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Monday, January 30, 2012

सामवेद से संदेश-सत्य से ही अच्छे काम किये जा सकते हैं (samved se sandesh satya ka hi achchhe kam sambhav)

            अंग्रेज विद्वान जार्ज बर्नाड शॉ के अनुसार बिना बेईमानी के कोई भी धनी नहीं हो सकता। हमारे देश में अंग्रेजी राज व्यवस्था, भाषा, साहित्य, संस्कृति तथा संस्कारों ने जड़ तक अपनी स्थापना कर ली है जिसमे छद्म रूप की प्रधानता है। इसलिये अब यहां भी कहा जाने लगा है कि सत्य, ईमानदारी, तथा कर्तव्यनिष्ठा से कोई काम नहीं बन सकता। दरअसल हमारे यहां समाज कल्याण अब राज्य की विषय वस्तु बन गया है इसलिये धनिक लोगों ने इससे मुंह मोड़ लिया है। लोकतंत्र में राजपुरुष के लिये यह अनिवार्य है कि वह लोगों में अपनी छवि बनाये रखें इसलिये वह समाज में अपने आपको एक सेवक के रूप में प्रस्तुत कर कल्याण के ने नारे लगाते हैं। वह राज्य से प्रजा को सुख दिलाने का सपना दिखाते हैं। योजनायें बनती हैं, पैसा व्यय होता है पर नतीजा फिर भी वही ढाक के तीन पात रहता है। इसके अलावा गरीब, बेसहारा, बुजुर्ग, तथा बीमारों के लिये भारी व्यय होता है जिसके लिये बजट में राशि जुटाने के लिये तमाम तरह के कर लगाये गये हैं। इन करों से बचने के लिये धनिक राज्य व्यवस्था में अपने ही लोग स्थापित कर अपना आर्थिक साम्राज्य बढ़ात जाते हैं । उनका पूरा समय धन संग्रह और उसकी रक्षा करना हो गया है इसलिये धर्म और दान उनके लिये महत्वहीन हो गया है।
सामवेद में कहा गया है कि
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ऋतावृधो ऋतस्पृशौ बहृन्तं क्रतुं ऋतेन आशाये।
                ‘‘सत्य प्रसारक तथा सत्य को स्पर्श करने वाला कोई भी महान कार्य सत्य से ही करते हैं। सत्य सुकर्म करने वाला शस्त्र है।’’
‘‘वार्च वर्थय।
             ‘‘सत्य वचनों का विस्तार करना चाहिए।’’
वाचस्पतिर्मरवस्यत विश्वस्येशान ओजसः।
           ‘‘विद्वान तेज हो तो पूज्य होता है।’’
              कहने का अभिप्राय है कि हमारे देश में सत्य की बजाय भ्रम और नारों के सहारे ही आर्थिक, राजकीय तथा सामाजिक व्यवस्था चल रही है। राज्य ही समाज का भला करेगा यह असत्य है। एक मनुष्य का भला दूसरे मनुष्य के प्रत्यक्ष प्रयास से ही होना संभव है पर लोकतांत्रिक प्रणाली में राज्य शब्द निराकार शब्द बन गया है। करते लोग हैं पर कहा जाता है कि राज्य कर रहा है। अच्छा करे तो लोग श्रेय लेेते हैं और बुरा हो तो राज्य के खाते में डाल देते हैं। इस एक तरह से छद्म रूप से ही हम अपने कल्याण की अपेक्षा करते हैं जो कि अप्रकट है। भारतीय अध्यात्म ज्ञान से समाज के परे होने के साथ ही विद्वानों का राजकीयकरण हो गया है। ऐसे में असत्य और कल्पित रचनाकारों को राजकीय सम्मान मिलता है और समाज की स्थिति यह है कि सत्य बोलने विद्वानों से पहले लोकप्रियता का प्रमाणपत्र मांगा जाता है। हम इस समय समाज की दुर्दशा देख रहे हैं वह असत्य मार्ग पर चलने के कारण ही है।
              सत्य एक ऐसा शस्त्र है जिससे सुकर्म किये जा सकते हैं। जिन लोगों को असत्य मार्ग सहज लगता है उन्हें यह समझाना मुश्किल है पर तत्व ज्ञानी जाते हैं कि क्षणिक सम्मान से कुछ नहीं होता इसलिये वह सत्य के प्रचार में लगे रहते है और कालांतर में इतिहास उनको अपने पृष्ठों में उनका नाम समेट लेता है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Thursday, January 26, 2012

