समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Friday, April 25, 2014

नवधनाढ्य लोगों में अहंकार आ ही जाता है-भर्तृहरि दर्शन पर आधारित चिंत्तन लेख(navdhandhya logon mein ahahkar aa hee jaataa hai-bhartihari neeti shatak)



      जैसे जैसे विश्व में भौतिक विकास हो रहा है वैसे वैसे ही भावनातमक संवेदनहीनता का भाव बढ़ रहा है।  कभी कभी तो लगता है कि मनुष्य समुदाय में पशु से भी कम संवेदनायें रह गयी हैं।  सभी को अपने स्वार्थ की पूर्ति करने से ही समय नहीं मिलता इसलिये कोई समाज या राष्ट्र के प्रति विचार तक नहीं कर पाता।  अब तो लोगों के बीच अमीर होने की होड़ चल पड़ी है और अमीरों में शक्तिशाली दिखने के प्रवृत्ति ने समाज में वैमनस्य का भाव पैदा किया है। आर्थिक स्तर पर रिश्तों की मर्यादा तय हो रही है ऐसे में जब पुरानी संस्कृति, संस्कार या सनातन परंपरा की बात करना केवल औपाचारिकता ही लगती है।

भर्तृहरि नीति शतक  में कहा गया है कि
-------------------------------------
पुलहृदयैरीशैतज्जगनतं पुरा विधृततमपरैर्दत्तं चान्यैर्विजित्य तृणं यथा।
इह हि भुवनान्यन्यै धीराश्चतुर्दशभुंजते कतिपयपुरस्वाम्ये पुंसां क एष मदज्वर:||

     हिंदी में भावार्थ-अनेक लोगों ने इस पृथ्वी का उपभोग किया तो कुछ उदार प्रवृति के  लोगों ने इसे जीतकर दूसरों को दान में दे दिया। आज भी कई शक्तिशाली लोग बड़े भूभाग के स्वामी है पर उनमें अहंकार का भाव तनिक भी नहीं दिखाई देता परंतु कुछ ऐसे हैं जो कुछ ग्रामों (जमीन के लघु टुकड़े) के स्वामी होने के कारण उसके मद में लिप्त हो जाते हैं।

     यह प्रथ्वी करोड़ों वर्षों से अपनी जगह पर स्थित है। अनेक महापुरुष यहां आये जिन्होंने इसका उपयोग किया। कुछ ने युद्ध में विजय प्राप्त कर जीती हुई जमीन दूसरों को दान में दी। अनेक धनी मानी लोगों ने बड़े बड़े दान किये और लोगों की सुविधा के लिये इमारतें बनवायीं। उन्होंने कभी भी अपने धन का अहंकार नहीं दिखाया पर आजकल जिसे थोड़ा भी धन आ जाता है वह अहंकार में लिप्त हो जाता है। देखा जाये तो इसी अहंकार की प्रवृति ने समाज में गरीब और अमीर के बीच एक ऐसा तनाव पैदा किया है जिससे अपराध बढ़ रहे हैं। दरअसल अल्प धनिकों में अपनी गरीबी के कारण क्रोध या निराशा नहीं आती बल्कि धनिकों की उपेक्षा और क्रूरता उनको विद्रोह के लिये प्रेरित करती है।

      समाज के बुद्धिमान लोगों ने मान लिया है कि समाज का कल्याण केवल सरकार का जिम्मा है और इसलिये वह धनपतियों को समाज के गरीब, पिछड़े और असहाय तबके की सहायता  के लिये प्रेरित नहीं करते। इसके अलावा जिनके पास धन शक्ति प्रचुर मात्रा है वह केवल उसके अस्तित्व से संतुष्ट नहीं है बल्कि दूसरे लोग उसकी शक्ति देखकर प्रभावित हों अथवा उनकी प्रशंसा करें  इसके लिये वह उसका प्रदर्शन करना चाहते हैं। वह धन से विचार, संस्कार, आस्था और धर्म की शक्ति को कमतर साबित करना चाहते हैं। सादा जीवन और उच्च विचार से परे होकर धनिक लोग-जिनमें नवधनाढ्य अधिक शामिल हैं-गरीब पर अपनी शक्ति का प्रतिकूल प्रयोग कर उसमें भय उत्पन्न करना  चाहते हैं। परिणामतः गरीब और असहाय में विद्रोह की भावना बलवती होती है।
      आज के सामाजिक तनाव की मुख्य वजह इसी धन का अहंकारपूर्ण उपयोग ही है। धन के असमान वितरण की खाई चौड़ी हो गयी है इस कारण अमीर गरीब रिश्तेदार में भी बहुत अंतर है इसके कारण सम्बन्धों  भावनात्मक लगाव में कमी होती जाती है। धन की शक्ति बहुत है पर सब कुछ नहीं है यह भाव धारण करने वाले ही लोग समाज में सम्मान पाते हैं और जो इससे परे होकर चलते हैं उनको कभी कभी न कभी विद्रोह का सामना करना पड़ता है।
------------------------------------


संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Wednesday, April 23, 2014

धन की उष्णता के अभाव में आदमी ठंडा हो जाता है-भर्तृहरि नीति शतक के आधार पर चिंत्तन लेख (dhan ki garmi ke abhav mein aadmi thanda ho jaata hai-bhartrihare neeti shatak)



      मनुष्य समुदाय इस धरतीपर सदियों से सांस ले रहा है। यह मानना गलत है कि उसके मूल स्वमभाव में कोई अधिक अंतर आया है। जिस तरत अन्य जीवों-पक्षू, पक्षियों तथा जलचरों का मूल स्वभाव नहीं  बदला उसी तरह मनुष्य के रहन सहन तथा खान पान की आदतें भले ही बदली हों पर उसके विचार, चिंत्तन तथा व्यवहार में कोई अंतर न आया है न आयेगा। हम अगर अपने पौराणिक ग्रथों का अध्ययन करने तो इस बात का आभास होता है कि मनुष्य समाज आज भी वैसा ही है जैसा पहले था।  इसलिये ही उनमें व्याप्त संदेश आज भी प्रासंगिक माने जाते हैं।

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि

---------------------------------

यसयास्ति वित्तं स नरः कुलीन स पण्डित स श्रुतवान्गुणज्ञः।

स एव वक्ता स च दर्शनीयः।

सर्वे गुणा कांचनमाश्रयन्ति।।


     हिन्दी में भावार्थ-जिस मनुष्य के पास माया का भंडार उसे ही कुलीन, ज्ञानी, गुणवान माना जाता है। वही आकर्षक है। स्पष्टतः सभी के गुणों का आंकलन उसके धन के आधार पर किया जाता है।

तानीन्द्रियाण्यविकलानि तदेव नाम सा बुद्धिप्रतिहता वचनं तदेव।

अर्थोष्मणा विरहितः पुरुष क्षणेन सोऽप्यन्य एव भवतीति विचित्रमेतत्।।



     हिन्दी में भावार्थ-एक जैसी इंद्रियां, एक जैसा नाम और काम, एक ही जैसी बुद्धि और वाणी पर फिर भी जब आदमी धन की गरमी से क्षण भर में रहित हो जाता है तब उसकी स्थिति बदल जाते है। इस धन की बहुत विचित्र महिमा है।

     यह समाज भर्तृहरि महाराज के समय में भी था और आज भी है। हम बेकार में परेशान होकर कहते हैं कि आजकल का जमाना खराब हो गया है।सच बात तो यह है कि सामान्य मनुष्य की प्रवृत्तियां ही ऐसी है कि वह केवल भौतिक उपलब्धियां देखकर ही दूसरे के गुणों का आंकलन  करता है। इधर गुणवान मनुष्य अपने अंदर गुणों का संचय करते हुए इतना ज्ञानी हो जाता है कि वह इस बात को समझ लेता है कि धन से नहीं वरन गुणों से  ही उसके जीवन की रक्षा होगी। इसलिये वह समाज में प्रतिष्ठा अर्जित करने के लिये कोई अधिक प्रयास नहीं करता। उधर अल्पज्ञानी और ढोंगी लोग थोड़ा पढ़लिखकर सामान्य व्यक्तियों के सामने अपनी चालाकियों के सहारे उन्हीं से धन वसूल कर प्रतिष्ठित भी हो जाते हैं। यह अलग बात है कि इतिहास हमेशा ही उन्हीं महान लोगों को अपने पन्नों में दर्ज करता है जिन्होंने अपने गुणों से वास्तव में समाज को प्रभावित किया जाता है।
      इसका एक दूसरा पहलू भी है। अगर हमारे पास अधिक धन नहीं है तो इस बात की परवाह नहीं करना चाहिए। समाज के सामान्य लोगों की संकीर्ण मानसिकता का विचार करके अपने सम्मान और असम्मान की उपेक्षा कर देना चाहिए।  जिसके पास धन है उसे सभी मानेंगे। आप अच्छे लेखक, कवि, चित्रकार या कलाकार हैं पर उसकी अगर भौतिक उपलब्धि नहीं होती तो फिर सम्मान की आशा न करें। इतना ही नहीं अगर आप परोपकार के काम में लगे हैं तब भी यह आशा न करें  कि बिना दिखावे अथवा विज्ञापन के आपको कोई सम्मान करेगा। सम्मान या असम्मान से उपेक्षा करने के बाद आपके अंदर एक आत्मविश्वास पैदा होगा जिससे जीवन में अधिक आनंद प्राप्त कर सकेंगे।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Sunday, April 20, 2014

