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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Thursday, December 25, 2014

उत्तम राज्य प्रबंध से ही धर्म की रक्षा संभव-सुशासन पर विशेष हिन्दी लेख(uttam rajya prabandh se hi raksha sambhav-special hindi article on sushasan diwas,good governes for people




            आज 25 दिसम्बर 2014 श्री अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म दिन सुशासन दिवस में रूप में मनाया जा रहा है। हमारे देश में आज राज्य व्यवस्थाओं में राम राज्य की कल्पना के साकार प्रकट होने की अपेक्षा की जाती है। यह तो पता नहीं कि हमारे देश के धाार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक विषयों के विशेषज्ञ सुशासन के स्वरूप और महत्व से क्या आशय लेते हैं, पर हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार शासन की व्यवस्था ही सतयुग और कलियुग की स्थिति  परिभाषित करती है।  हमारे महान विद्वान चाणक्य जी का कहना है कि राज्य के अच्छे बुरे प्रबंध से  ही प्रजा में सतयुग और कलियुग का भाव निर्मित होता है। हमारा देश बौद्धिक रूप से तत्वज्ञान के भंडार की वजह से विश्व का अध्यात्मिक गुरु माना जाता है और उसके अनुसार भी मनुष्य की दैनिक आवश्यकतायें भी कम महत्वपूर्ण नहीं होती इसलिये राजधर्म में स्थित लोगोें  यह दायित्व होता है कि वह प्रजा के प्रति हमेशा सजग रहें।  हमारे यहां धर्म से आशय अच्छे व्यवहार तथा अपने कर्म का निर्वाह करने से ही है।
            हमारे यहां भगवान विष्णु के अनेक अवतार माने जाते हैं उनमें भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण की चर्चा सबसे अधिक होती है।  इसका कारण यह है कि उन्होंने न केवल अध्यात्मिक रूप से समाज को संदेश दिया वरन् सांसरिक विषयों मेें भी नैतिक सिद्धांतों से कार्य करने की प्रेरणा दी।  दोनों ने ही राजधर्म का निर्वाह किया। भगवान विष्णु भी पालनहार होने की वजह से भारतीय समाज में सक्रिय इष्ट का सम्मान पाते हैं।  कहने का अभिप्राय यह है कि हमारा अध्यात्मिक दर्शन केवल भगवान की आराधना के लिये ही प्रेरित नहीं करता वरन् सांसरिक विषयों में भी सिद्धांतों के पालन की बात कहता है।  हमारे यहां कर्म ही धर्म माना जाता है। यही कारण है कि राज धर्म का महत्व अत्यंत बढ़ जाता है।
