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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Wednesday, May 29, 2013

मनु स्मृति में पंचायती राज्य के सिद्धांतों का प्रतिपादन (manu smriti mein panchayati rajya ke siddhnaton ka pratipadan)



   
       भारत में गांवों  की बदहाल स्थितियां किसी से छिपी नहीं है। आधुनिक व्यवस्था में गांवों के विकास की बात तो बहुत कही जाती है पर देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण गांवों में आज भी पेयजल, स्वास्थ्य तथा शिक्षा की स्थिति बद से बदतर ही होती जा रही हैं।  भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों को एकदम विस्मृत कर पश्चिमी विचाराधाराओं का अनुकरण तो किया गया है पर उन्हें भी व्यवहार में नहीं लाया जा रहा।  गरीब और गांवों के विकास के नारे भी खूब लगते है।  हैरानी तब आती है जब गांवों के विकास तथा पंचायती राज की कल्पना के लिये हर कोई श्रेय लेना चाहता है। सच बात तो यह है कि मनृस्मृति में पहले से ही पंचायती राज का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया है। यह सिद्धांत कोई प्रचलित सामाजिक पंचायतों के रूप में नहीं वरन् प्रशासनिक व्यवस्था के लिये बनाया गया है। अक्सर कहा जाता है कि भारत में पंचायत प्रणाली केवल सामाजिक उद्देश्यों के लिये थी। यह सोच गलत है क्योंकि मनु महाराज जिन पंचायतों की बात करते हैं उनका स्वरूप प्रशासनिक है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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ग्रामस्याधिपतिं कुर्याद्दशग्रामपतिं तथा।
विंशतीशं शतेशं च सहस़्पतिमेव च।।
    हिन्दी में भावार्थ-प्रत्येक गांव में एक मुखिया नियुक्त करना चाहिये। दस गांवों को मिलाकर बीस गांवों का और बीस बीस गांवों के पांच समूहों को मिलाकर सौ गांवों का तथा सौ गावों के दस वर्गों का एक समूह बनाकर उनकी देखभाल करने हेतु एक मुखिया नियुक्त कराना चाहिये।
तेषां ग्राम्याणि कार्याणि पृथक कार्याणिं चैव हि।
राज्ञोऽन्यः सचिवः स्निग्धस्तानि पश्चवैदतन्द्रितः।।
     हिन्दी भाषा में भावार्थ-सभी गांवों  के काम की देखभाल करने के लिये सचिवों की नियुक्ति करते उसे उसे सभी गावों के अधिपतियों पर दृष्टि बनाये रखने का आदेश देना चाहिये।
            कहा जाता है कि महात्मा गांधी मानते थे कि असली भारत गांवों में रहता है जबकि मनुस्मृति में तो गांवों को ही बड़े राष्ट्र का आधार माना गया है। इतना ही नहंी नगरों के साथ गांवों की देखभाल पर जोर दिया गया है। हम यह भी कह सकते हैं कि पंचायती राज्य की कल्पना का श्रेय आधुनिक समय के कथित विद्वानों को नहीं दिया जा सकता। मनुस्मृति में यह कल्पना पहले ही प्रस्तुत की गयी है। इतना ही प्राचीन काल की व्यवस्था में इसे अपनाया भी गया था। इसी कारण हमारे यहां अनुशासन तथा व्यवस्था बनी हुई थी।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Monday, May 27, 2013

संत तुलसी दास के दोहे-दुर्जनों को सत्य और अमृत से घृणा होती है (sant tulsi das ke dohe-dusht ko amrit aur satya se ghrina hoti hai)



