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Tuesday, November 29, 2011

पतंजलि योग साहित्य-पूर्व के कर्म का अनुमान परिणाम से भी संभव (patanjali yoga sahitya-parinam se karma ka anuaman sanbhav)

               आमतौर से आधुनिक विज्ञापन ज्योतिष तथा मनुष्यों की सिद्धि पर विश्वास नही करता पर पतंजलि योग के अनुसार अगर कोई योगासन, ध्यान, प्राणायाम करने के साथ ही संयम का पालन करे तो वह इतना सिद्ध हो जाता है कि उसे अपने भविष्य का ज्ञान होने लगता है। इतना ही नहीं अगर हम किसी व्यक्ति को काम करते नहीं देख पाए  पर उसे नतीजे भोगते देखकर भी यह अंदाज लगाया जा सकता है कि उसने क्या किया होगा।
पतंजलि योगशास्त्र  में कहा गया है कि
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क्रमान्यत्वं परिणामन्यत्वे हेतुः।

‘‘किसी कार्य करने के क्रम में भिन्नता से परिणाम भी भिन्न होता है।’’
परिणामन्नयसंयमादतीतानागतज्ञानम्।।
‘‘अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का विचार करने से परिणाम का ज्ञान हो जाता है।’’

                    पतंजलि योग में न केवल भौतिक तथा दृश्यव्य संसार को जानने की विधा बताई गयी है बल्कि अभौतिक तथा अदृश्यव्य स्थितियों के आंकलन का भी ज्ञान दिया गया है। हमारे सामने जो भी दृश्य आता है वह तत्काल प्रकट नहीं होता बल्कि वह किसी के कार्य के परिणाम स्वरूप ही ऐसा होता है। कोई व्यक्ति हमारे घर आया तो इसका मतलब वह किसी राह से निकला होगा। वहां भी उसके संपर्क हुए होंगे। वह हमारे घर पर जो व्यवहार करता है वह उसके घर से निकलने से लेकर हमारे यहां पहुंचने तक आये संपर्क तत्वों से प्रभावित होता है। वह धूप में चलकर आया है तो दैहिक थकावट के साथ मानसिक तनाव से ग्रसित होकर व्यवहार करता है। कोई घर से लड़कर आया है तो उसका मन भी वहीं फंसा रह जाता है और भले ही वह उसे प्रकट न करे पर उसकी वाणी तथा व्यवहार अवश्य ही नकारात्मक रूप से परिलक्षित होती है।

            कहने का अभिप्राय यह है कि हम प्रतिदिन जो काम करते हैं या लोगों हमारे लिये काम करते हैं वह कहीं न कहीं अभौतिक तथा अदृश्यव्य क्रियाओं से प्रभावित होती हैं। इसलिये कोई दृश्य सामने आने पर त्वरित प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करना चाहिए। हमें यह विचार करना चाहिए कि उस दृश्य के पीछे कौन कौन से तत्व हैं। व्यक्ति, वस्तु या स्थितियों से प्रभावित होकर ही कोई धटना हमारे सामने घटित होती है। जब हमें यह ज्ञान हो जायेगा तब हमारे व्यवहार में दृढ़ता आयेगी और हम अनावश्यक परिश्रम से बच सकते हैं। इतना ही नहीं किसी दृश्य के सामने होने पर जब हम उसका अध्ययन करते हैं तो उसके अतीत का स्वरूप भी हमारे अंतर्मन में प्रकट होता है। जब उसका अध्ययन करते हैं तो भविष्य का भी ज्ञान हो जाता है।         
         हम अपने साथ रहने वाले अनेक लोगों का व्यवहार देखते हैं पर उसका गहराई से अध्ययन नहीं करते। किसी व्यक्ति के मन में अगर पूर्वकाल में से दोष रहे हैं और वर्तमान में दिख रहे हैं तो मानना चाहिए कि भविष्य में भी उसकी मुक्ति नहीं है। ऐसे में उससे व्यवहार करते समय यह आशा कतई नहीं करना चाहिए कि वह आगे सुधर जायेगा। योग साधना और ध्यान से ऐसी सिद्धियां प्राप्त होती हैं जिनसे व्यक्ति स्वचालित ढंग से परिणाम तथा दृश्यों का अवलोकन करता है। अतः वह ऐसे लोगों से दूर हो जाता है जिनके भविष्य में सुधरने की आशा नहीं होती। जब हमारा कोई कार्य सफल नहीं होता तब हम भाग्य को दोष देते हैं जबकि हमें उस समय अपने दोषों और त्रुटियों पर विचार करना चाहिए।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Thursday, November 24, 2011

