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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Wednesday, November 14, 2012

पतंजलि योग विज्ञान-अभाव के ज्ञान का अवलम्बन करने वाली वृत्ति निद्रा है(patanjali yog vigyan-abhav ke gyan ko dharan karane wali vritti nidra hai)

       पतंजलि योग वास्तव में ऐसा विज्ञान है जिस पर नवीन युग में अनुसंधान करना आवश्यक है।  हम यह नहीं कह सकते कि  इसका वर्तमान समय में  कोई महत्वनहीं है क्योंकि हम देख रहे हैं कि आधुनिक विज्ञान अभी भी पूर्णता का दावा नहीं कर सकता।   विषय चाहे अध्यात्मिक हो या सांसरिक उसे अपनी इस देह के साथ ही जोड़ा जा सकता है इसलिये किसी भी विषय को जीव से प्रथम नहीं किया जा सकता।   यह देह पूरे संसार से जुड़ी है और अगर हम पाश्चात्य विज्ञान की बात माने तो इस प्रथ्वी पर मौजूद हर वस्तु का अंश इस देह में होता है।  इसलिये संसार को समझने के लिये अपनी देह को समझना जरूरी है। उसमें मौजूद प्रकृतियों का अध्ययन करने पर इस संसार का रहस्य सहजता से समझा जा सकता है। निष्कर्ष निकालने के लिये कहीं अन्यत्र प्रयोग करने की आवश्कता नहीं है उन्हें हम स्वतः अनुभव कर सकते हैं।  इतना ही नहीं इसके सूत्रों को समझने पर जब व्यवहार में उसे देखते हैं तो लगता है कि वास्तव में यह ऐसा विज्ञान है जिसके बिना मनुष्य का ज्ञान अधूरा है।
       पतंजलि में चित्त के यह सूत्र मनोविज्ञान की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है।
वृत्तयः पञ्चतथ्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।।
             हिन्दी भावार्थ-क्लिष्ट और अक्लिष्ट वृत्तियां पांच प्रकार की होती हैं।
प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः
         हिन्दी में भावार्थ-यह है प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति।
प्रत्यक्षानुमानागामः प्रमाणानि।।
        हिन्दी में भावार्थ-प्रमाण के तीन प्रकार हैं प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम
       विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतदृुप्रतिष्ठम्।।
         हिन्दी में भावार्थ-वह वस्तु वैसी नहीं है जैसी समझ रहे हैं यह भ्रम विपर्यय है।
शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।
           हिन्दी में भावार्थ-जो ज्ञान शब्द के साथ होने वाला है जिसका विषय वास्तव में नहीं वह विकल्प है।
अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिनिंद्रा।।
           हिन्दी में भावार्थ-अभाव के ज्ञान का अवलम्बन करने वाली वृत्ति निद्रा है।
अनुभूतविषयास्पभ्प्रभोषः स्मृतिः।।
         हिन्दी में भावार्थ-अनुभव किये हुए विषय का प्रकट हो जाना स्मृति है।
         इस संसार में अनेक प्रकार के भ्रम प्रचलित है।  अनेक प्रकार के मंत्र तंत्र करने वाले समाज में भ्रम पैदा करते हैं।  देखा जाये तो यह संसार चलायमान है। अनेक विषय ऐसे हैं जिनका संबंध समय से है  जिसकी वजह से लोगों को सांसरिक कार्य स्वतः होते हैं।  कहा जाता है कि परमात्मा पहले दाना बनाता है फिर जीव में पेट लगाता है। अगर किसी आदमी के मन में यह इच्छा कि उसका धंधा लग जाये तो समय आने पर वह सफल भी होता है पर अगर उसने इस दौरान कहीं मन्नत मांगी होती है या किसी ने सिद्धि का मंत्र बताया होता है तो वह मानने लगता है कि यह सब चमत्कार है। योग साधक और अध्यात्मिक ज्ञान के छात्र इस बात को जानते हैं यही कारण है कि वह चमत्कार आदि में यकीन नहीं करते।
लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’ ग्वालियर मध्यप्रदेश

संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Sunday, November 04, 2012

चाणक्य नीति-दंड की कठोर व्यवस्था न होने से अपराधी बेखौफ हो जाते हैं

                कहा जाता है कि फिट है वही हिट है। दरअसल भौतिक उपलब्धियों के लिये जुटा इंसान न तो अपनी देह को स्वस्थ रखने के लिये प्रयास करता है और न ही अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर आत्मबली हो पाता है। जीवन में एक बार ऐसा समय अवश्य ही आता है जब वह थक जाता है। यह थकावट उसे वृद्धावस्था में ही पहुंचा देती है। ऐसे में शारीरिक तथा आत्मिक रूप से क्षीण होकर मनुष्य के पास आर्तनाद करने के अलावा कोई मार्ग शेष नहीं रह जाता। हमारे देश में व्यायाम आदि को कभी आदत की तरह नहीं अपनाया गया। अपनी ही योग कला को केवल सिद्धों तथा नकारा लोगों के लिये आवश्यक माना गया है। यही कारण है कि आजकल हम अपने आसपास शारीरिक तथा दिमागी रूप से विकारग्रस्त लोगों का से भरा समाज देख रहे हैं।
                       महान नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि
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                        यस्मिन् रुष्टे भयं नास्ति तुष्टे नैंव धनऽऽगमः।
                       निग्रहोऽनुग्रहो नास्ति स रुष्टः किं करिष्यति।।
            ‘‘जिसके नाराज होने पर किसी प्रकार का भय नहीं हो और नही प्रसन्न होने पर किसी फल की आशा है और जो दण्ड देने का सामर्थ्य भी नहीं रखता वह गुस्सा होकर कर भी क्या लेगा?’’
                  पश्चिमी आधार पर किये गया व्यायाम भी बुरा नहीं है अगर नियमित रूप से किया जाये मगर हमारे देश में लोगों ने जीवन शैली तो ब्रिटेन और अमेरिका जैसी अपना ली है पर वहां जो कसरत करने का नियम है उसका पालन नहीं करते। सुविधाओं ने इतना विलासी बना दिया है कि हमारे यहां अस्वस्थ लोगों की संख्या बढ़ रही है। हमारे यहां की योग कला तो न केवल शारीरिक रूप से शक्तिशाली बनाती है वरन मानसिक रूप से दृढ़ भी बनाती है। आज के समय में जब भौतिकवाद के चलते आदमी अकेला होता जा रहा है तब यह आवश्यक है कि अपने बल को बनाये रखे। यह सभी जानते हैं कि जब तक हमारी देह में सामर्थ्य है तभी तक सारा संसार हमारे साथ है और असमर्थ होने पर अपने भी त्याग देते हैं। इसके बावजूद अगर कोई अपने स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं देता तो उसे अज्ञानी ही माना जा सकता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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