भर्तृहरि नीति शतक-निष्काम भाव होने पर निर्भय रहना संभव (bharathari niti shatak-nishkam bhav aur nidarta)

             हमारे अध्यात्म ज्ञान में निष्काम भाव का महत्व प्रतिपादित किया गया है। दरअसल इसमें कर्मफल के प्रति विरक्ति दिखाने के लिये प्रेरित किया गया है। जबकि हमारे प्रवचनकर्ता इसका अर्थ इस तरह प्रतिपादित करते हैं जैसे कि संसार की वस्तुओं से ही पूरी तरह विरक्त हुआ जाये। अक्सर यह कहा जाता है कि मोह, लोभ, काम क्रोध तथा कामनायें ही मनुष्य की शत्रु होती हैं। आज तक लोगों को कोई यह समझा नहीं पाया कि कर्मफल है क्या? यही कारण है कि सामान्य जन कहते हैं कि फल की इच्छा के बिना कर्म करना संभव नहीं है। इसका मतलब यह है कि लोग सांसरिक क्रियाओं के कर्म का फल भौतिक पदार्थ की उपलब्धि ही समझते हैं। नौकरी, व्यवसाय या अपनी रोजमर्रा की गतिविधियों से मिलने वाले धन को आज भी फल समझना इस बात का प्रमाण है कि कथित भारतीय अध्यात्मिक गुरु समाज को निष्काम कर्म का यह अर्थ नहंीं समझा पाये जिसका आशय भक्ति, दया और दान और दान से है।
                मनुष्य अपनी दैहिक बाध्यताओं की वजह से प्रतिदिन कर्म करता है। नौकरी, व्यवसाय या मजदूरी से जिन लोगों को पैसा मिलता है वह उससे अपने घर परिवार का संचालन करते हैं। बच्चों की फीस, परिवार के लिये भोजन तथा अपनी जेब का खर्च करता हुआ कोई भी आदमी यह नहीं समझ पाता कि उसके पास आया धन फल नहीं है। इसका आशय यह है कि पैसा अपने हाथ में आना हमारे जीवन के ही कर्म का विस्तार है। वह पैसा हमारी जेब में नहीं रहता। अधिक है तो अल्मारी या बैंक में जमा रहता है। उस पैसे से खरीदा गया भोजन और वस्त्र भी फल नहीं है क्योंकि हम उसे अपनी देह का संचालन करते हैं। ऐसे सांसरिक कर्म हमेशा धन की चाह से किये जाते हैं और ऐसा जो न करे वह मूर्ख ही कहलायेगा। दरअसल उस धन का उपयोग जब किसी पर दया करने या दान देने के लिये किया जाता है तब उसे निष्काम कर्म कहा जा सकता है। जहां धन की वापसी की चाहत न हो वही निष्काम कर्म है। इस चाहत से विरक्ति ही त्याग है।
महाराज भर्तृहरि के नीति शतक में कहा गया है कि
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भोगे रोगभयं कुल च्युतिभयं वित्ते नृपालाद् भयं
मानं दैन्यभयं वाले रिपुभयं रूपे जरायाः भयमः।
शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं कावे कृतान्ताद् भयं
सर्व वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्।।
‘‘इस दैहिक जीवन में भोगों से रोग, उच्च परिवार में जन्म लेने पर निम्न आचरण में फंसने, अधिक धन होने पर राज्य, अधिक मौन रहने पर दीनता, शक्तिवान होने पर शत्रु, सौंदर्य से बुढ़ापे, ज्ञानी होने पर वाद विवाद में पराजय, विनम्रता से दुष्टों से आक्रमण और देह रहने पर मृत्यु का भय रहता है। एक मात्र विरक्त का भव ही भय से निरापद बना सकता है।
             जहां दैहिक और भौतिक जीवन को ही स्वीकार किया जाता है वहां भय की संभावना अधिक रहती है। यहां हर वस्तु पतनशील और नष्टप्रायः है। अगर हम अपने अध्यात्म दर्शन को समझें तो यह ज्ञान प्राप्त होगा कि सांसरिक उपलब्धियों का फल समझना ही भय का कारण है। यह ज्ञान होने पर आदमी भय से रहित हो जाता है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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Sunday, January 22, 2012

