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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Saturday, January 24, 2015

जहां मान है वही रहती अपमान की आशंका-पतंजलि योग सूत्र के आधार पर चिंत्तन लेख(jahan maan hai vahin rahti hai apaman ki aashanka-A Hindu Hindi religion thoughta based on thought article)



            मनुष्य में यह सामान्य प्रवृत्ति रहती है कि वह अपने परिवार, समाज तथा अन्य वर्ग से सम्मान पाना चाहता है। पूज्यता मिलने पर वह न केवल प्रसन्न होता है वरन् उसके मद में डूबकर विचित्र व्यवहार भी करने लगता है।  उसे देश, काल तथा भाग्य के परिवर्तित होने का आभास और अनुमान तक नहीं हो पाता।  कालांतर में जब उसे सम्मान नहीं मिलता तो वह मानसिक संताप का शिकार हो जाता है।  अगर हम योग सिद्धांतों को समझें तो जहां मान है वहीं अपमान, जहां विश्वास है वहीं घात  और जहां वचन है वहीं निराशा की आशंका रहती है।  श्रीमद्भागवत गीता में इसलिये ही सांसरिक विषयों के प्रति निष्काम भाव अपनाने का संदेश दिया है। निष्काम भाव से काम करने पर अनुकूल परिणाम न मिलने पर निराशा नहीं होती वरन् यह संतोष रहता है कि हमने अपना काम पूरे परिश्रम से किया।
पतंजलि योग में कहा गया है कि
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स्थान्युपनिमन्त्रणे सङ्स्मयाकरणे पुनरिष्टप्रसङ्गात्।
            हिन्दी में भावार्थ-संपन्न व्यक्ति से सम्मान मिलने पर प्रसन्न नहीं होना चाहिये क्योंकि उससे अपमानित होने का भय भी उपस्थित रहता है।

            योग साधना के समय आसन तथा प्राणायाम के दौरान साधक ऊपर-नीचे, दायें-बायें तथा सामने-पीछे की तरफ अंगों को घुमाने के साथ ही प्राण भी उसी क्रम में स्थापित करता है। इस तरह के अभ्यास करते करते उसके अंदर यह ज्ञान सहजता से आ जाता है कि किसी कर्म का प्रतिकर्म भी हो सकता है।  उसी तरह वह किसी के व्यवहार से निराश भी नहीं होता क्योंकि वह जानता है कि दुष्कर्म करने वाला  मनुष्य कभी  सद्कर्म की तरफ भी प्रेरित हो ही जाता है।  इस तरह का ज्ञान होने पर मनुष्य का जीवन सहज हो जाता है।  उसे सांसरिक विषयों की चिंता परेशान नहीं करती क्योंकि वह जानता है कि उसकी समस्यायें समय आने पर स्वतः ही दूर हो जायेंगी।

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Sunday, January 18, 2015

विभिन्न मतों के द्वंद्वों से दूर रहकर ही शांति प्राप्त करना संभव-अष्टावक्र गीता के आधार पर चिंत्तन लेख(vibhinna maton ke dwandwa se door rahakar hee shandi prapat karna sambhav-a Hindu hindi religion thought based on ashtawakra geeta)



