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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Friday, May 27, 2011

हिन्दू धर्म शास्त्रों से संदेश-काले धन से धार्मिक कार्यक्रम आयोजित करना वर्जित (from hindu dharmik shastra-black money anb religon program)

         धन के दो नहीं तीन रूप होते हैं। इनमें सबसे पवित्र शुक्ल धन माना गया है। हमारे पवित्र ग्रंथ हमेशा ही यज्ञ के उपयोग  में किये जाने वाले धन की पवित्रता पर जोर देते हैं। अनाधिकृत रूप से प्राप्त धन को शबलम तथा ठगी, चोरी, ब्याज तथा मिलावट से प्राप्त धन कृष्ण याकाला कहा जाता है। शबलम या कृष्ण धन से धार्मिक यज्ञ या कार्यक्रम करना वर्जित है।
             हमारे धर्म ग्रंथों में कहा गया है कि
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            शुक्लशबलोऽसितश्चार्थ।
          "धन के तीन प्रकार होते हैं-शुक्ल, शबल तथा असित।"
             स्ववृत्युपार्जितं सर्व सर्वेषां शुक्लम्।‘
            "अपनी वृति से न्यायपूर्वक धन को शुक्ल या स्वच्छ धन कहा जाता है।"
             अनंतरवृत्युपातं शबलम्।
            उत्कोचशुल्कप्राप्तमविक्रयस्य विक्रये।
           कृतोपोरादास च शबलम् समुदाह्य्तम्।।
           "दूसरों की वृत्ति से उपार्जित तथा उत्कोच यानि अनाधिकृत रूप में घूस से प्राप्त तथा जो बेचने योग्य वस्तु नहीं  है उससे बेचकर प्राप्त धन या दूसरे के उपकार से प्राप्त धन शबलम धन कहलाता है।
अंमकरवृत्यापातं च कृष्णम्।"
             पाश्चिकद्यूतचौयासं प्रतिरूपकसाहरसोः।
            व्याजेनोपार्जित यच्य तत्कृष्णं समेदाहतम्।।
           "बुरी प्रवृत्ति प्राप्त अशुद्ध तथा कपट से प्राप्त कृष्ण या काला धन कहलाता है। छल, ठगी, बेईमानी, जुआ, चोरी, मिलावट डकैती तथा ब्याज से प्राप्त धन काला धन कहलाता है।
             आजकल हम जब समाज की स्थिति देखते हैं तो घोर कलियुग की बात एकदम समझ में आती है। पूरे देश में काले धन के विरुद्ध बहुत सारी मुहिमें चल रही है पर सवाल यह है कि उसका नेतृत्व भी कौन कर रहा है? क्या उनके पास आया पूरा धन शुक्लपक्षीय है। यकीनन नहीं है। अगर हम अपने धर्मग्रंथों की बात माने तो धर्म के लिये एकत्रित पैसा हमेशा ही साफ मार्ग से आया होना चाहिए जबकि हम आजकल के अपने धार्मिक संतों और संगठनों के पास एकत्रित धन संपदा को देखें तो यकीनन वह शबलम या काले धन से एकत्रित प्रतीत होती है। जब भारत में आम आदमी के पास इतना शुक्लपक्षीय धन उपलब्ध नहीं है कि वह धर्म पर खर्च कर सकें तब यह संभव नहीं है कि इतने बड़े पैमाने पर चल रही धार्मिक गतिविधियों शबलम् या कृष्णपक्षीय धन शामिल न हो। कुछ कट्टर धार्मिक लोग धर्म के नाम पर प्राप्त धन के पवित्र होने का दावा अवश्य करें पर हमारे धर्मग्रंथ इस बात का समर्थन नहीं करते। ऐसे में आम भक्तों को ऐसे कार्यक्रमों से भी बचना चाहिए जहां पवित्र धन के पूर्ण उपयोग की संभावना न हो। इससे बेहतर तो यही है कि स्वयं ही योगसाधना, ध्यान, गायत्री मंत्र और ओम शब्द का जाप कर भक्ति करना चाहिए। दूसरी बात यह भी दूसरे के धन पर टिप्पणियां करने से अच्छा है कि भक्त स्वयं अपने ही कर्म पर ध्यान दें।
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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Sunday, May 22, 2011

