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Saturday, September 28, 2013

मनुस्मृति-भ्रष्ट राज्यकर्मियों की संपत्ति जब्त की जाना चाहिये (thought based on manu smriti-bhrasht rajyakarmilyon ki sampatti jabt ki jana chahiey,movement against corruption)



                        हम कहते हैं कि देश में राजकीय क्षेत्र में बहुत भ्रष्टाचार व्याप्त है। कुछ लोग तो अपने देश इस प्रकार के भ्रष्टाचार से इतने निराश होते हैं कि वह देश के पिछड़ेपन को इसके लिये जिम्मेदार मानते हैं। इतना ही नहीं  कुछ लोग तो दूसरे देशों में ईमानदारी होने को लेकर आत्ममुग्ध तक हो जाते हैं।  उन्हें शायद यह पता नहीं कि कथित रूप से पश्चिमी देशों में बहुत सारा भ्रष्टाचार तो कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त है इसलिये उसकी गिनती नहीं  की जाती वरना भ्रष्टाचार तो वहां भी बहुत है।  हमारा अध्यात्मिक दर्शन मानता है कि जिन लोगों के पास राज्यकर्म करने का जिम्मा है उनमें भी सामान्य मनुष्यों की तरह अधिक धन कमाने की प्रवृत्ति होती है और राजकीय अधिकार होने से वह उसका गलत इस्तेमाल करने लगते हैं। यह स्वाभाविक है पर राज्य प्रमुख को इसके प्रति सजग रहना चाहिये।  उसका यह कर्तव्य है कि वह अपने कर्मचारियों की गुप्त जांच कराता रहे और उनको दंड देने के साथ ही अन्य कर्मचारियों को अपना काम ईमानदारी से काम करने के लिये प्रेरित करे। 
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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राज्ञो हि रक्षाधिकृताः परस्वादायिनः शठाः।
भृत्याः भवन्ति प्रायेण तेभ्योरक्षेदिमाः प्रजाः।।
                        हिन्दी में भावार्थ-प्रजा के लिये राज्य कर्मचारी अधिकतर अपने वेतन के अलावा भी कमाई क्रने के इच्छुक रहते हैं अर्थात उनमें दूसरे का माल हड़पने की प्रवृत्ति होती है। ऐसे राज्य कर्मचारियों से प्रजा की रक्षा के लिये राज्य प्रमुख को तत्पर रहना चाहिये।
ये कार्यिकेभ्योऽर्थमेव गृह्यीयु: पापचेतसः।
तेषां सर्वस्वामदाय राजा कुर्यात्प्रवासनम्।।
                        हिन्दी में भावार्थ-प्रजा से किसी कार्य के लिये अनाधिकार धन लेने वाले राज्य कर्मचारियों को घर से निकाल देना चाहिये।  उनकी सारी संपत्ति छीनकर उन्हें देश से निकाल देना चाहिये।
                        हम आज के युग में जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था को देख रहे हैं उसमें राज्यप्रमुख स्थाई रूप पद पर नहीं रहता। उसका कार्यकाल पांच या छह वर्ष से अधिक नही होता।  ऐसे में पद पर आने पर उसके पास राजकाज को समझने में एक दो वर्ष तो वैसे ही निकल जाते हैं फिर बाकी समय उसे यह प्रयास करना होता है कि वह स्वयं एक बेहतर राज्य प्रमुख कहलाये।  