     पता नहीं हमारे देश में मानवता के नाम पर कितनी विचाराधारायें विदेश से आयातित  गयी हैं।  देखा जाये तो यह विचाराधारायें धरती पर स्वर्ग की कल्पना करती है। सभी मनुष्यों में देवत्व ढूंढने का प्रयास करती हैं।  इसमें अपराधियों का हृदय परिवर्तन कर उन्हें सामाजिक विकास की कथित मुख्यधारा से जोड़ने का  प्रयास करती हैं। अनेक लोग तो ऐसे हैं जो खुल्लम खुल्ला अपराधियों की गरीबी, लाचारी और बेबसी का उल्लेख करते हुए उनसे सुधरने का अवसर देने की मांग करते हैं।  हमारे देश में अनेक मानवाधिकार संगठन सक्रिय हैं जो केवल अपराधियों के हकों की लड़ाई यह कहते हुए लड़ते हैं कि उनका अपराध अभी प्रमाणित नहीं हुआ है।  इतना ही नहीं कुछ तो आतंकवादियों को भी  निर्दोष होने का प्रमाण खुद देते हैं और अपने दावे के पक्ष में न्यायालय में चल रहे मुकदमों के निर्णय न होने का तर्क रखते हैं। जांच एजेंसियों के दावों को लगते वह उनके आरोपों को प्रमाण तो स्वीकार नहीं करते पर अपने दावों को प्रमाणपत्र मानते हैं।
      यह मानवाधिकार कार्यकर्ता और नेता हमेशा ही भारतीय जांच एजेंसियों पर आक्षेप करते हैं।  कहीं कहीं आतंकवाद अधिक होने पर उस क्षेत्र की गरीबी और भुखमरी की समस्या का हल करने की मांग करते हुए यह तर्क भी देते हैं कि भूखा आदमी बंदूक नहीं उठायेगा तो क्या करेगा?
  जिसके पास रोटी खरीदने को पैसा नहंीं है वह बंदूक और गोलियां खरीद सकता है यह हास्याप्रद तर्क इन कथित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के श्रीमुख से हमारे प्रचार माध्यमों में खूब सुना जा सकता है।  अधिकतर मानवाधिकार संगठन पश्चिमी विचारधाराओं के पोषक हैं जो राक्षस या शैतान को असांसरिक जीव मानती हैं। इसके विपरीत हमारा दर्शन मानता है कि सुर और असुर दोनों ही इस संसार में समान रूप से विचरते ही  रहेंगे। श्रीमद्भागवत गीता में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि इस संसार में सुर तथा असुर प्रवृत्तियां दोनों प्रकार के लोग होते हैं।  इसलिये ज्ञान प्राप्त कर अपने अंदर सुर प्रकृति को जीवंत बनाये रखने के साथ आसुरी प्रकृति के लोगों से दूर रहना चाहिये।  उनसे सुधरने की आशा करना व्यर्थ है।
संत तुलसीदास ने कहा है कि
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भलो भलाहहि पै लहई, लहई निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ अमरतां, गरल सराहिअ मीचु।।
      सामान्य हिन्दी में भावार्थ-भले मनुष्य को भलाई तथा नीच व्यक्ति को नीचता ही पसंद आती है। अमरता चाहने वाले अमृत की और मरने मारने के लिये उत्सुक आदमी विष की प्रशंसा करता है।
मिथ्या माहुर सज्जनहि, खालहि गरल सम सांच।
तुलसीछुवत पराई ज्यों, पारद पावक आंच।।
         सामान्य हिन्दी भाषा में भावार्थ-सज्जन पुरुष के लिये असत्य  तो दुर्जन के लिये  सत्य विष की तरह होता है। सज्जन असत्य तथा तथा तथा दुर्जन सत्य से वैसे ही भागते हैं जैसे अग्नि की आंच से पारा उड़ जाता है।
   जिनके अंदर आसुरी प्रकृत्तियां हैं उन्हें ज्ञान देकर उन्हें सुधारने की आशा करना व्यर्थ है।  फिर गुण ही गुणों को बरतते का सिद्धांत भी समझना चाहिये। जिनके हाथ में हथियार हैं उनमें क्रूरता का भाव स्वाभाविक रूप से आयेगा यह बात समझना चाहिये। इस मामले में नारियों में श्रेष्ठ सीता ने वनवास के दौरान अपने पति श्रीराम को यही समझाया था कि अगर आप इस तरह अस्त्र शस्त्र अपने पास रखेंगे तो आपके हाथ से जीव हत्या होती ही रहेगी।  तब श्रीराम ने यह कहते हुए अस्त्र शस्त्र त्यागने से इंकार किया कि इससे वह समाज के लिये हिंसक जीवों का वध करने के लिये ही धारण किये हुए हैं। सीता जी ने एक कथा भी श्री राम को सुनाई थी।  उनके अनुसार एक ऋषि की तपस्या से देवराज इंद्र विचलित हुए। उन्होंने उनको अपनी तपस्या के मार्ग से हटाने का मार्ग यह निकाला कि उसे अपना एक फरसा धरोहर के रूप में रखने का आग्रह किया। वह  ऋषि रोज उस फरसे को देखते थे। धीरे वह उसमें इतना लिप्त हो गये कि उसी फरसे से हिंसा करने लगे।  वह देवत्व से राक्षसत्व को प्राप्त हो गये।
        कहने का अभिप्राय है कि जिनके अंदर दुष्टता का भाव है उनसे सुधरने की आशा करना बेकार है।  दुष्ट लोग सत्य से बिदकते हैं।  वह दूसरों को अमृत बांटने की बजाय विष देने के लिये अधिक तत्पर रहते हैं।  ऐसे लोगों से सुधारने के प्रयास की बजाय उनसे दूर रहने का प्रयास करना ही श्रेयस्कर है। यदि वह लोगा आक्रामक हों तो उसका वैसा ही प्रतिकार करने के लिये तत्पर भी होना चाहिये।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, May 25, 2013