संत कबीर वाणी-अधिक चतुराई दिखाने से कोई लाभ नहीं (sant kabir vani-adhik chaturai dikhane se labh nahin)

             मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह बुद्धिमान दिखना चाहता है। वैसे अन्य सांसरिक प्राणियों की अपेक्षा मनुष्य चतुर माना जाता है पर वह इससे संतुष्ट नहीं होता बल्कि वह हर मनुष्य दूसरे से अधिक बुद्धिमान दिखने के लिये मूर्खतापूर्ण हरकतों पर उतारु हो जाता है। कई बार तो कुछ लोग चुतराई में भारी हानि भी उठाते हैं तो अनेक लोग चतुर दिखने के लिये व्यर्थ की मेहनत करते हैं।
           इस विषय पर संत कबीर कहते हैं कि
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              चतुराई क्या कीजिये, जो नहिं शब्द समाय
               कोटिक गुन सूवा पढै, अंत बिलाई खाय
                 "उस चतुरता से क्या लाभ? जब सतगुरु के ज्ञान-उपदेश के निर्णय और शब्द भी हृदय में नहीं समाते और उस प्रवचन का भी फिर क्या लाभ हुआ। जैसे करोड़ों गुणों की बातें तोता सीखता-पढता है, परंतु अवसर आने पर उसे बिल्ली खा जाती है। इसी प्रकार सदगुरु के शब्द वुनते हुए भी अज्ञानी जन यूँ ही मर जाते हैं।"
       एक मजेदार बात यह है कि अध्यात्मिक विषय हमारे देश में सदैव लोकप्रिय रहे हैं और यही कारण है कि कथाकारों, प्रवचनकर्ताओं तथा सत्संगी गुरुओं ने लोगों की भावनाओं का दोहन करते हुए एक तरह से कपंनीनुमा संगठन खड़े कर लिये हैं। वह ज्ञान बेचते है लोग खरीदते हैं पर नतीजा सिफर! आज देश में जो भ्रष्टाचार, आतंकवाद तथा हिंसा का जो माहौल है उसे देखते हुए कौन मानेगा कि यह देश धर्मभीरु लोगों का देश है। लोग सत्संग में जाते हैं ज्ञान की बातें सुनते हैं और मासूमों की तरह आकर बाहर अपना तत्वज्ञान दिखाते हैं मगर जब सांसरिक व्यवहार की बात आये तो सभी चतुर हो जाते हैं। तब उनको लगता है कि धर्म की बात तो सुनने सुनाने में अच्छी है कर्म पर वह लागू नहीं होती। परिणाम यह होता है कि वह न केवल अपने दुष्कर्म का परिणाम भोगने के साथ ही भारी तनाव भी झेलते हैं। अपने लिये उपस्थित बुरे परिणामों के लिये किये गये कर्म उनको याद नहीं रहते।
                हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है कि जैसे कर्म करोगे वैसे फल सामने आयेंगे। जिस तरह गाय का बछड़ा अनेक गायों के बीच में से होता हुआ अपनी मां के पास पहुंचता है उसी तरह मनुष्य का कर्म भी परिणाम लेकर उसके पास आता है। यह सब जानते हैं पर फिर भी चतुराई करते हैं और अंततः परिणाम भी भोगते हैं।

लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
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Saturday, May 21, 2011

