद्धिक क्षमता का उपयोग करते हुए विरोध करता है।
    कभी कभी तो यह लगता है कि मध्यम वर्ग लोकतंत्र की वह धुरी है जो अभिव्यक्ति के सिद्धांत का भरपूर उपयोग करता है। इतना ही नहीं यही मध्यम वर्ग अपनी उपभोग प्रवृत्तियों से पूंजीपतियों का भी सहायक है। यह अलग बात है कि लोकतंत्र में गरीब के साथ मध्यम वर्ग भी शोषित होता है। अगर इस वर्ग का कोई सदस्य शिकायत करता है तो प्रतिवाद करने भी समवर्ग का ही व्यक्ति सामने आता है।  अभिव्यक्ति के मैदान पर द्वंद्व हमेशा मध्यम वर्ग के सदस्यों के ही बीच होता है।
देखा यह गया है कि जो राजसी पुरुष मध्यम वर्ग के दिल दिमाग में जगह बनाता है वही अंततः लोकप्रियता की सीढ़ियां चढ़ता है। जिससे मध्यम वर्ग रुष्ट होता है उसे प्रचार में अपयश का सामना करना पड़ता है। सच बात तो यह है कि मध्यम लोकतंत्र और पूंजीवाद दोनों को बैसाखी प्रदान करता है। वह विभिन्न वस्तुओं के उपभोग के दाम के रूप में पूंजीपति और कर के रूप में राज्य की सहायता करता है। ऐसे में मध्यम वर्ग की उपेक्षा करना ठीक नहीं है। हमारे देश में गरीबों का कल्याण करने वाले बहुत से शिखर पुरुष हैं पर लोकप्रियता मध्यम वर्ग के समर्थन से ही मिलती है। हालांकि अब कुछ शिखर पुरुष मध्यम वर्ग के हित की बात कर रहे हैं पर दबी जुबान से क्योंकि यह आम प्रचलित गरीबों के कल्याण सिद्धांत से कुछ अलग हैं। सच बात तो यह है कि शिखर पुरुष के गरीबों के कल्याण का नारा मध्यम वर्ग के ही सदस्य होते हैं जो प्रचार संस्थानों में सेवा करते हैं। यही कारण है कि अनेक समझदार शिखर पुरुष पूंजीवाद तथा लोकतंत्र के आधार रूप मध्यम वर्ग की अप्रसन्नता से बचने का प्रयास करते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Monday, May 25, 2015

अपनी समस्याओं से स्वयं ही निपटें-हिन्दी चिंत्तन लेख(apni samashyaon se swyan nipten-hindi thought article)


         हम अक्सर प्रचार माध्यमों में ऐसे कथित विद्वानों, बुद्धिजीवियों तथा समाज सेवकों के वक्तव्य पढ़ते सुनते है जिसमें वह समाज के विभिन्न वर्गों के विकास, उद्धार तथा चेतना लाने के दावे करते हैं। इस क्रम में नारी, वृद्ध, बालक, गरीब, बीमार तथा कमजोर वर्ग जैसे विभाजन प्रस्तुत किये जाते हैं।  इतना ही नहीं इन वर्गों के कथित विकास के लिये अनेक स्वयं सेवी संगठन सक्रिय हो गये हैं। अनेक तो दान और चंदा लेते हैं। इतना ही नहंी चंदा और दान देने वाले भी किसी ऐसे लाभ के लिये यह सब करते हैं जो भविष्य में संभावित होता है।  कुल मिलाकर समाज को उपसमाजों में बांट कर समाज कल्याण का एक ऐसा व्यवसाय स्थापित हो गया है जिसे समझना जरूरी है।
     सभ्यताओं का विकास और विनाश इस प्रकृत्ति की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। सभ्यताओं में ही समाजों का उत्थान और पतन भी उतना ही स्वभाविक है। समाजों में भी परिवार का गठन और बिखराव होता है। परिवारों में भी मनुष्य जन्मते और मरते हैं। इस प्राकृतिक चक्र के नियमों के विपरीत प्रथक कार्य करने का दावा कोई नहीं कर सकता। जन्म और मृत्यु के बीच हर मनुष्य स्वार्थ के साथ दिन बिताता है।  उसके साथ अपनी दैहिक शक्ति होती है पर वह भी नियमों के अनुसार ही चल सकती है। हर मनुष्य अपनी दैहिक आवश्यकताओं के अनुसार चलने को बाध्य है।
ऐसे में अक्सर यह सवाल आता ही है कि क्या किसी व्यक्ति के राष्ट्र, समाज, परिवार तथा व्यक्ति के निर्माण या विकास के दावे को स्वीकार कर लेना चाहिये? क्या ऐसेे बुद्धिमान पेशेवर चिंत्तकों की इस बात पर यकीन करना चाहिये कि वह गरीबों के लिये सोचते हैं? यकीनन इसका उत्तर ना में ही आता है।  वजह साफ है कि जितनी संख्या में समाज सेवी संस्थायें और उनके पदाधिकारी सेवक इस देश में सक्रिय हैं उसे देखते तो भारत में किसी वर्ग में कोई समस्या ही नहीं रहना चाहिये थी। ऐसा हुआ नहीं और इससे ही यह लगता है कि हमें अपनी समस्याओं के निपटने के लिये स्वयं ही प्रयास करना चाहिये।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Friday, May 22, 2015