            ऐसा लगता है कि भारत में कुछ कथित प्रतिष्ठित और प्रतिष्ठित धार्मिक ठेकेदारों ने  तय कर लिया है कि वह अपनी अज्ञान पूर्ण वाणी से हिन्दू धर्म के विषय को हास्य सामग्री बनाये बिना मानेंगे नहीं।  कोई भारतीय नारियों को चार तो कोई दस बच्चे पैदा करने का उपदेश दे रहा है।  उनकी दृष्टि एक तरह से हर भारतीय हिन्दू नारी बच्चे उत्पादिन करने वाली एक जीवित मशीन है-हम जैसे अध्यात्मिक योग तथा ज्ञान साधक को यह देखकर हैरानी होती है कि तत्व ज्ञान रखने का दावा करने वाले यह लोग भारतीय समाज को मूर्ख बताकर अपनी अंधबुद्धि का ही प्रदर्शन कर रहे हैं।
            हमारे भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में दृश्यव्य मनुष्य, प्रकृति तथा उनके मूल व्यवहार के सिद्धांतों के साथ ही अदृश्यव्य परमात्मा की चर्चा भी व्यापक रूप से की गयी है। मूल रूप से यह माना गया है कि तत्व ज्ञानी ही सुख की अधिकारी है क्योंकि वह विषयों में निर्लिप्त भाव से सीमित  अपनी इंद्रियों का सीमित संपर्क स्थापित करता है।  अपना कार्य पूर्ण होने पर वह अपना संपर्क समाप्त कर देता है।  ऐसे में यह कथित गेरुए वस्त्रधारी जब तामसी प्रवृत्ति धारण कर समाज की ठेकेदारी करते हैं तो यह चिंता होती है कि तत्व ज्ञान की वजह से हमारा देश पूरे विश्व में  जाना जाता है, कहीं इन लोगों की वजह से यहां की संस्कृति हास्य व्यंग्य का विषय न बन जाये।
अष्टावक्र गीता में कहा गया है कि
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नाना मतं महर्षीणां साधूनां योगिनां तथा।
दृष्टवा निर्वेदमापन्न को न शाम्यति।।
            हिन्दी में भावार्थ-महर्षियों, साधुओ और योगियों के अनेक मत होते हैं। इन मतों के  द्वंद्वों से दूर रहने वाला कौन व्यक्ति है जो शांति को प्राप्त नहीं होता।
            यह सही है कि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में योगी, सात्विक, राजसी तथा तामसी प्रवृत्तियों के मनुष्यों की उपस्थिति स्वीकार की  गयी है पर सबसे अधिक शक्तिशाली ज्ञान योगियों को माना गया है। वह समाज के बृहद आकार करने की चिंता की बजाय उसे ज्ञान से शक्तिशाली बनाने का प्रयास करते हैं।  ज्ञान का फल सुख और शंाति है।  कथित गेरुए वस्त्रधारी स्वयंभू को सन्यासी लोगों में राजसी और तामसी भाव बढ़ाने वाली प्रेरणा देते हैं।
दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
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Tuesday, January 13, 2015

साधक ज्ञान के पर्वत पर चढ़कर अज्ञानियों पर हंसता है-हिन्दी चिंत्तन लेख(sadhak gyan ke parvat par chadhkar agyaniyon ko hansta hai-hindi chinntan article)



            इस संसार में योग सभी कर रहे हैं-कोई स्वेच्छा से सहज योग में तल्लीन है  तो कोई परवश असहज योग में फंसा है। आम तौर से योग साधक और सामान्य जन में अंतर नहीं दिखता पर तत्वज्ञान होने पर इसका आभास स्वाभाविक रूप से होता है।  नित्य प्रतिदिन योग साधक अपने अभ्यास से जैसे जैसे प्रवीण होते हैं उन्हें लगने लगता है कि उनके सपंर्क में आने वाले लोग उनकी अपेक्षा कुछ भिन्न हैं।  कभी कभी योग साधकों को अपने अंदर सहजता का भाव यह विचार उत्पन्न होने सताने लगता है कि उनके मस्तिष्क में सांसरिक विषयों के प्रति वैसी रुचि नहीं है जैसे सामान्यजनों में प्रकट दिखती है।
            इसलिये योग साधकों को श्रीमद्भागवत गीता का भी अध्ययन कर तत्वज्ञान प्राप्त करना चाहिये।  मनुष्य देह त्रिगुणात्मक माया के बंधन में है।  इस देह में स्थित बुद्धि और मन बाह्य विषयों से प्रभावित होकर कार्य करती है।  इसलिये देह स्वामी बाह्य विषयों, वस्तुओं और व्यक्तियों से अपने स्वार्थ भाव होने से बाध्य होकर जुड़ता है।  यह असहज योग की स्थिति है जो प्रारंभ में उसे अमृत तुल्य लगती है मगर कालंातर में उसका प्रभाव विषैला ही रहता है।  इसके विपरीत योग साधक अभ्यास करते हुए बौद्धिक प्रवीणता होने पर बाह्य विषयों के उचित अनुचित का भेद करने के बाद  अपनी सामान्य आवश्यकता पूर्ति होने तक ही उनसे जुड़कर अपना काम निकलने के  बाद में विरक्त हो जाता है। योग साधक  किसी एक वस्तु, विषय और व्यक्ति से जुड़कर अपना संपूर्ण जीवन दाव पर नहीं लगाता।