संत कबीर दर्शन-भक्ति के लिये इधर उधर भटकने की आवश्यकता नहीं ( sant kabir darshan-bhakti ke liye bhatakna vyarth)

                     आखिर मनुष्य को भक्ति क्यों करना चाहिए? इसके लाभ क्या हैं? इस प्रश्न के अनेक उत्तर दिये जा सकते हैं। आर्ती प्रवृत्ति वाले भक्त अपना कष्ट दूर होने की आशा से भगवान को पुकारते हैं तो अर्थार्थी हमेशा ही इस आशा से भगवान का भजन करते हैं कि उनके सांसरिक कार्य सिद्ध होते रहें।  जिज्ञासु केवल निष्काम भाव से भक्ति करते हैं यह सोचक कि अगर इससे फायदा नहीं हुआ  तो हानि भी नहीं होगी पर देखें कि इससे क्या लाभ होता है? इन सबसे अलग ज्ञानी इस तर्क के साथ ध्यान, योग, तथा मंत्र जाप आदि करते हैं कि इससे उनका का मन कुछ देर के लिये सांसरिक पदार्थों के चिंत्तन से परे होकर विश्राम करता है। चतुराई करते हुए एकरसता से ऊबी बुद्धि सरल भाव से आत्मा के साथ बात करती है।
आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान भी मानता है कि एक ही काम करते रहने से अनेक मानसिक विकार उत्पन्न होते हैं जो अततः देह के पतन का कारण बनते हैं। पश्चिमी स्वास्थ्य विज्ञान ने तो यह बात अब जानी है जबकि भारतीय अध्यात्म ज्ञानियों ने यह बात पहले ही समझ ली थी इसलिये ही भक्ति, ध्यान, योग तथा मंत्रोच्चार के लिये लोगों को प्रेरित करते रहे। यह अलग बात है कि अनेक लोग भक्ति करते हैं पर उनके में दिखावा अधिक होता है। वह चाहते हैं कि वह भक्त कहलायें। अनेक भक्तगण तो दूसरे को अपने इष्ट को पूजने के लिये उकसाते हैं।
इस विषय पर संत कबीरदास कहते हैं कि
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बाहर क्या दिखराइये, अन्तर जानिए राम
कहा काज संसार से, तुझे घनी से काम
          "बाहर दिखाकर भगवान् का स्मरण करने से क्या लाभ, राम का स्मरण तो अपने ह्रदय में करना चाहिए। जब भगवान् के भक्ति करनी है फिर इस संसार से क्या काम ।
प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बजाय
चाहे घर में बात कर, चाहे बन को जाय
        " अगर भगवान की भक्ति करनी है तो घर-गृहस्थी में रहते हुए भी की जा सकती है उसके लिए वेशभूषा बदलने की कोई जरूरत नहीं है और न वन जाने की। बस मन में प्रेमभाव होना चाहिए।" 
            भक्ति के प्रकार पर बहस करने की बजाय उसके किसी भी स्वरूप में अपना मन और मस्तिष्क स्थिर रखने पर विचार करना चाहिए।  चित्त की चंचलता पर अगर नियंत्रण नहीं किया गया तो सारी भक्ति इसलिये व्यर्थ है क्योंकि उससे हमारे मन के विचारों के विकार नहीं निकल पाते।  भक्ति से कोई इस संसार में स्वर्ग नहीं मिल जाता न ही सांसरिक कार्यों में सिद्धि की आशा पूर्ण होती है। दरअसल सांसरिक कार्य तो अपने आप समय पर सिद्ध होते हैं मनुष्य आशा और निराशा का भाव तो व्यर्थ ही पालता है। 
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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Sunday, November 20, 2011