अपनी घोल तो नशा होय-हिन्दी चिंत्तन लेख(apni ghot to nasha hoy-hindi thought article

            अपनी दैनिक जीवन की समस्याओं में हम किसी दूसरे से सहायता की आशा कैसे कर सकते हैं जबकि पता है कि सभी लोग स्वयं के विषयों में फंसे हैं। हम दूसरे से परमार्थी होने की आशा क्यों करते हैं जब कि स्वयं स्वार्थों के दलदल में फंसे है। कोई व्यक्ति सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक सिंहासन पर बैठकर समाज का संचालन करे या आसन बिछाकर धरती पर ध्यान करे वह दैहिक निजता का भाव धारण किये ही रहता है। इस देह में ही काम, क्रोध लोभ, लोभ तथा मोह की प्रवृत्ति के साथ ही मन, बुद्धि और अहंकार भी रहता है।  ऐसे में स्त्री हो या पुरुष मानवीय स्वभाव के मूल तत्वों से परे नहीं जा सकता।
            यहां अनेक लोग सहायता का वादा करते हैं। अनेक लोग तो ऐसे हैं जिन्होंने जिंदगी में शायद ही किसी का परोपकार किया हो पर इस विषय पर कल्पित कहानियां दूसरों को सुनाकर प्रचार करते हैं। यह अलग बात है कि वह स्वयं चाहे आत्ममुग्ध हों पर अन्य लोग उन पर विश्वास न करते।  सामाजिक क्षेत्र में लोग बेसहारों, गरीबों, तथा बीमारों की मदद, धार्मिक क्षेत्र में स्वर्ग और मुक्ति के साथ ही  आर्थिक क्षेत्र में दान करने के दावे करने वाले बहुत ही कथित चालाक लोग  मिल जाते हैं। आजकल तो प्रचार का युग है तो टीवी चैनल और अखबारों में विज्ञापन भी किये जाते हैं। इन पर यकीन करना इसलिये कठिन होता है क्योंकि हमने अपने जीवन में समाज को नैतिक पतन, आर्थिक विषमता तथा वैचारिक वैमनस्य की तरफ आगे बढ़ते ही देखा है। आज से तीस  साल पहले जो  वातावरण  था उससे अब अधिक विषाक्त हो गया है। भविष्य में भी अधिक गिरावट की आशंकायें बनी रहती हैं। ऐसे में प्रचार माध्यमों में आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक शिखर पुरुषों के नायकत्व पर प्रश्न उठता ही है।  संकट विश्वास का है और वह किसी पर करना कठिन हो रहा है।
            ऐसे में निराशा से बचने का एक ही उपाय है कि अपनी घोल तो नशा होय। व्यसनों से मन शांत करने की बजाय योग साधना, भक्ति तथा मौन बेहतर हथियार बनाया जाये तो घर में ही स्वर्ग और जागते हुए मोक्ष मिल सकता है। विषयों से परे हटना नहीं है  आसक्ति परे रखनी ही है। आसक्ति रहित होना ही मोक्ष है। योग साधना के दौरान आसन, प्राणायाम, ध्यान और मंत्रजाप से अपनी सक्रियता का एक मनोरंजक स्थिति प्रदान करती है तब किसी दूसरे के दावे या वादे के प्रभाव से स्वतः बचा जा सकता है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Sunday, May 17, 2015

