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Thursday, January 30, 2014

स्वार्थी का लक्ष्य प्रेम करना नहीं होता-तुलसी दर्शन पर आधारित चिंत्तन(swarthi ka lakshya prem karna nahin hota-tulsi darshan par aadharit chinntan lekh )



      हम अक्सर दूसरे लोगों के व्यवहार पर टीका टिप्पणियां करते हैं।  किसी में गुण दिखता है तो प्रसन्नता होती है और किसी में दोष देखते हैं तो उस पर क्रोध भी आ जात है। आमतौर से सामान्य लोग दूसरों में दोष ही देखते हैं।  समाज में परनिंदा का फैशन पुराना है। विरले ही ऐसे सज्जन मिलते हैं जो किसी की प्रशंसा करते मिलेंगे। स्थिति यह है कि लोग एक दूसरे के मित्र होते हुए भी प्रशंसा नहीं करते। इसके विपरीत पीठ पीछे अपने ही मित्रों की ऐसे लोगों के सामने निंदा करते हैं जो उनके स्वयं के मित्र नहीं होते।
      एक बार इस लेखक की भेंट एक कंपनी में कार्यरत उच्च अधिकारी मित्र से हुई थी।  उस मित्र ने अपने ही कार्यालय की एक कथा सुनाई।  वहां दो कार्यरत कर्मचारी आपस में  अच्छे मित्र थे। दोनों के पारिवारिक संबंध थे।  एक मित्र मध्यम पद तो दूसरा छोटे पद पर था।  मध्यम पद पर कार्य करने वाला मित्र निरीक्षक होने के कारण अपने कर्मचारी मित्र को अपने काम के सिलसिले में कभी टोकता भी तो इस बात का आभास नहीं देता था कि वह उसका अधिकारी है।  दोनों अच्छा काम करते थे इसलिये हमारे प्रबंधक मित्र को उनसे कोई परेशानी भी नहीं थी। दोनों भोजनावकाश में साथ खाना खाते और चाय भी पीने जाते थे। जब उनसे जुड़ा काम होता तो वह दोनों ही अपने प्रबंधक मित्र से मिलने आते थे।
      एक बार उनके काम में कोई कमी आयी। तब हमारे प्रबंधक  ने निरीक्षक मित्र को बुलाया। उससे काम के सिलसिले में कमी की बात की तो उसने पूरा दोष अपने कर्मचारी मित्र पर डाला।
      प्रबंधक ने सरल भाव से कहा-‘‘ठीक है, वह तो आपका मित्र है। संभाल लीजिये।’’
      होना तो यह चाहिये था कि वह निरीक्षक स्वीकृति में सिर हिलाकर चला जाता पर उसने कहा-‘‘साहब, कैसा मित्र? वह तो मजबूरी है, साथ काम करते हैं इसलिये निभाना पड़ता है, वरना मैं उसे पसंद नहीं करता।’’
      उसने कर्मचारी मित्र की इतनी बुराईयां की कि प्रबंधक दंग रह गया।  उत्सुकतावश उसने कर्मचारी मित्र को बुलाया।  उसने अपने काम का पूरा दोष प्रबंधक पर डाल दिया।  कमोवेश उसने भी निरीक्षक मित्र के प्रतिकूल उतनी ही  बातें कहीं जितना वह प्रबंध से कर गया था।
      उनके व्यवहार पर हमारे प्रबंधक मित्र ने हमसे टिप्पणी करते हुए कहा-‘‘यार, अगर वह चाहते थे तो प्रसंग इतना अप्रिय नहीं था जिस पर वह अपनी पुरानी मित्रता की पोल मेरे जैसे उस व्यक्ति के सामने नहीं खोलते जो जिसे उनके कार्यालय में न अधिक समय आये हुए था न अधिक वहां रहने वाला था।  आज नहीं तो कल मेरा स्थानांतरण वहां से होना ही था। मैंने मित्रता का जो वहां पाखंड वहां देखा वह मेरे मन को आज तक तकलीफ देता है।’’
संत  तुलसीदास कहते है कि
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लखि गयंद ले चलत भजि, स्वान सुखानो हाड़।
गज गुन मोल अहार, महिमा जान कि राड़।।
              सामान्य हिन्दी में भावार्थ-हाथी को देखकर कुत्ता सूखी हड्डी ऐसे लेकर दौड़ पड़ता है कि वह उसे छीन लेगा। वह हाथी के गुण , मूल स्वभाव और आहार की प्रकृत्ति को नहीं जानता।
कै निदरहु कै आदरहु, सिंघहि स्वान सिआर।
हरण विषाद न केसरिहि, कुंजर, कुंजरगंज निहार।।
     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-कुत्ते, सियार और सिंह का आदर करें या सम्मान उनको परवाह नहीं होती।  हाथी का शिकार करने पर सिंह को दुःख या हर्ष नहीं होता।
      कहने का अभिप्राय यही है कि आम मनुष्य का स्वभाव होता है कि वह स्वार्थ की वजह से अनेक प्रकार के संबंध निभाता है। हम अनेक बार ऐसे लोगों की उपेक्षा से दुःखी हो जाते हैं जिनका काम हमने कभी किया था।  हम यह भूल जाते हैं कि अनेक लोगों ने अनेक अवसरों पर हमारा काम किया होता है पर उनकी याद हमें नहीं आती। यह संसार का नियम है कि काम निकलने के बाद हम अनेक प्रकार के सामान फैंक देते हैं और उन व्यक्तियों से स्वाभाविक रूप से परे हो जाते हैं जिन्होंने हमारा कभी साथ दिया।  सच बात तो यह है कि सच्चा संबंध वही है जो स्वार्थ की वजह से हुआ जरूर हो पर उसकी नियमित स्थिति निराधार हो। शिक्षा, कार्यस्थल या किसी अन्य कारण से बने संबंध तभी शुद्ध रह पाते हैं जब उनमें स्वार्थ की पूर्ति से हार्दिक प्रेम हो। 