संत दरिया के दोहे-बगुले से तो कौआ भला (sant dariya ke dohe-bagule se kaua bhala)



     हमारे देश में समय समय पर अनेक महापुरुष हुए हैं जिन्होंने तत्व ज्ञान का प्रचार किया।  उनके त्याग का यह परिणाम है कि विश्व में हमारा देश विश्व गुरु के नाम से जाना जाता है।  आमतौर से हमारे देश में तत्वज्ञान की धारा इस तरह प्रवाहित है कि देश का हर व्यक्ति समय समय पर उसे बघारता है। यह अलग बात है कि ज्ञान को धारण कर उसके अनुसार जीवन गुजारने वाले लेाग बहुत कम मिलते हैं।  अधिकतर लोग मायाजाल में प्रभाव में इस तरह पड़े रहते हैं कि पाखंड उनके जीवन का आधार बन जाता है।
       अनेक संत समाज को सही दिशा देने का प्रयास करते हैं। उनके पास भीड़ भी लगती है पर उनके बताये मार्ग पर चलने वाले बहुत कम होते हैं। अनेक योग शिक्षक यह प्रयास करते हैं कि अधिक से अधिक लोग योग साधना से जुड़ें पर वह सफल नहीं होते। हमारे समाज के लोग यह तो मानते हैं कि येाग साधना से जीवन में सकारात्मक प्रभाव आता है पर करने की बात आये तो समय नहीं मिलता या रात्रि को देर से सोने के कारण प्रातः नींद नहीं खुलती जैसे बहाने सुनाते हैं।
         एक योग शिक्षिका के पास एक स्त्री आयी और उसके समक्ष अपनी तमाम बिमारियों का जिक्र किया। अपनी पारिवारिक समस्यायें भी सुनाई। योग शिक्षिका ने उससे कहा कि -तुम योग साधना करो तो तुम्हारा मानसिक तनाव कम होगा।
   उस स्त्री ने जवाब दिया कि-मैं बहुत सोचती हूं कि पर जब तक मेरा मानसिक तनाव कम नहीं होगा मैं योग साधना नहीं कर सकती।
   शिक्षिका हंसने लगी। वह समझ गयी कि इस नारी को समझाना कठिन काम है।  योग साधना से मानसिक तनाव कम होता है अगर वह नहीं है तो फिर योग साधना करने की जरूरत भी कहां रह जती है? मगर सच यही है कि लोग कुंऐ के मेंढक की तरह सांसरिक विषयो में अपनी देह नष्ट करने में ही अपना धर्म समझते हें।
संत दरिया का कहना है कि
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बातों में ही बह गया, निकम गया दिन रात।
मुहलत जब पूरी आन घड़ी जम घात।
     सामान्य हिन्दी भाषा में भावार्थ-मनुष्य अपना सारा समय बातों में ही निकाल देता है। जब समय की मोहलत समाप्त होती है तब उसके प्राणों की घड़ी बंद हो जाती है।
बाहर से उजाल दसा, भीतर मैला अंग।
ता सेती कौवा भला, तन मन एकाहि रंग।
    सामान्य हिन्दी भाषा में भावार्थ-हंस और बगुला दोनों का रंग सफेद होता है पर बगुले का हृदय काला होता है।  उससे तो कौवा भला जिसका रंग और मन एक ही जैसा यानि काला होता है।
         सांसरिक विषयो में लिप्त लोगों के लिये पाखंड करना अनिवार्य बन जाता है।  अनेक लोग तो साधुओं के वेश धारण कर विचरते हैं।  कोई जीभ के स्वाद के लिये साधु बनता है तो कोई धन के लिये मन में व्याप्त तृष्णा को शांत करने के लिये धवल वस्त्र पहनता है। सच बात तो यह है कि हमारे समाज में बढ़ते खतरों के लिये काली नीयत से काले कर्म करने वाले प्रमाणिक लोग जिम्मेदार कम हैं बल्कि उससे ज्यादा तो वह जो सभ्य मुखौटा लगाये असभ्य कामों को प्रोत्साहन देते हैं।  बोलचाल की भाषा में उनको सफेदपोश कुकर्मी कहा जाता है।  कुख्यात और पेशेवर अपराधी तो समाज में पहचाने हुए होते हैं।  उनसे हर कोई सतर्क रहता है जबकि  सफेदपोश अपराधियों की पहचान करना कठिन है, इसलिये धोखा होने की संभावना अधिक रहती है।  इसलिये हर व्यक्ति के साथ व्यवहार करते समय सतर्कता बरतना चाहिये।