बड़े लोगों को अधिक प्रसन्न नहीं रखा जा सकता-हिन्दू धार्मिक चिंत्तन

                मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति और कमजोरी उसकी देह में स्थित मन है। कहना तो यह चाहिये कि मन की इच्छा से चलने वाला ही जीव मनुष्य कहलाता है। यह मन बहुत विचित्र है। पहले एक चीज को पाने का मोह करता है तो उसके आते ही उससे विरक्त होकर दूसरी का मुख देखने लगता है। जो तत्व ज्ञानी नहीं होते वह अनाड़ी घुड़सवार की तरह इस बेेलगाम घोड़े की सवारी करते हैं जो द्रुत गति से चलता जाता है और फिर अपने स्वामी को नीचे पटक देता है। रुकता फिर भी नहीं बल्कि और तेज दौड़ता है। जमीन पर गिरा मनुष्य घायलावस्था में पड़ा है और सोचता है कि अब क्या करूं?
            आज के वैश्विक समाज में जीवन के विकास का मतलब केवल भौतिक उपलब्धियों की वृद्धि से ही माना जाता है। अध्यात्मिक विकास तो बुढ़ापे में ही आवश्यक है-यह सिद्धांत बताया जाता है। अध्यात्मिक विकास से मतलब सन्यास माना गया है। इस कारण हर मनुष्य जीवन में माया के पीछे भागे चला जा रहा है। एक लाख हैं तो दस लाख चाहिए और दस लाख हैं तो करोड़, करोड़ हैं तो दस करोड़, दस करोड़ हैं तो एक अरब-इस तरह उसके भौतिक विकास का अंतहीन लक्ष्य कभी पूरा नहीं होता और इधर देह वृद्धावस्था में पहुंच जाती है जहां शरीर की लाचारी मन को भी लाचार बना देती है। मन बीमार तो मनुष्य भी बीमार हो जाता है। अध्यात्मिक अभ्यास न होने की वजह से भक्ति होती नहीं तो जिंदगी से थके पंाव सत्संग में जाने नहीं देते।
             इस विषय में भर्तृहरि महाराज अपने नीति शतक  में कहते हैं कि
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  दुराराध्याश्चामी तुरगचलचित्ताः क्षितिभुजो वयं तु स्थूलेच्छाः सुमहति फले बद्धमनसः।
    जरा देहं मृत्युर्हरति दयितं जीवितमिदं सखे नान्यच्छ्रेयो जगति विदुषेऽन्यत्र तपसः।।
          "राजाओं का चित तो घोड़े की गति से इधर उधर भागता इसलिये उनको भला कब तक प्रसन्न रखा जा सकता है। हमारे अंदर भी ऊंचे ऊंचे पद पाने की लालसा हैं। इधर शरीर को बुढ़ापा घेर रहा है। ऐसे में लगता है कि विवेकवान पुरुषों के लिये तप बल के अलावा अन्य कोई उद्धार का मार्ग नहीं है।"
         अगर हम थोड़ा चिंत्तन करें तो इस बात का आभास स्वतः होगा कि संसार का भौतिक चक्र तो त्रिगुणमयी माया के बंधने में होने के कारण स्वतः संचालित है। हमारी देह स्वाभाविक रूप से अपनी आवश्यकताओं के लिये सक्रिय रहनी ही है चाहे हम प्रयास करें या नहीं। इस देह में विद्यमान मन, बुद्धि तथा अहंकार ऐसी प्रकृतियां हैं जो अपनी सक्रियता का अहसास मनुष्य को कर्ता के रूप में कराती हैं जबकि यह सच नहीं है। ज्ञानी लोग इस बात को जानते हैं इसलिये सांसरिक कर्म में सक्रिय रहते हुए भी उसके फल में विरक्त भाव रखते हैं। ऐसी मानसिक नियंत्रण तप, स्वाध्याय, सत्संग, त्याग तथा भक्ति के अभ्यास से ही प्राप्त होता है। अत जहां तक हो सके समय मिलने पर योगसाधना तथा भक्ति करना चाहिए।

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Thursday, May 19, 2011

तुलसी रामचरित मानस से संदेश-राजपद पाकर मनुष्य भ्रष्ट हो ही जाता है (tulsi ramcharit manas se sandesh-rajpad se manushya bhrashtachar mein lipt ho jata hai)

