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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Thursday, September 27, 2012

योग साधना से तन, मन और विचार का मेल निकलता है-हिंदी चिंत्तन

 
         तन का मैल नहाने और मन का मैल भक्ति से निकलता है, अक्सर प्रवचनकर्ता यह बात कहते हैं।  यह बरत सही भी है। जब हम अपनी देह और मन के विषय पर आत्ममंथन करते हैं तो पाते हैं कि कछ कमी रह जाती है। हम जमकर नहायें और हृदय से भक्ति करने का प्रयास भी करें तब भी लगता है कि कुछ छूट रहा है। इसका उपाय हमारे समझ में नहीं आता। यह कमी क्या है? क्यों रह जाती है।
    दरअसल हमारी देह गुणों के वशीभूत है। हम प्रतिदिन जो खाते हैं वह मल के रूप में हमारे अंदर विराजमान रहता ही है। महान नीति विशारद चाणक्य का कहते हैं कि हमारे निष्कासन अंग कभी पूरी तरह स्वच्छ नहीं रहते।
    यह मल हमारे मन मस्तिष्क को प्रभावित करता है। इससे बचने का उपाय है योग साधना।  सुबह या शाम हम जब मल विसर्जन करते हैं तब लगता है कि हमारी देह अंदर से स्वच्छ हो गयी पर ऐसा होता नहीं है। योग साधना का अनुभव होने पर यह पता चलता है कि हमारे अंदर मल बहुत बड़ी मात्रा में रह जाता है जो अंततः दैहिक तथा मन के विकारों को उत्पन्न करता है। श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार मनुष्य का मन, बुद्धि तथा देह गुणों के वशीभूत है। जब देह में विकार होत तो मन और बुद्धि में शुद्धता और पवित्रता की आशा करना व्यर्थ है।  दरअसल अपनी देह को एक दुष्टा की तरह देखने की आवश्यकता है।  हम अनेक बार तनाव तथा अशांति के दौर में पहुंच जाते हैं तब मानसिक संताप से स्वयं को कष्ट पहुंचाने के अलावा कुछ नहीं कर पाते। इससे बचने के उपाय के रूप  में योग साधना एक महत्वपूर्ण उपाय है।
  
नियमित योग साधना को अनेक लाभ होते है। एक समय ऐसा भी आता है जब हमारी देह इतनी आदी हो जाती है तब यह लगता है कि अब कोईलाभ नहीं हो रहा है, पर यह सोच गलत हैदरअसल कोई दवाई लेने से आदमी स्वस्थ होता है तो उसकी अनुभूति प्रत्यक्ष की जा सकते है मगर योगासन, ध्यान और प्राणायाम से जो स्वास्थ में निरंतरता बनी रहती है इसलिए कुछ नयापन नहीं लगता  नियमित योग साधना करते हुए हमें यह भी सोचना चाहिये   हम उन हानियों से भी बचे रहते हैं जो इसका अभ्यास न करने पर पहुंचती हैं।
लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश

संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Saturday, September 15, 2012

कौटिलय का अर्थशास्त्र-बिना ज्ञान के राजकर्म करना भी अनुचित (politcs activty without knowledge-economics of kautilya)

           मूलतः हर मनुष्य में दूसरे पर शासन करने की प्रवृत्ति होती है जो अंततः अहंकार की अग्नि से पैदा होती है। यह बुरा भी नहीं है पर जिस मनुष्य में अपने शासित लोगों का हित करने की बजाय उनका दोहन करने का लक्ष्य होता है  वह उसको भ्रष्ट, निकृष्ट और दुष्ट बना देता है। आधुनिक लोकतंत्र ने पूरे विश्व में राजनीति शास्त्र की बजाय केवल नारे देने वालों को राज्य पद पर प्रतिष्ठित करना प्रारंभ किया है।  इतना ही नहीं राजनीति की बजाय अन्यत्र विषयों में पारंगत और प्रतिष्ठित लोगों के लिये राजकाज में आने की प्रवृत्ति बढ़ी है।  कहने का अभिप्राय यह है कि राजनीति से अनभिज्ञ लोग राजधर्म से भी अनभिज्ञ होते हैं और जब वह राजकाज करते हैं तो वह उसमें वह सफल नहीं हो पाते।  इसके परिणाम प्रजा को भोगने पड़ते हैं।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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शास्त्रचक्षुनृपस्तस्मान्महामात्यमते स्थितः।
धर्मार्थप्रतिपातीनि व्यसननि परित्येत्।।