हिन्दू धर्म संदेश-राजकोष में हेराफेरी करने वालों को कठोर दंड देना जरूरी (hard punishment must for reveneu fraud)

           प्राचीन समय में भारतवर्ष में राजकोष से हेराफेरी करना एक तरह से राजद्रोह जैसा अपराध माना जाता था।  एक तरह से कहा जाये तो इस संसार में परमात्मा के बाद राजा को इसलिये ही दूसरा स्थान दिया गया था कि वह समाज में सभ्यता, शिक्षा तथा शांति का वातावरण बनाये रखेगा।  इसलिये ही उसे राजस्व वसूल का अधिकार दिया गया।  स्वाभाविक रूप से इसके लिये कर्मचारियों को नियुक्ति करनी होती है।  कर्मचारी भले ही राजा के लिये राजस्व संग्रह करते हैं पर अंततः उसे प्रजा की संपत्ति माना जाता है इसलिये उसमें हेराफेरी के अपराध के लिये कड़े दंड की व्यवस्था की गयी।  आधुनिक मानव सभ्यता में विभिन्न देशों में कथित मानवीय आधार पर अपराधियों को मुलायम सजायें देने की व्यवस्था का निर्माण हुआ है। अब तो यह स्थिति है कि अगर किसी को किसी की हत्या पर मृत्यु दंड दिया जाये तो मानव अधिकार संगठन विलाप करने लग जाते हैं। अनेक लोग तो पाश्चात्य कानून से सीख लेकर भारत में मौत की सजा समाप्त करने की मांग करने लगे हैं। हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार तो केवल हत्या करना ही जघन्य अपराध नहीं है वरन् स्त्री के साथ जबरदस्ती करना, राजकोष की चोरी करना तथा सार्वजनिक संपत्ति को हानि पहुंचाना भी जघन्य अपराध है जिनकी सजा मौत ही होना चाहिए। अक्सर कुछ लोग कहते हैं कि मृत्युदंड से अपराध होना बंद नहीं होता। यह सत्य है पर इससे अपराध दर अवश्य कम रहती है। जब तक देश में हत्या पर मौत की सजा का भय था तब ऐसा अपराध बहुत कम ही देखने को मिलता था। अब तो गाहे बगाहे हत्या होने की बात सामने आती है। दरअसल अब अपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के मन में यह विश्वास घर कर गया है कि वह किसी को मारकर भी बच सकते हैं। सजा हो जाये तो भी जिंदगी बरकरार रह सकती है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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राज्ञः कोषोपहर्तृश्च प्रतिकूलेष च स्थितान्।
घातयेद्विविधैर्दण्डैररीणां चोयजापकान्।।
         ‘‘जो लोग राजकोष का हरण करने के साथ ही राजा की आज्ञा की अवहेलना करते हैं। शत्रु से मिल जाते हैं उनको मृत्युदंड देना ही श्रेयस्कर है।
अग्निदान्भक्तदांश्चैव तथा शस्ववकाशदान्।
सन्निधातृंश्चैव मोषस्य हन्याच्यौरमिवेश्वरः।।
     ‘‘अपराध पर नियंत्रण करने के लिये यह आवश्यक है जो लोग अपराधियों को अग्नि, भोजन, शस्त्र, वस्त्र व आश्रय देते हैं, उन्हें भी अपराधी मानकर मृत्युदंड देना चाहिए।
          आजकल पूरे विश्व में भ्रष्टाचार बढ़ने की बात कही जाती है। दरअसल राज्य के कोष का हरण करना या प्रंजा से उचित काम के पैसे वसूल करना एक सभ्य अपराध मान लेना ही इस भ्रष्टाचार का मूल कारण है। हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार तो राज्य के कोष से घात करने वाले को मौत की सजा देना चाहिए पर पाश्चात्य आधारों पर बने हमारे कानूनों में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। इतना ही अपराधों को प्रश्रय देने वाले सफेदपोश तो अपने घरों में सुरक्षित बैठे रहते हैं। इनमे तो कई इतने शक्तिशाली होते हैं कि कोई उनका किसी अपराधी से नाम जोड़ने का साहस तक नहीं कर पाता। यह सब देखते हुए तो लगता है बिना कड़े दंड प्रावधानों के अपराध पर नियंत्रण पाना संभव नहीं है भले ही कोई कितना भी दावा करे।
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Monday, November 14, 2011