अपनी चाटुकारिता करवाना बड़प्पन नहीं होता-संत कबीर दर्शन पर आधारित चिंत्तन लेख(apnee chatukarita karvana badppan nahin hota- A hindu religion thought based on sant kabir darshan )



     मारे देश में में धर्म की अत्यंत महिमा है पर इसके नाम पर जिस  तरह भ्रम फैलाया गया गया है उससे देखकर यह चिंता भी होती है कि लोगों का कहीं आगे चलकर अपनी प्राचीन पंरपराओं से मोह ही न भंग हो जाये।  धर्म का आधार केवल आर्थिक आधार पर चलने वाले कर्मकांड बता कर कथित रूप से धर्म के ठेकेदार अपना उल्लू सीधा करते हैं।

संत शिरोमणि कबीर दास कहते हैं कि

-----------------------------------

हाथी चढि के जो फिरै, ऊपर चंवर ढुराय
लोग कहैं सुख भोगवे, सीधे दोजख जाय

      सामान्य हिंदी में भावार्थ-अनेक बड़े लोग   हाथी पर चढ़कर अपने ऊपर चंवर डुलवाते हैं जिसे देखकर अन्य  लोग समझते हैं कि वह सुख भोग रहे तो यह उनका भ्रम है| सच यह कि  वह  अपने अभिमान के कारण सीधे नरक में जाते हैं।

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जोरे बड़ मति नांहि
जैसे फूल उजाड़ को, मिथ्या हो झड़ जांहि

      सामान्य हिंदी में भावार्थ- आदमी धन, पद और सम्मान पाकर बड़ा हुआ तो भी क्या अगर उसके पास अपनी मति नहीं है। वह ऐसे ही है जैसे बियावन उजड़े जंगल में फूल खिल कर बिना किसी के काम आये मुरझा जाता है।

     समय ने ऐसी करवट ली है कि इस समय धर्म रक्षा और जनकल्याण के नाम पर चालक लोग भी व्यवसाय कर रहे हैं। इस मायावी दुनियां में सामान्य लोगों का यह पता ही नहीं लगता कि सत्य और माया में अंतर क्या  है? जिसे देखो भौतिकता की तरफ भाग रहा है। क्या साधु और क्या भक्त सब दिखावे की भक्ति में लगे हैं। राजा तो क्या संत भी अपने ऊपर चंवर डुलवाते हैं। उनको देखकर लोग वाह-वाह करते हैं। एक तरह से कथित रूप से हमारे समाज या यह मान लिया है कि  राजा की तरह  संत को भी वैभवपूर्ण जिंदगी में  रहना चाहिये। सत्य तो यह है कि इस तरह तो वह भी लोग भ्रम में हो जाते हैं और उनमें अहंकार आ जाता है और दिखावे के लिये सभी धर्म करते हैं और फिर अपनी मायावी दुनियां में अपना रंग भी दिखाते हैं। ऐसे लोग पुण्य नहीं पाप में लिप्त है और उन्हें भगवान भक्ति से मिलने वाला सुख नहीं मिलता और वह अपने किये का दंड भोगते हैं। आजकल ऐसे अनेक साधू और संत देखने को मिल जायेंगे जो साहूकारों की तरह संपति संग्रह और ऋण बांटने का काम करते हैं, कुछ तो सत्ता की दलाली में लगे हुए हैं।
      यह शाश्वत सत्य है कि भक्ति का आनंद त्याग में है और मोह अनेक पापों को जन्म देता है। सच्ची भक्ति तो एकांत में होती है न कि ढोल नगाड़े बजाकर उसका प्रचार किया जाता है। हम जिन्हें बड़ा धर्मभीरू  या भक्त कहते हैं उनके पास अपना ज्ञान और बुद्धि कैसी है यह नहीं देखते। बड़ा आदमी वही है जो अपनी संपत्ति से वास्तव में छोटे लोगों का भला करता है न कि उसका दिखावा। आपने देखा होगा कि कई बड़े लोग अनेक कार्यक्रम गरीबों की भलाई के लिये करते हैं और फिर उसकी आय किन्हीं कल्याण संस्थाओं को देते हैं। यह सिर्फ नाटकबाजी है। वह लोग अपने को बड़ा आदमी सबित करने के लिये ही ऐसा करते हैं उनका और कोई इसके पीछे जनकल्याण करने का भाव नहीं होता। अत: ऐसे लोगों को आदर्श नहीं मानना चाहिए।
---------------------

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Friday, April 18, 2014

चालाकियों से धन कमाकर दान करना अमीरों की सामान्य प्रवृति -संत कबीर दास क्र दर्शन पर आधारित चिंत्तन लेख(chalaki se dhan kamakar daan karna amiron ki samanya pruvirti-sant kabir darshan)



