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Friday, October 28, 2011

भर्तृहरि नीति शतक-धनी और निर्धन की कामनाऐं अलग अलग होती हैं (kamana ka roop garibi aur amiri ke ansuar-bharathari neeti shatak)

             मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह अगर धनार्जन करता है तो उसे व्यय के लिये भी तत्पर रहता है। जैसे जैसे उसके पास धन संपदा बढ़ती है अपना वैभव दिखाने के लिये वह उतना ही उतावला होता हैै। अगर कोई अल्पधनी अपनी मेहनत से धनवान हो जाता है तो उसे इस बात की प्रसन्नता कम होती है बल्कि वह इस चिंता को अधिक पाल लेता है कि वह अपने वैभव का प्रदर्शन समाज के सामने कर अपनी गरीब की छवि से मुक्ति पाये।
         नवधनाढ्य आदमी समाज के सामने अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने कें लिये अनेक पदार्थों का संचय करता है। अपनी चाल ढाल से वह यह सिद्ध करने का प्रयास करता है कि वह अब धनवान हो गया है। यही कारण है कि हमारे देश में धनवानों की बढ़ती संख्या के कारण भौतिक पदार्थों के संचय के साथ ही विलासिता का प्रदर्शन भी तेज हो गया है।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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परिक्षीणः कश्चित्स्पृहयति यवानां प्रसृतये स पश्चात्सम्पूर्णः कलयति धरित्रीं तृणसमाम्।
अतश्चानैकान्त्याद् गुरु लघुतयाऽर्थेषु धनिनामवस्था वस्तुनि प्रथयति च संकोचयति च।।
         ‘‘जब मनुष्य गरीब होता है तब वह अपने रहने के लिये एक गज जमीन की चाहत करता है पर जब अमीर होने पर वही पूरे भूमंडल की कामना करने लगता है। इस संसार में अनेक पदार्थ हैं और अमीरी गरीबी के अनुसार उनको पाने की कामना बदलती रहती है। वस्तुओं का महत्व भी मनुष्य की आर्थिक स्थिति के अनुसार बदलता रहता है।"
            जहां तक धन कम या ज्यादा होने का सवाल है तो यह त्रिगुणमयी माया अपने रंग रूप इंसान को इस तरह दिखाती है कि वह उसी को ही सत्य मानकर उसके इर्दगिर्द घूमता रहता है। अपनी आत्मा और परमात्मा विषयक अध्यात्म ज्ञान उसके लिये सन्यासियों का विषय होता है। धन न होने पर आदमी अपने सांसरिक संघर्ष में निरंतर व्यस्त रहता है इसलिये सत्संग तथा ज्ञान चर्चा उसके लिये दूर की कौड़ी हो जाती है तो धन आने पर आदमी ऐसे सात्विक स्थानों पर भी अपने राजस भाव का प्रदर्शन बहुत उत्तेजना के साथ करता है जहां अध्यात्मिक विषयक विचार हो रहा है। मजे की बात यह है कि धनवान लोगों को यह भ्रम रहता है कि उनके पास अध्यात्मिक ज्ञान है वह उसका बखान भी करते हैं। यह अलग बात है कि उनकी वाणी के पीछे ज्ञान का नहीं  वरन् धन का ओज होता है। उनके सामने प्रस्तुत लोग ज्ञान बघारते समय भले कुछ न कहें पर पीठ पीछे  उन पर हंसते हैं। वजह साफ है, ज्ञान का प्रमाण भौतिक पदार्थों की उपलिब्ध नहीं वरन! उनका त्याग है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Wednesday, October 26, 2011