पतंजलि योग सूत्र में कहा गया है

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निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसाद।



            हिन्दी में भावार्थ- विचार के अभाव रखने की प्रवीणता अध्यात्म का प्रसाद होता है।

महर्षि वेदव्यास कहते हैं कि

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प्रज्ञाप्रासादमारुह्यशोच्यः शोचतो जनान्।

भूमिष्ठानिव शैलस्थः सर्वान् प्राज्ञोऽनुपश्यति।।

            हिन्दी में भावार्थ-ज्ञान के प्रसाद पर चढ़कर विषयों में आसक्ति से रहित विद्वान सांसरिक विषयों में कष्ट भोग रहे सामान्य जनों को ऐसे ही देखता है जैसे पहाड़ पर चढ़ने वाला नीचे चल रहे लोगों को देखता है।

            जैसे जैसे योग साधक अभ्यास करता है वैसे वैसे उसे सामान्य जनों के अनेक कार्य अज्ञान से किये गये लगते हैं। योगाभ्यास और अध्ययन से जुड़ने पर मनुष्य को ज्ञान रूपी जो प्रसाद मिलता है वह अनुपम हैं।  उसके अंतर्चक्षु इस तरह खुल जाते हैं कि उसे अच्छे और बुरे की पहचान करने में अधिक समय नष्ट नहीं करना पड़ता।  किसी कार्य के परिणाम का वह पहले ही अनुमान कर लेता है न कि फल के अच्छे होने की कामना लेकर जीवन के युद्ध में बिना किसी योजना के उतरकर कष्ट उठाता है। इतना ही नहीं वह अंधेरे में तीर चलाने वालों को देखकर हंसता भी है। हम आजकल समाज में मानसिक, शारीरिक तथा वैचारिक दृष्टि से विकारों से युक्त लोगों की बढ़ती संख्या देखकर यह अनुमान कर सकते हैं कि लोगों ने मन बुद्धि और विचार भौतिकवाद के पास गिरवी रख दिये हैं।  वह बाहर से सुख अंदर आने की कामना करते हैं जबकि ज्ञानी जानते हैं सुख एक अनुभूति है जिसे हाथ से पकड़ा नहीं जा सकता।


दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Thursday, January 08, 2015

आस्था के नाम पर धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध अभियान को पूर्ण स्वतंत्रता होना चाहिये-हिन्दी चिंत्तन लेख(astha ke naam par dharmik kattarta ke viruddh abhiyan ko poorn swatantrata hona chahiye-hindi thought article)