   हमारे देश भारत में जैसे जैसे आर्थिक विकास बढ़ता गया है वैसे ही लोगों में धार्मिक प्रवृत्ति के प्रति अधिक रुझान भी देखा जा रहा है।  सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि कथित रूप से धर्म प्रचार करने वाले न केवल लोगों से चंदा और दान लेते हैं वरन् अपने ज्ञान सुनाने के लिये आधुनिक महंगे तथा अत्यंत तकनीकी साधनों का भरपूर उपयोग भी करते हैं।  सबसे बड़ा ज्ञानी वही है जिसके पास धन है। सबसे प्रभावशाली वह माना जाता है जिसके चरण कमल उच्च पद पर स्थित हैं।  सबसे शक्तिशाली वही है जो अपने बाहुबल का उपयोग कमजोर को दबाने के लिये करता है।  कभी कभी तो यह लगता है कि आधुनिक सभ्यता में शीर्ष पर पहुंचे लोग भौतिक रूप से तो जितने शक्तिशाली हो गये हैं उतने ही मानसिक रूप से कमजोर हुए हैं।  उनका पूरा श्रम, समय तथा चिंत्तन अपनी स्थिति बनाये रखने तक ही सिमट गया है।  यही कारण है कि सामाजिक रूप से बदलाव की बातें सभी करते हैं पर उनके शब्द महत्वहीन ही रहते हैं। यह शक्तिशीली शीर्ष पुरुष समाज के हित का दिखावा केवल इसलिये करते हैं ताकि उनके विरुद्ध लोगों में मन वैमनस्य का भाव बढ़ न जाये।

संत कबीर दास ने कहा है कि
--------------------

अहिरन की चोरी करै, करे सुई का का दान
ऊंचा चढि़ कर देखता, केतिक दूर विमान

      संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य अपने जीवन में तमाम तरह के अपराध और चालाकियां कर धन कमाता है पर उसके अनुपात में नगण्य धन दान कर अपने मन में प्रसन्न होते हुए फिर आसमान की ओर दृष्टिपात करता है कि उसको स्वर्ग में ले जाने वाला विमान अभी कितनी दूरी पर रह गया है।

आंखि न देखि बावरा, शब्द सुनै नहिं कान
सिर के केस उज्जल भये, अबहुं निपट अजान

      संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं आंखों से देख नहीं पाता, कानों से शब्द दूर ही  रह जाते हैं और सिर के बाल  सफेद होने के बावजूद भी मनुष्य अज्ञानी रह जाता है  साथ ही माया के जाल में फंसा रहता है।

      हमारे देश आधुनिक समय में अंग्रेजों की सृजित अर्थ, राजकीय, शैक्षिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक व्यवस्था पद्धति का अनुकरण कर रहा है उसके ही एक प्रमुख विद्वान का मानना है कि  कोई भी धनी नहीं बन सकता है-ऐसा मानने वाले बहुत हैं तो हम स्वयं देख भी सकते हैं। धनी होने के बाद समाज में प्रतिष्ठा पाने के मोह से लोग दान करते हैं। कहीं मंदिर में घंटा चढ़ाकर, पंखे या कूलर लगवाकर या बैंच बनवाकर उस पर अपना नाम खुदवाते हैं। एक तीर से दो शिकार-दान भी हो गया और नाम भी हो गया। फिर मान लेते हैं कि उनको स्वर्ग का टिकट मिल गया। यह दान कोई सामान्य वर्ग के व्यक्ति नहीं कर पाते बल्कि जिनके पास तमाम तरह के छल कपट और चालाकियों से अर्जित माया का भंडार है वही करते हैं। उन्होंने इतना धन कमाया होता है कि उसकी गिनती वह स्वयं नहीं कर पाते। अगर वह इस तरह अपने नाम प्रचारित करते हुए दान न करें तो समाज में उनका कोई नाम भी न पहचाने। कई धनपतियों ने अपने मंदिरों के नाम पर ट्रस्ट बनाये हैं। वह मंदिर उनकी निजी संपत्ति होते हैं और वहां कोई इस दावे के साथ प्रविष्ट नहीं हो सकता कि वह सार्वजनिक मंदिर है। इस तरह उनके और कुल का नाम भी दानियों में शुमार हो जाता है और जेब से भी पैसा नहीं जाता। वहां भक्तों का चढ़ावा आता है सो अलग। ऐसे लोग हमेशा इस भ्रम में जीते हैं कि उनको स्वर्ग मिल जायेगा।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Friday, April 11, 2014

श्रीगुरुवाणी के आधार पर चिंत्तन लेख-दहेज परपरा देश और समाज के अनुकूल नहीं (a hindi thought based on shriguruwani -dahej pratha desh aur samaj ke anukul nahin)