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Thursday, May 23, 2013

मलूक दास का दर्शन-जिसके मोदी राम की तरह हैं उसे क्या चिन्ता (maluk das ka darshan-jiske modi ram ki tarah hain us kya chinta)



       आजकल अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के कारण लोगों में भारतीय अध्यात्म ज्ञान का अभाव हो गया  है। योग संस्कृति जगह भोग संस्कृति ने अपनी जगह बना ली है। अंग्रेजी पद्धति किसी को कथित रूप से दृश्यव्य रूप से सभ्रांत तो बना सकती है पर मानसिक रूप से सभ्य नहीं बना सकती है। मनुष्य में स्वाभाविक रूप से अंहंकार का भाव होता है। दूसरी बात यह कि हर मनुष्य अपने आपको धर्मभीरु प्रदर्शित करने का प्रयास भी खूब करता है। ऐसे में बिना पूछे ज्ञान बघारने वाले कदम कदम पर मिल जाते हैं। किताबों से ज्ञान पढ़ने वाले बहुत हैं पर ज्ञान को आचरण में लाने वाले विरले ही मिलते हैं। इसलिये किसी से धर्म विषयक बहस करना एकदम निरर्थक हैं।  स्वयं को ज्ञानी कहलाने की इच्छा करने वाले व्यक्ति के सामने कभी कोई अध्यात्म्कि तर्क  रखा जाये तो वह क्रोध में झगड़ा करने लगता है। इसलिये ज्ञानियों को कभी सार्वजनिक बहस में भाग लेना ही लहीं  चाहिये।
दास मलूक के दर्शन के अनुसार
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मलूकबाद न कीजिए, क्रोध देय बहाय।
हार मानु अनजान से, बक बक मरै बलाय।।
     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-यदि कोई अज्ञानी बहस करे तो उसके सामने अज्ञानी बन जाओ। अज्ञानियों के मन में अपने को ज्ञानी साबित करने की भारी ललक होती है और चुनौती मिल जाने पर क्रोध में आकर लड़ने लगते हैं।
औरहि चिन्ता करन दे, तू मत मारे आह।
जाके मोदी राम से, ताहि का परवाह।
         सामान्य हिन्दी में भावार्थ-दूसरों को चिन्ता करने दो स्वयं कभी भी आह न भरो।  जिसके भंडारक राम हैं उसे भला किस बात की चिन्ता होती है।
          ज्ञानी मनुष्य को दूसरे को सुधारने की चिंता करने की बजाय अपनी मस्ती में मस्त रहना चाहिये।  इस संसार में सभी का भंडार भरने वाले राम हैं। अज्ञानियों की तरह रोजी रोटी की चिंता कर अपना समय नष्ट न करते हुए रचनात्मक कार्यों में लगे रहना चाहिये।  अध्यात्मिक भाव से जीवन में प्रसन्नता का संचार होता है इसलिये समय समय भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन अवश्य करना चहिये।  चिंता या बहसें करने से कोई न समस्या हल होती है न ही निष्कर्ष निकलता है।