दूसरी बात यह भी है कि राज्य कर्मचारियेां के विरुद्ध कार्यवाही सहज नहीं रही। हालांकि छोटे कर्मचारियों के  विरुद्ध कार्यवाही की जा सकती है पर राज्य के उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों  को स्वयं भी तो ईमानदार होना चाहिये।  उच्च पदों पर बैठे राज्य कर्मचारियों की शक्ति इतनी होती है कि वह राज्य प्रमुख को भी नियंत्रित करते हैं। राज्य प्रमुख अस्थाई होता है जबकि उच्च पदों पर बैठे अधिकारी स्थाई होते हैं। स्थिति यह है कि अनेक देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था के रहते वहां के बुद्धिजीवी  इन्हीं स्थाई उच्च अधिकारियों को आज का स्थाई राजा मानते हैं।  राज्य प्रमुख बदलते हैं  पर ऐसे उच्च अधिकारी स्थाई रहते हैं। कार्य का अनुभव होने से वह राज्य प्रमुख के पद का पर्दे के पीछे से संचालन करते हैं।
                        एक स्थिति यह भी है कि आज के लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव की प्रक्रिया अपनायी जाती है। जिसमें विजय प्राप्त करने वाला ही राज्य प्रमुख बनता है।  चुनाव जीतने वालों में राजनीति शास्त्र का ज्ञान हो यह अनिवार्य नहीं है।  यही कारण है कि येनकेन प्रकरेण सत्ता सुख लेने की चाहत वाले लोग राजनीति क्षेत्र में आ जाते हैं। इनमें से कई लोग बड़े पद पर बैठकर भी अपनी इच्छा का काम नहीं कर पाते। आधुनिक लोकतंत्र में राजकीय अधिकारी का पद सुरक्षित है जबकि चुनाव के माध्यम से चुने गये लोकतांत्रिक प्रतिनिधि की वर्ष सीमा तय होती है।  इस कारण कुछ ही लोकतांत्रिक प्रतिनिधि ऐसे होते हैं जो मुखर होकर काम करते हैं जबकि सामान्यतः तो केवल अपने पद पर बने रहने से ही संतुष्ट रहते हैं।  इस स्थिति ने उन राज्यकर्मियों को आत्मविश्वास दिया है कि वह चाहे जो करें।  अनेक राज्यकर्मी तो प्रजा को काम न कर चाहे जो करने की धमकी तक देते हैं।  यही कारण है कि अनेक देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था के होते भी उस प्रश्नचिन्ह लगाया जाता है।
                        हमारे देश में अध्यात्मिक दर्शन राजस कर्म की मर्यादा और शक्ति बखान करता है।  मनुष्य स्वयं सात्विक भले हो पर अगर उसके जिम्मे राजस कर्म है तो वह उसे भी दृढ़ता पूर्व निभाये यही बात हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है।  हमारे अध्यात्मिक दर्शन को शायद इसलिये ही शैक्षणिक पाठ्यक्रम से दूर रखा गया है क्योंकि उसके अपराधियों के साथ ही भ्रष्टाचार के विरुद्ध भी कड़े दंड का प्रावधान किया गया।  हालांकि अब देश में चेतना आ रही है और अनेक जगह भ्रष्ट राज्यकर्मियों के विरुद्ध कार्यवाही होने लगी है। अनेक जगह तो भ्रष्ट अधिकारियों और कर्मचारियों की संपत्ति जब्त की जाने लगी है पर अभी भी देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक बड़े अभियान की आवश्यकता है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Saturday, September 21, 2013

