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Friday, August 27, 2010

श्री गुरुग्रंथ साहिब से-दहेज प्रथा केवल एक आडम्बर है (dowry sistem in india is not good)

‘हरि प्रभ मेरे बाबुला, हरि देवहु दान में दाजो।’
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुग्रंथ साहिब में दहेज प्रथा का आलोचना करते हुए कहा गया है कि वह पुत्रियां प्रशंसनीय हैं जो दहेज में अपने पिता से हरि के नाम का दान मांगती हैं।
होर मनमुख दाज जि रखि दिखलाहि,सु कूड़ि अहंकार कच पाजो
श्री गुरू ग्रन्थ साहिब के अनुसार लड़की के विवाह में  ऐसा दहेज दिया जाना चाहिए जिससे मन का सुख मिले और जो सभी को दिखलाया जा सके। ऐसा दहेज देने से क्या लाभ जिससे अहंकार और आडम्बर ही दिखाई दे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-दहेज हमारे समाज की सबसे बड़ी बुराई है। चाहे कोई भी समाज हो वह इस प्रथा से मुक्त नहीं है। अक्सर हम दावा करते हैं कि हमारे यहां सभी धर्मों का सम्मान होता है और हमारे देश के लोगों का यह गुण है कि वह विचारधारा को अपने यहां समाहित कर लेते हैं। इस बात पर केवल इसलिये ही यकीन किया जाता है क्योंकि यह लड़की वालों से दहेज वसूलने की प्रथा उन धर्म के लोगों में भी बनी रहती है जो विदेश में निर्मित हुए और दहेज लेने देने की बात उनकी रीति का हिस्सा नहीं है। कहने का आशय यह है कि दहेज लेने और देने को हम यह मानते हैं कि यह ऐसे संस्कार हैं जो हमारी पहचान हैं  मिटने नहीं चाहिए।  कोई भी धर्म या  समाज हो  कथित रूप से इसी पर इतराता है।
इस प्रथा के दुष्परिणामों पर बहुत कम लोग विचार करते हैं। इतना ही नहीं आधुनिक अर्थशास्त्र की भी इस पर नज़र नहीं है क्योंकि यह दहेज प्रथा हमारे यहां भ्रष्टाचार और बेईमानी का कारण है और इस तथ्य पर कोई भी नहीं देख पाता। अधिकतर लोग अपनी बेटियों की शादी अच्छे घर में करने के लिये ढेर सारा दहेज देते हैं इसलिये उसके संग्रह की चिंता उनको नैतिकता और ईमानदारी के पथ से विचलित कर देती है। केवल दहेज देने की चिंता ही नहीं लेने की चिंता में भी आदमी अपने घर पर धन संग्रह करता है ताकि उसकी धन संपदा देखकर बेटे की शादी में अच्छा दहेज मिले। यह दहेज प्रथा हमारी अध्यात्मिक विरासत की सबसे बड़ी शत्रु हैं और इससे बचना चाहिये। यह अलग बात है कि अध्यात्मिक, धर्म और समाज सेवा के शिखर पुरुष ही अपने बेटे बेटियों की शादी कर समाज को चिढ़ाते हैं। सच बात तो यह है कि यह पर्थ हमारे समाज के अस्तित्व पर संकर खड़ा किये हुए है और अगर यह ख़त्म नहीं हुए तो एक दिन यह समाज भी कह्तं हो जाएगा।
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संकलक लेखक  एवं संपादक-दीपक भारतदीप
http://teradipak.blogspot.com

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Saturday, August 14, 2010

हिन्दू धर्म संदेश-मूढ़ लोग बिना बुलाये मेहमान बनते हैं(bin bulaye mehman hote moorkh-hindu dharma sandesh)

अनाहूत प्रविशति अपुष्ठो बहु भाषते।
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः।।
हिन्दी में भावार्थ-
मूढ़ चित्तवाला अधर्मी मनुष्य बिना आमंत्रण के ही कहीं भी पहुंच जाता है। बिना कहे ही बोलने लगता है तथा ऐसे लोग पर विश्वास करता है जो अविश्वसनीय होते हैं।
अमित्रं कुरुते मित्रं मित्रं देष्टि हिनस्ति च।
कर्म चारभते दुष्टं तमाहुर्मूढचेतसम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो मनुष्य शत्रु को मित्र बनाता है और मित्र से ही द्वेष कर उसे कष्ट देता है वह सदैव ही बुरे कर्म में लिप्त रहता है। ऐसे मनुष्य को मूढ़ कहा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने आसपास चल रहे वातावरण का थोड़ा ध्यान से अवलोकन करें तो लोग मानसिक तनावों से इस कदर ग्रसित लगते हैं कि वह अपने हितैषी और शत्रु की पहचान नहीं कर पाते। स्थिति यह होती है कि अनेक लोग अपने मित्रों और हितैषियों को ही अपना शत्रु बनाकर संकट बुलाते हैं। ऐसे लोगों की गल्तियों से ही सीखना चाहिये।
कहा जाता है चतुर लोग अपने पत्ते आसानी से नहीं खोलते और न ही अपनी चाल चलने से पहले किसी को उसका पूर्वाभास होने देते हैं। सच तो यह है कि अधिकतर लोग जीवन में इसलिये नाकाम होते हैं क्योंकि वह अपने रहस्य दूसरों के सामने खोल देने के अलावा गैरों की बात पर आकर अपने ही लोगों पर अविश्वास करने लगते हैं। विदुर महाराज ऐसे लोगों को मूढ़ मानते हैं।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि यह संसार एक रंगमंच है और हर प्राणी यहां अभिनय करता है। ऐसे गूढ़ संदेशों का मनन करते रहना चाहिये ताकि वह दिमाग में स्थापित हो सकें। फूट डालो राज करो केवल अंग्रेजों की नीति नहीं है बल्कि हर सामान्य सांसरिक व्यक्ति यही करता है। किसी को अपना बनाकर उसका शोषण करने के लिये पहले उसे आत्मीयजनों और मित्र से अलग करने के लिये उसे भड़काया जाता है। यह समझाया जाता है कि उसके आत्मीय जन और मित्र तो गद्दार हैं। अगर कोई नया मित्र या कम परिचित ऐसा करता है तो यह समझ लेना चाहिये कि वह कोई चाल खेल रहा है। अगर ऐसा नहीं करते तो आप मूढ़ ही कहलायेंगे।
दूसरों के कहने में आकर निर्णय लेना या उसकी बताई राह पर चलना मूर्खत है। इसलिये किसी की बात सुनकर तत्काल न तो निर्णय लें और न ही अपनों के प्रति द्वेष पालकर उन्हें दूर होनेे दें। इसके अलावा कहीं भी बिना बुलाय न जायें और न ही बिना किसी की इच्छा के उसके सामने अपना ज्ञान बघारें। इसी में ही चतुराई है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Saturday, August 07, 2010