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Sunday, May 19, 2013

तुलसीदास के दोहे-आजकल लोग मोर की तरह हो गये हैं(aajkal log mor ki tarah ho gaye hain-tulsidas ke dohe)



      मनोरंजन व्यवसायियों के पैसे से निर्मित फिल्म और टीवी धारावाहिकों में युवा हृदयों के आपसी मेल मिलाप को ही इश्क, प्रेम और लव बताकर उनके दिमाग का हरण कर लिया गया है। एक तो हमारे देश में वैसे  गर्मी की प्रधानता के कारण काम का प्रभाव अधिक माना जाता है, दूसरे अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के कारण अध्यात्म ज्ञान का अभाव है ऐसे में वैसे भी लोगों को भरमाना आसान है।  उस पर मनोरंजन के नाम पर टीवी और फिल्मों के काल्पनिक कथानकों को इस तरह  रूप इस तरह बताया जाता है कि  वह सच लगें।  लोग यह नहीं समझ पा रहे कि कैसे उन पर अज्ञानता, असहिष्णुता तथा अंसवेदनशीलता का भाव बढ़ाने के साथ ही आधुनिकता के नाम पर अंधविश्वास थोपा जा रहा है।  अगर हम तुलसीदास का साहित्य देखें तो समाज उस समय भी लगभग वैसा ही था। यह अलग बात है कि उस समय पथभ्रष्ट करने वाले साधन बहुत कम थे।  उस पर संतों तथा कवियों के प्रभाव के चलते भटकाव कम था।  अब तो खुली आजादी है।
        मनोरंजन का व्यवसाय अब विशाल रूप धारण कर चुका है। लोगों के सामने कल्पित कथाओं के साथ  महिलाओं के सौंदर्य के साथ ही पुरुषों की आक्रामकता का प्रदर्शन इस तरह किया जाता है जैसे कि कोई सत्यता बखान कर रहे हों। नये लड़के लड़कियां उनके दृश्यों के प्रभाव में बहकर अपनी हानि करते हैं। 

संत प्रवर तुलसीदास कहते हैं कि
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हृदयं कपट  वर वेष धरि, बचन कहहिं गढ़ि खोलि।
अब के लोग मयूर ज्यों, क्यों मिलए मन खोलि।।
      सामान्य हिन्दी भाषा में  भावार्थ-अनेक लोग हृदय में कपट रखते हुए सुंदर वेष धारण कर मीठे वचन बोलते हैं। आजकल के लोग मोर के समान हो गये हैं जिनसे खुलकर मिलना कठिन है।
माखी काक उलूक, दादुर से भए लोग।
भले ते सुक पिक मोर से, कोउ न प्रेमपथ जोग।।
         
         सामान्य हिन्दी भाषा में भावार्थ-आजकल के लोग मक्खी, कौऐ, उल्लू, बगुले और मेंढक की तरह हो गये हैं। मोर की तरह लोग सुंदर लगते हैं पर प्रेम का मार्ग कोई नहीं जानता। 
      प्रेम दृश्यों की आड़ में धन पाने, प्रतिष्ठा बढ़ाने  तथा प्रदर्शन कर अपने अंदर श्रेष्ठ कहलाने वाले अहं भाव को शांत करने की  प्रवृत्ति समाज में बढ़ाई जा रही है। मनोरंजन के व्यवसायी उसका नकदीकरण कर रहे हैं।  उससे समाज में आर्थिक तनाव भी बढ़ा है। सबसे बड़ी बात तो पाखंड अत्यंत हो गया है।  लोग फिल्मी अंदाज में वेश धारण करते हुए मधुर व्यवहार करते हुए इसलिये अपने संपर्क में आने वाले लोगों से व्यवहार करते हुए भी उन पर सहजता से विश्वास न करें।  आजकल लोग तरह तरह के स्वांग करने लगे है इसलिये जीवन में सावधानी रखना आवश्यक है।