दान की प्रवृत्ति से समाज की गरीबी दूर हो सकती है-हिन्दी चिंत्तन लेख(dan ki pravritti se samaj ke gargibi door ho skateg hai-hindi thought article)

वर्तमान लोकतांत्रिक युग में गरीबों, बीमारों, बेसहारों तथा भूखों के कल्याण का नारा लोकपिंय होता है। अनेक जगह चुनावों के समय राजकीय पदों के प्रत्याशी केवल कमजोर वर्ग के उद्धार की बात करते हुए अपने मतदाताओं को प्रभावित करने का प्रयास करते हैं। जिसके नारे में दम होता है वह जीत जाता है। यह अलग बात है जीत के बाद उनके कार्यकलाप वैसे नहीं रहते जैसी अपेक्षा पहले की जाती है।  हमारे देश में लोकतंत्र के प्रति आत्ममुग्धता इतनी है कि सारे कल्याण के काम सरकारी तंत्र पर छोड़ दिये गये है। पहले सेठ साहुकार समाज से जुड़े अनेक निर्माण कार्य तथा कार्यक्रमों का प्रायोजन दान देकर करते थे पर अब बात नहीं रही। कहने को तो आज भी दान दिये जाते हैं पर उन लोगों के संगठनों को ही इसका लाभ होता है जिनकी पृष्ठभूमि में शक्तिशाली लोग होते हैं।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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दारिद्रायनाशन। दानं शीलं दुर्गतिनाशनाम्।
अज्ञाननाशिनी प्रजा भावना भयनाशिनी।।
            हिन्दी में भावार्थ-दान से दरिद्रता, नैतिकता से दुर्भाग्य तथा बुद्धि से अज्ञान का नाश होता है।
          गरीबी हटाने का ठेका अब सरकारी तंत्र पर छोड़ दिया गया है जबकि पहले दान से दरिद्रता दूर करने के सामाजिक प्रयास होते थे। प्राचीन तीर्थस्थलों में दान से बनी धर्मशालायें, मंदिर तथा प्याऊ बने हुए हैं जो इसका प्रमाण जीर्णशीर्ण अवस्था में खड़े होकर देते हैं।  अब तीर्थस्थल पर्यटन का केंद्र बन गये हैं जहां व्यवसायिक निवासों का बोलबाला है। हमारे देश में पाश्चात्य पद्धति के विकास ने प्राचीन अध्यात्मिक भाव के प्रवाह को अवरुद्ध कर दिया है। आधृुनिक लोकतंत्र में गरीबों के उद्धार का नारा चाहे जितना  लोकप्रिय हो पर सच यह है कि जब तक धनी तथा मध्यम वर्ग दान प्रवृत्ति नहीं अपनायेगा तब समाज में आर्थिक सद्भाव का वातावरण नहीं बन सकता जो कि विकास का सबसे बड़ा प्रमाण होता है।
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Monday, May 11, 2015

मन की उष्मा का महत्व जानना जरूरी-हिन्दी चिंत्तन लेख(MAN KI USHMA KA MAHATVA SAMAJHNA JAROORI-HINDI THOUGHT ARTICLE)