सामवेद के आधार पर चिंत्तन-दोहरा रुख स्वयं के लिये दुःखदायी

             संसार के जिस आदमी ने मिलो यही कहता है कि ‘मै दुखी हूं’, क्योंकि सामान्य मनुष्य सुख तो चाहते हैं पर उसे पाने का कौशल बहुत कम लोग हैं। इसका कारण यह भी है कि संसार में अधिकांश मनुष्य दोहरे आचरण के मार्ग पर चलने वाले हैं। आदर्शों, सिद्धांतों और नैतिकता की दुहाई सभी लोग देते हैं पर व्यवहार में सात्विकता केवल ज्ञानियों में ही दिखाई देती है। ज्ञानी इस बात को जानते हैं कि दोगला व्यवहार हमेशा स्वयं के लिये ही कष्टकारक है। लोग किसी के मित्र नहीं है भले ही दावा करते हों कि उन्होंने ढेर सारे मित्रों से व्यवहार निभाया है। अपने ही आत्मीय जनों की पीठ पीछे निंदा करते हैं। इस बात को जाने बिना बिना कि एक कान से दूसरे कान में पहुंच ही जाती है। नतीजा यह है कि समाज में वैमनस्य भी बढ़ रहा है। हम जब यह कहते हैं कि आजकल समाज में वैसा सद्भाव नहीं है तो यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि उसके लिये स्वयं ही जिम्मेदार हैं।
सामवेद में कहा गया है कि
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मा ते रसस्य मत्सत द्वयाविनः।
            ‘‘दोहरा आचरण करने वाले आनंदित नहीं होते।’
ऋतस्य जिह्वा पवते मधु।
           ‘‘सच्च मनुष्य की जिह्वा से मधु टपकता है।’’
         लोगों की वाणी, विचार तथा व्यवहार स्वार्थों के अनुसार मधुर और कठोर होता है। ताकतवर के आगे सिर झुकाते हैं तो कमजोर पर आग की तरह झपटते हैं। आपसी वार्तालाप में ऐसी पवित्र बातें करते हैं गोया कि महान धार्मिक हों पर व्यवहार में शुद्ध रूप से स्वार्थ दिखता है। ऐसे में संसार या समाज को बिगड़ने का दोष देकर आत्ममंथन से बचना एक दोगला प्रयास है। ऐसे प्रयासों के चलते कोई सुख या आनंद नहीं प्राप्त कर सकता। इसके विपरीत निराशा, तनाव, तथा मानसिक विकारों को मनुष्य शरीर में शासन स्थापित हो जाता है। इसलिये जहां तक हो सके आत्ममंथन कर अपने दोषों का निराकरण करना चाहिए। संसार या समाज के दूषित होने की बात करना व्यर्थ है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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Saturday, October 22, 2011

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-तत्वज्ञानियों का सामान्य लोगों से मेल संभव नहीं (tatava gyaniyon ka samanya logog se mel sanbhav nahin-economics of kautilya)

              आमतौर से सामान्य मनुष्य अपने संपर्क बढ़ाने और संबंधों का विस्तार करने को उत्सुक रहते हैं। दूसरे लोग चिकनी चुकनी बातों से बहकाते हैं पर यह बात सभी की समझ में नहीं आती। मुख्य बात यह है कि अपने गुणों के अनुरूप ही संपर्क और संबंध बनाने चाहिए इस सिद्धांत को बहुत कम लोग जानते हैं। श्रीमद्भागवत गीता में गुण तथा कर्म विभागों का संक्षिप्त पर गुढ़ वर्णन किया गया है। उससे हम मनुष्य का मनोविज्ञान अच्छी तरह समझ सकते हैं। आम तौर से पहनावे, रहन सहन, आचार विचार तथा कार्य करने के तरीके से सभी लोग एक जैसे दिखाई देते हैं। इस तरह हर मनुष्य का बाह्य मूल्यांकन किया जा सकता है। इस आधार पर संबंध या संपर्क बनाना ठीक नहीं है। क्योंकि संबंधों का विस्तार या संपर्क बढ़ने पर जब किसी के सामने अपने साथी का आंतरिक रूप विचार और संकल्प प्रतिकूल मिलता है तो मनुष्य को भारी निराशा होती है। किसी दूसरे व्यक्ति से संबंध बढ़ाने या संपर्क का विस्तार करने से पहले उसके विचार तथा संकल्प जानना आवश्यक है। वह चाहे कितनी भी लच्छेदार बातें करे पर उसकी क्षमता का आंकलन कर उसका प्रमाण भी लेना चाहिए। विपरीत गुणों तथा कर्म वाले लोगों से संपर्क बहुत दूरी तक नहंी चलते और कभी कभी तो दुष्परिणाम देने वाले भी साबित होते है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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उत्तमाभिजनोपेतान् न नीचैः सह वर्द्धयेत्।
कृशीऽपि हिविवेकज्ञो याति संश्रवणीयताम्।।
           ‘‘सज्जन या उत्तम गुणों वाले लोगों का नीच तथा अज्ञानी लोगों से मेल नहीं हो सकता। कृशता को प्राप्त विवेकी पुरुष अंततः राज्य का संरक्षण पा लेता है, इसमें संशय नहीं है।
निरालोके हि लोकेऽस्मिन्नासते तत्रपण्डिताः।
जात्यस्य हि मणेयंत्र काचेन समता मता।।
        ‘‘ज्ञानी लोग उन अज्ञानी लोगों के पास नहीं ठहर पाते जो अज्ञान के अंधेरे में रहते हैं। जहां मणि हो वहां भला कांच का क्या काम हो सकता है? वहां मणि के साथ कांच जैसा व्यवहार ही किया जाता है।’’
        इन संपर्कों और संबंधों में यह बात बहुत महत्वपूर्ण होती है कि लोगों का बौद्धिक स्तर क्या है? इसमें कोई शक नहीं रखना चाहिए कि मनुष्य के धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक तथा कार्यकारी स्थितियों से उसके विचार, संकल्प, तथा कर्म प्रभावित होते हैं। इन्हीं आधारों से संस्कारों का निर्माण भी होता है। कुछ लोग बड़ी चालाकी से इसे छिपाते हैं तो कुछ लोगों की सक्रियता इतनी रहती है कि उनका आंतरिक रूप समझने का अवसर दूसरों को नहीं मिलता। सांसरिक विषयों की चतुराई ज्ञान नहीं होता बल्कि अध्यात्मिक ज्ञान ही असली प्रमाण होता है। कहने का अभिप्राय यह है कि अपने संपर्क के लोगों का अध्यात्मिक स्तर जानना अत्यंत आवश्यक है। ज्ञानी लोगों की अज्ञानी लोगों से दोस्ती बहुत कम निभती है। अज्ञानी लोग सांसरिक विषयों के अंधेरे कुंऐं में डूबे रहना पसंद करते हैं और ज्ञानी लोगों की बात उनके लिये बकवास भर होती है। अतः किसी भी प्रकार का संबंध स्थापित करने से पहले दूसरे की प्रवृत्तियों का प्राप्त करना आवश्यक है। स्वयं गुणी हैं तो इस बात से निराश नहीं होना चाहिए कि समाज में उनका सम्मान नहीं हो रहा है बल्कि यह विचार पक्का रखना अच्छा है कि उन गुणों से हमारी रक्षा हो रही है।
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Saturday, October 15, 2011