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Friday, January 24, 2014

संत कबीर दर्शन-बिना विचार के बोलने वाला साधु नहीं(sant kabir darshan-bina vichar ke bolne wala sadhu nahin)



      हमारे देश में अनेक ऐसे मठाधीश धर्म के नाम पर अपने आश्रमों में महल की तरह व्यवस्था कर उसमें राजा की तरह विराजमान रहते हैं। यही नहीं उनके मुंहलगे कथित शिष्य उनकी सेवा इस तरह करते हैं जैसे कि वह महल के कारिंदे हों। धर्म के प्रतीक रंगों के वस्त्र पहनकर अनेक ऐसे लोग साधु बनकर समाज के पथप्रदर्शक बनने का ठेका लेते हैं जिन्होंने भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों में वर्णित ज्ञान को रट तो लगाया पर धारण न कर उसे विक्रय योग्य विषय बना लिया है।  इतना ही नहीं ऐसे कथित साधु अनेक निंदनीय प्रसंगों में शामिल होकर अपनी प्रतिष्ठा तक गंवा देते हैं मगर फिर भी बेशरमी से अपने विरुद्ध कार्यवाही को हिन्दू धर्म का विरोध में की गयी प्रचारित करते हैं।  इतना ही नहीं प्रचार माध्यमों में बने रहने का उनका मोह उन्हें इतना रहता है कि हर विशेष घटना पर अपनी प्रतिकिया देने के लिये पर्दे पर हमेशा ही अवतरित होने का प्रयास करते हैं। अध्यात्मिक विषयों पर चर्चा कर लोगों को आत्मिक रूप से परिपक्व बनाने की बजाय यह लोभी साधु सांसरिक विषयों में दक्षता प्राप्त करने के हजार नुस्खे बताते हैं।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि
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साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार सार को  गहि रहै, थोथा देइ उड़ाय।।
      सामान्य हिन्दी में भावार्थ-साधु वही व्यक्ति है जिसका स्वभाव सूप(छाज) की तरह हो। वह केवल ज्ञान की चर्चा करे और व्यर्थ की बातों की उपेक्षा कर दे।
साधु भया तो क्या भया, बोलै नाहिं बिचार।
हतै पराई आतमा, जीभ गाधि तरवार।।
     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-वह साधु नहीं हो सकता जो बिना विचार किये ही सारे काम करता है। वह अपनी जीभ का तलवार की तरह उपयोग कर दूसरे के  आत्मा  को रंज करता है।
      सच्चा साधु वही है जो सहज भाव से आचरण, विचार तथा व्यवहार करता हो। मान और अपमान में समान हो।  इतना ही नहीं किसी भी स्थिति में वह अपनी वाणी को कृपाण की तरह उपयोग न करे।  साधु की सबसे बड़ी पहचान उसकी मधुर वाणी तथा प्रभावशाली चरित्र होता है। हम आजकल ऐसे अनेक कथित साधुओं को देखते हैं जो प्रचार माध्यमों में चेहरा चमकाने के लिये उत्सुक रहते हैं पर यह अलग बात है कि अनेक बार उनका यही मोह तब शत्रु बन जाता है जब उनकी हिंसक, मूर्खतापूर्ण तथा अव्यवहारिक गतिविधियां कैमरे के सामने आ जाती हैं। आज के प्रचार माध्यम इतने शक्तिशाली है कि उनके उपयोग से अनेक व्यवसायिक धर्म के ठेकेदार प्रतिष्ठित हो गये पर अंततः उन्हें बदनामी का बोझ भी इसी वजह से झेलना पड़ा क्योंकि उन्होंने इस शक्ति को समझा नहीं।
      ऐसा नहीं है कि सच्चे साधु इस देश में मिलते नहीं है जिनके गुरु बनाया जा सके। हमारा मानना है कि सच्चे साधु कभी प्रचार के मोह नहंी पड़ता न धर्म की दुकान लगाते हैं। आत्मप्रचार में लगे साधुओं की सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह अपने शिष्य बनाने के लिये आओ आओ के नारे उसी तरह लगाते हैं जैसे दुकानदार ग्राहक के लिये लगाते हैं।  उसी तरह जिस तरह फेरीवाले सामान लेकर घर घर जाते हैं वैसे ही कथित साधु अपने शिष्यों के घर जाकर आतिथ्य ग्रहण उनको कृतार्थ करने का ढोंग रचते हैं।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Sunday, January 19, 2014

ध्यान से विषयों से उत्पन्न विष को नष्ट करना सहज-पतंजलि योग सूत्र के आधार पर चिंत्तन लेख(dhyan se vishayon utpanna vish ko nasht karna sahaj-patanjali yog sootra ke aadhar par chinttan lekh)



      इस संसार में मनुष्य के जीवन में क्लेश और प्रसन्नता दोनों ही प्रकार के संयोग बनते बिगड़ते हैं। यह अलग बात है कि सामान्य मनुष्य सुख का समय आने पर सब कुछ भूल जाता है पर जब दुःख का समय आता है तब वह सहायता के लिये इधर उधर ताकता रहता है। क्लेश के समय वह विचलित होता है पर जिन लोगों को योग तथा ज्ञान का अभ्यास निरंतर हो उन्हे कभी भी इस बात की परवाह नहीं होती कि उसका समय अच्छा चल रहा है या बुरा, बल्कि वह हर हालत में सहज बने रहते हैं।
      हमारे देश में पेशेवर योग शिक्षकों ने प्राणायाम तथा योगासनों का प्रचार खूब किया है जिसके लिये वह प्रशंसा के पात्र भी हैं पर ध्यान के प्रति आज भी लोगों में इतना ज्ञान नहीं है जितनी अपेक्षा की जाती है। यह ध्यान ही मनुष्य की वास्तविक शक्ति होती है जो कि मनुष्य के उस मन पर नियंत्रण करने में सहायक होती है जो प्रत्यक्ष उसकी देह का स्वामी होता है।  हमारे दर्शन के अनुसार अध्यात्म या आत्मा मनुष्य की देह का वास्तविक स्वामी होता है और योग विद्या से अपनी इंद्रियों का उससे संयोग कर जीवन को समझा जा सकता है। योगाभ्यास में ध्यान विद्या में पारंगत होने पर ही समाधि के चरम स्तर तक पहुंचा जा सकता है।

