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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Saturday, February 26, 2011

जनता के शोषक की प्राण शक्ति अल्प हो जाती है-हिन्दू धार्मिक संदेश

शरीरकर्षणात्प्राणाः क्षीयन्ते प्राणिनां यथा।
तथा राज्ञामपि प्राणाः क्षीयन्ते राष्ट्रकर्षणात्।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस प्रकार शरीर को भोजन पानी न देकर उसका शोषण करने से उसकी प्राणशक्ति कमजोर हो जाती है उसी तरह राष्ट्र या प्रजा का शोषण करने से राज्य प्रमुख  की प्राणशक्ति कमजोर हो जाती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-जिन लोगों ने मनुस्मृति को नारी तथा निम्न जातियों के लोगों के लिये अपमानजनक बताकर इसको जलाया और अपमान किया वह लोग कौन थे?
यकीनन इनमें से कई लोग अपने अभियान को पूरा कर राजकीय पदों पर सुशोभित हुए। वह मनुस्मृति का दुष्प्रचार कर जनता में भेद डालकर आधुनिक लोकतंत्र के सहारे उसका मत लेकर राजसत्ता चाहते रहे होंगे। वह मिली और आधुनिक पदों के नाम से राजा भी वही लोग बने। वह डरते थे कि मनुस्मृति के अनेक संदेश उनकी आत्मा को रुलायेंगे, उनका सच कोई बतायेगा तो स्वयं का काला चेहरा ही अपने अंतर्मन के कांच में दिखाई देगा। सच से भागने वाले इसे सत्ता भोगियों ने मनृस्मृति से ही न केवल दूर रहने का फैसला किया बल्कि प्रजा को भी दूर रहने का प्रयास आरंभ किया।
हम आज देखें तो देश की क्या हालत है? घोटालों, भ्रष्टाचार तथा आतंक के साये में आम लोग जी रहे हैं। मनृस्मृति में नारी के लिये अपमाजनक टिप्पणियां दिखाने वाले विद्वान आज के युग में ही नारी की पहले से अधिक दुर्गति पर रोते हैं पर उसका हल नहीं बता पाते। वह विद्वान राज्य को दोष देते हैं पर उसी के सहारे उनकी दुकान चल रही है। ऐसा नहीं है कि इस देश में ईमानदार राज्य कर्मी या अधिकारी नहीं हैं पर कुछ लोगों ने अपना वर्चस्व इस तरह स्थापित कर लिया है कि राज्य का केंद्र बिंदु उनके इर्दगिर्द ही घूमता है और वह उसका गलत इस्तेमाल कर अपने लिये घर भरते हैं। इन भ्रष्ट लोगों के मन में बस जनता की शोषण करने की भयानक प्रवृत्ति है। इससे उनकी प्राणशक्ति कमजोर हो गयी है और भले ही वह जनता की रक्षा का कथित दावा करें पर कर नहीं  पाते।
कभी कभी तो प्रतीत होता  है कि आम और गरीब जनता के माध्यम से जो राजस्व आता है उसकी लूट के लिये एक तरह से बहुत सारे गिरोह बन गये हैं। कहीं न कहीं न वह सफेद चेहरा लेकर राज्य के निकट पहुंचकर वह अपना कालाचरित्र धन और पद के सफेद रंग से पोतकर उसे आकर्षक ढंग से सजा लेते हैं। ऐसे लोगों की प्राणशक्ति कमजोर होती है। बाहर से भले ही वह ढीठता दिखायें पर पर अंदर से वह अपने काले कारनामों की वजह से खौफ में जीते हैं। ऐसे में अगर कोई मनृस्मृति के राज्य से जुड़े अंश पढ़कर सुनायें तो उनको लगेगा कि कोई उनका सच ही उनके सामने बयान कर रहा है। प्राणशक्ति से क्षीण ऐसे लोग अज्ञानी पुरुष की तरह सत्य से छिपते और भागते हैं। एक बात याद रखना चाहिए कि समाज और राष्ट्र की सेवा वही कर सकते हैं जिनकी प्राणशक्ति प्रबल है और यह उनके लिये ही संभव है जो गलत काम नहीं  करते। जिनकी प्राणशक्ति कम है वह न जनता के हितों को देख पाते हैं और न ही संकट पड़ने पर राष्ट्र को बचा पाते हैं।  राजधर्म का वही दृढ़ता से कर पाते हैं जो जनता को अपनी संतान की तरह देखते हुए उसका पालन करते हैं।

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संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com

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Saturday, February 12, 2011

शुद्ध भोजन और स्वच्छ जल ग्रहण करें-हिन्दू धार्मिक लेख (shuddh bhojan aur swachchha jal-hindu dharmik lekh)