            फ्रांस में शार्ली हेब्दो पत्रिका पर हमले से मध्य एशिया के उन्मादी समूहों को बरसों तक प्रचारात्मक ऊर्जा मिलेगी।  पहले यह ऊर्जा सलमान रुशदी की पुस्तक के बाद उन पर ईरान के एक धार्मिक नेता खुमैनी के फतवे से मिली थी।  इसके बाद मध्य एशिया का धार्मिक उन्माद बढ़ता ही गया।  वह धार्मिक नेता बरसों तक अमेरिका में रहा और उसी ने ही ईरान की राजशाही के बाद धार्मिक ठेकेदार होने के साथ ही वहां के शासन को भी अपने हाथ में ले लिया। प्रत्यक्ष अमेरिका का खुमैनी से कोई संबंध नहीं दिखता था मगर उसके नेतृत्व में उस समय ईरान में राजशाही के विरुद्ध चल रहे लोकतात्रिक आंदोलन से उसकी सहमति थी। राजशाही के पतन के बाद वहां खुमैनी के धार्मिक नेतृत्व में बनी सरकार कट्टरपंथी ही थी। दिखाने के लिये अमेरिका ने ईरान में लोकतंत्र स्थापित किया पर सच यह है कि वहां एक उस व्यक्ति को सत्ता मिली जो बाद में उसका   दुश्मन बना।
            धार्मिक उन्मादी प्रचार के भूखे होते हैं।  जिस तरह चार्ली हेब्दों के कार्टूनिस्टों की हत्या हुई है वह मध्य एशिया के धर्म की ताकत बनाये रखने के लिये की गयी है जो केवल प्रचार से मिलती है।     इस धार्मिक उन्माद का सामना करने के लिये पूरे विश्व में धार्मिक आस्था और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक ही रूप रखना चाहिये।  यह नहीं हो सकता कि एक देश में आस्था के नाम पर किसी धर्म पर कटाक्ष अपराध तो किसी में एक सामान्य प्रक्रिया मानना चाहिये।  हमारे देश में स्थिति यह है कि भारतीय धर्मोंे पर आक्रमण तो एक सामान्य प्रक्रिया और दूसरे धर्म पर कटाक्ष अपराध मानने की प्रचारजीवियों की प्रवृत्ति हो गयी है।  समस्या यह है कि भारतीय धर्म के ठेकेदार भी कर्मकांडों के ही संरक्षक होते हैं और अध्यात्मिक ज्ञान को एक फालतू विषय मानते हैं।  अध्यात्मिक ज्ञानी अंतर्मुखी होते हैं इसलिये कटाक्ष की परवाह नहीं करते कर्मकांडियों बहिर्मुखी होने के कारण चिंत्तन प्रक्रिया से पर होते इसलिये कटाक्ष सहन नहीं कर पाते।  हमारा तो यह मानना है कि विदेशी विचाराधाराओं के मूल तत्वों पर कसकर टिप्पणी हो सकती है और सहज मानव जीवन के लिये  भारतीय अध्यात्मिक विचाराधारा पर चलने के अलावा कोई विकल्प हो ही नहीं सकता, पर यह ऐसी सोच संकीर्ण मानसिकता की मानी जाती है।  हम इस पर बहस कर सकते हैं और कोई कटाक्ष करे तो उसका शाब्दिक प्रतिरोध भी हो सकता है पर कर्मकांडी किसी कटाक्ष को सहन नहीं करना चाहते। वह बहस में किसी अध्यात्मिक ज्ञानी का नेतृत्व स्वीकार नहीं कर सकते। इसलिये चिल्लाते हैं ताकि शोर हो जिससे वह प्रचार प्रचार पायें।
            फ्रांस की चार्ली हेब्दो पत्रिका पर हमले को सामान्य समझना उसी तरह भूल होगी जैसे सलमान रुशदी की किताब पर ईरान के धार्मिक तानाशाह खुमैनी के उनके खिलाफ मौत की फतवे को मानकर की गयी थी। शिया बाहुल्य होने के कारण ईरान के वर्तमान शासक  मध्य एशिया में प्रभावी गुट के विरोधी हैं पर वह इस हत्याकांड की निंदा नहीं करेंगे क्योंकि कथित धार्मिक आस्था पर आक्रमण पर स्वयं ही हिंसक कार्यवाहियों के समर्थक हैं।  कहने का अभिप्राय यह है कि इस विषय पर मध्य एशिया की विचारधारा पर बने सभी समूह वैचारिक रूप से एक धरातल पर खड़ मिलेंगे।
            इनका प्रतिकार वैचारिक आक्रमण से किया जा सकता है पर अलग अलग देशों  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नियमों में विविधिता है। जहां आस्था के नाम पर छूट है वहां बहस की गुंजायश कम रह जाती है। इसलिये फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देशों के बुद्धिमान सीधे धार्मिक अंधवश्विास पर आक्रमण करते हैं जबकि एशियाई देशों में  दबी जुबान से यह काम होता है। भारत में तो यह संभव ही नहीं है।  आज भी हमारे देश के बुद्धिजीवी दिवंगत कार्टूनिस्टों की मौत पर सामान्य शोक जरूर जता रहे हैं पर अपने यहां आस्था के नाम पर अभिव्यक्ति की आजादी सीमित रखने का विरोध नहीं कर रहे। शायद उनके लियं यहां भारतीय धर्मों में ही दोष हैं जिन पर गाह बगाहे वह हंसते ही हैं।  कट्टर धार्मिक विचाराधाराओं के विरुद्ध वैचारिक अभियान में पश्चिमी देशों का अनुसरण हमारे देश के बुद्धिजीवी करना ही नहीं चाहते। संभवत भारतीय प्रचार माध्यम सनसनी के सतही आर्थिक लाभ से संतुष्ट हैं और चाहते हैं कि यहां वैचारिक जड़ता बनी रहे।
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Thursday, January 01, 2015