      जौं जिएँ होति न कपट कुव्वाली। केहि सोहाति रथ बाजि गजाली।।
       भरतंहि दोसु देह को जाएँ । जग बोराइ राज पदु पाएँ।।
             यह पद तुलसीकृत रामचरित मानस से है। बनवास में जब भरत अपने बड़े भ्राता श्रीरामचंद्र तथा लघु भ्राता लक्ष्मण से मिलने आ रहे थे तब उनके साथ गये दल के लोगों की पदचाप तथा हाथी, घोड़ों तथा रथों की तीव्र आवाजों से आकाश गुंजायमान था। उसकी ध्वनि उस स्थान तक पहुंच रही थी जहां भगवान श्रीराम अपनी धर्मपत्नी सीता तथा भ्राता लक्ष्मण सहित विराजमान थे। श्री भरत जी को दलबदल सहित आता देखकर श्रीलक्ष्मण को उनपर संशय हो गया था तब उन्होंने यह संदेह जाहिर किया कि वह हमें मारने आ रहे हैं। श्री भरत ऐसे नहीं थे पर श्रीलक्ष्मण ने जो कहा वह संसार में मनुष्य की प्रवृत्ति पर एकदम लागू होता है।
उनका कहना था कि जब किसी को राज्य प्राप्त होता है तो उस मनुष्य की देह में स्थित अहंकार की प्रवृति चरम पर पहुंच जाती है। राजा का पद किसी को भी भ्रष्ट कर देता है।
                 हम अक्सर समाज के शिखर पुरुषों से दया और परोपकार की आशा करते हैं पर देखते हैं कि वह तो अपने वैभव का विस्तार तथा उसके प्रदर्शन में ही अपना धर्म निभाते हैं। पद, पैसा और प्रतिष्ठा का बोझ कोई ज्ञानी ही ढो सकता है वरना तो लोगों की बुद्धि उसके नीचे दब जाती है। आदमी अपने को भगवान समझने लगता है।
          राजकाज में जिसको हिस्सा मिल गया समझ लीजिये उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी। वह उसकी शक्ति प्रदर्शन करता है और अपने लिये आयी भेंट को शान समझता है। मतलब साफ है कि हम पद, पैसा, प्रतिष्ठा के शिखर पुरुषों से दया की याचना करें पर पूरी न हो तो निराश न हों क्योंकि यह तो मनुष्य का चरित्र है जिसकी व्याख्या हमारे महान लोग समय समय पर करते रहे हैं। राजकाज में लगे व्यक्तियों को अपनी श्रेष्टता का अहंकार तो आ  ही जाता है उसके नकदीकरण से वह उसकी पुष्टि करते हैं, जिसे हम भ्रष्टाचार भी कहते हैं।
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Saturday, May 14, 2011

दूसरे को सुख देकर ही अपने सुख की आशा करें-हिन्दू धार्मिक विचार

      जिस तरह विद्युत प्रवाह दो तारों से होता है उसी तरह हमारा जीवन भी सुख दुःख दो आधारों पर चलता है। हमारे पास जो आज चीज नयी है कल उसे पुरानी होना है। हम अच्छी चीजों का उपयोग करते हैं अंततः वह कूड़े के रूप में परिवर्तित हो जाती हैं। यही स्थिति हमारे कर्म की है। हम जो भी कर्म करते हैं वह फल में परिवर्तित होकर हमारे पास ही आता है। इसलिये हमें यह प्रयास करना चाहिए कि हम दूसरे को प्रसन्न रखें। अपनी खुशी ही नहीं पूरे समाज की खुशी का विचार करें। कर्म और उसका फल जीवन का प्रवार बनाये रखने वाली उन दो तारों की तरह ही है जो विद्युत प्रवाह बनाये रखती हैं।
              दक्ष स्मृति में कहा गया है कि
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           यथैवात्मा परस्तद्वद् द्रष्टव्य सुखमिच्छाता।
           सुखदु खानि तुल्यानि यथात्मीन तथा परे।।
           सुखा वा यदि वा दुःखं यतिकांचित् क्रियते परे।
            ततस्ततु पुनः पश्चात् सर्वमात्यनि जायति।।
          ‘‘इस संसार में सुख की इच्छा रखने वाले पुरुष की चाहिये कि वह दूसरे को सुख प्रदान करे क्योंकि यहां संसार में सभी सुख दुःख बराबर है। दूसरे को दिया गया सुख दुःख हमेशा ही स्वयं को प्राप्त होता है।’’
         हम एक बात ध्यान रखें कि हम जैसा व्यवहार किसी दूसरे से व्यक्ति करते हैं वह भले ही उसका तुरंत प्रतिफल न दे पर संभव है कि वह किसी अन्य व्यक्ति से प्राप्त हो। जैसे कि हमने किसी राह चलते हुए आदमी को पानी पिलाया तो यह जरूरी नहीं कि वह हमें वहीं तत्काल कुछ फल दे पर यह संभव है कि कहीं दूसरे स्थान पर हमें प्यास लगे तो कोई दूसरा व्यक्ति हमें पानी प्रदान करे। उसी तरह हम किसी कमजोर आदमी का अपमान करें और वह हमारी ताकत देखकर चुप हो जाये पर उसका परिणाम किसी अन्य व्यक्ति से हमें अन्यत्र मिल सकता है। एक जगह हमारे माध्यम से हुआ अपमान दूसरे स्थान पर हमारे सामने अपने अपमान के रूप में प्रकट हो सकता है।
         कहने का अभिप्राय यह है कि कर्मफल से बचना मुश्किल है। इसलिये जहां तक हो सके अपने कर्म सोच विचारकर पवित्रता के साथ करना चाहिए। आनंदपूर्वक जीवन जीने का यही एक मंत्र है। जो लोग कर्म और उसके फट का ज्ञान रखते हैं वह कभी कदाचार में लिप्त नहीं होते।
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Tuesday, May 03, 2011