पतंजलि योग साहित्य मे कहा गया है कि
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ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः।
     हिन्दी में भावार्थ-सूक्ष्मवस्था को प्राप्त क्लेश चित्त को अपने कारण में विलीन करने के साधन से नष्ट करना चाहिये।
ध्यानहेयास्तदूवृत्तयः।
     हिन्दी में भावार्थ-उन क्लेशों की वृत्तियां ध्यान से नाश करने योग्य हैं।

      जहां आसन और प्राणायाम प्रातः किये जाते हैं वहीं ध्यान कहीं भी  कभी भी लगाया जा सकता है। जहां अवसर मिले वहीं अपनी बाह्य चक्षुओं को विराम देकर अपनी दृष्टि भृकुटि पर केंद्रित करना चाहिये।  प्रारंभ में सांसरिक विषय मस्तिष्क में विचरण करते हैं तब ऐसा लगता है कि हमारा ध्यान नहीं लग रहा पर धीरे धीरे इस बात का अनुभव होता है कि उन विषयों का विष वहां जलकर नष्ट हो रहा है।  जिस तरह हम करेला खायें या मिठाई, हमारे उदर में वह कचड़े के रूप में परिवर्तित होता है।  उसी तरह कोई विषय प्रसन्नता देने वाला हो या क्लेश उत्पन्न करने वाला, वह अंतर्मन में विष ही पैदा करता है। यह विष कोई भौतिक रूप से नहीं होता इसलिये उसे ध्यान  से ही जलाकर नष्ट किया जा सकता है।  हम विचार करें तो ध्यान के दौरान भी मनुष्य दैहिक अंगों की सक्रियता नहीं होती। ध्यान अभौतिक या मानसिक स्थिति है। विषयों से संसर्ग उत्पन्न विष ध्यान के माध्यम से जब नष्ट हो जाता है उसके बाद मनुष्य को यह सुखद अनुभूति होने लगती है  उसकी देह एकदम हल्की हो गयी है और वह जैसे उड़ रहा है। मस्तिष्क की नसों में एक ऐसे सुख का आभास होता है जिसे शब्दों में वर्णन करने की बजाय मनुष्य उसे अनुभव करते रहने में ही आनंद अनुभव करता है।

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Tuesday, January 14, 2014

तुलसीदास का दर्शन-सरल लोगों से अपना व्यवहार करें(Tuslidas ka darshan-saral logon se apna vyavhar karen)