ईसवी संवत् 2015 प्रारंभ होने पर विशेष हिन्दी चिंत्तन लेख(special hindi hindu thought article on new year 2015)



            1 जनवरी 2015 से नया ईसवी संवत या अंग्रेजी वर्ष प्रारंभ हो रहा है। हालांकि हमारे यहां कैलेंडर इसी अंग्रेजी वर्ष के आधार पर ही छपते हैं पर इन्हीं कैलेंडरों में ही भारतीय संवत् की तारीखें भी सहायक बनकर उपस्थित रहती हैं।  दूसरी बात यह है कि हमारे यहां भारतीय संवत् अनेक भाषाई, जातीय तथा क्षेत्रीय समाज अलग अलग तरीके से मनाते हैं इससे ऐसा लगता है कि इसे मानने वालों की संख्या कम है पर इतना तय है कि भारतीय संवत् ने अभी अपना महत्व खोया नहीं है। फिर हमारे यहां नवधनाढ्य, नवप्रतिष्ठित तथा नवशिक्षित लोगों को समाज से अलग दिखने की प्रवृत्ति होती है-इसे हम नवअभिजात्य वर्ग भी कह सकते हैं। हमारे यहां अंग्रेज चले गये पर अपने प्रशंसक छोड़ गये जिनकी पीढ़ियां नव संस्कार का बोझा ढो रही है।  नये पुराने का अंतद्वंद्व हमारे जैसे अध्यात्मिक चिंत्तकों के लिये व्यंग्य का सृजक बन गया है।  हिन्दी भाषा के वाहक समाचार पत्र तथा टीवी चैनल को अब केवल अपनी भाषा की क्रियायें ही उपयोग करते है जिस कारण उसे  संज्ञा और सर्वनाम के लिये वह बिना झिझक अंग्रेजी करने में जरा भी शर्म नहीं होती। नवअभिजात्य वर्ग को प्रसन्न रखने से ही उनका व्यवसायिक उद्देश्य पूरा होता है।
            हमारे देश में भौतिकता के बढ़ते प्रभाव के कारण एक ऐसे नवअभिजात्य समाज का निर्माण हुआ है जिसके लिये संस्कार, आस्था और धर्म शब्द नारे भर हैं।  अंतर्मुखी चिंत्तन की प्रक्रिया से दूर बाह्य आकर्षण के जाल में फंसे इस नये समाज को वस्तु, व्यक्ति तथा विषय में परिवर्तित रूप से संपर्क की चाहत प्रबल रहती है।  वह इस संपर्क के संभावित प्रभाव का अनुमान किये बिना ही अनुसंधान करने की क्रिया को को जीवन का आधार मानता है।
            31 दिसम्बर की रात्रि को नववर्ष के आगमन में मौज मस्ती की थकावट के बाद 1 जनवरी को प्रातः का उगता सूरज देखना सभी के लिये सहज नहीं है।  31 दिसम्बर की रात्रि के दौरान ही 12 बजे नया वर्ष आता है।  यह उस घड़ी से प्रकट होता है जो अंग्रेजों की ही देन है।  यह अच्छी देन है पर उसमें रात्रि 12 बजे तारीख बदलने की बात स्वीकार करना अंग्रेजी सभ्यता की पहचान है।  भारतीय कैलेंडर की तारीख प्रातः तीन बजे बदलती है-ऐसा एक विद्वान ने बताया था। हमारे देश में ग्रामीण पृष्ठभूमि में पले लोग आज भी तीन बजे ही नींद से उठते हैं।  उनका नींद से उठना ही तारीख बदलना है।  जब जागे तभी सवेरा!  जागे तो फिर सोते नहीं काम पर चलना होता है।  अंग्रेजी वर्ष मनाने वाले जागते हुए दिन बदलते हैं और फिर सो जाते हैं।  सुबह लाने वाला सूरज उन्हें नहीं निहारता।