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-अंधेरे में रहने के आदी अज्ञानियों से ज्ञानियों का मेल असंभव (economics or arthshastra of kotilya-gyaniyon aur agyaniyon ka mel asambhav)

              आमतौर से सामान्य मनुष्य अपने संपर्क बढ़ाने और संबंधों का विस्तार करने को उत्सुक रहते हैं। दूसरे लोग चिकनी चुकनी बातों से बहकाते हैं पर यह बात सभी की समझ में नहीं आती। मुख्य बात यह है कि अपने गुणों के अनुरूप ही संपर्क और संबंध बनाने चाहिए इस सिद्धांत को बहुत कम लोग जानते हैं। श्रीमद्भागवत गीता में गुण तथा कर्म विभागों का संक्षिप्त पर गुढ़ वर्णन किया गया है। उससे हम मनुष्य का मनोविज्ञान अच्छी तरह समझ सकते हैं। आम तौर से पहनावे, रहन सहन, आचार विचार तथा कार्य करने के तरीके से सभी लोग एक जैसे दिखाई देते हैं। इस तरह हर मनुष्य का बाह्य मूल्यांकन किया जा सकता है। इस आधार पर संबंध या संपर्क बनाना ठीक नहीं है। क्योंकि संबंधों का विस्तार या संपर्क बढ़ने पर जब किसी के सामने अपने साथी का आंतरिक रूप विचार और संकल्प प्रतिकूल मिलता है तो मनुष्य को भारी निराशा होती है। किसी दूसरे व्यक्ति से संबंध बढ़ाने या संपर्क का विस्तार करने से पहले उसके विचार तथा संकल्प जानना आवश्यक है। वह चाहे कितनी भी लच्छेदार बातें करे पर उसकी क्षमता का आंकलन कर उसका प्रमाण भी लेना चाहिए। विपरीत गुणों तथा कर्म वाले लोगों से संपर्क बहुत दूरी तक नहंी चलते और कभी कभी तो दुष्परिणाम देने वाले भी साबित होते है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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उत्तमाभिजनोपेतान् न नीचैः सह वर्द्धयेत्।
कृशीऽपि हिविवेकज्ञो याति संश्रवणीयताम्।।
           ‘‘सज्जन या उत्तम गुणों वाले लोगों का नीच तथा अज्ञानी लोगों से मेल नहीं हो सकता। कृशता को प्राप्त विवेकी पुरुष अंततः राज्य का संरक्षण पा लेता है, इसमें संशय नहीं है।
निरालोके हि लोकेऽस्मिन्नासते तत्रपण्डिताः।
जात्यस्य हि मणेयंत्र काचेन समता मता।।
        ‘‘ज्ञानी लोग उन अज्ञानी लोगों के पास नहीं ठहर पाते जो अज्ञान के अंधेरे में रहते हैं। जहां मणि हो वहां भला कांच का क्या काम हो सकता है? वहां मणि के साथ कांच जैसा व्यवहार ही किया जाता है।’’
        इन संपर्कों और संबंधों में यह बात बहुत महत्वपूर्ण होती है कि लोगों का बौद्धिक स्तर क्या है? इसमें कोई शक नहीं रखना चाहिए कि मनुष्य के धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक तथा कार्यकारी स्थितियों से उसके विचार, संकल्प, तथा कर्म प्रभावित होते हैं। इन्हीं आधारों से संस्कारों का निर्माण भी होता है। कुछ लोग बड़ी चालाकी से इसे छिपाते हैं तो कुछ लोगों की सक्रियता इतनी रहती है कि उनका आंतरिक रूप समझने का अवसर दूसरों को नहीं मिलता। सांसरिक विषयों की चतुराई ज्ञान नहीं होता बल्कि अध्यात्मिक ज्ञान ही असली प्रमाण होता है। कहने का अभिप्राय यह है कि अपने संपर्क के लोगों का अध्यात्मिक स्तर जानना अत्यंत आवश्यक है। ज्ञानी लोगों की अज्ञानी लोगों से दोस्ती बहुत कम