            हमारे यहां अभी धर्मांतरण पर बहस चल रही है।  एक प्रश्न आता है कि हमारे यहां इतने लोग धर्मांतरण क्यों कर गये? इतिहास बताता है कि मध्य युग में हमारे यहां के राजा अपने कर्तव्य से विमुख हो गये। उनके परस्पर संबंध कटु रहे।  प्रजा के प्रति उनके असंतोष का परिणाम ही रहा है कि लोग विदेशी शासकों के प्रति भी सद्भावना दिखाते रहे। हमने देखा होगा कि अनेक पुराने लोग आज भी कहते हैं कि अंग्रेजों का राज्य आज की अपेक्षा अच्छा था।  हमारे यहां विदेशी विचाराधारा और शासन के प्रति यह मोह अपने राज्य प्रबंधकों के कुशासन से उत्पन्न निराशा की वजह से विद्रोह के रूप में परिवर्तित होता रहा।  यह विद्रोह की प्रवृत्ति इतनी रही कि राज्य प्रबंधक के इष्ट और पूजा पद्धति से प्रथक जाकर समाज में अलग पहचान दिखने की प्रेरक बन गयी।
            अध्यात्मिक ज्ञान के अभ्यास से हमारी समझ तो यह बनी है कि संसार में जितने भी कथित संज्ञाधारी धर्म बने हैं वह राज्य के प्रेरणा से बने हैं।  दरअसल ऐसे संज्ञाधारी धर्म भ्रम फैलाने के लिये ही प्रकट किये गये हैं ताकि पूजा पद्धति के माध्यम से लोगों में आपसी संघर्ष कराकर राज्य प्रबंध की नाकामियों से उनका ध्यान हटाया जाये।  हमारे देश में धर्म से आशय कर्म तथा व्यवहार से है। किसी भी प्राचीन ग्रंथ में धर्म का कोई नाम नहीं है।  अच्छा राजा भगवान का दूसरा  रूप माना गया है। इसके विपरीत विदेशी विचारधाराओं के शीर्ष पुरुषं पूजा पद्धतियों से नये लोग जोड़कर अपने समाज को यह जताते रहे है कि वह अपने कथित धर्म को ही श्रेष्ठ माने। यही कारण है कि आज विदेशों में धर्म के नाम पर संघर्ष आज भी जारी है।
            हमारे यहां राजधर्म बृहद धर्म का ही एक उपभाग माना जाता है।  राजधर्म में स्थित लोग अगर अपने कर्म का निर्वाह उचित रूप से करें तो प्रजा में उनकी छवि अच्छी बन सकती है।  धर्म की रक्षा में मध्यम वर्ग की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है पर हम देख रहे हैं कि वह अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष कर रहा है। धनिक वर्ग अपनी प्रभुता के मोह तथा अहकार में तल्लीन है।  निम्म वर्ग के लिये भी हर पल संकट मुंह बायें रहता है। हमारा मानना है कि हमारे यहां इस समय संकट इसलिये अधिक क्योंकि समाज को स्थिर रखने वाला मध्यम वर्ग स्वयं ही अस्थिर हो गया है।  हमारा यह भी मानना है कि राज्य प्रबंध सुशासन का रूप ले तो हमारे देश में विदेशी विचारधाराओं के साथ उनके प्रवाह के लिये लालायित लोगों का प्रभाव स्वतः कम हो जायेगा तब किसी अन्य प्रयास की आवश्यकता नहीं होगी। अगर इस प्रयास में कमी रहेगी तो बाकी अन्य प्रयास न केवल विवाद खड़े करेंगे बल्कि मजाक भी बनेगा।
            माननीय श्री अटल बिहारी वाजपेयी को उनके जन्म दिन पर बधाई।
)
दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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Saturday, December 20, 2014