            हमारे देश में संस्कार किसी एक नियम पुस्तक से नहीं चलते। नियमों का कोई दबाव नहीं है।  व्यक्ति के पास अनेक विकल्प हैं।  वह कोई भी विकल्प चुन सकता है। अपने कर्म से वह कितनी भौतिक सफलता प्राप्त करता है यह चर्चा का विषय हो सकता है पर किसी के लिये आदर्श नहीं बन सकता।  आदर्श वह बनता है जो दूसरों को भी सफलता के लिये प्रेरित करे। दूसरों की सफलता पर भी हार्दिक रूप से प्रसन्न प्रकट करे। नवअभिजात्य वर्ग के लिये केवल अपनी सफलता और उसका प्रचार ही एक ध्येय बन गया है।  अब समाज कथित रूप से  अभिजात्य और पिछड़ा दो वर्गों में दिखता है।  सुविधा के लिये हम कह सकते हैं कि एक गाड़ी के दो पहिये हैं पर सच यह है कि दोनों के बीच विरोधाभास है।  कथित अभिजात्य वर्ग धन, पद और प्रतिष्ठा के मद में मदांध होकर शेष समाज को पिछड़ा मानता है। पिछड़ा उसकी इस दृष्टि से अपने अंदर घृणा का भाव पाले रहता है। यह द्वंद्व हमेशा रहा है पर नव संस्कृति के प्रभाव ने उसे अधिक बढ़ा दिया है। यही कारण है कि जहां  सभी जगह अभिजात्य स्थानों पर नव वर्ष की बधाई का दौर चलता है वहीं उनसे परे होकर रहने वालों के लिये एक दिन के आने और जाने से अधिक इसका महत्व नहीं होता।  हमारे देश में ऐसे ही लोगो की संख्या ज्यादा है। तब एक देश में दो देश या एक समाज में दो समाज के बीच का विभाजन साफ दिखाई देता है।
प्रस्तुत है इस अवसर पर एक कविता
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शराब पीते नहीं
मांस खाना आया नहीं
वह अंग्रेजी नये वर्ष का
स्वागत कहां कर पाते हैं।

भारतीय नव संवत् के
आगमन पर पकवान खाकर
प्रसन्न मन होता है
मजेदार मौसम का
आनंद भी उठाते हैं।

कहें दीपक बापू विकास के मद में,
पैसे के बड़े कद में,
ताकत के ऊंचे पद मे
जिनकी आंखें मायावी प्रवाह से
 बहक जाती हैं,
सुबह उगता सूरज
देखते से होते वंचित
रात के अंधेरे को खाती
कृत्रिम रौशनी उनको बहुत भाती है,
प्राचीन पर्वों से
जिनका मन अभी भरा नहीं है,
मस्तिष्क में स्वदेशी का
सपना अभी मरा नहीं है,
अंग्रेजी के नशे से
वही बचकर खड़े रह पाते हैं।
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