निभती है। अज्ञानी लोग सांसरिक विषयों के अंधेरे कुंऐं में डूबे रहना पसंद करते हैं और ज्ञानी लोगों की बात उनके लिये बकवास भर होती है। अतः किसी भी प्रकार का संबंध स्थापित करने से पहले दूसरे की प्रवृत्तियों का प्राप्त करना आवश्यक है। स्वयं गुणी हैं तो इस बात से निराश नहीं होना चाहिए कि समाज में उनका सम्मान नहीं हो रहा है बल्कि यह विचार पक्का रखना अच्छा है कि उन गुणों से हमारी रक्षा हो रही है। यह भी ध्यान रखें की गुणों की पहचान बहुत कम लोगों को होती है।
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Sunday, October 09, 2011

मनुस्मृति से संदेश-अपराध कभी उपवास करने से नहीं छिपते (apradh aur upawas or crime and fast-manusmriti

    हमारे देश में धर्मभीरु लोगों की संख्या बहुत है पर तत्वज्ञानियों कहीं कहीं देखने को मिलते हैं। अब तो देश में पर्वों और त्यौहारो के अवसर पर नाच गानों की ऐसी धूम मचती है गोया कि पूरा देश ही धर्ममय हो रहा है। देखा जाये तो धर्म एक दिखाने वाली शय बन गया है और उसका आचरण से संबंध मानने वाला कोई कोई विरला ही होता है। धर्म के नाम पर जहां कुछ लोग समाज का दोहन करते हैं तो कुछ अपनी जेब से पैसा खर्च कर अपने अंदर ही धार्मिक होने का अहसास भी खरीदना चाहते हैं। इधर देश में भ्रष्टाचार के कारण जहां कालाधन बढ़ा है तो उसे सफेद करने का मार्ग भी धर्म ही बन गया है। यही कारण है कि आजकल तो ऐसा दिख रहा है कि हमारा पूरा देश ही धार्मिक है और यहां सभी निर्मल हृदय के लोग रहते हैं।
हमारे धर्मग्रथों में यह बात अनेक जगह लिखी हुई है कि कुपात्र को दिया गया दान बेकार है। साथ ही यह भी कहा जाता है कि अगर आचरण में निर्मलता और हृदय में शुद्धता नहीं है तो चाहे कितनी भी भक्ति की जाये वह फलीभूत नहीं होती।
इस विषय में मनुस्मृति में कहा गया है कि
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यथा पलवेनीपलेन निमज्जत्युदके तरन्।
तथा निमज्जतोऽधस्तादज्ञो दातृप्रतीच्छकी।
         ‘‘जिस तरह पानी पत्थर की नौका पर चलने वाला व्यक्ति नाव के साथ डूब जाता है उसी तरह दान लेने वाला कुपात्र या अज्ञानी तथा उसे दान देने वाला दोनों ही नरक में डूब जाते हैं।
न धर्मस्यापदेशेन पापं कृत्वा व्रतं चरेत्।
व्रतेन पापं प्रच्छाह्य कुर्वन् स्त्री शूद्रदमनम्।।
        ‘‘पाप करने के बाद उसे छिपाने के लिये व्रत या उपवास करना व्यर्थ है। इस तरह के व्रत से अज्ञानियो को बहलाया जा सकता है पर बुद्धिमान लोग उसकी सच्चाई जानते हैं।’’
          कहने का अभिप्राय यह है कि व्रत, उपवास, जाप, ध्यान, स्मरण और दान जैसी अध्यात्मिक प्रक्रियाओं के पालन में मनुष्य का आचरण अच्छा होने से न तो अध्यात्मिक न ही सांसरिक लाभ मिलता है। न मन में शांति होती है न ही लोग सम्मान करते हैं। स्पष्टतः धर्म केवल दिखाने के लिये नहीं होता बल्कि आचरण की श्रेष्ठता समाज के सामने उसे प्रमाणित करती है। उसी तरह हृदय की शुद्धता मनुष्य को अपने धार्मिक होने का सुखद अहसास होता है।
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Thursday, October 06, 2011

