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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Sunday, December 29, 2013

अपने पाप की स्वीकृति कर मुक्ति पायें-मनुस्मृति के आधार चिंत्तन लेख(apne paap ki swikriti ka mukti paayen-manu smriti ke aadhan par chinntan



            जिनकी प्रवृत्ति अपराधिक है उनसे तो यह भी अपेक्षा की ही नहीं जा सकती कि पर कभी कभी सामान्य मनुष्य भी अपराध कर बैठत है और फिर परेशान होता है। इससे बचने का एक ही उपाय है अपने अपराध की सार्वजनिक रूप से हृदय से स्वीकृत्ति की जाये। यह बात सामान्य मनुष्य के लिये कही जा रही है जो जघन्य अपराध नहीं करते वरन् ऐसे कर्म कर बैठते हैं जो नैतिक रूप से अनुचित होते हैं। झूठ बोलना, परनिंदा तथा धोखा देने जैसे पाप शायद ही कोई ऐसा सामान्य मनुष्य हो जो कभी नहीं करता है। फिर उसे पीड़ा भी बहुत होती है। अनेक लोग तो ऐसे है जिन्हें कर्म करते समय उसके पापपूर्ण होने का अहसास नहीं होता पर बाद में वह पछताते हैं पर वह उसके प्रायश्चित का उपाय नहीं करते। 
मनुस्मृति में कहा गया है कि

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ख्यायनेनानुतायेन तपसाऽध्ययनेन च।

पापकृन्मुच्यते पापतथा दानेन चापदि।।

            हिन्दी में भावार्थ-पापी व्यक्ति अपने दुष्कर्म का सत्य लोगों को बताकर, पश्चाताप कर, तप तथा स्वाध्याय कर मुक्ति पा सकता है। संकट की घड़ी में तप तथा स्वध्याय न करे तो दान करने से भी वह शुद्ध हो जाता है।

यथा यथा नरोऽधर्म स्वयं कृत्याऽनुभाषते।

तथा तथा त्वचेवाहिस्तेनाधर्मेण मुच्यते।।

            हिन्दी में भावार्थ-अपने अपराध की स्वीकृति दूसरों के सामने करने पर आदमी पाप से मुक्त हो जाता है।
            अनेक भावुक लोग तो छोटी गलती कर ही मन ही मन पछताते हैं। इतना कि अपना पूरा जीवन ही तनावपूर्ण बना डालते हैं। इससे बचने का एक उपाय है तो यह है कि किसी दूसरे के सामने अतिशीघ्र अपनी गलती का बखान कर मन हलका करें अथवा हृदय में पछतावा करने के साथ ही यह बात भी तय करना चाहिये कि ऐसी गलती दोबारा नहीं करनी है।  दूसरा यह कि कहीं ध्यान लगाकर परमात्मा का स्मरण कर उसे अपनी गलती समर्पित करें अथवा धार्मिक ग्रंथ का अध्ययन कर अपना मन मजबूत करें। इसका अवसर न मिले तो फिर किसी सुपात्र को कोई वस्तु या धन देकर मन की शुद्धि करें।


संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Tuesday, December 24, 2013

तुलसी दास दर्शन-रसों में अमृत और विष की पहचान करने वाला ही सच्चा रसिक(tulsidas darshan-rason mein amrit aur vish ki pahachan karne wala hi sachcha rasik-tulsidas darsha)