दूसरे को सुधारने की बजाय स्वयं सुधरें-चाणक्य नीति के आधार पर चिंत्तन लेख(doosron ko sudharne ki bajay swayan sudhren-A Hindu hindi religion article)



            जब राज्य समाज या धार्मिक विषय पर नियंत्रण करता है तब क्या स्थिति होती है यह अब विश्व में व्याप्त आतंकवाद के रूप में देख सकते हैं।  विश्व में राज्य कर्म का निर्वाह करने वालों में सामर्थ्य का अभाव होता है और वह अपना पद बचाये रखने के लिये लोगों को धर्म के आधार पर नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं।  अनेक स्थानों पर आधुनिक  राज्य व्यवस्थाओं में अपात्रों का प्रवेश हो गया है। धन, बल और चतुराई से राजपद पाने वालों को राजनीति के जनहित सिद्धांत का ज्ञान ही नहीं होता। इस विश्व के 180 देशों में साठ से अधिक देश धर्म आधारित होने का दावा करते हैं और इन्हीं देशों में हिंसक वातावरण बना हुआ है। इन देशों में धर्म के नाम पर जो ध्ंाधा चल रहा है उससे पूरा विश्व आतंकवाद की चपेट में है। इनकी विचारधारा की दृष्टि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन मूर्तिपूजा समर्थक है इसलिये अवांछनीय है जबकि इन्हीं देशों में सर्वशक्तिमान के नाम पर सबसे अधिक पाखंड है।
            हमारे देश में भारतीय समाज में अनेक विरोधाभास है पर भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के प्रभाव के चलते यहां हिंसक द्वंद्व अधिक नहीं होते। हमारे भारतीय धर्म की रक्षा का दावा अनेक  लोग तथा उनके समूह करते हैं पर सत्य यह है कि वह भारत में व्याप्त भ्रमों के निवारण का प्रयास नहीं करते। अक्सर कहा जाता है कि भारत में दूसरे देशों की जनता से अधिक सोना है।  यह हैरानी की बात है कि कथित बहुमूल्य धातुऐं भी पत्थर समान है यह बात कोई नहीं समझता।  प्रकृति ने हमें अन्य देशों की अपेक्षा अधिक संपन्न बनाया है पर उसके जल और अन्न को मूल्यवान मानने की बजाय सोना और हीरा पर  अपना हृदय न्यौछावर करते हैं।  विवाह और शोक के अवसर पर धन खर्च कर कथित सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने का ऐसा प्रयास करते हैं जिसका कोई तार्किक आधार नहीं होता।
चाणक्य नीति में कहा गया है
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पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्।
मूढैं: पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते।।
            हिन्दी में भावार्थ-इस धरती पर जल, अन्न और मधुर वचन यह तीन प्रकार के ही रत्न हैं मूर्ख लोग पत्थरों को रत्न कहते हैं।
            हमारे यहां जाति के आधार पर बहुत वैमनस्य रहा है।  यही कारण है कि हमारे यहां विदेशी धार्मिक विचाराधाराओं ने पदार्पण किया।  यहां अल्प धनिक, श्रमिक तथा निम्न वर्ण के लोगों को अपमानित करने की भयंकर प्रवृत्ति है। दूसरे के  दोषों पर कठाक्ष कर अपनी योग्यता प्रमाणित करने का प्रयास सभी करते हैं पर किसी की प्रशंसा करने का मन किसी का नहीं करता। हमारा मानना तो यह है कि  विदेशी धार्मिक विचाराधारा के धारकों  पर टिप्पणियां करने या उनमें सद्भाव पैदा करने के प्रयासों से अच्छा है भारतीय अध्यात्मिक दर्शन पर चलने वाले समाजों में मानसिक शक्ति का प्रवाह करें।  हम दूसरे को सुधारने की बजाय स्वयं दृढ़ पथ का अनुसरण करें।  यह पथ उपभोग के शिखर पर पहुंचकर पताका फहराने वाला नहीं वरन् त्याग का है।  जहां विदेशी धार्मिक विचाराधारायें मनुष्य, प्रकृत्ति तथा अध्यात्मिक ज्ञान से परे हैं वहीं हमारा दर्शन तत्वज्ञान का ऐसा भंडार है जिसे कोई प्राप्त कर ले तो उसका जीवन धन्य हो जाये।  विदेशी विचाराधाराऐं मनुष्य की पहचान एक छतरी के नीचे दिखाना चाहती हैं पर प्रकृति तथा जीव विज्ञान विविधताओं के आधार पर सृष्टि की जानकारी देता है।  हर जीवन का स्वभाव, रहन सहन तथा आचार विचार धरती पर  अलग अलग समय पर सक्रिय भिन्न भिन्न तत्वों से संपर्क होने से बदलता रहता है। सभी मनुष्य एक जैसे  नहीं हो सकते और सभी समय एक जैसे भी नहीं हो सकते।
            अतः जहां तक हो सके देश के साधु, संतो, बुद्धिमानो तथा समाज सुधारक अपने समाज में ज्ञान चक्षु खोलने का काम करें।  यही सच्चा धर्म ज्ञानियों का है।


दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
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Sunday, December 07, 2014

योग के आठ भागों में चरम शिखर है समाधि-हिन्दी चिंत्तन लेख(yog ka aath bhagon mein charam shikhar hai samadhi-hindi thought article)