     हमारे देश में दहेज परंपरा अब एक विकृत रूप ले चुकी है| सच बात यह है हमारे यहं लड़की के जन्म पर लोग इतने खुश नहीं होते जितना लड़के के समय होते हैं| इसकी मुख्य वजह यह है कि लड़की का बाप होने पर दूसरे के सामने झुकना पड़ता है जबकि लड़के कि वजह से दूसरे अपने सामने झुकते हैं| हमारे सामाजिक तथा अध्यात्मिक चिन्त्तक समाज का अनेक वर्षों से सचेत कर रहे हैं पर कोई सुधार नहीं हो रहा है| पहले तो कहा जाता था कि समाज अशिक्षित है पर अब तो यह देखा जा रहा है कि अधिक शिक्षित होने पर दहेज कि रकम अधिक मिलती है|
गुरुवाणी में कहा गया है
---------------------------
होर मनमुख दाज जि रखि दिखलाहि,सु कूड़ि अहंकार कच पाजो
      हिंदी में भावार्थ-श्री गुरू ग्रन्थ साहिब के अनुसार लड़की के विवाह में  ऐसा दहेज दिया जाना चाहिए जिससे मन का सुख मिले और जो सभी को दिखलाया जा सके। ऐसा दहेज देने से क्या लाभ जिससे अहंकार और आडम्बर ही दिखाई दे।
हरि प्रभ मेरे बाबुला, हरि देवहु दान में दाजो।

           
हिन्दी में भावार्थ-श्री गुरुग्रंथ साहिब में दहेज प्रथा का आलोचना करते हुए कहा गया है कि वह पुत्रियां प्रशंसनीय हैं जो दहेज में अपने पिता से हरि के नाम का दान मांगती हैं।
     दहेज हमारे समाज की सबसे बड़ी बुराई है। चाहे कोई भी समाज हो वह इस प्रथा से मुक्त नहीं है। अक्सर हम दावा करते हैं कि हमारे यहां सभी धर्मों का सम्मान होता है और हमारे देश के लोगों का यह गुण है कि वह विचारधारा को अपने यहां समाहित कर लेते हैं। इस बात पर केवल इसलिये ही यकीन किया जाता है क्योंकि यह लड़की वालों से दहेज वसूलने की प्रथा उन धर्म के लोगों में भी बनी रहती है जो विदेश में निर्मित हुए और दहेज लेने देने की बात उनकी रीति का हिस्सा नहीं है। कहने का आशय यह है कि दहेज लेने और देने को हम यह मानते हैं कि यह ऐसे संस्कार हैं जो हमारी पहचान हैं  मिटने नहीं चाहिए।  कोई भी धर्म या  समाज हो  कथित रूप से इसी पर इतराता है।
      इस प्रथा के दुष्परिणामों पर बहुत कम लोग विचार करते हैं। इतना ही नहीं आधुनिक अर्थशास्त्र की भी इस पर नज़र नहीं है क्योंकि यह दहेज प्रथा हमारे यहां भ्रष्टाचार और बेईमानी का कारण है और इस तथ्य पर कोई भी नहीं देख पाता। अधिकतर लोग अपनी बेटियों की शादी अच्छे घर में करने के लिये ढेर सारा दहेज देते हैं इसलिये उसके संग्रह की चिंता उनको नैतिकता और ईमानदारी के पथ से विचलित कर देती है। केवल दहेज देने की चिंता ही नहीं लेने की चिंता में भी आदमी अपने घर पर धन संग्रह करता है ताकि उसकी धन संपदा देखकर बेटे की शादी में अच्छा दहेज मिले। यह दहेज प्रथा हमारी अध्यात्मिक विरासत की सबसे बड़ी शत्रु हैं और इससे बचना चाहिये। यह अलग बात है कि अध्यात्मिक, धर्म और समाज सेवा के शिखर पुरुष ही अपने बेटे बेटियों की शादी कर समाज को चिढ़ाते हैं। सच बात तो यह है कि यह पर्थ हमारे समाज के अस्तित्व पर संकर खड़ा किये हुए है और अगर यह ख़त्म नहीं हुए तो एक दिन यह समाज भी कह्तं हो जाएगा।
-------------------------------------

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Monday, April 07, 2014

चाणक्य नीति-आदमी अपने से जुड़े विषयों से प्रभावित होता है( chankya neeti-aadmi apne se jude vishayon se prabhaavit hain hai)



            विश्व में अनेक प्रकार के आदर्शवाद प्रचलित हैं जिसमें मानव समाज को एक व्यवस्थित ढंग के संचालन के लिये प्रणालियां बताई जाती है। सबसे मजे बी बात यह है कि हर मनुष्य को देवता बनाने का प्रयास अनेक विचाराधाराओं के ठेकेदार है। जबकि सच्चाई यह है कि एक बार मनुष्य में बाल्यकाल में जो संस्कार आ गये फिर उनसे वह मुक्ति नहीं पा सकता। वह अपने स्वभाव के अनुसार ही संगत का चुनाव करता है तथा वैसे ही उसका खानपान भी हो जाता है। भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार यह माना जाता है कि मानव अपने स्वभाव के अनुसार ही विषयों का चयन करता है और कालांतर में वही विषय उसके मस्तिष्क तथा निजी व्यवहार को प्रभावित करता हैं।

