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Sunday, May 30, 2010

श्रीमदभगवद्गीता गीता एक स्वर्णिम ग्रंथ है-रविवारीय चिंतन (shri madbhagvat geeta a golden book)

अपना अपना विचार है और उसके अभिव्यक्त होने की भी अलग अलग शैली होती है। इसलिये किसी के कुछ लिखने और पढ़ने पर उस आदमी के आंतरिक मनस्थिति की भी जानकारी मिल जाती है। इस देश की सबसे बड़ी समस्या यह है कि लोग पढ़ते कम हैं लिखने और कहने के लिये लालायित अधिक रहते हैं। समझते कम हैं दूसरे को समझाने के लिये दौड़ पड़ते हैं। सो जैसे लेखक वैसे पाठक, जैसे गुरु वैसे चेले और जैसे बुद्धिजीवी वैसे आम श्रोताओं का एक समाज यहां बन गया है जो अंततः जड़ता की स्थिति में हैं। जहां अनेक लोग मैंढक की तरह टर्र टर्र करते हुए समाज में बदलाव की बात करते हैं पर कहीं पता खड़कता तक नहीं दिखाई देता। समाज को बदलने की बात करने वाले स्वयं में बदलाव नहीं लाते केवल नारे लगाते हैं। जिनमें एक यह भी कि दुनियां के सारे धार्मिक ग्रंथ मानवता का संदेश देते हैं मगर दुनियां है कि सुधरती नहीं है।
यही कारण है कि दुनियां का स्वर्णिम ग्रंथ श्रीमदभगवद्गीता जितना प्रसिद्धि है उसकी सामग्री के बारे में बहुत कम लोग समझते हैं। स्थिति यह है कि एक धार्मिक संस्था के कैलेंडर पर बहुत अच्छी बातें लिखी गयी थीं और संदर्भ दिया गया श्रीगीता का मगर उसमें एक भी बात प्रमाणिक रूप से मौजूद नहीं है।
एक आदमी कभी पार्क के अंदर नहीं गया। वह तो उसके पास से गुजरता भर था। उसका पार्क के चारो और के मार्ग पर आना जाना था पर अंदर झांकने की उसने कोशिश नहीं की क्योंकि वह ऊंची झाड़ियों से घिरा हुआ था। इसके बावजूद दूसरों से वह बखान करता है कि उस पार्क में अनेक प्रकार के  फूलों की जोरदार खुशबू फैलती है। अनेक प्रकार के वृक्ष हैं।
एक ने पूछा-‘वहां कौनसे फूल खिलते हैं?
उस आदमी ने जवाब दिया कि-‘गुलाब, कमल, चंद्रमुखी तथा और भी बहुत से किस्म के फूल हैं जिनकी खुशबू से मन खुश हो जाता है।
इस तरह वह पार्क का एक बहुत बड़ा प्रचारक बन गया था। जहां भी जाता उस पार्क के लोगों को बताता, अलबत्ता वहां के फूल और पेड़ पौद्यों की वास्तविक जानकारी उसके पास नहीं थी। एक दिन एक वनस्पति ज्ञानी उस पार्क में गया और उसने वहां का अध्ययन कर एक बहुत बड़ा लेख अखबार में लिख डाला। उसकी चर्चा लोग उस आदमी से करने लगे तो वह कहने लगा कि ‘उंह, उससे ज्यादा तो हम जानते हैं क्योंकि उसने जितना लिखा है उससे ज्यादा तो हम लोगों को बता चुके हैं। जितने लोगों का  उसे पढ़कर इस पार्क में जाना नहीं होगा उससे ज्यादा तो हमारे मुंह से सुनकर लोग वहां आते हैं।
श्रीमद्भागवत गीता के बारे में जो उसके ज्ञान की चर्चा करते हैं उनकी स्थिति उस आदमी की तरह ही है जो कभी पार्क के अंदर नहीं गया। फिर अपने समाज में व्यवसायिक रूप से धार्मिक विचारक सक्रिय हैं। देश में जातीय,धार्मिक तथा भाषाई समुदायों में उनको अपने ग्राहक या भक्त ढूंढने होते हैं इसलिये वह एकता कराने के लिये भी प्रयास करते हैं ताकि वह सर्वप्रिय हो सकें।
कई संत या विचारक तो इतने शुद्ध व्यवसायिक हैं कि वह श्रीमदभगवद्गीता की तुलना अन्य धर्म ग्रंथों के साथ भी करते हैं तो कई ऐसे भी हैं जो अन्य धर्म ग्रंथ के ज्ञान जैसा ही श्रीमद्भागवत गीता का भी ज्ञान बताते हैं। चार पांच अन्य धर्म ग्रंथों की पुस्तकों का नाम लेकर श्रीगीता का नाम उसमें जोड़कर कह दिया जाता है कि ‘सारे ग्रंथ भाई चारे, प्रेम तथा अंिहसा का उपदेश देते हैं।