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-विशेष संहार या व्यय वाला कार्य प्रारंभ न करें (kautilya ka arthshastra-vishesh sanhar ya vyay wala karya prarabh n karen)

               सांसरिक पदार्थों का मोह ऐसा है कि हर आदमी उसे प्राप्त करना चाहता है। यह अलग बात है कि सभी का कर्म एक जैसा नहीं होता अतः उसका परिणाम भी भिन्न होता है। अनेक लोग अपने सामर्थ्य से अधिक लक्ष्य निर्धारित करते हैं तो अनेक ऐसे हैं जो सहज प्राप्य वस्तु को प्राप्त करना ही नहीं चाहते। कुछ लोग समय बीत जाने पर अपना अभियान प्रारंभ करते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि लोग अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार चलते हैं वैसे ही उनका जीवन भी चलता है। ज्ञानी लोग देशकाल और अपने सामर्थ्य के अनुसार किसी वस्तु या लक्ष्य की प्राप्ति के लिये अपना काम आरंभ करते हैं। भले ही वह अधिक धनवान न बने पर उनका जीवन शांति से गुजरता है। इसके विपरीत अनेक लोग लालच, लोभ और काम के वशीभूत होकर अपना काम प्रारंभ करते हैं। भाग्यवश किसी को सफलता मिल जाये तो अलग बात है वरना अधिकरत तो अपना पूरा जीवन ही अशांति में नष्ट कर देते हैं।

कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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मनुष्य युग्यापचयक्षयो हि हिरण्यधान्यावचयव्यस्तु।
तस्मादिमान्नैव विदग्धबुद्धिः क्षयव्ययायासकरीमुपेयात्।।
            ‘‘मनुष्य और पशु आदि जीवधारियों की देह का ह्रास  ही क्षय है। सोने आदि भौतिक पदार्थों का नाश व्यय है। जिसमें दोनों प्रकार का क्षय दिखे वह कार्य या अभियान प्रारंभ न करें। राजा का कर्तव्य है कि वह विशेष संहार और व्यय कर भी फल न मिलने वाले कार्य को रोके।
वस्तुष्वशक्येषु समुद्यमश्वेच्छक्येषु मोहादसमुद्यमश्च।
शक्येषु कालेन समुद्यश्वश्व त्रिघैव कार्यव्यसनं वदन्ति।।
          "किसी भी कार्य के तीन व्यसन होते हैं। एक तो अपने सामर्थ्य से अधिक वस्तु की प्राप्ति करने का प्रयास करना दूसरा सहजता से प्राप्त वस्तु के लिये उद्यम करना। तीसरा समय बीत जाने पर किसी वस्तु को प्राप्त करने का प्रयास करना।
         हमारी देह का ह्रास होता है तो स्वर्ण आदि भौतिक पदार्थों का व्यय भी करना पड़ता है। ऐसे में यह निश्चित कर कोई काम हाथ में लेना चाहिए जिसमें दोनों ही प्रकार की हानियों से बचा जा सके या फिर वह कम से कम हो। धन का सीधा नियम है कि जहां सें लाभ हो वहीं विनिवेश करें। राजनीति करने वालों के लिये यह नियम बहुत विचारपूर्ण है। अक्सर हम लोग देख रहे हैं कि सरकार के माध्यम से वितरित सहायता गरीब और निम्न वर्ग तक नहीं पहुंचती है। उस पर ढेर सारा व्यय हो रहा और देश के सभी शिखर पुरुष भी यह मानते हैं कि जनता तक वह सहायता नहीं पहुंच रही है। ऐसे में उस सहायता पर धन देने से क्या लाभ जिससे राज्य का लक्ष्य पूरा न होता हो। उल्टे इससे भ्रष्टाचार बढ़ रहा है।
       इसी तरह हमें अपने जीवन में भी व्यय करते हुए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उससे हमें प्राप्त क्या हो रहा है। हम लोग अधिक धन होने पर अनेक संस्थाओं को दान आदि देते हैं इस विचार से कि उसका पुण्य मिलेगा पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सुपात्र को दिया गया दान ही फलीभूत होता है। उसी तरह जिन मदों पर व्यय करना विलासिता लगता है उनको कभी नहीं करना चाहिए। वैसे भी कहा जाता है कि लक्ष्मी चंचल है और कभी स्थिर नहीं रहती अतः सोच समझकर ही कहीं विनिवेश करना चाहिए।
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Saturday, October 01, 2011