सामवेद से संदेश-सत्य मनुष्य की जीभ से टपकता है

             संसार के जिस आदमी ने मिलो यही कहता है कि ‘मै दुखी हूं’, क्योंकि सामान्य मनुष्य सुख तो चाहते हैं पर उसे पाने का कौशल बहुत कम लोग हैं। इसका कारण यह भी है कि संसार में अधिकांश मनुष्य दोहरे आचरण के मार्ग पर चलने वाले हैं। आदर्शों, सिद्धांतों और नैतिकता की दुहाई सभी लोग देते हैं पर व्यवहार में सात्विकता केवल ज्ञानियों में ही दिखाई देती है। ज्ञानी इस बात को जानते हैं कि दोगला व्यवहार हमेशा स्वयं के लिये ही कष्टकारक है। लोग किसी के मित्र नहीं है भले ही दावा करते हों कि उन्होंने ढेर सारे मित्रों से व्यवहार निभाया है। अपने ही आत्मीय जनों की पीठ पीछे निंदा करते हैं। इस बात को जाने बिना बिना कि एक कान से दूसरे कान में पहुंच ही जाती है। नतीजा यह है कि समाज में वैमनस्य भी बढ़ रहा है। हम जब यह कहते हैं कि आजकल समाज में वैसा सद्भाव नहीं है तो यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि उसके लिये स्वयं ही जिम्मेदार हैं।
सामवेद में कहा गया है कि
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मा ते रसस्य मत्सत द्वयाविनः।
            ‘‘दोहरा आचरण करने वाले आनंदित नहीं होते।’
ऋतस्य जिह्वा पवते मधु।
           ‘‘सच मनुष्य की जिह्वा से मधु टपकता है।’’
         लोगों की वाणी, विचार तथा व्यवहार स्वार्थों के अनुसार मधुर और कठोर होता है। ताकतवर के आगे सिर झुकाते हैं तो कमजोर पर आग की तरह झपटते हैं। आपसी वार्तालाप में ऐसी पवित्र बातें करते हैं गोया कि महान धार्मिक हों पर व्यवहार में शुद्ध रूप से स्वार्थ दिखता है। ऐसे में संसार या समाज को बिगड़ने का दोष देकर आत्ममंथन से बचना एक दोगला प्रयास है। ऐसे प्रयासों के चलते कोई सुख या आनंद नहीं प्राप्त कर सकता। इसके विपरीत निराशा, तनाव, तथा मानसिक विकारों को मनुष्य शरीर में शासन स्थापित हो जाता है। इसलिये जहां तक हो सके आत्ममंथन कर अपने दोषों का निराकरण करना चाहिए। संसार या समाज के दूषित होने की बात करना व्यर्थ है।
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Saturday, November 12, 2011

वेद शास्त्रों से संदेश-मन का स्वभाव है विषयों में विचरना (ved shastron se sandesh-man ka swabhav hai vishayon mein vicharna)