मनुस्मृति-रात्रि भोजन के बाद मनोरंजन करना चाहिये(manu smriti-ratru bhojan ke baad manoranjan karna aawashyak)



      आमतौर से लोग यह समझते हैं कि भारतीय अध्यात्म दर्शन इंद्रियों पर नियंत्रण करने के लिये हर विषय का त्याग करने की बात करता है। वह मनोरंजन तथा खेल आदि का विरोधी है।  यकीनन यह विचार किसी के भी अज्ञानी होने का ही प्रमाण है।  यह अलग बात है कि जहां भारतीय अध्यात्मिक दर्शन जहां भक्ति तथा ध्यान साधना को एकांत करने की बात कहता है वहीं वह सांसरिक विषयों के साथ निर्लिप्त भाव से  जुड़ने की राय भी देता है।  इस देह की सभी इंद्रियां हमेशा सक्रिय रहती हैं। इंद्रियों का यह स्वभाव है कि वह विभिन्न रसों में लिप्त होने के लिये हमेशा उत्सुक रहती हैं। एकरसता उनको उबा देती है। इसलिये समय और स्थिति कंे अनुसार इंद्रियों पथ बदलना चाहिये पर उनके विषयों से जुड़ने का भी एक समय होता है। हमेशा भक्ति और साधना नहीं हो सकती तो हमेशा मनोरंजन भी नहीं हो सकता।  हमारी देह है तो उसे सांसरिक विषयों से जोड़ना ही पड़ता हैं। प्रातःकाल योग साधना के दौरान आसन, ध्यान, मंत्र जाप तथा पूजा करने से जहां देह, मन और विचारों की शुद्धि होती है वहीं सांयकाल मनोरंजन के दौरान गीत संगीत सुनने से भी मनोविकार दूर होने के साथ ही थकान भी दूर होती है। आदमी की थकी देह में बैठा मन जब मयूर की तरह नाचता है उसमें वह दोपहर अर्थोपार्जन के दौरान एकत्रित विष का नाश होता है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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तत्र भुजत्वा पुनः किञ्चित्तूर्वघोषैः प्रहर्षितः।
संविशेत्तु यथाकालमत्तिष्ठेच्य यतवलमः।।
                        हिन्दी में भावार्थ-भोजन करने के बाद कुछ समय हृदय को प्रसन्न करने के लिये गीत संगीत सुनने के बाद अपनी थकान दूर करने के लिये शयन करना चाहिये।
                        हमारे यहां भक्ति और साधना के साथ ही मनोरंजन का भी समय तय कर जीवन नहीं बिताया जाता।  प्रातःकाल गीत संगीत के साथ मनोंरजन के नाम पर भक्ति होती है तो सांयकाल भी कहीं भक्ति संगीत के नाम पर मनोरंजन कार्यक्रम होते हैं।  हैरानी तब होती है जब अनेक जगह भक्ति संध्या के नाम पर लगते हैं। भक्ति संध्या अर्थात यह  दो शब्द  ज्ञानसाधकों को हतप्रभ कर देते हैं। तब उनके मन में यह विचार भी आता है कि क्या संध्या को भी भक्ति होती है क्या? हां, इतना अवश्य है कि अनेक अध्यात्मिक ज्ञानी रात्रि शयन से पूर्व ध्यान कर सोने की सलाह देते हैं पर वास्तव में इससे निद्रा अच्छी आती है। ध्यान करने से दिन भर जो मन में एकत्रित विष  नष्ट हो जाता है।  शयन करते समय उन विषयों का विचार नहीं आता पर इसका यह आशय कतई नहीं है कि भक्ति के नाम पर मनोरंजन कर उस स्थिति को पाया जा सकता है।
                        कहने का अभिप्राय है कि हमारा अध्यात्मिक दर्शन किसी विषय से जुड़ने पर प्रतिबंध लगाने की राय नहीं देता पर समय तथा सीमा के अनुसार काम करने की राय देता है।  प्रातःकाल जहां एकांत साधना जीवन में पवित्रता लाती है वहीं सांयकाल मनोरंजन करना भी मन को प्रसन्नता देता है। यह मनोरंजन भी एकांत में या सीमित समूह में होना चाहिये न कि उसके लिये भारी भीड़ एकत्रित की जाये।  भीड़ में मनोरंजन का लाभ वैसे ही कम होता है जैसे कि सार्वजनिक रूप से भक्ति करने पर मिलता है। किसी भी भाव की सुखद अनुभूति अंदर केवल एकांत में ही जा सकती है भीड़ में मचा शोर मनोरंजन कम तनाव का कारण अधिक होता है।


संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, September 14, 2013

मनुस्मृति का आधार पर चिंत्तन लेख-.धर्म के नाम पर पाखंड करने वालों को अंधा नरक भोगना पड़ता है(Dharm ke naam par pakhand karne walon ko andha narak bhogana padta hai-hindi thought article based on manu smriti)