मनुस्मृति-कुपात्र को दान देने वाला भी पाप का भागी

    हमारे देश में धर्मभीरु लोगों की संख्या बहुत है पर तत्वज्ञानियों कहीं कहीं देखने को मिलते हैं। अब तो देश में पर्वों और त्यौहारो के अवसर पर नाच गानों की ऐसी धूम मचती है गोया कि पूरा देश ही धर्ममय हो रहा है। देखा जाये तो धर्म एक दिखाने वाली शय बन गया है और उसका आचरण से संबंध मानने वाला कोई कोई विरला ही होता है। धर्म के नाम पर जहां कुछ लोग समाज का दोहन करते हैं तो कुछ अपनी जेब से पैसा खर्च कर अपने अंदर ही धार्मिक होने का अहसास भी खरीदना चाहते हैं। इधर देश में भ्रष्टाचार के कारण जहां कालाधन बढ़ा है तो उसे सफेद करने का मार्ग भी धर्म ही बन गया है। यही कारण है कि आजकल तो ऐसा दिख रहा है कि हमारा पूरा देश ही धार्मिक है और यहां सभी निर्मल हृदय के लोग रहते हैं।
हमारे धर्मग्रथों में यह बात अनेक जगह लिखी हुई है कि कुपात्र को दिया गया दान बेकार है। साथ ही यह भी कहा जाता है कि अगर आचरण में निर्मलता और हृदय में शुद्धता नहीं है तो चाहे कितनी भी भक्ति की जाये वह फलीभूत नहीं होती।
इस विषय में मनुस्मृति में कहा गया है कि
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यथा पलवेनीपलेन निमज्जत्युदके तरन्।
तथा निमज्जतोऽधस्तादज्ञो दातृप्रतीच्छकी।
         ‘‘जिस तरह पानी पत्थर की नौका पर चलने वाला व्यक्ति नाव के साथ डूब जाता है उसी तरह दान लेने वाला कुपात्र या अज्ञानी तथा उसे दान देने वाला दोनों ही नरक में डूब जाते हैं।
न धर्मस्यापदेशेन पापं कृत्वा व्रतं चरेत्।
व्रतेन पापं प्रच्छाह्य कुर्वन् स्त्री शूद्रदमनम्।।
        ‘‘पाप करने के बाद उसे छिपाने के लिये व्रत या उपवास करना व्यर्थ है। इस तरह के व्रत से अज्ञानियो को बहलाया जा सकता है पर बुद्धिमान लोग उसकी सच्चाई जानते हैं।’’
          कहने का अभिप्राय यह है कि व्रत, उपवास, जाप, ध्यान, स्मरण और दान जैसी अध्यात्मिक प्रक्रियाओं के पालन में मनुष्य का आचरण अच्छा होने से न तो अध्यात्मिक न ही सांसरिक लाभ मिलता है। न मन में शांति होती है न ही लोग सम्मान करते हैं। स्पष्टतः धर्म केवल दिखाने के लिये नहीं होता बल्कि आचरण की श्रेष्ठता समाज के सामने उसे प्रमाणित करती है। उसी तरह हृदय की शुद्धता मनुष्य को अपने धार्मिक होने का सुखद अहसास होता है।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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4.दीपक भारतदीप की धर्म संदेश पत्रिका
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