        हमारे देश के अनेक कथित ज्ञानी अपने अल्पज्ञान से लोगों को मोक्ष का गलत पाठ पढ़ाते हैं। इसका आशय यह है कि मनुष्य मरने के बाद पुनः इस संसार में न लौटे। इससे अनेक लोग घबड़ा जाते हैं। हर मनुष्य यह चाहता है कि वह इस संसार में पुनः मनुष्य यौनि में ही आये। उसकी इस भावना का धर्म के ठेकेदार बहुत लाभ उठाते हैं और उसे दान पुण्य कर सकाम भक्ति के लिये प्रेरित करते हैं। इतना ही नहीं मनुष्य यौनि से पहले स्वर्ग का सुख भोगने की भी यह लोग गांरटी देते हैं। इस तरह धर्म एक सीमित अर्थ वाला विषय रह गया है। दरअसल मोक्ष का मतलब यह कतई नहीं है कि मरने के बाद आदमी फिर इस संसार में नहीं लौटेगा। अभी तक यह तय नहीं है कि मनुष्य या अन्य जीवों का इस संसार में लौटना होता है कि नहीं। आत्मा अमर है यह निश्चित है पर परमात्मा अनंत है और उसकी लीला को वही जानता है।
        दरअसल हमारा अध्यात्म मनुष्य को मन पर इस तरह नियंत्रण करना सिखाता है कि वह कम से कम इस अलौकिक मनुष्य यौनि में अपना जीवन व्यर्थ के विषयों के बर्बाद न करे। आनंद का अर्थ समझे। वरना तो स्थिति यह होती है कि आदमी अपने मन को प्रसन्न करते हुए अनेक साधन जुटा लेता है पर सुख ले नहीं पाता। सुख कोई दिखने या हाथ आने वाली चीज नहीं है बल्कि अनुभूति का विषय है और यही समझने वाले ज्ञानी कहलाते हैं जिनकी संख्या उंगलियों पर गिनने लायक हैं।
वेदशास्त्रों में कहा गया है कि
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मोक्षो विषयवैरस्यं बन्धो वैषयिको रसः।
सतावदेव विज्ञानं यथेच्छसि तथा कुरु।।
           ‘‘विषयों में से रस का चला जाना ही मोक्ष है और विषयों में रस का होना ही बंधन है। विज्ञान इतना ही। वैसे जिसकी इच्छा है वही काम करे।’’
इन्द्रियाण विचरतां विषयेष्वपहारिषु।
संयम यत्नमातिष्ठेद् विद्वान् यन्तेव वाजिनाम्।।
             ‘इंद्रियों का स्वभाव है कि वह विषयों में ही विचरती हैं। मनुष्य को कुशल सारथि की भांति उन पर नियंत्रण करना चाहिए।’’
        किसी वस्तु की प्राप्ति से पहले आदमी संघर्ष करता है पर बाद में वह कितना सुख अनुभव कराती है यह कौन विचार करता है। आसक्ति वस्तु प्राप्त करने तक ही सीमित है पर उसके उपयोग से सुविधा मिलती है न कि सुख का अनुभव होता है। सुख या आनंद त्याग में है। किसी वस्तु के मिलने पर हर्ष या न मिलने पर जब निराशा न हो तब यह समझना चाहिए कि हमने मोक्ष पा लिया। आसक्ति तनाव का कारण बनती है और विरक्ति सहजता का भाव पैदा करती है। इसी विरक्ति को मोक्ष कहा जाता है। मोक्ष का मतलब है आसक्ति का मर जाना। आसक्ति मरने का मतलब है तनावरहित जीवन गुजारना। यही ज्ञान और विज्ञान है।
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Monday, November 07, 2011

हिन्दू धर्म संदेश-मेहमाननवाजी भी लायक आदमी की करना चाहिए (hindu dharma sandesh-mehaman nawazi aur layak aadmi)