                        हमारे देश में धर्म का स्वरूप कभी स्पष्ट रूप से न समझाया जाता है न समझने का प्रयास कोई करता है।  हमारे भारतीय दर्शन के अनुसार धर्म का निर्वहन दो प्रकार से होता है। एक तो अध्यात्मिक साधना जो एकांत में ही की जा सकती है। दूसरा यह कि उस साधना के सहारे देह, बुद्धि और मन की शुद्धता से सांसरिक विषयों में सक्रिय भूमिका निभाई जाती है।  हमारे भारतीय अध्यात्मक संदेशों के अनुसार दिन का समय चार भागों में बांटा गया है। प्रातःकाल का समय अध्यात्मिक साधना या धर्म का, दोपहर का अर्थ, सांयकाल का  काम तथा रात्रि का मोक्ष के लिये- जिसे निद्रा भी कहा जा सकता है- के लिये होता है। यहां हम सायंकाल का समय में काम के विषय को सीमित रूप नहीं ले सकते। काम का सीधा आशय यह है कि मनोरंजन या उस मस्ती करने से है जिससे मानवीय मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता हो।  न ही उसमें व्यर्थ का हास्य वार्तालाप हो जिससे दूसरे मजाक बनता हो। इस समय विभाजन को कभी हमारे समाज ने व्यवाहारिक रूप से स्वीकार नहीं किया और स्थिति यह है कि अनेक जगह दोपहर को प्रवचन होते हैं तो सांयकाल को श्रीमद्भागवत गीता पर प्रवचन होते हैं। कहीं प्रातःकाल ही प्रमाद और मनोरंजन की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है।
                        दूसरी बात यह है कि हमारे देश के लोग धर्म  के नाम पर सक्रियता दिखाते हुए स्वयं को धर्मभीरु प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं।  उनके इसी अहंकार के भाव का लाभ वह लोग लाभ उठाते हैं जो धर्म के नाम पर व्यापार करते हुए न केवल समाज में अपनी प्रतिष्ठा अर्जित करते हैं वरन् उसके प्रभाव का लाभ उठाते हुए दूसरों की संपत्ति का हरण और जमीन पर अवैध कब्जों में लिप्त हो जाते है।  इतना ही नहीं उन पर युवक युवतियों के दैहिक शोषण का आरोप भी लगता है।  सबसे बड़ी बात यह कि ऐसे पेशेवर लोगों के पास श्रद्धालुओं और भक्तों का समूह सबसे अधिक होता है जिन्होंने अधिक से अधिक धन संपदा का संचय किया है।  जब उनके पाप का घड़ा फूटता है तो लोगों में भारी निराशा व्याप्त हो जाती है।
                        दरअसल हम अपने  धर्म की बात करें तो प्रातःकाल अध्यात्मिक साधना के बाद बाकी समय में सांसरिक विषयों में शुद्धता के साथ सक्रियता ही उसका रूप है।  प्रातःकाल योगसाधना या अन्य किसी रीति से धर्म का निर्वाह करने के बाद दिन के बाकी समय में उससे प्राप्त ज्ञान का परिचय देते हुए सक्रियता दिखाना चाहिये। कोई व्यक्ति धर्मभीरु है या नहीं इसका प्रमाण उसके ज्ञान संबंध वार्तालाप से अधिक सांसरिक विषयों में उसकी सक्रियता से ही लगता है। अनेक लोग ऐसे पेशेवर धर्माचार्यों पर विश्वास करते हैं पर उनके इर्दगिर्द घूमते है जिनके पास वाचन के लिये ढेर सारा ज्ञान होता है पर धारण उन्होंने स्वयं भी नहीं किया होता हैं। देखा जाये तो यह धार्मिक सक्रियता मनोरंजन का विकल्प तो हो सकती है पर उससे कोई अध्यात्मिक हित सिद्ध नहीं होता।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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धर्मध्वजी सा लुबधश्छाद्भिको लोकदम्भका।
बैडालवृत्तिको ज्ञेयो हिंस्त्र सर्वाभिसन्धकः।।
                        हिन्दी में भावार्थ-समाज में अपनी प्रतिष्ठा पाने के लिये धर्म का पाखंड, दूसरों की धन संपदा हड़पने की कामना, स्वार्थ पूर्ति के लिये ढोंगे, हिंसक कर्म तथा  दूसरों को भड़काने का काम करने  वाला व्यक्ति बिडाल वृत्ति का कहलाता है।