  पूरे विश्व मे भौतिकतावाद का बोलबाला हो गया है। नयी नयी वस्तुओं के नये नये रूप प्रतिदिन आते हैं। उनके विक्रय करने के लिये प्रचार माध्यमों में विज्ञापन दिये जाते हैं। स्थिति यह है कि उत्पादक कंपनियों ने पूरे समाज में अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है। फिल्म, कला, पत्रकारिता, समाज सेवा था खेल जैसे क्षेत्रों में अपने अपने बुत बैठा दिये हैं।  वस्तुओं के उत्पादन से लेकर उनके विक्रय तक यही बुत उनके लिये सुविधाजनक मार्ग बनाते हैं।  यही कारण है कि लोगों के सामने कपटी तथा मक्कार लोग वेश बदल बदल कर उनकी बुद्धि का हरण करने लगते हैं।
      कहा जाता है कि पूरे विश्व में भ्रष्टाचार है।  इसका कारण यह है कि आधुनिक लोकतंत्र में पूंजी की प्रधानता हो गयी है। कोई भी पूंजीपति कहीं पैसा  लगाता है तो उसकी वापसी उससे कई गुना चाहता है।  इस लोकतांत्रिक प्रणाली में जनप्रतिनिधि शासन की देखभाल करते हैं पर प्रत्यक्ष रूप उनको काम करने का अधिकार नहीं होता जबकि जिम्मेदारी प्रजा के प्रति उनका दायित्व होता है। जो शासन का कार्य करते हैं उनका प्रजा के प्रति कोई प्रत्यक्ष दायित्व नहीं होता। यही कारण है कि विश्व के अनेक देशों में जन असंतोष व्याप्त है। यहां तक कि अपने ही चुने हुए प्रतिनिधियों के प्रति उनमें विश्वास कम होता जा रहा है। विश्व के अनेक देशों में जनप्रतिनिधि केवल नाम भर के रहते हैं। अमेरिका हो या ब्रिटेन सभी जगह सरकार अधिकारियों का दबदबा रहता है और वही जनप्रतिनिधियों के मार्गदर्शक होेते हैं।  स्थिति यह है कि जनप्रतिनिधि अपने मतदाता से लुभावने वादे तो कर देते हैं पर जब राजकीय पद पर विराजमान होते हैं तब अधिकारीगण उनके मार्गदर्शक बनकर मतदाताओं से किये गये वादों से उनके दूर कर देते हैं।
संत तुलसीदास जी कहते हैं कि
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हृदय कपट का वेष धरि, बचन कहि गढ़ि छोलि।
अब के लोग मयूर ज्यों, क्यों मिलिए खालि।।
     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-लोग हृदय में कपट रखकर मीठी बातें करते हैं। ऐसे लोगों से खुलकर मिलना संभव नहीं है जो पाखंडपूर्ण व्यवहार करते हैं।
मिलै जो सरलहि ह्वै, कुटिल न सहज बिहाड़।
सो सहेतु ज्यों वक्र गति, ब्याल न बिलहि समाइ।।
     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-अपना व्यवहार हमेशा सरल प्रकृत्ति के लोगों से ही करना चाहिये। टेढ़ी प्रकृति के लोग कभी भी असंयत व्यवहार कर धोखा दे सकते हैं। सांप भले ही अपनी बिल में सीधा जाता है पर बाहर हमेशा ही टेढ़ी चाल चलता है।