पतंजलि योग सूत्र-सार्वभौमिक भाव मनुष्य को शक्तिशाली बना देता है (libral men is powar ful-patanjali yoga sootra in hindi)

जातिदेशकालसमयानमच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्।
हिन्दी में भावार्थ
-जाति, देश, काल तथा व्यक्तिगत सीमा से रहित होकर सावैभौमिक विचार का हो जाने पर मनुष्य एक महावत की तरह हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मूलतः मनुष्य इस संसार में अकेला ही होता है और इसी भयावह अनुभूति से बचने के लिये वह तमाम तरह के पाखंड रच लेता है। इसी कारण विश्व में अनेक प्रकार के जातीय, भाषाई तथा धार्मिक समूह बन गये हैं जिसमें रहकर हर मनुष्य अपने अदंर एक काल्पनिक सुरक्षा का भाव पालता है। दरअसल वह इस सच्चाई से भागता है कि वह अकेला है और उसके इसी भाव का चतुर मनुष्य समूहों के शिखर पुरुष बनकर अपने हित में दोहन करते हैं। यही शिखर पुरुष अपने लिये दूसरे समूहों को खतरनाक बताकर अपने साथ जाति, भाषा तथा धर्म के आधार जुड़े लोगों को अपने हित में संगठित करते हैं। यह सच सभी जानते हैं कि गरीब और लाचार का इंसान नहीं भगवान होता है और कथित समाज या समूह किसी के काम के नहीं होते।
महर्षि पतंजलि यहां पर मनुष्य को संकीर्ण विचाराधाराओं से बाहर आने का संदेश दे रहे हैं। योगासन और प्राणायाम के बाद मनुष्य की देह तथा मन में स्फूर्ति आती है तब उसके हृदय में कुछ नया कर गुजरने की चाहत पैदा होती है। ऐसे में वह अपने लक्ष्य निर्धारित करता है। उस समय उसे अपने मस्तिष्क की सारी खिड़कियां खुली रखना चाहिए।
हमारे देश में जाति, भाषा, वर्ण तथा क्षेत्र को लेकर संकीर्णता का भाव लोगों में बहुत देखा जाता है। सभी लोग अपने समाज की श्रेष्ठता का बखान करते हुए नहीं थकते। हमारे देश में समाज का विभाजन कर कल्याण की योजनायें बनायी जाती हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप से काम करने में जातीय, भाषाई, तथा क्षेत्रीय भावनाओं की प्रधानता देखती है जाती है। इस संकीर्ण सोच ने हमारे देश के लोगों को कायर और अक्षम बना दिया है। भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल रहा है क्योंकि हर आदमी अपने व्यक्तिगत दायरों में होकर सोचता है और उसे समाज से कोई सरोकार नहीं  है।
जिन लोगों को कुशल महावत की तरह अपने जिंदगी रूपी हाथी पर नियंत्रण करना है उनको अपने अंदर किसी प्रकार की संकीर्ण सोच को स्थान नहीं देना चाहिये। जब आदमी जातीय, भाषाई, वर्णिक तथा क्षेत्रीय सीमाओं के सोचता है तो उसकी चिंता अपने समाज पर ही क्रेद्रित होकर रह जाती है। तब उसे लगता है कि वह कोई ऐसा काम न करे करे जिससे उसका समाज नाराज न हो जाये। यहां तक कि इस डर से वह दूसरे समाज के लिये हित का न तो सोचता है न करता है कि वह उसके समाज का विरोधी है। इससे उसके अंदर असहजता का भाव उत्पन्न होता है। जब आदमी उन्मुक्त होकर जीवन में में विचरण करता है तब वह विभिन्न जातीय, भाषाई, तथा क्षेत्रीय समूहों में भी उसको प्रेम मिलता है जिससे उसका आनंद बढ़ जाता है।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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