रहीमदास के दोहे-दौलत होने पर कई सगे बन जाते हैं (daulat hone par bahut sage ban jate hain-rahim ke dohe)

           इस संसार में सारे रिश्ते स्वार्थों से बनते हैं। उनका निर्वाह भी स्वार्थों से ही होता है। स्वार्थ पूरा न  होने पर अपने रिश्ते भी गैर जैसे हो जाते हैं।इस संसार का सबसे बड़ा सत्य यही है कि मूलतः हर सामान्य आदमी अपने स्वार्थ की वजह से दूसरों के साथ संबंध बनाता है। वह उन्हीं से संबंध निभाता है जिससे उसे अपनी अपेक्षायें पूरी होने की संभावना रहती है। यह सभी जानते हैं पर अज्ञानी लोग समाज के स्वार्थी होने का रोना होते हुए अपनी मतलबपरस्ती को जायज ठहराते हैं जबकि ज्ञानी मनुष्य निष्काम भाव से दूसरों की सहायता के लिये तत्पर रहते हैं क्योंकि उनके मन में अपने कर्म का फल पाने की आशा नहीं रहती। धर्म, अध्यात्म और संस्कृति के नाम पर हम भले ही परिवार और समाज क एकरूप होने का भ्रम पाल लें पर सत्य यही है कि स्वार्थ ही सभी प्रकार के संबंधों का आधार होता है।
              इस संसार में जिसके पास संपत्ति, वैभव, पद, प्रतिष्ठा और शक्ति है उससे संबंध रखने के लिये सभी आतुर होते हैं। निरीह, अल्प धनवान, सादगी पसंद और सत्य मार्ग का अनुसरण करने वाले लोगों के मित्र अत्यंत कम होते हैं। यह अलग बात है कि जिन लोगों के पास धन, पद, प्रतिष्ठा और आकर्षण है उनको यह भ्रम रहता है कि उनके चाहने वाले बहुत हैं। वह यह सच नहीं जानते कि इस संसार में पाखंड का बोलबाला है।
कविवर रहीम कहते हैं कि
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कहि ‘रहीम संपत्ति सगे, बनत बहुत बहुत रीत।
बिपत्ति कसौटी ज कसे, ते ही सांचे मीत।।
         ‘‘इस संसार में सभी लोग उसके सगे हैं जिसके पास संपत्ति है। धनवान आदमी के सभी मित्र बनते हैं मगर आपातकाल में जो काम आये वही सच्चा मित्र कहलाता है।
काहु ‘‘रहीम’ कैसे बनै, अनहोनी ह्वै जाय।
मिला रहै औ ना मिलै, तासो कहा बसाय।।
       ‘‘अनहोनी होने पर बात नहीं बन सकती। किसी व्यक्ति के पास होने पर भी अगर उससे आत्मीयता का भाव नहीं रहता तो उसे संबंध कैसे निभाया जा सकता है।
           इस सत्य को जानकर दूसरे मनुष्यो के साथ अपने संबंध अत्यंत सतर्कता बरतते हुए बनाना चाहिए। यह भी देखना चाहिए कि हमारे साथ दोस्ती और रिश्ते का दंभ भरने वालों के साथ हमारी वैचारिक, स्वाभाविक तथा आचरण के आधार पर समानता है कि नहीं। आमतौर से विपरीत व्यक्तित्व के लोगों के बीच आपसी संबंध अधिक समय तक नहीं चलता। निष्काम भाव से काम करने वाले मनुष्य बुरा अवसर आने पर पर निभाते हैं पर कामनाओं से भरपूर आदमी उस समय मुंह फेर जाता है। अतः जिनसे मानसिक रूप से समानता के आधार पर संबंध निर्मित न हो सके उनसे दूर रहना ही श्रेयस्कर है। यह अलग बात है कि उनको इस बात का आभास नहीं होने देना चाहिए।
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Saturday, January 14, 2012