चाणक्य नीति में कहा गया है कि
___________________________
दीपो भक्षयते थ्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते।
यदन्नं भक्षयतेन्नित्यं जायते तादृशी प्रजा।।

     हिंदी में भावार्थ-नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि जिस तरह दीपक अंधेरे को खाकर काजल को उत्पन्न करता है वैसे ही इंसान जिस तरह का अन्न खाता है वैसे उसके विचार उत्पन्न होते हैं और उसके इर्दगिर्द लोग भी वैसे ही आते हैं। उनकी संतान भी वैसी ही होती है।
अधमा धनमिच्छन्ति धनं माने च मध्यमा।
उत्तमा मानमिच्छन्ति मानो हि महतां धनम्।।

     हिंदी में भावार्थ-अधम केवल धन की कामना करता है जबकि मध्यम पुरुष धन और मान दोनों की इच्छा करता है किन्तु उत्तम पुरुष केवल मान की कामना करते हुए अपन कर्म करता है। उसके लिये मान ही धन  है।

     भारतीय आध्यात्मिक दर्शन के सिद्धांत  एक तरह का दर्पण होते  है जिसमें हर इंसान अपने चरित्र का चेहरा देख सकता है। केवल धन की कामना पूरी करने के लिये कोई भी कार्य करने के लिये तैयार होना निम्नकोटि होने का प्रमाण है। कहने को तो सभी कहते हैं कि यह पेट के लिये कर रहे हैं पर जिनके पास वास्तव में धन और अन्न का अभाव है वह आजकल किसी अपराध में नहीं लिप्त दिखते जितने धन धान्य से संपन्न वर्ग के लोग बुरे कामों में व्यस्त हैं। धन का आकर्षण लोगों को लिये इतना है कि वह उसके लिये अपना धर्म बदलने और बेचने के लिये तैयार हो जाते हैं। उनके लिये मान और अपमान का अंतर नहीं रह जाता। आजकल शिक्षित और सभ्रांत वर्ग के लोगों ने यह मान्यता पाल ली है कि धन से सम्मान होता है और वह स्वयं भी निर्धनों से घृणा करते हैं। सच बात तो यह है कि अधम प्रकृति के लोग धन प्राप्त कर उच्चकोटि का दिखने का प्रयास करते हैं।
    समाज में अनैतिक धनार्जन की बढ़ती प्रवृति ने नैतिक ढांचे को ध्वस्त कर दिया है और जिस वर्ग के लोगों पर समाज का मार्गदर्शन करने का दायित्व है वही कदाचार और ठगी में लगे हुए हैं। परिणामतः उनके इर्दगिर्द ऐसे ही लोगों का समूह एकत्रित हो जाता है और उनकी संतानें भी अब ऐसे काम करने लगी हैं जो पहले नहीं सुने जाते थे। नयी पीढ़ी की बौद्धिक और चिंतन क्षमता का हृास हो गया है और कहीं पुत्र तो कहीं पुत्री ही माता पिता पर दैहिक आक्रमण के लिये आरोपित हो जाती है। नित प्रतिदिन समाचार पत्रों और टीवी चैनलों पर ऐसे समाचार आते हैं जिसमें संतान ही उस माता पिता को तबाह कर देती है जिसकों उन्होंने जन्म दिया है।
      ऐसे में ज्ञानी लोगों को यह ध्यान रखना चाहिये कि जो धन वह कमा रहे हैं उनका स्त्रोत पवित्र हो। अल्प धन होने से कोई समस्या नहीं है क्योंकि चरित्र से सम्मान सभी जगह होता है पर बेईमानी और ठगी से कमाया गया धन अंततः स्वयं के लिये कष्टदायी होता है।
....................................................

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Saturday, April 05, 2014

भर्तृहरि नीति शतक-रोजी रोटी के चक्कर में ज्ञान लुप्त हो जाता है(bhartrihari neeti shatak-roji roti ke chakkar mein gyan lupt ho jaata hai)