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Sunday, May 12, 2013

मनुस्मृति के आधार पर संदेश-राजनीति हो या जीवन युद्ध से हमेशा बचना चाहिये (manu smriti ke adhaar par sandesh-rajya karma ho ya nij jeevan yuddh se hamesha bachan chahiye)



                          विश्व इतिहास में अनेक युद्ध हो चुके हैं पर किसी का कोई स्थाई नतीजा नहीं निकला। कभी धर्म  तो कभी संस्कृति की रक्षा या फिर उनकी स्थापना के नाम पर अनेक महारथियों ने युद्ध लड़े पर पहले तो उनको कोई उपलब्धि नहीं मिली और मिली तो वह स्थाई नहीं रही। हमारे देश में हिटलर तथा नेपोलियोन की चर्चा बहुत होती है।  खासतौर से भारतीय विचाराधाराओं को वर्तमान संदर्भ में अप्रासांगिक मानने वाले बुद्धिमान लोग हिटलर, मुसोलनी तथा स्टालिन के साथ ही नेपोलियन की महानता का जिक्र करते हुए भी नहीं थकते।  राज्य प्राप्त कर  उससे समाज में बदलाव लाने की नीति का प्रवर्तक हिटलर को ही माना जा सकता है।  हमारे देश में ही अनेक ऐसे बुद्धिजीवी हैं जो कहीं न कहीं हिटलर से प्रभावित हैं, पर सच बात तो यह है कि हिटलर की आक्रामक प्रवृत्ति के वजह से न केवल जर्मनी बंटा बल्कि अंततः उसे स्वयं भी अपनी जान गंवानी पड़ी।  आधुनिक विश्व इतिहास में ऐसी अनेक घटनायें दर्ज हैं जब कोई राज्य प्रमुख अपनी प्रजा का हित करने में असफल रहने पर  अपने से कमजोर देशों के साथ युद्ध कर उससे प्राप्त विजय से जनता में विश्वास हासिल करने का प्रयास करता है।  हिटलर ने चालाकी से राज्य प्राप्त किया पर प्रजा के लिये वह कुछ अधिक कर सका हो यह इतिहास में दर्ज कहीं नहीं मिलता।  वह हमेशा ही युद्धों में व्यस्त रहा।  नतीजा यह रहा कि उसका नाम एक तानाशाह राज्य प्रमुख के रूप में लिया जाता है पर प्रजा हित करने के लिये उसका कोई उदाहरण नहीं मिलता। 
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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अनित्यो विजयो यस्माद् दृश्यते युध्यमानयोः।
पराजयश्च संग्रामे तस्माद् वृद्ध्र विवर्जयेत्।।

           हिन्दी में भावार्थ-युद्ध में जय तथा पराजय अनिश्चित होती है इसलिये जहां तक हो सके इसलिये युद्ध से बचना चाहिये।

साम्रा दानेन भेदेन समस्तैरथवा पृथक्।
विजेतृः प्रयतेतारीन्न युद्धेन कदाचन्।

       हिन्दी में भावार्थ-जीत की इच्छा करने वाले राज को साम, दाम तथा भेद की रणनीति का सहारा लेना चाहिये। किसी भी विधि से शत्रु को अपने अनुकूल बनाने के प्रयास में असफल होने पर ही युद्ध का विचार करना चाहिये।
        युद्ध के बारे में तो यह कहा जाता है कि उसमें हारने वाले के पास कुछ नहीं बचता तो जीतने वाला भी बहुत कुछ गंवाता है।  अपने शत्रु से निपटने के चार तरीके हैं-साम, दाम, भेद तथा दंड।  इनमे प्रथम तीन तरीके राज्य प्रमुख की बुद्धिमता का प्रमाण माना जाता है।  सच बात तो यह है कि राजनीति का अर्थ यह कदापि नहीं है कि वह केवल राज्य कर्म के लिये है।  राजनीति सिद्धांतों का  निजी जीवन में उसका उपयोग होता है।  राजनीति राजस भाव का ही अंश है और इस भाव का राज्य कर्म तो केवल एक भाग है।  परिवार, मित्रता, व्यवसाय तथा धर्म के क्षेत्र में इन चारों नीतियों का पालन करना आवश्यक होता है।  व्यक्तिगत जीवन में हर मनुष्य को प्रत्यक्ष वाद विवाद से बचना चाहिये।  इससे न केवल अपनी शारीरिक हानि की संभावना होती है बल्कि कानून टूटने का अंदेशा भी होता है।  एक बात तय है कि राज्य कर्म हो या निज कर्म हमेशा ही बुद्धिमानी से नीति का पालन करना चाहिये।
           