सामवेद से संदेश-उषाकाल में जागना स्वास्थ्यवर्द्धक (subah jagna swasthyavrddhak-samved se sandesh)

              प्रातःकाल को ऊषाकाल भी कहा जाता है। हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में नींद से जागना जीवन में प्रतिदिन नवीनतम आनंद प्रदान करता है। आजकल के आधुनिक रहन सहन की शैली में इतना बदलाव आया है कि आमतौर से लोग सूर्योदय के बाद उठते हैं। यही कारण है कि हम देख रहे हैं कि हमारे देश में स्वास्थ्य का स्तर गिरता जा रहा है। मधुमेह, हृदय रोग, वायु विकार तथा अन्य बीमारियों का प्रकोप बढ़ रहा है। इनको राजरोग भी कहा जाता है जो केवल धनिकों में पाये जाते है जिनकी जीवन शैली में आलस्य अधिक रहता है। स्थिति यह है कि कहीं बुजुर्गों के मिलाप होता है तो वहां अध्यात्मिक चर्चा से अधिक बीमारियों के साथ ही इलाज की चर्चा होती है। अब लोग ज्ञान नहीं बघारते बल्कि अपनी बीमारी से कैसे लड़ रहे हैं इस पर अपनी अभिव्यक्ति अधिक व्यक्त करते हैं। कुछ रोगों के बारे में तो यहां तक मान लिया है कि बिना गोली लिये प्रभाविक मनुष्य कभी जीवन में आगे चल ही नहीं सकता। यह सोच गलत है। जो लोग प्रातःकाल उठकर सैर या योगसाधना वगैरह करते हैं तो उनके स्वास्थ्य का स्तर स्वतः ऊंचा हो जाता है। यह अब प्रमाणित भी हो गया है।
                हमने खान पान तथा रहन सहन के मामले में पश्चिमी जगत का अनुकरण किया है पर वहाँ की देह रक्षा की परंपरा का ध्यान नहीं करते। वहाँ प्रात; व्यायाम को बहुत महत्व दिया जाता है। यही कारण है कि पश्चिमी देशों मेह स्वास्थ्य का स्तर हमसे कहीं ऊंचा है। वहाँ कि औसत आयु भी कहीं अधिक  है। हमारे यहाँ तो पश्चिम की देखादेखी   भौतिक  साधनों का उपयोग बढ़ता जा रहा है मगर व्यायाम न करने  कारण रोगों का प्रकोप  भी बढ़ रहा है। 
सामवेद में कहा गया है कि
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उस्त्रा देव वसूनां कर्तस्य दिव्यवसः।
            ‘‘उषा वह देवता है जिससे रक्षा के तरीके सीखे जा सकते हैं।’’
ते चित्यन्तः पर्वणापर्वणा वयम्।
             ‘‘हम प्रत्येक पर्व में तेरा चिंत्न करें’’
          प्रातः उठने से न केवल विकार दूर होते हैं वरन् जीवन में कर्म करने के प्रति उत्साह भी पैदा होता है। अगर हम आत्ममंथन करें तो पायेंगे कि हमारे अंदर शारीरिक और मानसिक विकारों का सबसे बड़ा कारण ही सूर्योदय के बाद नींद से उठना है। हमारी समस्या यह नही है कि हमें कहीं सही इलाज नहीं मिलता बल्कि सच बात यह है कि अपने अंदर विकारों के आगमन का द्वार हम सुबह देरसे उठकर स्वयं ही खोलते हैं। बेहतर है कि हम सुबह सैर करें या योगसाधना करें। व्यायाम करना भी बहुत अच्छा है।
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Sunday, January 08, 2012

मनुस्मृति-जाति के आधार पर किसी पर व्यंग्य करना अनुचित (manu smriti-jati ka adhar par vyangya karna anuchit)