मनुष्य का अगर शब्दिक अर्थ समझना चाहें तो यह मन तथा उष्मा का मेल लगता है।  इस संसार में जितने भी जीव है उनमें केवल मन की उष्मा हम जैसे जीवधारियों में अधिक है। अन्य जीवों मन की सीमा या उष्मा क्षीण होती है और इसलिये उनका जीवन सीमित क्षेत्र तक ही चलायमान रहता है जबकि मनुष्य का अपने मन के व्यापक तत्व के कारण चलने के साथ उड़ने तथा तैरने में सफल रहता है।
मन का विज्ञान आज तक कोई समझ नहीं पाया पर अध्ययन करें तो यह निष्कर्ष सामने आयेगा कि इस संसार मेंलोग दो तरह के होते हैं। एक तो वह जो मन के अनुसार अपनी देह को चलाते हैं दूसरे वह जो देह की आवश्यकता के अनुसार मन को चलाते हैं। दोनों में अंतर यह रहता है कि मन के अनुसार चलने वाले देह को थकाते हैं और देह के अनुसार चलने वाले मन को प्रसन्न करते हैं। देवराज इंद्र ने राजा हरिश्चंद्र के पुत्र को उपदेश देते हुए कहा था किसोने वाले नरक, उठकर बैठने वाले पाताल, खड़े होने वाले पृथ्वी और चलने वाले स्वर्ग भोगते हैं। अब यह तय करना चिंत्तन का विषय है कि हम अपने जीवन में आनंद भाव का प्रवाह किस तरीके से करना चाहते हैं? दूसरा यह भी कि हम जिस तरह के भाव में स्थित हैं उसके लिये स्वयं ही जिम्मेदार हैं न कि केाई अन्य!

आजकल विलासिता के साधन अधिक हो गये और लोग स्मार्टफोन, टीवी, तथा कंप्यूटर पर बैठकर अधिक से अधिक समय बिताने में मन लगाते हैं। नतीजा यह कि शरीर कम मन और मस्तिष्क अधिक थक जाता है। इससे अनेक प्रकार के मानसिक, दैहिक तथा वैचारिक विकार देह में घर कर जाते हैं। आज हम अपने देश में जो भ्रष्टाचार, अपराध तथा बीमारियों का बढ़ता प्रभाव देख रहे हैं वह उपभोग के प्रति मोह तथा फिर उससे उपजे विकारों के कारण है। एक तरह से यह कहें कि मनुष्य के मन की उष्णा उसे सोने की तरह निखारने की बजाय कोयले की तरह जलाये दे रही है।
यदि हम चाहते हैं कि हमारा जीवन सकारात्मक राह पर चले तो मन की उष्मा का सहज और सरल भाव से उपयोग करते हुए ज्ञान का प्रकाशदीप प्रज्जवलित करना चाहिये।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Friday, May 08, 2015

सजा और सहानुभूति के बीच द्वंद्व-हिन्दी चिंत्तन लेख(saja aur sahanubhuti ke beech dwandwa-hindi thought article)