            पतंजलि योग साहित्य के अनुसार सात भागों से गुजरने के बाद आठवां और अंतिम भाग समाधि है। योग के विषय के व्यापक संदर्भों में पतंजलि योग साहित्य ही एकमात्र प्रमाणिक सामग्री प्रदान करता है।  हमने कथित रूप से अनेक लोगों से सुना है कि अमुक गुरु समाधि में प्रवीण थे या अमुक संत को इस विषय में विशेषज्ञता प्राप्त है।  अनेक लोग तो कहते हैं कि हिमालय की कंदराओं में कई ऐसे योगी है जो समाधि में दक्ष हैं।  जब हम पतंजलि योग साहित्य का अध्ययन करते हैं तो लगता है कि इस तरह की बातें केवल प्रमाणिक नहीं है।  समाधि योग का चरम शिखर है।  एक तरह से योग साधना की आहुति समाधि ही है।
            ऐसे में अनेक प्रश्न दिमाग में आते हैं। हम जिन लोगों की समाधि विषयक योग्यता के बारे में सुना है उनकी बाकी सात भागों में सक्रियता की चर्चा नहीं होती।  आसन और प्राणायाम का भाग अत्यंत महत्वपूर्ण है।  वैसे हम आसनों की बात करें तो अब अनेक प्रकार के व्यायाम भी इनके साथ वैज्ञानिक ढंग से इसलिये जोड़े गये हैं क्योंकि पहले समाज श्रम आधारित था पर अब सुविधा भोगी हो गया जिससे लोगों को दैहिक शुद्ध करायी जा सके।  यह व्यायाम रूपी आसान इसलिये वैज्ञानिक हैं क्योंकि इस दौरान सांसो के उतार चढ़ाव का-जिसे प्राणायाम भी कहा जाता है- अभ्यास भी कराया जाता है।  एक तरह से आसन और प्राणायाम का संयुक्त रूप बनाया गया है। पतंजलि योग में प्राणायाम में प्राण रोकने और छोड़ने का अभ्यास ही एक रूप माना गया है। आसन से आशय भी सुखासन, पद्मासन या वज्रासन पर बैठना है। बहुत सहज दिखने वाली आसन और प्राणायाम की प्रक्रिया तब बहुत कठिन हो जाती है जब मनुष्य के मन और देह पर भोग प्रभावी होते हैं। योगाभ्यास के  दौरान देह से पसीना निकलता ही जिससे देह के विकार बाहर आते हैं पर सवाल यह है कि इसे करते कितने लोग हैं? जिनके बारे में समाधि लगाने का दावा किया जाता है वह पतंजलि योग के कितने जानकार होते हैं यह पता ही नहीं लगता।
            यहां हम बता दें कि भक्ति के चरम को छूने वाले अनेक संतों ने तो योग साधना को भी बेकार की कवायद बताया है।  इसमें कोई संदेह नहीं है कि उन संतों ने भक्ति का शिखर अपने तप से पाया पर सच यह है कि वह भक्ति भी उसी तरह सभी के लिये कठिन है जैसे कि योग साधना।  दूसरी बात यह है कि इन महापुरुषों ने योग साहित्य का अध्ययन न कर केवल तत्कालीन समाज में ऐसे योगियों को देखा था जिनका स्वयं का ज्ञान अल्प था।  अगर इन महापुरुषों ने योग साधना का अध्ययन किया होता तो वह जान पाते कि जिस भक्ति के शिखर को उन्होंने पाया है वह समाधि का ही रूप है और कहीं न कहीं उन्होंने अनजाने में ही योग के आठों भागों को पार किया था।  योग साहित्य से इन महापुरुषों की अनभिज्ञता का प्रमाण यह है कि वह योग को तीव्र या धीमी गति से प्राणवायु को ग्रहण या त्यागने की प्रक्रिया  ही मानते थे जो कि योग साधना का केवल एक अंशमात्र है।  यह अलग बात है कि इन महापुरुषों के  कथनों को भक्ति की सर्वोपरिता बताने वाले आज के पेशेवर संत उन भक्तों के सामने दोहराकर वाहवाही लूटते हैं जो देह मन और बुद्धि के विकारों से ग्रसित हैं। कहा जाता है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन रहता है।  जब वात, पित और कफ के कुपित से पीड़ित समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग हो तब हार्दिक भक्ति करने वाले मिल जायेंगे यह सोचना भी व्यर्थ है।
            हमने ऐसे लोग भी देखें हैं जो योग साधना प्रारंभ करते हैं तो कथित धार्मिक गुरू उन्हें ऐसा करने से रोक देते हैं।  अनेक गुरु तो यह कहते हैं कि योग साधना से कुछ नहीं होता। बीमारी दवा से जाती है और भगवान भक्ति से मिलते हैं।  यह प्रचार भयभीत और कमजोर लोगों के दिमाग की देन है।  मूलतः सभी जानते हैं योग साधना से व्यक्ति में एक नयी स्फूर्ति आने के साथ ही उसके मन मस्तिष्क में आत्मविश्वास पैदा होता है जिससे वह किसी दूसरे पर निर्भर नहीं रहता। इसलिये कायर और कमजोर लोग आलस्यवश न केवल स्वयं योग साधना से दूर रहते हैं बल्कि दूसरों में भी नकारात्मक भाव पैदा करते हैं।
            योग साधना की बातें सभी करते हैं पर महर्षि पतंजलि योग के सूत्रों का पढ़ने और समझने की समझ किसमें कितनी है यह तो विद्वान लोग ही बता सकते हैं।  हमारा एक अनुभव है कि जो नित्य योग साधना करते हैं उन्हें इसका अध्ययन अवश्य करना चाहिये। जिस तरह आसना के समय सांसों के अभ्यास से दोनों काम होते हैं उसी तरह योग सूत्र पढ़ने पर हम उनसे होने वाले लाभों को पढ़कर अधिक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। सबसे बड़ी बात यह कि समाधि विषयक भ्रम दूर हो जाते हैं।


दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
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