      आधुनिक समय में जितना आर्थिक तथा विकास ने अपना बृहद स्वरूप दिखाया है वहीं नैतिक तथा चारित्रिक रूप से विनाश भी उससे कम नहीं हुआ  है। धन और भौतिक सुविधाओं की अतिउपलब्धता ने आदमी को न केवल शरीर बल्कि मस्तिष्क से भी आलसी बना दिया है और कभी कभी तो ऐसे लगता है कि जैसी मानव सभ्यता विवेकशून्य हो रही है। मनुष्य का मन उसे भटकाता है। अगर आदमी महल में है तो मन उसे झौंपड़ी की तरफ आकर्षित करता है और वह झौंपड़ी में है तो महल पाने का ख्वाब देखता है। कहने का तात्पर्य है कि मन असीमित विचारों वाला है और वही मनुष्य को इधर उधर घुमाता और भटकाता भी है। मगर आदमी ने अपने आपको सीमाओं में कैद कर लिया है। न वह केवल वैचारिक रूप से बल्कि शारीरिक रूप से भी कम भी मेहनत करता हैं।  सच बात तो यह है कि मनुष्य की जिन गुणों के कारण अन्य जीवों से भिन्नता दिखती थी वह अब एक तरह से तुप्त हो रहे हैं| एक तरह से मनुष्य पशु और पक्षियों जैसे व्यवहार कर रह है जो कि जीवन में भोग तक ही अपने दैहिक सक्रियता दिखाते हैं|


भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
----------------
हिंसाशून्यमयत्नलभ्यमश्यनं धात्रा मरुत्कल्पितं
व्यालानां पशवस्तृणांकुरभुजस्तुष्टाः स्थलीशायिनः
संसारार्णवलंधनक्षमधियां वृत्तिः कृता सां नृणां
तामन्वेषयतां प्रर्याति सततं सर्व समाप्ति गुणाः

            हिंदी में भावार्थ- परमात्मा ने सांपों के भोजन के रूप में हवा को बनाया जिसे प्राप्त करने में उनको   बगैर हिंसा और विशेष प्रयास किए बिना प्राप्त हो जाती है। पशु के भोजन के लिए घास का सृजन किया और सोने के लिए धरती को बिस्तर बना दिया परंतु जो मनुष्य अपनी बुद्धि और विवेक से मोक्ष प्राप्त कर सकता है उसकी रोजीरोटी ऐसी बनायी जिसकी खोज में उसके सारे गुण व्यर्थ चले जाते हैं।

                  आधुनिक  काल में इंसान बस धन,दौलत और प्रतिष्ठा के संचय में ही लिप्त हो गया है। उसका मन उसे कहीं निष्काम कर्म या निष्प्रयोजन दया के लिये प्रेरित भी करे तो वह तैयांर नहीं होत्ता  क्योंकि उसक मस्तिष्क की नस नारियाँ  अब केवल सीमित दायरे में ही कार्य करती हैं। ऐसे में लोगों का मानसिक तनाव बढ़ रहा है पर जिन लोगों को ज्ञान है वह संतोषी सदा सुखी की नीति पर चलते हुए कुछ ऐसे काम भी करते हैं जिनसे मन को प्रसन्नता हो। संचय करने वालों की हालत यह है कि उन्होंने इतना कमा लिया है कि उनकी सात पीढि़यां भी बैठकर खायें पर वह अपने जीवन में धनार्जन करने के अलावा उन्होंने कुछ सीखा ही नहीं है ऐसे में उनका मन उन्हें इतना भटकाता है कि उनका पूरा जीवन व्यर्थ जाता है। इस तरह उनके जो स्वाभाविक गुण होते हैं वह व्यर्थ हो जाते हैं। न वह अपने जीवन में भगवान की भक्ति कर पाते हैं न ही उनको कोई ज्ञान प्राप्त होता है। अध्ययन,चिंतन,श्रवण और मनन के जो गुण उनमें रहते हैं वह कभी उनका उपयोग नहीं कर पाते|
      जिन लोगों को लगता है कि जीवन को केवल भोग तक रखना ठीक नहीं हैं उन्हें अपना प्रात: का समय योग साधना तथा भगवन स्मरण में लगाना चाहिए|

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Wednesday, April 02, 2014

किसी की भी चाटुकारिता और चमचागिरी करना व्यर्थ-भर्तृहरि नीति शतक के आधार पर चिंत्तन लेख(kisi ki bhi chatukarita aur chamachagiri karna vyarth-a hindu religion thought on bhartirihari neeti shatak)