एक फिल्म अभिनेता ने शराब पीकर गाड़ी चलाई जो फुटपाथ पर सो रहे चार लोगों का कुचल गयी। एक मरा बाकी तीन घायल हो गये। मुकदमा तेरह वर्ष चला और सजा पांच साल हुई। जमानत पांच घंटे में हो गयी। इस घटना में ऐसा कुछ नहंी है जिस पर अधिक लिखा जाये पर सामाजिक संदर्भों में इसका महत्व इसलिये अधिक है क्योंकि फिल्म तथा उसमें काम करने वाले अभिनेता और अभिनेत्रियों का समाज पर जो प्रभाव उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता।
सजा देने वाले न्यायालय और उसके न्यायाधीश इसी देश के हैं। जो अभिनेता की कार के नीचे दबे वह भी इसी देश के हैं। न्यायाधीशों ने संविधान के अनुसार निर्णय दिया जिसे हमारी संसद बनाती है। समस्या वहां से प्रारंभ हो गयी जहां उस अभिनेता को सजा होने पर पूरे फिल्म उद्योग के अन्य अभिनेता और अभिनेत्रियां रुदन करते नज़र आये। उसके घर सहानुभूति व्यक्त करने गये। इससे भी समस्या नहीं है पर जिस तरह उस अभिनेता के साथ हुई सहानुभूति सभाओं का प्रचार माध्यमों पर प्रचार हुआ उससे तो यह लगा कि जैसे सजा देने का निर्णय कोई प्राकृतिक प्रकोप है।  अभिनेता ने शराब पीकर गाड़ी चलाते हुए लोगों को कुचल डाला-यह न्यायालय ने मान लिया।  इस पर हमारे न्यायालयीन व्यवस्था की प्रशंसा होना चाहिये पर प्रचार के साथ सहानुभूति अभियान चल रहा है उस अभिनेता के लिये जिसे संविधान के अनुसार अपराधी माना गया। पर्दे पर जिस तरह खबरे चल रही हैं उससे तो लगता है कि सजा और सहानुभूति के बीच विज्ञापन का खेल भी चल रहा है।
हमें  अभिेनेता और उससे सहानुभूति रखने वालों से कोई शिकायत नहीं है। परेशान करे वाली बात यह है कि  कि फिल्म उद्योग में काम करने वाले अभिनेता और अभिनेत्रियों का समाज पर प्रभाव है और उनके व्यक्तिगत क्रिया कलापों में भी लोग रुचि लेते हैं।  इस प्रकरण में भारत की न्यायालयीन व्यवस्था की शुचिता और अभिनेता के गुणवान होने के प्रचार के बीच एक ऐसा द्वंद्व चलता दिख रहा है जो आश्चर्यचकित करता है।  ऐसा लगता है कि दोनों ही विषय दो प्रथक देशों से संबंधित हैं।  अभिनेता को सजा किसी दूसरे देश में हुई है और यहां  शेष अभिनेता अभिनेत्रियां अपने व्यवसायिक धर्म के निर्वाह के लिये उससे सहानुभूति इस आशय से जताने जा रहे हैं जैसे कि वह कोई  राष्ट्रीय कर्तव्य भी निभा रहे हों। इन अभिनेता और अभिनेत्रियों को शायद यह अनुमान नहीं है कि उनके इस कार्य से भारतीय जनमानस में उनकी सोच के विपरीत संदेश जा रहा है। संभव है कि कुछ नाखुश लोग के हृदय में इन नायक नायिका की भूमिका का अभिनय करने वालों की खलनायक और खलनायिक की छवि बन रही हो।
          एक बात तय रही है कि हमारे देश में फिल्म अभिनेता और अभिनेत्रियों तथा क्रिकेट खिलाड़ियों की जनमानस में जो छवि है उसका लाभ उनके व्यवसायिक स्वामी उठाते हैं जिनकी शक्ति बहुत व्यापक है। शायद यही कारण है कि अभिनेता अभिनेत्रियों के साथ क्रिकेट खिलाड़ियों में यह विश्वास बना रहता है कि उनके सामाजिक स्तर में कभी कमी नहीं आयेगी इसलिये वह सामान्य जनमानस के विचारों की परवाह न कर वह सब करते हैं जिसकी अपेक्षा कोई नहीं करता। बहरहाल हमने अनेक लोगों के विचार सुने और तब यह लेख लिखा। 
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Monday, May 04, 2015

मांसाहार से दया की प्रवृत्ति का ह्रास होता है-चाणक्य नीति के आधार पर चिंत्तन लेख(maansahar se daya ki privritti kam hotee hai(A Hindu hindi religion thought based on chankya neeti)