            पूरे विश्व में उपभोग संस्कृति का प्रभाव बढ़ रहा है। धार्मिक गुरु तथा समाज चिंत्तक भले ही अपने समाजों के सांस्कृतिक, धार्मिक तथा श्रेष्ठ होने का दावा भले करें पर सच यह है कि अध्यात्मिक दृष्टि से लोगों की चेतना का एक तरह से हरण हो गया है।  स्थिति यह हो गयाी है कि विषयों में  अधिक लोग इस तरह लिप्त हो गये हैं कि उनकी वजह से जो दैहिक, मानसिक तथा शारीरिक विकार पैदा हो रहे हैं उनका आंकलन कोई नहीं कर रहा।  अनेक लोगों के पास ढेर सारा धन है पर उनका पाचन क्रिया तंत्र ध्वस्त हो गया है।  महंगी दवाईयां उनकी सहायक बन रही हैं। दूसरी बात यह है कि जिसके पास धन है वह स्वतः कभी किसी अभियान पर दैहिक तथा मानसिक बीमारी के कारण समाज का सहयोग नहीं कर सकता। उसके पास देने के लिये बस धन होता है। जहां समाज को शारीरिक तथा मानसिक सहायता की आवश्यकता होती है वह मध्यम तथा निम्न वर्ग का आदमी ही काम आ सकता है।
            अनेक लोग धन के मद में ऐसे वस्त्र पहनते हैं जो उनकी छवि के अनुरूप नहीं होते। उसी तरह औषधियों का निरंतर सेवन करने से  उनकी रोगप्रतिरोधक क्षमता का हृास हो जाता है। यहां तक कि अनेक लोगों को सामान्य जल भी बैरी हो जाता है। अनेक बीमारियों में चिकित्सक कम पानी पीने की सलाह देते हैं।  अधिक दवाईयों का सेवन भी उनके लिये एक तरह से दुर्योग बन जाता है।    
संत तुलसीदास कहते हैं कि
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ग्रह भेषज जल पवन पट, पाइ कुजोग सुजोग।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग, लखहिं सुलच्छन लोग।।
            सामान्य हिन्दी में भावार्थ-ग्रह, वेशभूषा, पानी, वायु तथा औषधि समय अनुसार दुर्योग तथा संयोग बनाते हैं।
जो जो जेहि जेहि रस मगन, तहं सो मुदित मन मानि
रसगुन दोष बिचारियो, रसिक रीति पहिचानि।।
            सामान्य हिन्दी में भावार्थ-प्रत्येक मनुष्य अपने स्वभाव के अनुसार संसार के विषयों के रस में मग्न रहता है। उसे उसके रस के दोषों के प्रभाव को नहीं जानते। इसके विपरीत ज्ञानी लोग रसों के गुण दोष को पहचानते हुए ही आनंद उठाते है। एक तरह से ज्ञानी ही सच्चे रसिक होते हैं।
            जिन लोगों की भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में रुचि है वह जानते हैं कि हर विषय के उपभोग की सीमा होती है।  अति हमेंशा वर्जित मानी जाती है। योग और ज्ञान साधना का नियमित अभ्यास करने वाले जानते हैं कि सांसरिक विषयों में जब अमृत का आभास होता है तो बाद में परिवर्तित होकर विष बन जाते हैं जिसे योग तथा ज्ञान साधना से ही नष्ट किया जा सकता है। यही कारण है कि जब विश्व में उपभोग संस्कृति से जो दैहिक, मानसिक तथा वैचारिक विकारों का प्रभाव बढ़ा है तब भारतीय योग साधना तथा श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों की चर्चा हो रही है क्योंकि अमृत से विष बने सांसरिक विषयों के रस को जला देने की कला इन्हीं में वर्णित है।


संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Monday, December 09, 2013

अपने मनोबल को कभी गिरने न दें-हिन्दी चिंत्तन लेख(apne manobal ko kabhi girne na den-hindi chinttan lekh, a hindu thought aritcle)



            संकट कितना गहरा क्यों न हों, शत्रु चाहें कितने भी प्रबल क्यों न हों तथा हमारे बनते काम बिगड़ बार बार क्यों न बिगड़ जाते होें पर कभी विचलित नहीं होना चाहिए।  हमेशा अपनी स्थिति, बाह्य छवि तथा अपनी व्यक्तिगत शक्ति सीमा पर आत्म मंथन करते रहना चाहिये।  सर्वशक्तिमान परमात्मा ने हमारे अंदर प्राणवायु का संचार तो किया है पर शेष जीवन हम अपने ही कर्म तथा व्यवहार का परिणाम भोगते हैं।  इतना ही नहीं हमें अपने अंदर के गुणों तथा दोषों का अवलोकन करते हुए अपनी रणनीति बनानी चाहिये।  एक बात तय है कि कर्म के अनुसार परिणाम होता है और वह हमारी इच्छानुसार न भी मिले तो भी हमारे अंदर की शक्ति तथा गुणों को हमसे कोई नहीं छीन सकता।  इसलिये हमें अपने अंदर के गुणों तथा शक्ति का विस्तार करना चाहिये। अपने अंदर मौजूद कमियों को समाप्त करना संभव नहीं है पर ऐसी रणनीति बनाना चाहिये कि वह हमारी लक्ष्य प्राप्ति में बाधा न बने।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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अम्भोजिनी वनविहार विलासमेव हंसस्य हन्ति नितरां कुपितो विधाता।
न तवस्य दुग्धजलभेविधौ प्रसिद्धां वैदग्ध्यकीर्तिमपहर्तुमसौ समर्थः।।
            हिन्दी में भावार्थ-परमात्मा हंस पर क्रोधित होने पर उस वनविहार अवरुद्ध कर सकता है पर जल और दूध में भेद करने के उसके गुण को छीन नहीं सकता।
            यह समझ लेना चाहिये कि हमारी देह में रहने वाली तीन प्रकृत्तियों-मन, बुद्धि और अहंकार-अपनी अनुसार काम करती है। उन पर नियंत्रण करने वाला ही जितेंद्रिय कहलाता है।  इस संसार में अच्छा बुरा समय सभी का आता है पर जितेंद्रिय पुरुष अपने पराक्रम से अपनी लक्ष्य की तरफ बढ़ता जाता है।  उसे पता होता है कि अगर अच्छा समय नहीं रहा तो बुरा समय भी नहीं रहेगा। उसे यह भी विश्वास होता है कि अपने गुणों के सहारे वह प्रतिकूल स्थिति को अनुकूल बनाकर अपना लक्ष्य प्राप्त करेगा।  उसका मनोबल सदैव बढ़ा हुआ रहता है।  यह मनोबल तभी बढ़ा हुआ रहा सकता है जब हम आत्ममंथन की प्रक्रिया में सदैव लगे रहें।

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