            यह कहना कठिन है कि पूरी दुनियां में ही अहंकार के भाव का बोलबाला है या भारतीय समाज में ही यह विकट रूप में दिखाई देता है। अलबत्ता इतना अवश्य है कि भारतीय समाज में अपने अहंकार में आकर दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति कुछ अधिक ही दिखाई देती है। हम जैसे चिंत्तक तो मानते हैं कि भारत का अध्यात्मिक दर्शन इसलिये ही अधिक समृद्ध हुआ है क्योंकि ऋषियों और मुनियों को अपने आसपास अज्ञान में लिपटा एक बृहद समाज मिला जिसे सुधारने के लिये उन्होंने तत्वज्ञान स्थापित किया। इसके लिये उनको एक सहज जमीन मिल गयी जहां वह अनुसंधान, चिंत्तन, मनन और अध्ययन से अध्यात्मिक ज्ञान का सृजन करने के साथ ही उसे सार्वजनिक रूप से व्यक्त भी कर सके। अगर सभी ज्ञानी होते तो आखिर वह किस पर अनुसंधान कर रहस्यों का पता लगाते। उनकी बात कौन सुनता? एक ज्ञानी के रूप में कौन उनको प्रतिष्ठत करता? एक टांग वाले को लंगड़ा, एक आंख वाले को काना, अक्षरज्ञान से रहित को गंवार और और काले रंग वाले को कुरूप कहकर उनका मजाक उड़ाना तो आम बात है। इसके अलावा हर आदमी अपनी जाति को श्रेष्ठ बताकर दूसरी जाति का मजाक उड़ाता है। कभी कभी तो अपने प्रथक जाति वाले को नीच बताकर उसका अपमान किया जाता है। सच बात तो यह है कि कोई जाति नीच नहीं होती अलबत्ता जिनके पास धन, पद और बाहुबल है वह दूसरे की जाति को नीच बताते हैं। यह एक दम अधर्म और अज्ञान का प्रमाण है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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हीनांगनतिरिक्तांगहीनाव्योऽधिकान्।
रूपद्रव्यविहीनांश्च जातिहीनांश्च नाक्षिपेत्।।
           ‘‘ऐसे व्यक्तियों का मजाक  उड़ाना या अपमानित करना निंदनीय है जो किसी अंग से हीन, अधिक अंग वाले, शिक्षा से रहित, आयु में बड़े, कुरूप, निर्धन तथा छोटी जाति या वर्ण के हों।’’
         वैसे मनुमहाराज पर भारतीय समाज में जाति पांति स्थापित करने का आरोप लगता है। ऐसा लगता है कि आधुनिक शिक्षा से ओतप्रोत समाज नहीं चाहता कि भारत की प्राचीन शिक्षा का यहां प्रचार प्रसार हो। यही कारण एक तो वह लोग हैं जो मनुस्मृति के चंद उदाहरण देकर देश में उसे जातिपाति का प्रवर्तक मानते हैं बिना पढ़े ही उनका प्रतिकार यह कहते हुए करते हैं कि भारतीय समाज कभी उनके संदेशों के मार्ग पर नहीं चला। यह हैरानी की बात है कि इन्हीं मनुमहाराज ने अंगहीन, अशिक्षित, बूढ़े, असुंदर तथा जाति के आधार पर किसी के मजाक उड़ाने या अपमानित करने को वर्जित बताया है। लार्ड मैकाले की शिक्षा में रचेबसे आधुनिक बुद्धिजीवी चाहे वह जिस विचारधारा के हों मनुस्मृति का पूर्ण अध्ययन किये बिना ही अपना बौद्धिक ज्ञान बघारते हैं।
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Tuesday, January 03, 2012

भर्तृहरि नीति शतक-विरक्ति का भाव मनुष्य को निडर बनाता है (bharathari niti shatak-viraki ka bhav nidar banata hai)