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Friday, May 10, 2013

मनुस्मृति-प्राणायाम एक तरह से ज्ञानयज्ञ का प्रतीक (manu smriti se sandesh-pranayam ek tarah se gyan yagya)



       भारतीय योग विज्ञान में प्राणायाम का अत्यंत महत्व है। कहा जाता है कि आसन से देह, प्राणायाम से मन तथा ध्यान से विचारों की शुद्धि होती है।  इनमें प्राणायाम का महत्व इसलिये भी अधिक होता है क्योंकि मनुष्य की देह में चंचल मन अनिंयत्रित गति से उसे इधर उधर दौड़ाते हुए मानसिक कष्ट देता है।  प्राणायाम से मन पर नियंत्रण होता है। जिस तरह आग में सोना, चांदी या धातु तपकर चमक पाते हैं उसी तरह प्राणायाम से न केवल मन की शुद्धि होने से सभी इंद्रियों पर नियंत्रण हो जाता है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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दह्यन्ते ध्यायमानानां धतूनां हि यथा मानाः।
व्याहृति प्रणवैर्युक्ताः विज्ञेयं परमं तपः।।
        हिन्दी में भावार्थ-जिस तरह अग्नि में सोना तथा चांदी आदि धातुओं को डालने से जिस प्रकार उनकी अशुद्धता दूर होती है उसी तरह प्राणायाम की साधना करने से इंद्रियों के सारे पाप तथा विकार दूर होने पर वह शुद्धता को प्राप्त करती है।
प्राणायामा ब्राह्णस्य प्रयोऽपि विधिवत्कृताः।
व्याहृति प्रणवैर्युक्ताः विज्ञेयं परमं तपः।।
          हिन्दी में भावार्थ-कोई भी विद्वान जब प्राणायाम तथा व्याहृति (भूः भुवः स्वः) के साथ विधि के अनुसार प्राणायाम करे तो उसे तप ही समझना चाहिये।
      प्राणायाम केवल व्यायाम नहीं  है वरन् भगवान श्रीकृष्ण इसे यज्ञ और हवन ही मानते हें।  श्रीमद्भागवत  श्रीगीता में प्राणवायु को अपानवायु तथा अपानवायु को प्राणवायु  में स्थापित करने की क्रिया को हवन ही माना है। वह प्राणायाम करने वाले को सहज योगियों में ज्ञानी योगगी मानते हैं।  हमने देखा है कि हमारे समाज में अनेक पेशेवर धार्मिक विद्वानों  ने घी तथा अन्य वस्तुओं का अग्नि में डालने को ही यज्ञ कहकर प्रचारित किया है।  ऐसे लोग विरले ही हैं जो योगसाधना में यज्ञ के तत्व ढूंढते हैं। सच बात तो यह है कि हम जिन भौतिक पदार्थों की आहुति से  अग्नि में हवन करते हैं वह सभी योगसाधना करने पर हमारी देह में निर्मित होते  हैं। वह  ऊर्जा परमात्मा  का ध्यान  के माध्यम से  उन्हें अर्पित करने पर द्रव्यमय यज्ञ से अधिक मानसिक शांति मिलती है।  इस यज्ञ को ज्ञानयज्ञ कहा जाता है जिसे द्रव्यमय यज्ञ से अधिक श्रेष्ठ है।         