      दूसरों से प्रशंसा पाने की  महत्वाकांक्षा मनुष्य को हास्यास्पद स्थितियों में पहुंचा देती है।  चाटुकारिता और चमचागिरी जैसे शब्द हमारे समाज में प्रचलित हैं जो इस बात के द्योतक हैं कि हमारे बीच ऐसे लोग हैं जो अनावश्यक रूप से अपने स्वामी, अधिकारी अथवा उस व्यक्ति को प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं जिससे उनको थोड़े भी लाभ की आशा होती है।  स्वयं को श्रेष्ठ, वफादार, ईमानदार तथा कर्तव्यपरायण प्रमाणित करने के लिये अनेक लोग दूसरे की निंदा या शिकायत करते हैं।  जिन लोगों को अपने स्वामी या अधिकारी को प्रसन्न करना होता है वह उनके सामने हमेशा ही अपने ही सहयोगियों को नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं।  उनको यह  लगता है कि ऐसा कर वह अपने स्वामी या अधिकारी का विश्वास जीत लेंगे। दरअसल इस तरह की नीति उन लोगों की होती है जो अपने ही कर्म की शुद्धता के प्रति सशंकित  होते हैं। उनकी नीयत में ही खोट होता है आर तब वह अपने ही साथी की छवि खराब कर अपनी श्रेष्ठता का प्रचार करते हैं।
      हमारे यहां आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा पद्धति, विदेशी राजकीय कार्यप्रणाली, पाश्चात्य आर्थिक तथा सामाजिक नीतियां तथा संस्कृति अपनाये जाने के बाद समाज में चाटुकारिता तथा चमचागिरी करने  की प्रवृत्ति बढ़ी है। इस पाश्चात्य संस्कृति का एक ही सिद्धांत हैं कि सामंत, स्वामी और साहब कभी गलत नहीं होते-यानि जिसके पास धन का बाहुल्य, उच्च पद और प्रतिष्ठा है उसे तो उसकी योग्यता के अभाव में भी सम्मानीय मानना चाहिये। आर्थिक उदारीकरण के चलते राजकीय क्षेत्र की बजाय निजी क्षेत्र में रोजगार या नौकरियां के अवसर बढ़े है जिस कारण समाज में त्रिवर्गीय समाज-उच्च, मध्यम और निम्न-की बजाय द्विवर्गीय समाज-साहब और गुलाम-में बदल रहा है। समाज में आर्थिक और सामजिक रूप से गुणात्मक अंतर स्पष्ट होने लगा है जिससे छोटे लोगों को अपने अस्तित्व बचाने के लिये कथित बड़े लोगों की जीहुजूरी करनी पड़ती है।

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
------------------
परेषां चेतांसि प्रतिदिवसमाराध्य बहुधा प्रसादं किं नेतुं विशसि हृदय क्लेशकलितम्।
प्रसन्ने त्वथ्यन्तः स्वयंमुदिरचिन्तामणिगणो विविक्तः सङ्कल्पः किमभिलषितं पुष्यति न ते।।
     हिन्दी में भावार्थ-हे मन! तू प्रतिदिन दूसरों के प्रसन्न करने का प्रयास क्यों करता है? अपने अंदर ही क्यों नहीं झांकता? जब तू अंतर्मन में झांकेगा तब सभी प्रकार के इच्छित फल देने वाले परमात्मा तेरे हृदय में प्रकट होगा तो क्या वह तेरी इच्छायें पूर्ति नहीं करेगा?

      एक तो सामान्य रूप से ही किसी को प्रसन्न करना वैसे  कठिन है और उस पर आजकल के सामंत, स्वामी और साहब का तो कहना ही क्या जो अपनी उपलिब्धयों के मद में लिप्त रहते हैं। कथित उदारीकरण ने मध्यम वर्ग को करीब करीब ध्वस्त कर दिया है ऐसे में उच्च वर्ग के लोगों को लगता है कि निम्म आय वर्ग वाला आदमी उनके सामने मानव रूप पशु ही है। उन पर अपने धन, पद और प्रतिष्ठा का अहंकार इतना रहता है कि अपनी आलोचना तो वह सहन ही नहीं कर सकते।  उनसे हित की कामना रखने वाला कोई व्यक्ति उनकी आलोचना कर जोखिम भी नहीं उठाता पर जिनको कोई उनसे अपेक्षा नहीं है वह उनकी छवि पर प्रतिकूल टिप्पणियां करने से बाज भी नहीं आते।  देखा जाये तो खरी या स्पष्ट बात कहने वाले लोगों की छवि अच्छी होने की बजाय समाज खराब ही मानता है।  स्पष्टवादी को अहंकारी तथा अपना ही शत्रु घोषित कर दिया जाता है।
      भारतीय अध्यात्म दर्शन के अनुसार सभी का दाता भगवान ही हैं उसने पेट बाद में दिया पहले ही अन्न के दानों पर नाम लिख दिया। इसलिये कभी भी किसी की चाटुकारिता अथवा चमचागिरी नहीं करना चाहिये।  यहां कोई भी मनुष्य असाधारण, उच्च अथवा निम्म नहीं है।  यह अलग बात है कि जो लोग हमसे उच्च स्थान होने पर हमसे परे हैं हमें देवता लगते हैं पर उनमें भी सामान्य मानवीय कमजोरियां होती हैं।  यह सत्य जानकर सभी से सामान्य और सम्माजनक व्यवहार करना चाहिये।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

अध्यात्मिक पत्रिकायें

वर्डप्रेस की संबद्ध पत्रिकायें

लोकप्रिय पत्रिकायें