      पहले कहा जाता था कि यथा राजा तथा प्रजा। आधुनिक लोकतंत्र में यह कहावत उलट कर भी देखी जा सकती है।  यथा प्रजा तथा राजा।  लोगों अपने जनप्रतिनिधियों का आक्षेप तो करते हैं पर अपने मानस का अध्ययन नहीं करते।  तुलसीदास ने तो चार सौ बरस पहले इसी समाज को देखकर अपनी महान रचनायें प्रस्तुत की थीं। अगर उस समय का समाज वास्तव में इतना महान होता तो तुलसीदास जी तथा उनके समकालीन कविगण ऐसी रचनायें नहीं देते जो लोगों की प्रकृत्तियो पर व्यंग्य करती नजर आती हैं। पूरा समाज के सभी लोग कभी भ्रष्ट नहीं रहे पर इतना तय है कि सरल हृदय लोग भी नगण्य ही रहे हैं। यही कारण है कि अक्सर लोग कहते हैं कि जमाना खराब हो गया है यह अलग बात है कि लोग छोटे छोटे मामलों में एक दूसरे झूठ बोलने के साथ धोखा भी देते हैं। वैसे दूसरे क्या करते हैं, यह देखने की बजाय हर आदमी को आत्मविश्लेषण करे हुए अपने विचार, व्यवहार तथा व्यक्तित्व की तरफ घ्यान देना चाहिये।

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Thursday, January 09, 2014

कामदेव के प्रभाव से कोई भी धर्मभीरु नहीं बच सकता-भर्तृहरि नीति शतक (kamdev ke prabhav se koyee dharmabhiru nahin bach sakta-bhartiriharineeti shatak)



      आजकल हमारे देश में अनेक कथित बाबाओं के यौन अपराधों पर प्रचार माध्यम सनसनी खबरें पर प्रस्तुत कर अपना जनहित धर्म निभाते हुए फूले नहीं समाते। जब यह खबरें प्रसारित होती हैं तो संवाददाता और उद्घोषक बाबाओं के बारे में यह कहते हुए नहीं थकते थे कि समाज में अनेक पाखंडी धर्म के ठेकेदार हैं। यह नहीं  जानते हैं कि धर्म एक अलग विषय है और उसके नाम पर प्रचार का व्यवसाय करना कभी किसी के धार्मिक होने का प्रमाण पत्र नहीं हो जाता।  दूसरी बात यह है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के रूप में चार अलग अलग प्रकियायें हैं जिनका आपस में प्रत्यक्ष कोई संबंध नहीं होता।  हां, इतना अवश्य है कि प्रातः धर्म निर्वाह के बाद अन्य प्रक्रियाओं में सात्विकता का भाव स्वतः आ जाता है। भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान न होने के कारण पश्चिमी शिक्षा से ओतप्रोत इन प्रचार माध्यमों में कार्यरत बुद्धिमान लोगों से तो यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह धर्म को काम से न जोड़ें बल्कि उनके दर्शकों में बहुत कम लोग इस बात को समझ पाते हैं कि काम की अग्नि धर्म के कच्चे खिलाड़ी को ही नहीं वरन् परिपक्व मनुष्य को भी पथ से भ्रष्ट कर देती है।

महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि
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विश्वामित्रपराशरप्रभृत्यो वाताम्बुपर्णाशनास्तेऽपि स्त्रीमुखपङ्कजं सुललित। दृष्ट्वैव मोहं गताः।।
शाल्पन्नं सघृतं पयोदधियुतं भुञ्जन्ति ये मानवा।स्तेपामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेत् विन्ध्यस्तरेत् सागरे।।
      हिन्दी में भावार्थ-विश्वमित्र और पाराशर ऋषि पत्ते और जल का सेवन कर तप करते थे वह भी काम की अग्नि का वेग सहन नहीं कर सके तो फिर अन्न, घी, दूध तथा दही का सेवन करने वाले मनुष्य काम पर नियंत्रण कर लें तो समझ लो समुद्र में विंध्याचल तैर रहा है।

      जब सतयुग में कुछ ऋषि अपनी तपस्या में कामदेव को विध्न डालने से नहीं रोक सके तो आज के व्यवसायिक धर्मगुरुओं से यह आशा करना कि वह कामाग्नि से बच पायेंगे मूर्खता है।  हमारे देश में अनेक गुरु हैं जो अपने आसपास शिष्याओं का जमावड़ा इसलिये दिखाते हैं ताकि भक्त अधिक से अधिक उनके पास आयें।  अगर हम भारतीय अध्यात्मिक पात्रो का अध्ययन करें तो कहीं भी किसी नारी का गुरु पुरुष नहीं होता।  जब भगवान श्रीराम वनवास को गये थे तब श्रीसीता के साथ अनेक ऋषियों के आश्रम में गये। वहां भगवान श्रीराम उन ऋषियों से चर्चा करते थे गुंरु पत्नियां ही श्रीसीता को ज्ञान देती थीं।  आजकल जब नारी और पुरुष समान का नारा लगा है तब धर्मगुरुओं ने उसका लाभ जमकर उठाया है।  अनेक धर्मगुरु तो प्रवचन के समय अपनी निकटस्थ शिष्याओं को मंच पर ही बिठा देते हैं ताकि आकर्षण बना रहे।
      इधर जब से यौन अपराधों पर नया कानून आया है तब अनेक गुरुओं पर मामले दर्ज हो चुके हैं।  कभी कभी तो कुछ लोगों को  यह लगता है कि अपने भारतीय धर्म की बदनामी प्रायोजित ढंग से की जा रही है। इस तरह का संदेह करने वाले लोग कहते हैं कि दूसरे धर्म की कोई चर्चा नहीं करता।  हमारा मानना है कि हमारे देश में भारतीय धर्मावलंबियों को बहुमत है इसलिये उनकी घटनायें अधिक सामने आती हैं।  दूसरी बात यह कि अन्य धर्मों में कहीं पैसे तो पहलवानी के दम पर ऐसी घटनाओं को आने से रोका जाता है जबकि भारतीय धर्म में ऐसा नहीं हो पाता। जहां तक विश्व के सभी धर्मों के ठेकेदारों का सवाल है वह चाहे लाख पाखंड करें पर जिनके पास महिला शिष्यों का अधिक जमावड़ा है वहां पूरी तरह से मर्यादित व्यवहार की आशा कम ही हो जाती है। यह अलग बात है कि कुछ स्वयं नियंत्रित कर लेते हैं पर कुछ कामाग्नि में जल ही जाते हैं। कुछ का अपराध सामने आ जाता है जिनका दुष्कर्म अप्रकट है वह साधु ही बने रहते हैं।

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