सच बात तो यह है कि यह सभी ऐसे संत और बुद्धिजीवी उस आदमी तरह हैं जो उस पार्क में गया ही नहीं जिसका प्रचार करते हैं। उनके मुख से श्रीमद्भागवत गीता का नाम सुनकरा हैरानी होती है क्योंकि इसका मतलब यह है कि वह उसे पढ़ते नहीं और पढ़ते है तो समझते नहीं। जबकि सत्य यह है कि एक बार जो पवित्र भाव से श्रीगीता का अध्ययन करेगा तो फिर उसे अन्य धर्म पुस्तकों से कोई प्रयोजन नहीं रह जाता । जिस तरह पार्क का प्रचाकर तो तो केवल उसके चारों ओर बाहर से घूमकर निकल जाता था वही स्थिति उन धार्मिक प्रचारकों की है जो दूसरे धर्म ग्रंथों के साथ श्रीमद्भागवत गीता की तुलना करते हैं।
जो वास्तव में श्रीगीता का ज्ञान रखते हैं वह वनस्पति ज्ञानी की तरह हैं जो केवल इसी पर बोला और लिखा करते हैं।
वैसे श्रीमदभगवद्गीतादुनियां का ऐसा अकेला ग्रंथ है जिसमें ज्ञान सहित विज्ञान है। श्रीगीता में भी प्रेम, भाईचारे, दया, सहिष्णुता तथा परोपकार की बात तो कही गयी है पर यह भी बताया गया है कि जब तक सहज योग की शरण नहीं लेंगे तब यह सब आप नहीं कर पायेंगे। शरीर के विकार निकाले बिना मन के विकार निकालना कठिन काम है। भक्त चार प्रकार के बताये गये हैं-आर्ती, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी।
दो तरह की प्रकृत्तियों के मनुष्य बताये हैं-आसुरी और देवीय।
तीन प्रकार के कर्म तथा कर्ता बताये गये हैं-सात्विक, राजस और तामसी।
सामाजिक समन्वय तथा स्वयं को तनाव रहित रखने के लिये निष्काम कर्म भक्ति, निष्प्रयोजन दया तथा योग में रत रहने के साधन बताये गये हैं।
श्रीमदभगवद्गीता के संदेशों का अध्ययन करें तो यह बात सामने आती है कि मनुष्य और उसके कर्म के उतने प्रकार इस धरती पर हमेशा रहेंगे और उनकी विविधता को मिटाना संभव नहीं है। मुख्य विषय यह है कि आप अपने कर्म और निश्चय पर ध्यान दें। इसके विपरीत अन्य धार्मिक पुस्तकें इस सत्य से परे हैं और वह सभी मनुष्यों की प्रकृत्तियों और कर्म में साम्यता लाने का असंभव सा प्रयास करने का संदेश देती हैं। व्यक्ति को अपने सुधार के बाद समाज में सुधार लाने का प्रयास करने का संदेश देती हैं जो कि एक तरह का तामसिक प्रयास है। जब आप दूसरे को अपनी तरह से भक्ति करने का ज्ञान देते हैं तो इसका आशय यह है कि आपने अपनी भक्ति का अहंकार दिखाया-‘मैं ऐसा करता हूं तू भी ऐसा कर तो तर जायेगा’, या ‘ऐसा करेगा तो तुझे स्वर्ग मिलेगा’-जो कि तामसी प्रवृत्ति का परिचायक है। इतना ही नहीं श्रीगीता में एकांत साधना करने की बात कही जाती है जबकि अन्य धर्म पुस्तकें सामूहिक प्रार्थनाओं का संदेश देती हैं।
ऐसी बहुत अन्य बातें हैं जो श्रीमद्भागवत गीता को अलौकिक तथा असाधारण प्रमाणित करती हैं। इसकी तुलना अन्य किसी भी धार्मिक पुस्तक से नहीं की जा सकती क्योंकि वह सभी सकाम भक्ति की प्रवर्तक हैं जिसका कोई लाभ अधिक नहीं होता क्योंकि मनुष्य अर्थार्थी होकर मतलबी हो जाता है। कुछ अज्ञात महापुरुषों ने इस शाब्दिक रूप से लघु तथा अर्थ की दृष्टि  से अत्यंत व्यापक इस ग्रंथ को इसलिये महाभारत जैसे महाग्रंथ से प्रथक किया क्योंकि वह जानते थे कि यह स्वर्णिम ज्ञान की खदान है। ऐसे महापुरुषों का आभारी इस समाज को रहना चाहिए जिन्होंने इस स्वर्णिम ज्ञान की खदान की खोज कर उसे प्रथक स्थापित किया।
shri madbhagavat geeta,bhagvan shri krishna
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Thursday, May 27, 2010

