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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Sunday, September 28, 2014

संत कबीर दर्शन-माटी कहे कुम्हार से एक दिन रौंदूंगी तोहे(mati kahe kumhar se ek din raondung tohe-sant kabir darshan)



            हम दूसरों से व्यवहार करते समय इस बात का ध्यान बहुत ही कम रखते हैं कि हमारे मुख से निकले शब्दों या क्रियाओं का फल  एक दिन हमारे चक्षुओं केे सामने ही प्रकट होगा। यह संसार चक्र हैं इसे ं समय अपनी शक्ति के अनुसार घुमाता है।  राजा के अगर कर्म खोटे हैं तो एक दिन वह अधोेगति को प्राप्त होकर संकट भोगता है और रंक अगर सात्विक प्रकृत्ति का है तो एक दिन वह संसार में मायावी शिखर पर पहुंचता है। विनम्रता का सम्मान भले ही न हो पर अहंकारी का पतन अवश्य प्रकट होता है।  त्यागी कभी कुछ नहीं खोता तो भोगी सदैव संकट में रहता है।

संत कबीरदास कहते हैं कि
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माटी कहै कुम्हार से, क्या तू रौंदे मोहि।
एक दिन ऐसा होयगा, मैं रौंदूंगी तोहि।।
            हिन्दी में भावार्थ-जब कुम्हार मिट्टी को रौंदकर उनसे सामान बनाता है तब एक तरह से वह उससे कहती है कि आज तू मुझे रौंद रहा है एक दिन ऐसा आयेगा जब मैं तुझे रौंदूंगी।

            मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह विलासिता तथा व्यसनों की तरफ आकर्षित बहुत जल्दी होता है जबकि अध्यात्मिक साधना में उसे आलस्य आता है।  जिनको भोगों ने घेर लिया है उनके लिये अध्यात्मिक साधना एक निरर्थक कार्य होता। भोगी मनुष्य विषयों को सत्य समझकर उनमें लिप्त हो जाते हैं।   फल पर मोहित ऐसे लोग अपने कर्म के प्रकार को नहीं समझते और एक दिन ऐसा आता है जब अधिक मात्रा में  भोग साधन एकत्रित करने पर भी वह उनके संकट निवारण के काम नहीं आते हैं।
            इस संसार में दो ही विषय हैं एक अध्यात्मिक दूसरा भौतिक! हमारे अध्यात्मिक दर्शन में भी दिन के समय को चार भागों में बांटा गया है-धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष।  प्रातः धर्म, दोपहर अर्थ, सांय काम यानि मनोरंजन और रात्रि मोक्ष यानि निद्रा के लिये है।  कर्म तो सभी करते हैं पर योग तथा ज्ञान साधक समय के साथ ही चलते हैं। जिनको ज्ञान नहीं है उनके लिये दिन का एक ही भाग है और चाहे जब निद्रा में रहते हैं और चाहे जब कर्म में प्रवृत्त हो जाते हैं। अच्छे बुरे काम की उंन्हें पहचान न होती है और न ही वह अहकारवश करना चाहते हैं। जिन लोगों को अपना जीवन शांति से बिताना है उन्हें समय और स्थिति के अनुसार अपना काम करना चाहिये।
          

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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Saturday, September 20, 2014

संस्कार मस्तिष्क की स्मृतियों का ही एक भाग-पतंजलि योग साहित्य के आधार पर चिंत्तन लेख(sanskar masitishk ki smritiyon ka hi ek bhag-A Hindu hindi religion thought based on patanjali yog sichnce)




            आमतौर से सामान्य भाषा में स्मृति तथा संस्कार एकरूप नहीं होते।  स्मृतियों को पुराने विषय, व्यक्ति, दृश्य अथवा अनुभूतियों के स्मरण का भंडार माना जाता है जबकि संस्कार मस्तिष्क में स्थापित मानवीय व्यवहार के स्थापित सिद्धांतों के रूप में समझा जाता है। पतंजलि योग का अध्ययन करें तो लगता है कि संस्कार स्मृति का ही एक भाग है।  जीवन व्यवहार के सिद्धांत अंततः स्मृति समूह का ही वह भाग है जो मानव मस्तिष्क को प्रभावित करते हैं।

पतंजलि  योग सूत्र  में कहा गया है
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जातिदेशकालव्यवहितानामप्यानष्यानन्तर्य स्मृतिसंस्कारयोरेकरूपत्वात्।।