धन के पीछे आदमी जीवन नष्ट कर देता है-कबीरदास

सिख गुरु गोविंद सिंह जी का कहना था कि ‘धन बहुत बड़ी चीज है, पर आदमी को खाने के लिये बस दो रोटी चाहिए।’
इसका आशय यही है कि भले ही आदमी कितना भी कमा ले पर उसका पेट अन्न के बिना नहीं भर सकता। हम इसका व्यापक तथा गुढ़ भाव देखें तो यह बात समझ में आती है कि खाने के लिये जहां हमें रोटी चाहिए तो प्यास बुझाने के लिये पानी। देह को बचाने के लिये कपड़ा चाहिये और रात गुजारने के लिये छत की आवश्यकता होती है। यह धन से प्राप्त होती हैं पर दैहिक आवश्यकता की पूर्ति वस्तुओं से होती है कि कागज के नोटों से। यह बात लोग नहीं समझते और पैसा कमाने का लक्ष्य रखकर ही चलते जाते हैं और फिर अंततः उनकी देह नष्ट हो जाती है। इस दुनियां के अधिकतर मनुष्य जितना कमाते हैं उतना खर्च नहीं कर पाते। वह ऐसा भौतिक संसार रच जाते हैं जो बाद में दूसरों के काम आता है।
इस विषय पर संत कबीरदास कहते हैं कि
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कबीरा औंधी खोपड़ी, कबहूं धापै नाहिं
तीन लोक की सम्पदा, कब आवै घर माहिं
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य की खोपड़ी उल्टी होती है क्योंकि वह कभी भी धन प्राप्ति से थकता नहीं है। वह अपना पूरा जीवन इस आशा में नष्ट कर देता है कि तीनों लोकों की संपदा उसके घर कब आयेगी।
हालांकि लोग धन का पीछा करते हुए थकते नहीं हैं पर एकरसता से जो ऊब पैदा होती है उसको भी नहीं समझ पाते। योगसाधना, ध्यान, और मंत्रजाप उनके लिये फालतु की चीज हैं। कुछ लोग पैसे के कारण भी भक्ति का दिखावा करते हुए बड़े बड़े कार्यक्रम भी करते हैं पर उनका आचरण, व्यवहार और वाणी हमेशा ही उनके अंदर के विकारों से ग्रसित दिखाई देती है। आजकल तो ऐसे लोग भी हो गये हैं जो धर्म का व्यापार इसलिये करते हैं ताकि उनके लिये सुखसुविधा का संग्रह होता रहे। अनेक लोग समाज पर दबदबा बनाये रखने के लिये भगवान की आड़ लेते हैं। ऐसे लोग वैभव, पद और बाहुबल से संपन्न दिखते जरूर हैं पर मानसिक रूप से विकृति को प्राप्त हो जाते हैं।
इस संसार में सुख से रहने का मार्ग अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने से ही सुलभ होता है। यही सोचकर तत्व ज्ञानी जितना मिलता है उसी से संतोष कर लेते हैं। वह न केवल अपना जीवन आनंद से बिताते हैं बल्कि दूसरों को भी सुख देते हैं।

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