हम आत्मा हैं जिसने देह धारण की है। हम इस देह के माध्यम से जो कर्म और व्यवहार करते हैं उसके अनुसार ही मन, बुद्धि और विचारों पर प्रभाव पड़ता है। हम जिन विषयों से इंद्रियों के माध्यम से संपर्क करते हैं वह हमारे अंतर्मन प्रभावित करते हैं। इस आधार पर हम कह सकते है कि जैसा अन्न वैसा धन, जैसा पानी वैसी वाणी और जैसा धन वैसा मन।
हम जैसा भोजन ग्रहण करते हैं उसके लिये धनार्जन, उसके सृजन तथा निर्माण की पूरी प्रक्रिया का हम पर प्रभाव पड़ता है। अगर हम चाहते हैं कि हम सात्विक विचारों को अपने मन में धारण करें, हमारे अंदर अध्यात्मिक ज्ञान का संचार हो और हमारे व्यक्तित्व में निखार आये तो भोजन पर ध्यान देना चाहिये।
इस विषय पर संत कबीरदास जी कहते हैं कि
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जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय
"जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है वैसा ही बन जाता है।"
अधिक भोजना करना बुरा है तो कम भोजन करना भी अच्छा नहीं है। अधिक मोटा, बासी, तथा स्वादिष्ट पर अपचनीय भोजन कभी भी तन और मन को प्रसन्न नहीं कर सकता। उसी तरह जिस प्रकार के भोजन से हम अपने अंदर तनाव अनुभव करते हैं हम उसके स्वादिष्ट होने के कारण ग्रहण करने में हमें झिझकते नहीं है। लगता है कि चलो थोड़ा खा लिया तो क्या बुराई है? यह विचार अत्यंत दुःखदायी है जो कि कालांतर में हमारी देह को हानि पहुंचाता है। अतः भोजन के विषय में हमेशा सतर्क रहना चाहिए।
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',ग्वालियर 
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
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Saturday, February 05, 2011

आलस्य मानव का बहुत बड़ा दुश्मन-हिन्दी अध्यात्मिक चिंतन

         मनुष्य स्वभाव में आलस्य का भाव स्वाभाविक रूप से रहता है। संत कबीर दास जी ने कहा भी है कि ‘काल करे सो आज कर, आज करे सो अब, पल में प्रलय हो जायेगी बहुरि करेगा कब।’ हर मनुष्य सोचता है कि अपना काम तो वह कभी भी कर सकता है पर ऐसा सोचते हुए उसका समय निकलता जाता है। चतुर मनुष्य इस बात को जानते हैं इसलिये ही वह विकास के पथ पर चलते हैं। अक्सर लोग अपनी असफलता और निराशा को लेकर भाग्य को कोसते हैं जबकि वास्तविकता यह है कि विकास का समय हर आदमी के पास आता है और जो अपने ज्ञान और विवेक से उसका लाभ उठाते हैं उनकी पीढ़ियों का भी भविष्य सुधर जाता है। संसार में सफल और प्रभावशाली व्यक्त्तिव का स्वामी, उद्योगपति, तथा प्रतिष्ठाप्राप्त लोगों की संख्या आम लोगों से कम होती है इसका कारण यह है कि सभी लोग समय का महत्व नहीं समझते और आलस्य के भाव से ग्रसित रहते हैं।
         जीवन में निरंतर सक्रिय रहने से मनुष्य के चेहरे और मन में स्फूर्ति बनी रहती है और बड़ी आयु होने पर भी उसका अहसास नहीं होता। आलस्य मनुष्य का एक बड़ा शत्रु माना जाता है इसलिये उससे मुक्ति पाना ही श्रेयस्कर है। कोई काम सामने आने पर उसको तुरंत प्रारंभ कर देना चाहिये यही जीवन में सफलता का मूलमंत्र है।
इस  विषय में कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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न कार्यकालं मतिमानतिक्रामेत्कदायन।
कथञ्चिदेव भवति कार्ये योगः सुदृर्ल्लभः।।

       "ज्ञानी और बुद्धिमान मनुष्य को चाहिये कि अपने कार्य को निश्चित समय पर पूरा करे और इसमें किसी प्रकार की कोताही न बरते। कारण यह कि किसी भी कार्य में मन लगाना दुर्लभ है। फिर जीवन में संयोग बार बार नहीं आते।" 
सतां मार्गेण मतिमान् काले कर्म्म समाचरेत्।

काले समाचरन्साधु रसवत्फल्मश्नुते।।
      "ज्ञानी और बुद्धिमान मनुष्य को सत्य मार्ग पर स्थिर होकर समय आने अपना कार्य निश्चित रूप से आरंभ करना चाहिऐ। समय पर कार्य करने पर सारे फल प्रकट होते हैं।"
       समय समय पर हमें आत्ममंथन भी करना चाहिए कि हम कितना समय सार्थक कामों में कितना निरर्थक व्यतीत करते हैं।  यह मनुष्य स्वभाव भी है कि व्यसन तथा नकारात्मक कार्य उसे आकर्षित करते हैं और सकारात्मक काम करने की सोचने में भी आलस्य करता है। इस आदत से बचना चाहिए।
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संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
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