     हिन्दी में भावार्थ-पतंजलि योग सूत्र के अनुसार जाति, देश काल इन तीनों से संपर्क टूटने पर भी स्वाभाविक कर्म संस्कारों में बाधा नहीं आती क्योंकि स्मृति और संस्कारों का एक ही रूप होता है।

     हम इस श्लोक में योग के संस्कारिक रूप को समझ सकते हैं। जब मनुष्य बच्चा होता है तब उसके अपने घर परिवार, रिश्तेदारी, विद्यालय तथा पड़ौस के लोगों से स्वाभाविक संपर्क बनते हैं। वह उनसे संसार की अनेक बातें ऐसी सीखता है जो उसके लिये नयी होती हैं। वह अपने मन और बुद्धि के तत्वों में उन्हें स्वाभाविक रूप से इस तरह स्थापित करता है जीवन भर वह उसकी स्मृतियों में बनी जाती हैं। कहा भी जाता है कि बचपन में जो संस्कार मनुष्य में आ गये फिर उनसे पीछा नहीं छूटता और न छोड़ना चाहिए क्योंकि वह कष्टकर होता है।
      यही कारण है कि माता पिता तथा गुरुओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दें। संभव है बाल्यकाल में अनेक बच्चे उनकी शिक्षा पर ध्यान न दें पर कालांतर में जब वह उनकी स्थाई स्मृति बनती है तब वह उनका मार्ग प्रशस्त करती है। इसलिये बच्चों के लालन पालन में मां की भूमिका सदैव महत्वपूर्ण मानी गयी है क्योंकि बाल्यकाल में वही अपने बच्चे के समक्ष सबसे अधिक रहती है और इसका परिणाम यह होता है कि कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है जो अपनी मां को भूल सके।
      इसलिये हमारे अध्यात्मिक संदेशों में अच्छी संगत के साथ ही अच्छे वातावरण में भी निवास बनाने की बात कहीं जाती है। अक्सर लोग कहते हैं कि पास पड़ौस का प्रभाव मनुष्य पर नहीं पड़ता पर यह गलत है। अनेक बच्चे तो इसलिये ही बिगड़ जाते हैं क्योंकि उनके बच्चे आसपास के गलत वातावरण को अपने अंदर स्थापित कर लेते हैं।
      यही नहीं आज के अनेक माता पिता बाहर जाकर कार्य करते हैं और सोचते हैं कि उनका बच्चा उनकी तरह ही अच्छा निकलेगा तो यह भ्रम भी उनको नहीं पालना चाहिये क्योंकि किसी भी मनुष्य की प्रथम गुरु माता की कम संगत बच्चों को अनेक प्रकार के संस्कारों से वंचित कर देती है। ऐसे लोग सोचते हैं कि उनका बच्चा बड़ा होकर ठीक हो जायेगा या हम उसे संभाल लेंगे तो यह भी भ्रामक है क्योंकि जो संस्कार कच्चे दिमाग में स्मृति के रूप में स्थापित करने का है वह अगर निकल गया तो फिर अपेक्षायें करना निरर्थक है। युवा होने पर दिमाग पक्का हो जाता है और सभी जानते हैं कि पक्की मिट्टी के खिलोने नहीं बन सकते-वह तो जैसे बन गये वैसे बन गये। दरअसल हम जिससे संस्कार कहते हैं वह प्रारम्भिक काल में स्थापित स्मृतियों का विस्तार ही हैं इसलिये अगर हम अपेक्षा करते हैं कि हमारे बच्चे आगे चलकर वह काम करें जो हम स्वयं चाहते हैं तो उसकी शिक्षा पहले ही देना चाहिए। यह स्मृतियां इस तरह की होती हैं कि देश, काल तथा जाति से कम संपर्क रहने न बिल्कुल न होने पर भी बनी रहती हैं और मनुष्य अपने संस्कारों से भ्रष्ट नहीं होता है अगर किसी लोभवश वह अपना पथ छोड़ता भी है तो उसे भारी कष्ट उठाना पड़ता है और फिर अपने स्थान पर वापस आता है।
दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
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Friday, September 12, 2014

भर्तृहरि नीति शतक-राहु बृहस्पति से बैर नहीं लेता(bhartrihari neeti shatak-rahju brihaspati se bair nahin leta)