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Monday, May 06, 2013

संत कबीर दास दर्शन-भक्ति में होती है वीरता की आवश्यकता (sant kabir sandesh-bhakti mieh hotee hai virta ki aavshyakata)



             इतिहास ने हमेशा ही दो तरह के वीरों को अपने पृष्ठों में समान स्थान दिया है। एक तो वह जो समाज हित के लिये अपने प्राण न्यौछावर कर देते हैं। दूसरे वीर वह हैं जिन्होंने अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण कर परमात्मा की भक्ति की। सच बात तो यह है कि हमारे देश में वीर होने के दावे बहुत किये जाते हैं पर समाज के लिये प्राणों की बाजी लगाने वाले बहुत कम मिलते हैं। उससे भी कम वीर तो  भक्ति के क्षेत्र में दिखते हैं।  देखा जाये तो जोश में आने पर अस्त्र शस्त्र हाथ  में  लेकर किसी पर प्रहार करने में समय नहीं लगता। वैसे भी अस्त्र शस्त्र हाथ में आते ही मनुष्य के मन मस्तिष्क का हरण कर अपना काम करते हैं। युद्ध का उन्माद कुछ पल रहता है और उसमें निर्णय भी तत्काल हो जाता है।  इसके विपरीत सांसरिक विषयों का त्याग  कर परमात्मा की भक्ति में अधिक समय लगता है और उसके लिये जो धैर्य धारण करना होता है वह अधिक शक्ति होने पर ही संभव हो पाता है।  भक्ति में शक्ति प्राप्त करने में  बरसों लग जाते हैं।
संत कबीर कहते हैं कि
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तीर तुपक सोजो लडै़, सो तो सूर न होय।
माया तजि भक्ति करै,, सूर कहावै सोय।।
      हिन्दी में भावार्थ-अस्त्र शस्त्र से जो लड़ते हैं वह वीर नहीं होते। माया का मोह त्याग कर जो भक्ति करते हैं वही सच्चे वीर हैं।
चित चेतन ताजी करे, लौ की करै लगाम।
शब्द गुरु का ताजना, पहुंचै संग सुठाम।।
         हिन्दी में भावार्थ-अपने चित को घोड़ा बनाकर उसकी लगाकर कसना चाहिये। गुरु के शब्द को चाबुक बनाकर अपनी लक्ष्य की तरफ बढ़ें।
 
       उस दिन एक योग शिक्षक कह रहे थे कि कहीं शिविर लगाने पर प्रारंभ में अनेक लोग आते हैं पर धीरे धीरे उनकी संख्या अत्यंत कम हो जाती है। अनेक लोग अनियमित रूप से आते हैं। यहां तक कि सर्दी में शिविर एकदम मृतप्रायः हो जाता है। उनके कथन का सार सत्य यही था कि योग विधा के लिये जिस दृढ़ संकल्प की आवश्यकता होती है वह आमतौर से लोगों में कम ही देखने को मिलती है।

  हम सभी जानते हैं कि  योग साधना देह, मन और विचारों की शुद्ध करती है।  इसका ज्ञान होने के बावजूद लोग एक नियमित आदत के रूप में इसे अपना नहीं  रहे तो इसका कारण यह है कि वह इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं हो पता है। प्रतिदिन शराब पीने वाले बहुत मिल जाते हैं पर योगसाधना और ध्यान करने वाले कहीं कहीं मिलते हैं।  इंद्रियों पर नियंत्रण कर योग साधना में नियमितता बनाये रखने के लिये जिस त्याग भाव की आवश्यकता है वह केवल भक्ति वीरों में ही हो सकती है।  अस्त्र शस्त्र हाथ में होने पर क्षणिक आवेश में कोई भी आदमी आक्रामक हो जाता है उसमें कोई गुण जैसी बात नहीं है जबकि निष्काम भक्ति, योगसाधना अथवा ध्यान में जिस धीरज की आवश्यकता है वह केवल वीरों में ही दिखती है।  विषयों का त्याग सहज नहीं है और जो इसका त्याग कर भक्ति करना ही वीरता का प्रमाण है।  इसके लिये  दृढ़ संकल्प की आवश्यकता होती है जिसे केवल वीर ही धारण कर सकते हैं।          

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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