अधोदृष्टिनैष्कृतिकः स्वार्थसाधनतत्परः।
शठो मिथ्याविनीततश्च बकव्रतचरौ द्विज।।
                        हिन्दी में भावार्थ-जो मनुष्य झूठा, नम्रता के गुण परे, दूसरे का धन इच्छा करने वाला तथा हमेशा बुरे कर्म करने के साथ ही न अपने कल्याण की सोचता है न दूसरे का भला करता है बक वृत्ति का मानता है।
ये बकव्रतिनो विप्राः य च मार्जारलिङ्गिनः।
ते पतन्त्यन्धतामिस्त्रे तेन पापेन कर्मणा।।
                        हिन्दी में भावार्थ-बिडाल तथा बक वृत्ति वाले ऐसे लोग अपने पाप कर्मों के कारण अततः अंधे नरक में गिरते हैं।
                        पेशेवर धर्म के व्यापारी गेरुए और धवल वस्त्रधारी पहनते हैं जबकि हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार धर्म के वस्त्रों का कोई एक रंग पहचान नहीं होता। हमारे देश के कबीर, रहीम, तुंलसी, मीरा,सूर तथा अन्य अनेक संत कवि हुए हैं पर उनमें से किसी ने खास रंब के  वस्त्र या स्थान विशेष को को अपनी पहचान नहीं बनाया। उनके नाम की पहचान उनकी भक्ति तथा वह ज्ञान है जिसे उन्होंने धारण भी किया। उनकी तुलना भगवान के रूप से भले न हो पर भक्त के रूप में उनकी पूजा इसलिये की जाती है क्योंकि भगवान ऐसे भक्तों को अपने ही स्वरूप जैसा मानते हैं। हम यहां यह स्पष्ट कर दें कि ज्ञान होना ही महत्वपूर्ण नहीं वरन् उसे धारण करना भी आवश्यक है। हमारा समाज अपने उन प्राचीन अध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन से परे हो गया है जिनमें स्वर्ण तथा हीरे की अनुभूति देने वाले शब्दों का भंडार है। उनसे सुखानुभूति  पठन पाठन या श्रवण के माध्यम से ही होती है। यही कारण है कि पेशेवर धर्माचार्य उनका रट्टा लगाकर अपने श्रद्धालुओं और भक्तों को उसी तरह प्रभावित करते हैं जैसे किसी वस्तु का व्यापारी अपने ग्राहकों के साथ करता है।  सच बात तो यह है कि हमारे यहां धर्म एक सार्वजनिक विषय होने से बक तथा बिडाल प्रकृत्ति लोगों को ही सर्वाधिक भौतिक लाभ होता दिखता है।  दूसरी बात यह कि आदमी के मन को भटकाव के दौरान अध्यात्मिक दर्शन एक विषय की तरह लगता है इसलिये वह मनोरंजन के व्यवसायियों के जाल में सहजात से फंस जाता है।
                        अनेक अध्यात्मिक चिंत्तक लोग इन  पेशेवर धार्मिक आचार्यों के अपराधों में लिप्त होने से दुःखी होते है पर यह उनका अज्ञान ही है।  भले ही ऐसे लोग अपने पाखंड से संपत्ति संचय करते हैं पर वह भी एक आम धनिक की तरह चिंताओं में डूबे रहते हैं। अपने वैभव छिन जाने का भय उनको सताता है।  धर्म के पथ चलने वाले व्यक्ति कभी दुःखी नहीं होते। जो नहीं चलते उन्हें भारी कष्ट होता है पर जो धर्म के नाम पर पाखंड करते हैं उनकी सजा सबसे अधिक बड़ी हो्रती है।  यह अलग बात है कि किसी किसी को जल्दी किसी को देर सजा मिलती है।         

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, September 07, 2013

धर्म के नाम पर चतुराई करने वाले अधम-हिन्दी चिंत्तन लेख(dharma ke naam par chaturae karne wale adham-hindi chinttan lekh)