            हा जाता है कि धनी लोगों की संघर्ष तथा पाचन शक्ति अत्यंत क्षीण होती है।  आज जब हम विश्व में भौतिक प्रगति का दावा कर रहे हैं तब यह बात हमारे विचार में नहीं आती कि मनुष्य दैहिक तथा मानसिक रूप से शक्तिहीन होता जा रहा है। खासतौर से युवा वर्ग में आत्मविश्वास की भारी कमी हो गयी है। उनको लगता है कि शारीरिक श्रम से अब अधिक धन नहीं कमाया जा सकता। इसलिये वह किसी व्यवसाय का स्वामी बनने की बजाय कहीं किसी नौकरियां ढूंढ रहे हैं।  जो छोटे व्यवसाय में लगे हैं उन्हें लगता है कि वह समाज में सम्मानजनक छवि वाले नहीं माने जाते हैं।  आधुनिक पूंजीतंत्र ने समूचे समाज का निंयत्रण चंद हाथों में सौंप दिया है जिसकी वजह से से धन, पद और बल संपन्न लोगों के द्वार पर याचकों की भीड़ बढ़ा दी है।  जिन्होंने भौतिक क्षेत्र का शिखर पा लिया उसमें मद न आये यह संभव नहीं है इसलिये उनसे समाज सेवा की अपेक्षा करना भारी अज्ञान का प्रमाण है।


भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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सन्तपन्येऽपि बृहस्पतिप्रभृतयः सम्भाविताः पञ्चषास्तान्प्रत्येष विशेष विक्रमरुची राहुर्न वैरायते।
द्वावेव प्रसते दिवाकर निशा प्रापोश्वरौ भास्करौ भ्रातः! पर्वणि पश्य दानवपतिः शीर्षावशेषाकृतिः।।

     हिन्दी में भावार्थ-आसमान में बृहस्पति समेत अनेक शक्तिशाली ग्रह हैं किन्तु पराक्रम में दिलचस्पी रखने वाला राहु उनसे कोई लड़ाई मोल नहीं लेता क्योंकि वह तो पूर्णिमा और अमावस्या के दिन अति देदीप्यमान सूर्य तथा चंद्र को ही ग्रसित करता है।
असन्तो नाभ्यर्थ्याः सुहृदपि न याच्यः कृशधनः प्रियान्यारूया वतिर्मलिनमसुभंगेऽप्यसुकरं।
विपद्युच्चैः स्थेयं पदमनुविधेयं च महतां सतां केनोद्दिष्टं विषमसिधाराव्रतमिदम्।।

     हिन्दी में भावार्थ-सदाशयी मनुष्यों के लिये कठोर असिधारा व्रत का आदेश किसने दिया? जिसमें दुष्टों से किसी प्रकार की प्रार्थना नहीं की जाती। न ही मित्रों से धन की याचना की जाती है। न्यायिक आचरण का पालन किया जाता है। मौत सामने आने पर भी उच्च विचारों की रक्षा की जाती है और महान पुरुषों के आचरण की ही अनुसरण किया जाता है।

     हर मनुष्य को अपने पराक्रम में ही यकीन करना चाहिए न कि अपने लक्ष्यों को दूसरों के सहारे छोड़कर आलस्य बैठना चाहिए। इतना ही नहीं मित्रता या प्रतिस्पर्धा हमेशा अपने से ताकतवर लोगों की करना चाहिये न कि अपने से छोटे लोगों पर अन्याय कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना चाहिए।
      अनेक मनुष्य अपने आसपास के लोगों को देखकर अपने लिये तुच्छ लक्ष्य निर्धारित करते हैं। थोड़ा धन आ जाने पर अपने आपको धन्य समझते हुए उसका प्रदर्शन करते हैं। यह सब उनके अज्ञान का प्रमाण है। अगर स्थिति विपरीत हो जाये तो उनका आत्मविश्वास टूट जाता है और दूसरों के कहने पर अपना मार्ग छोड़ देते हैं। अनेक लोग तो कुमार्ग पर चलने लगते हैं। सच बात तो यह है कि हर मनुष्य को भगवान ने दो हाथ, दो पांव तथा दो आंखों के साथ विचारा करने के लिये बुद्धि भी दी है। अगर मनुष्य असिधारा व्रत का पालन करे-जिसमें दुष्टों ने प्रार्थना तथा मित्रों से धना की याचना न करने के साथ ही किसी भी स्थिति में अपने सिद्धांतों का पालन किया जाता है-तो समय आने पर अपने पराक्रम से वह सफलता प्राप्त करता है।
संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
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