                ‘हिन्दी में भावार्थ-किसी भी राज्य प्रमुख के पास शास्त्रों का ज्ञान होना आवश्यक है।  उसे हमेशा ही योग्य मंत्रियों के साथ दिखना चाहिए।  धर्म और अर्थ के लिये घातक व्यसनों को वह त्याग दे।
      राज्य करना भी एक तरह से कला है।  जिस तरह समाज में कला का व्यवसायीकरण हुआ है वैसे ही राजनीति भी पेशा बन गयी है।  अनेक लोग तो अपने राजनीति से इतर व्यवसायों, संगठनों तथा सामाजिक हितों की रक्षा के लिये पदारूढ़ होने की  कामना करते हैं।  वह सफल भी होते हैं। उनका लक्ष्य केवल पद पर बैठकर अपने तथा परिवार की रक्षा करना होता है इसलिये प्रजाहित की न तो उनमें दिलचस्पी रहती है न ही कोई वह योजना बनाते हैं।  इसी कारण पूरे विश्व में भ्रष्टाचार और अराजकता का वातावरण बन गया है।  अलबत्ता पद बचाये रखने के लिये ऐसे लोग  नारे अवश्य दिया करते हैं।  यही कारण है कि इस समय विश्व के अनेक देशों में असंतोष का वातावरण बन गया है।  अनेक जगह खूनी संघर्ष चल रहे हैं।  अनेक राज्य प्रमुख अपने ही देश के विद्रोहियों से जान बचाते फिर रहे हैं। यह राज्य प्रमुख केवल बंदूक के सहारे पदों पर आ गये पर जनहित करने की समझ उनमें कभी नहीं दिखी। हमारे देश को अंग्रेजों से राजनीतिक स्वतंत्रता मिले साठ साल से अधिक समय हो गया है पर आज भी अनेक विद्वान मानते हैं कि अधूरी आजादी ही मिली है।  इसलिये राजनीति में सक्रिय होने वाले लोगों को पहले राजनीति शास्त्र का अध्ययन करना चाहिए।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
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Sunday, September 09, 2012

पतंजलि योग विज्ञान-सुख का योग दुःख से है (patanjali yog vigyan or scince-sukh aur dukh ka yoga)

         पंचतत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार प्रकृति स्वतः विराजती हैं। मनुष्य का मन तो अत्यंत चंचल माना जाता है। यही मन मनुष्य का स्वामी बन जाता है और जीवात्मा का ज्ञान नहीं होने देता। अध्यात्म के ज्ञान के अभाव में सांसरिक क्रियाओं के अनुकूल मनुष्य प्रसन्न होता है तो प्रतिकूल होने पर भारी तनाव में घिर जाता है। मकान नहीं है तो दुःख है और है उसके होने पर सुख होने के बावजूद उसके रखरखाव की चिंता भी होती है। धन अधिक है तो उसके लुटने का भय और कम है नहीं है या कम है, तो भी सांसरिक क्रियाओं को करने में परेशानी आती है मनुष्य सारा जीवन इन्हीं  अपनी कार्यकलापों के अंतद्वंद्वों में गुजार देता है। विरले ज्ञानी ही इस संसार में रहकर हर स्थिति में आनंद लेते हुए परमात्मा की इस संसार रचना को देखा करते हैं। अगर किसी वस्तु का सुख है तो उसके प्रति मन में राग है और यह उसके छिन जाने पर क्लेश पैदा होता है। कोई वस्तु नहीं है तो उसका दुःख इसलिये है कि वह दूसरे के पास है। यह द्वेष भाव है जिसे पहचानना सरल नहीं है। मृत्यु का भय तो समस्त प्राणियों को रहता है चाहे वह ज्ञानी ही क्यों न हो। मनुष्य का पक्षु पक्षियों में भी यह भय देखा जाता है।
पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
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सुखानुशयी रागः।
‘‘सुख के अनुभव के पीछे रहने वाला क्लेश राग है।’’
‘‘दुःखानुशयी द्वेषः।
‘‘दुःख के अनुभव पीछे रहने वाला क्लेश द्वेष है।’’
स्वरसवाही विदुषोऽपि तथा रूडोऽभिनिवेशः।।
            ‘‘मनुष्य जाति में परंपरागत रूप से स्वाभाविक रूप से जो चला आ रहा है वह मृत्यु का क्लेश ज्ञानियों में भी देखा जाता है। उसे अभिनिवेश कहा जाता है।’’
ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः।
           ‘‘ये सभी सूक्ष्मावस्था से प्राप्त क्लेश चित्त को अपने कारण में विलीन करने के साधन से नष्ट करने योग्य हैं।’’
ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः।।
‘‘उन क्लेशों की वृत्तियां ध्यान से नष्ट करने योग्य हैं।’’
       इस तरह अंतद्वंद्वों में फंसी अपनी मनस्थिति से बचने का उपाय बस ध्यान ही है। ध्यान में जो शक्ति है उसका बहुत कम प्रचार होता है। योगासन, प्राणायाम और मंत्रजाप से लाभ होते हैं पर उनकी अनुभूति के लिये ध्यान का अभ्यास होना आवश्यक है। दरअसल योग साधना भी एक तरह का यज्ञ है। इससे कोई भौतिक अमृत प्रकट नहीं होता। इससे अन्तर्मन   में जो शुद्ध होती है उसकी अमृत की तरह अनुभूति केवल ध्यान से ही की जा सकती है। इसी ध्यान से ही ज्ञान के प्रति धारणा पुष्ट होती है। हमें जो सुख या दुःख प्राप्त होता है वह मन के सूक्ष्म में ही अनुभव होते हैं और उनका निष्पादन ध्यान से ही करना संभव है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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