       घर आये मेहमान को आदर देना हर धर्म में अच्छा माना जाता है। भारतीय धर्म भी इसे स्वीकारते है। यह अलग बात है कि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथ मेहमाननवाजी में भी आदमी के सुपात्र होने की आवश्यकता बताते हैं। हमारे देश में संस्कार तथा संस्कृति के नाम पर भी कई नारे प्रचलित हो गये हैं। इनमें एक है ‘अतिथि देवो भव‘। इसको लेकर बहुत सारी बातें कही जाती हैं जबकि हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है कि मेहमान की पात्रता तभी स्वीकार्य है जब वह पवित्र मनुष्य हो। ऐसा नहीं है कि हर किसी को घर के दरवाजे पर आने पर मेहमान का दर्जा देकर उसका स्वागत किया जाये। दरअसल इस तरह के नारे अध्यात्मिक ग्रंथों में वर्णित तत्वज्ञान के अभाव में ही समाज में प्रचलित हो गये हैं। कुछ लोग तो यह कहते हैं कि अतिथि सत्कार धर्म का सर्वोच्च रूप है और एक तरह से यज्ञ करने से अधिक श्रेष्ठ है। यह सत्य है कि अगर सुपात्र मनुष्य का अतिथि रूप में सत्कार करना एक तरह यज्ञ ही है पर इसमें पवित्रता का विचार भी होना चाहिए। ज्ञानी लोग हर क्रिया को यज्ञ की तरह मानते हैं। जिस तरह यज्ञ पवित्र स्थान पर पवित्र वस्तुओं से किया जाता है उसी तरह अतिथि सत्कार का धर्म भी पवित्र व्यक्ति को प्रदान किया जाना चाहिए।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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ज्ञानेनैवापरे विप्राः यजन्ते तैमंखेःसदा।
ज्ञानमूलां क्रियामेषां पश्चन्तो ज्ञानचक्षुषा।
            ‘‘तत्वाज्ञानी सभी क्रियाओं को अपने ज्ञान नेत्रों से देखते हुए उसके प्रेरक तत्वों को पहचानते हैं। इस तरह वह अपने ज्ञान से ही यज्ञानुष्ठान करना सबसे महत्वपूर्ण मानते है।
पाषण्डिनो विकर्मस्थान्बैडाव्रतिकांछठान्।
हैंतुकान्वकवृत्तश्चि वांड्मात्रेण्णापि नार्चयेत्।।
          ‘‘पांखडी, दृष्ट, ठग, दूसरों को दुःख पहुंचाने वाला तथा धर्म ग्रंथों में अरुचि रखने भले ही सज्जनता का व्यवहार करे पर उसे कभी मेहमान नहीं बनाना चाहिए। इतना ही नहीं उसका वाणी से भी कभी स्वागत नहीं करना चाहिए।’’
         हमारे देश में पहले शिक्षा के अभाव में लोगों को अध्यात्मिक ग्रंथों का ज्ञान नहीं था तो अब आधुनिक शिक्षा ने उनको एक तरह से विरक्त ही कर दिया गया है। इसलिये चालाक लोग दूसरों को अतिथि सत्कार का धर्म निभाने की राय देते हैं और स्वयं मजे करते हैं। इसलिये यह आवश्यक है कि तत्वज्ञान को समझा जाये। अपनी हर क्रिया को अपने ज्ञान चक्षुओं से देखते हुए यज्ञ होने की अनुभूति की जाये। जीवन में आनंद लेने का यह भी एक तरीका है।
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Saturday, November 05, 2011

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-समय निकल जाने पर वस्तु प्राप्त करने का प्रयास व्यर्थ