          अभी हाल ही में नेपाल में आये भूकंप में अनेक देशों ने सहायता की। सहानुभूति की वैश्विक धारा में सम्मिलत होने की बाध्यता के चलते पाकिस्तान ने भी अपनी सहायता भेजी।  उसने भोजन के रूप में मांस भेजा जो न केवल नेपाल में वर्जित है वरन् वहां के हिन्दू तथा बौद्ध धर्म मानने वालों के लिये अभक्ष्य है।  पाकिस्तान के रणनीतिकार इतने सीधे नहीं है कि उन्हें मालुम न हो कि नेपाल में  समुदाय वैचारिक रूप से उनके अनुकूल नहीं वरन् प्रतिकूल है।  एक तरह से उसने नेपाली समुदाय का आपदाकाल में अपमान करने के लिये यह सब किया। जब विरोध उठा तो उसने कहा कि वह हमने सहधर्मी लोगों की सहायता के लिये भेजा था। उसका यह वक्तव्य एक अपराध को छिपाने के लिये दूसरा अपराध करने की प्रवृत्ति का ही परिचायक है।
          वैश्विक संस्थाओं का नियम है कि वह धर्म तथा क्षेत्र के विचारों से ऊपर उठकर आपदाकाल में सहायता करती हैं। पाकिस्तान और उसके सहधर्मी राष्ट्र अपने से इतर धार्मिक विचाराधाराओं के प्रति असहिष्णुता का जिस तरह भाव रखते हैं वह छिपाने के बावजूद कभी कभी सामने आ ही जाता है। पाकिस्तान ने नेपाल में सहायता के रूप में मांस अपनी विचारधारा के अनुसार ही भेजा और उसका लक्ष्य यह साबित करना ही था कि वह अपने धर्म का पालन कर रहा है-मदद के साथ मांस भेजकर दोनों ही लक्ष्य पूरे किये।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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न दुर्जनः साधुदशामुपैति बहुप्रकारैरपि शिक्ष्यमाणः।
आसिक्तः पयास घृतेन न निम्बवुक्षो मधुरत्वमेति।।
          हिन्दी में भावार्थ-दुष्ट व्यक्ति समझाये जाने पर भी अपनी आदत नहीं छोड़ता। उसी प्रकार जिस तरह दूध और घी से सींचे जाने पर भी नीम का वृक्ष मधुरता को नहीं छोड़ता।
गृह्याऽसक्तस्य नो विद्या नो दया मासंभोजिन।
द्रव्यलुब्धस्य नो सत्यं स्त्रेणस्य न पवित्रता।।
          हिन्दी में भावार्थ-गृहस्थी में आसक्त में ज्ञान विद्या, मांस खाने में दया, द्रव्य लोभी में सत्य और विलासी में पवित्रता कभी हो ही नहीं सकती।
         
          इस मामले में गलती नेपाल के रणनीतिकारों की है जो उन्होंने अपने चहेते चीन के मित्र पाकिस्तान की मदद स्वीकार की। भारत हिन्दू बाहुल्य नेपालियों का सबसे निकटस्थ तथा स्वाभाविक मित्र है पर पिछले कुछ समय से वहां के रणनीतिकार भारत से परे रहकर चीन को खुश रखना चाहते थे। चीन और पाकिस्तान मिलकर भारत के विरुद्ध कार्य करते हैं-हालांकि यह हैरानी की बात है कि बौद्ध बाहुल्य चीन धार्मिक दृष्टि से भारत का स्वाभाविक मित्र होना चाहिये जनवादी विचारधारा के चलते वहां के रणनीतिकार तथा विद्वान कभी इसे स्वीकार नहीं करते। यही कारण है कि चीन का आसरा लेकर पाकिस्तान इस क्षेत्र में अपनी धार्मिक विचाराधारा के प्रति अहंकार का भाव दिखाता है। चीन स्वयं पाकिस्तान के सहधर्मी अपने नागरिकों के असंतोष से जूझ रहा है। यह माना जाता है कि उनके विद्रोह के तार पाकिस्तान से ही जुड़े हैं। इसके बावजूद चीन और नेपाल पाकिस्तान पर भरोसा करते हैं। जबकि सच यह है कि पाकिस्तान पश्चिम का ही सगा है और पूर्वी राष्ट्र और विचाराधारा उसे अपने शत्रु लगते हैं। उसके इस भाव में सुधार की भी कोई संभावना नहीं लगती। इसलिये सभी को सतर्क रहना चाहिये।
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