हिंदू धर्मं सन्देश-क्लेश वाला काम करने से बचें

मनुस्मृती  के अनुसार 
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यत्कर्मकुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्म्न्ः।
तत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस कार्य से मन को शांति तथा अंतरात्मा को खुशी हो वही करना चाहिये। जिस काम से मन को अशांति हो उसे न ही करें तो अच्छा।

यद्यत्परवशं कर्म तत्तद्यलेन वर्जयेत्।
यद्यदात्मवशं तु स्यात्तत्तत्सेवेत यत्नतः।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस काम के लिये दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता है उनका त्याग कर देना चाहिये तथा अपने हाथ से ही संपन्न होने वाले अनुष्ठान करना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में चाहे कोई भी कार्य हो उसे पूरा करने से पहले अपने सामर्थ्य, साधन तथा सहयोगियों की उपलब्धता पर विचार करना चाहिये। अनेक लोग किसी भी कार्य में परिणाम की अनिश्चितता के बावजूद उसे इस आशा से प्रारंभ करते हैं कि उनका ‘भाग्य’ साथ देगा या फिर ऊपर वाले की कृपा होगी-यह अंधेरे में तीर चलाने जैसा है। संभव है कुछ लोगों का निशाना लग जाये पर सभी को ऐसा सौभाग्य नहीं मिलता। अत: जहाँ तक हो सके ऐसा काम प्रारंभ करना चाहिए जिसकी पूर्णता अपने हाथ पर ही अधिक निर्भर हो।
दूसरों से अपने काम में सहयोग मिलने की अपेक्षा करना व्यर्थ है। अगर करें तो भी तो यह भी देखें कि आपने किसी को कितना सहयोग दिया है। फिर यह भी देखें कि जिसका सहयोग किया है कि उसमें प्रत्युपकार की भावना है कि नहीं। कहने का अभिप्राय यह है कि दूसरों पर निर्भर रहने वाले काम को प्रारंभ ही न करें तो अच्छा है।
इसके अलावा ऐसे भी काम न करें जिससे मानसिक क्लेश बढ़ता हो। आजकल खानपान तथा रहन सहन की वजह से लोगों में असहिष्णुता के साथ ही अहंकार की भावना बढ़ गयी है। अतः जरा जरा सी बात पर लोग उत्तेजित होकर लड़ने लगते हैं। अगर हमारे अंदर तनाव झेलने की क्षमता नहीं है तो फिर चुपचाप रहकर अपना काम करना चाहिये। अगर कोई व्यक्ति गलत काम कर रहा है तो उसे अनदेखा करें। कोई गलत व्यवहार करता है तो उसकी उपेक्षा कर दें। ऐस कुछ पल जिंदगी में आते हैं-यह सोचकर आगे बढ़ जायें। अगर आपने प्रतिवाद किया तो सामने वाले की उग्रता अधिक बढ़ेगी तब वह अधिक तनाव दे सकता है। ऐसे में हमें दूसरे का व्यवहार नहीं  बल्कि अपनी मनस्थिति को देखना चाहिये जो तनाव नहीं झेल पाती। जहाँ तक हो सके चुप होकर अपना काम करना ही श्रेयस्कर है।
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Thursday, May 20, 2010