              यह संसार परिवर्तनशील है। यहां दृश्यव्य हर पदार्थ का विकास और पतन कभी न कभी होता है। यह अलग बात है कि सभी की आयु अलग अलग होती है। इतना निश्चित है कि जीवन के साथ मृत्यु और उद्भव के साथ पराभव भी होता है। यह कभी नहीं भूलना चाहिए। सांसरिक पदार्थों का मोह ऐसा है कि हर आदमी उसे प्राप्त करना चाहता है। यह अलग बात है कि सभी का कर्म एक जैसा नहीं होता अतः उसका परिणाम भी भिन्न होता है। अनेक लोग अपने सामर्थ्य से अधिक लक्ष्य निर्धारित करते हैं तो अनेक ऐसे हैं जो सहज प्राप्य वस्तु को प्राप्त करना ही नहीं चाहते। कुछ लोग समय बीत जाने पर अपना अभियान प्रारंभ करते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि लोग अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार चलते हैं वैसे ही उनका जीवन भी चलता है। ज्ञानी लोग देशकाल और अपने सामर्थ्य के अनुसार किसी वस्तु या लक्ष्य की प्राप्ति के लिये अपना काम आरंभ करते हैं। भले ही वह अधिक धनवान न बने पर उनका जीवन शांति से गुजरता है। इसके विपरीत अनेक लोग लालच, लोभ और काम के वशीभूत होकर अपना काम प्रारंभ करते हैं। भाग्यवश किसी को सफलता मिल जाये तो अलग बात है वरना अधिकरत तो अपना पूरा जीवन ही अशांति में नष्ट कर देते हैं।

कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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मनुष्य युग्यापचयक्षयो हि हिरण्यधान्यावचयव्यस्तु।
तस्मादिमान्नैव विदग्धबुद्धिः क्षयव्ययायासकरीमुपेयात्।।
            ‘‘मनुष्य और पशु आदि जीवधारियों की देह का ह्रास  ही क्षय है। सोने आदि भौतिक पदार्थों का नाश व्यय है। जिसमें दोनों प्रकार का क्षय दिखे वह कार्य या अभियान प्रारंभ न करें। राजा का कर्तव्य है कि वह विशेष संहार और व्यय कर भी फल न मिलने वाले कार्य को रोके।
वस्तुष्वशक्येषु समुद्यमश्वेच्छक्येषु मोहादसमुद्यमश्च।
शक्येषु कालेन समुद्यश्वश्व त्रिघैव कार्यव्यसनं वदन्ति।।
          "किसी भी कार्य के तीन व्यसन होते हैं। एक तो अपने सामर्थ्य से अधिक वस्तु की प्राप्ति करने का प्रयास करना दूसरा सहजता से प्राप्त वस्तु के लिये उद्यम करना। तीसरा समय बीत जाने पर किसी वस्तु को प्राप्त करने का प्रयास करना।
         हमारी देह का ह्रास होता है तो स्वर्ण आदि भौतिक पदार्थों का व्यय भी करना पड़ता है। ऐसे में यह निश्चित कर कोई काम हाथ में लेना चाहिए जिसमें दोनों ही प्रकार की हानियों से बचा जा सके या फिर वह कम से कम हो। धन का सीधा नियम है कि जहां सें लाभ हो वहीं विनिवेश करें। राजनीति करने वालों के लिये यह नियम बहुत विचारपूर्ण है। अक्सर हम लोग देख रहे हैं कि सरकार के माध्यम से वितरित सहायता गरीब और निम्न वर्ग तक नहीं पहुंचती है। उस पर ढेर सारा व्यय हो रहा और देश के सभी शिखर पुरुष भी यह मानते हैं कि जनता तक वह सहायता नहीं पहुंच रही है। ऐसे में उस सहायता पर धन देने से क्या लाभ जिससे राज्य का लक्ष्य पूरा न होता हो। उल्टे इससे भ्रष्टाचार बढ़ रहा है।
       इसी तरह हमें अपने जीवन में भी व्यय करते हुए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उससे हमें प्राप्त क्या हो रहा है। हम लोग अधिक धन होने पर अनेक संस्थाओं को दान आदि देते हैं इस विचार से कि उसका पुण्य मिलेगा पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सुपात्र को दिया गया दान ही फलीभूत होता है। उसी तरह जिन मदों पर व्यय करना विलासिता लगता है उनको कभी नहीं करना चाहिए। वैसे भी कहा जाता है कि लक्ष्मी चंचल है और कभी स्थिर नहीं रहती अतः सोच समझकर ही कहीं विनिवेश करना चाहिए।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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