        हमारे देश में ज्योतिष, काला जादू तथा तंत्र मंत्र की आड़ में  लोगों को सांसरिक विषयों में सफलता दिलाने के लिये कथित रूप से अनेक व्यवसायिक धार्मिक ठेकेदार सक्रिय हैं। सच बात तो यह है कि सांसरिक विषयों में लिप्त रहते हुए नैतिक आचरण करना ही धर्म है पर इसका आशय यह कतई नहीं है कि हम अपने महान धर्मभीरु होने का दावा करते हुए गाते फिरें।  दूसरी बात यह कि कथित रूप से जो गुरु या संत सांसरिक विषयों पर बोलते हैं उनको धर्म का प्रवर्तक मानना ही गलत है।  उससे ज्यादा बुरी बात यह है कि खांस वस्त्रों को पहनकर घूमने वाले लोगों को संबंधित धर्म का ज्ञानी मानना एकदम मूर्खता है।  अगर भेड़ की खाल पहनकर भेड़िया शाकाहारी होने का स्वांग करे और  कोई हिरण मान ले तो मूर्ख ही कहा जाता  है। यही स्थिति मनुष्य की है। वह किसी भी कथित धर्म प्रचारक के मुख से अच्छी बातें सुनकर उसे संत या सन्यासी मानने लगता है।  इसी कारण अनेक लोग ज्ञान के व्यवसायिक प्रचारकों को ही गुरु मानने लगते हैं। हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं है वरन् उसे धारण कर जीवन में उतारना ही पूर्ण ज्ञानी होने का प्रमाण होता है।
                        इस बात को अनेक  लोग नहीं समझते और ज्ञान की बातें सुनाने वालों को संत कहने लगते हैं। यही कारण है कि अनेक लोगों ने धर्म के नाम पर हमारे देश में अपना व्यापार चला रखा है।  इन लोगों में धन कमाने की प्रवृत्तियां किसी सामान्य मनुष्य से अधिक खतरनाक ढंग से विद्यमान देखी जाती है। 
मनस्मृति में कहा गया है कि
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अकर्मशीलं च महाशनं च लोकद्विष्टं महुमायं नृशंसम्।
अदेशकालज्ञमनिष्टवेषमेतान् गृहे न प्रतिवासयेत्।।
                        हिन्दी में भावार्थ-अकर्मण्य, अधिक भोजन करने वाले, सबसे बैर बांधने वाले, मायावी, क्रूर, देशकाल का ज्ञान न रखने वाले, निन्दित वेश धारण वाले मनुष्यों को कभी अपनी घर में नहीं  ठहराये।
संक्लिष्टकर्माणमतिप्रमादं नित्यानृतं चाटृढभक्तिकं च।
विसृष्टरागं पटमानिन्र चाप्येतान् न सेवेत नराधमान् षट्।।
                        हिन्दी में भावार्थ-क्लेश करने वाला, अत्यंत प्रमादी, झूठ बोलने वाला, अस्थिर भक्ति वाला, स्नेह से रहित तथा अपने को ही चतुर मानने वाला, यह छह प्रकार के लोग अधम माने जाते हैं। इनकी सेवा कतई न करें।
                        कभी कभी तो यह लगता है कि धर्म के नाम पर व्यापार चलाने वाले उतने ही खतरनाक है जितना अफीम बेचने वाले लोग होते हैं।  हमने देखा है कि मादक द्रव्य बेचने में लगे लोग अपने ही स्वाजातीय व्यवसायियों के विरुद्ध हिंसक गतिविधियां करते हैं। ऐसे ही धर्म व्यवसायियों के कारण प्रसिद्ध अर्थशास्त्री कार्ल मार्क्स से धर्म को अफीम कहा था।  हम उसके कथित अर्थशास्त्र के सिद्धांतों से सहमत हों या न हों पर भारत के संदर्भ में उसका धर्म को अफीम मानने का सिद्धांत एकदम सही लगता है।  अनेक बार तो ऐसा लगता है कि धर्म का व्यापार करने वाले यह लोग अधर्म की राह पर चलते हुए शक्ति, संपत्ति तथा शिष्य संग्रह कर अपनी ताकत इसलिये बढ़ाते हैं ताकि राजकीय संस्थाओं पर प्रभाव जमाया जा सके।  ऐसे लोगों की सेवा करना या उनकी भक्ति में लगे रहने से मन के कलुषित होने का भय रहता है।
                        हमारे यहां कहा भी जाता है कि भक्ति भगवान की करो किसी बंदे को भजना ठीक नहीं है। कथित गुरुओं की व्यवसायिक चालाकियों के चलते अनेक लोग फंस कर भगवान की बजाय अपने कथित गुरुओं  को ही भगवान मानने लगते हैं। जब उनको अपने गुरु की असलियत पता चलती है तो उनके अंदर निराशा और तनाव का ज्वार उठने लगता है। अनेक कथित गुरु अपने सत्संग में चुटकुले और अपनी कल्पित कहानियां सुनाकर हास्य का भाव भी पैदा करते हैं। अपने शिष्य समुदाय को बनाये रखने के लिये अनेक प्रकार के स्वांग भी रचते हैं।  कहना चाहिये कि वह धर्म के नाम पर अभिनय करते हैं। जब पोल खुलती है तब शिष्य अपने को एक अंधेरे कुंऐं में गिरा अनुभव करते हैं।
                        जिन लोगों के अंदर अध्यात्मिक ज्ञान की ललक है उनको गुरु ढूंढने की बजाय अपने ही अध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिये।  हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार कोई भोग कभी किसी का उद्धार नहीं कर सकता। यह शक्ति केवल त्यागी भाव के गुरु में ही संभव है जिसकी पहचान यह होती है कि वह जहां खड़ा हो जाये वहीं आश्रम लगने लगे। जब बोले तो लगे कि अमृतवाणी प्रवाहित हो रही है। वह संपत्ति और शिष्य संचय की बजाय सर्वजन हिताय के भाव से समाज में सलंग्न रहता है।   

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