             श्रीमद्भागवत गीता में निष्काम भाव का जो संदेश है उसका अधिकतर लोग गलत अर्थ निकालते हैं। कुछ लोग उसे काम का त्याग करना मानकर सन्यास से जोड़ते हैं तो कुछ कहते हैं कि बिना कामना के काम किया ही नहीं जा सकता। यह अज्ञान का प्रमाण है।  कर्म करना मनुष्य का धर्म है पर उसके फल के प्रति विरक्ति भाव अपनाना ही निष्काम भाव है।हमारे अध्यात्म ज्ञान में निष्काम भाव का महत्व प्रतिपादित किया गया है। दरअसल इसमें कर्मफल के प्रति विरक्ति दिखाने के लिये प्रेरित किया गया है। जबकि हमारे प्रवचनकर्ता इसका अर्थ इस तरह प्रतिपादित करते हैं जैसे कि संसार की वस्तुओं से ही पूरी तरह विरक्त हुआ जाये। अक्सर यह कहा जाता है कि मोह, लोभ, काम क्रोध तथा कामनायें ही मनुष्य की शत्रु होती हैं। आज तक लोगों को कोई यह समझा नहीं पाया कि कर्मफल है क्या? यही कारण है कि सामान्य जन कहते हैं कि फल की इच्छा के बिना कर्म करना संभव नहीं है। इसका मतलब यह है कि लोग सांसरिक क्रियाओं के कर्म का फल भौतिक पदार्थ की उपलब्धि ही समझते हैं। नौकरी, व्यवसाय या अपनी रोजमर्रा की गतिविधियों से मिलने वाले धन को आज भी फल समझना इस बात का प्रमाण है कि कथित भारतीय अध्यात्मिक गुरु समाज को निष्काम कर्म का यह अर्थ नहंीं समझा पाये जिसका आशय भक्ति, दया और दान और दान से है।
                मनुष्य अपनी दैहिक बाध्यताओं की वजह से प्रतिदिन कर्म करता है। नौकरी, व्यवसाय या मजदूरी से जिन लोगों को पैसा मिलता है वह उससे अपने घर परिवार का संचालन करते हैं। बच्चों की फीस, परिवार के लिये भोजन तथा अपनी जेब का खर्च करता हुआ कोई भी आदमी यह नहीं समझ पाता कि उसके पास आया धन फल नहीं है। इसका आशय यह है कि पैसा अपने हाथ में आना हमारे जीवन के ही कर्म का विस्तार है। वह पैसा हमारी जेब में नहीं रहता। अधिक है तो अल्मारी या बैंक में जमा रहता है। उस पैसे से खरीदा गया भोजन और वस्त्र भी फल नहीं है क्योंकि हम उसे अपनी देह का संचालन करते हैं। ऐसे सांसरिक कर्म हमेशा धन की चाह से किये जाते हैं और ऐसा जो न करे वह मूर्ख ही कहलायेगा। दरअसल उस धन का उपयोग जब किसी पर दया करने या दान देने के लिये किया जाता है तब उसे निष्काम कर्म कहा जा सकता है। जहां धन की वापसी की चाहत न हो वही निष्काम कर्म है। इस चाहत से विरक्ति ही त्याग है।
महाराज भर्तृहरि के नीति शतक में कहा गया है कि
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भोगे रोगभयं कुल च्युतिभयं वित्ते नृपालाद् भयं
मानं दैन्यभयं वाले रिपुभयं रूपे जरायाः भयमः।
शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं कावे कृतान्ताद् भयं
सर्व वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्।।
                            ‘‘इस दैहिक जीवन में भोगों से रोग, उच्च परिवार में जन्म लेने पर निम्न आचरण में फंसने, अधिक धन होने पर राज्य, अधिक मौन रहने पर दीनता, शक्तिवान होने पर शत्रु, सौंदर्य से बुढ़ापे, ज्ञानी होने पर वाद विवाद में पराजय, विनम्रता से दुष्टों से आक्रमण और देह रहने पर मृत्यु का भय रहता है। एक मात्र विरक्त का भव ही भय से निरापद बना सकता है।
             जहां दैहिक और भौतिक जीवन को ही स्वीकार किया जाता है वहां भय की संभावना अधिक रहती है। यहां हर वस्तु पतनशील और नष्टप्रायः है। अगर हम अपने अध्यात्म दर्शन को समझें तो यह ज्ञान प्राप्त होगा कि सांसरिक उपलब्धियों का फल समझना ही भय का कारण है। यह ज्ञान होने पर आदमी भय से रहित हो जाता है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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