चाणक्य नीति दर्शन-अपने गुणों की स्वयं प्रशंसा करना अज्ञान का प्रमाण (khud ki taarif agyan ka praman-chankya neeti)

पर-प्रोक्तगुणो वस्तु निर्गृणऽपि गुणी भवेत्।
इन्द्रोऽ लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गृणैः।।
हिन्दी में भावार्थ-
चाहे कोई मनुष्य कम ज्ञानी हो पर अगर दूसरे उसके गुणों की प्रशंसा अन्य लोग  करते हैं तो वह गुणवान माना जायेगा किन्तु जो पूर्ण ज्ञानी है और स्वयं अपना गुणगान करता है तो भी वह प्रशंसनीय नहीं माना जा सकता चाहे भले ही स्वयं देवराज इंद्र हो।
अतिक्लेशेन ये चार्था धर्मस्यातिक्रमेण तु।
शत्रूणां प्रणिपातेन ते ह्यर्था मा भवंतु में।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस धन की प्राप्ति दूसरों को क्लेश पहुंचाने या शत्रु के सामने सिर झुकाने से हो वह स्वीकार करने योग्य नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-थोथा चना बाजे घना इसलिये ही कहा जाता है कि जिसके पास गुण नहीं है वह अपने गुणों की व्याख्या स्वयं करता है। यह मानवीय प्रकृत्ति है कि अपने घर परिवार के लिये रोटी की जुगाड़ में हर कोई लगा है और विरले ही ऐसे लोग हैं जो दूसरों के हित की सोचते हैं पर अधिकतर तो खालीपीली प्रशंसा पाने के लिये लालायित रहते हैं। धन, वैभव और भौतिक साधनों के संग्रह से लोगों को फुरसत नहीं है पर फिर भी चाहते हैं कि उनको परमार्थी मानकर समाज प्रशंसा प्रदान करे। वैसे अब परमार्थ भी एक तरह से व्यापार बन गया है और लोग चंदा वसूल कर यह भी करने लगे हैं पर यह धर्म पालन का प्रमाण नहीं है। यह अलग बात है कि ऐसे लोगों का कथित रूप से सम्मान मिल जाता है पर समाज उनको ऐसी मान्यता नही देता जैसी की वह अपेक्षा करते हैं। ऐसे लोग स्वयं ही अपनी प्रशंसा में विज्ञापन देते हैं या फिर अपनी प्रशंसा में लिखने और बोलने के लिये दूसरे प्रचारकों का इंतजाम करते हैं। कहीं कहीं तो ऐसा भी होता है कि ‘तू मुझे चाट, मैं तुझे चाटूं’, यानि एक दूसरे की प्रशंसा कर काम चलाते हैं। इसके बावजूद यह वास्तविकता है कि हृदय से केवल सम्मान उसी को प्राप्त होता है जो ईमानदारी सें परमार्थ का काम करते हैं।
धन प्राप्त तो कहीं से भी किया जा सकता है पर उसका स्त्रोत पवित्र होना चाहिये। दूसरों को क्लेश पहुंचाकर धन का संग्र्रह करने से पाप का बोझ सिर पर चढ़ता है। उसी तरह ऐसा धन भी प्राप्त करने का प्रयास नहीं करना चाहिये जो शत्रु के सामने सिर झुकाकर प्राप्त होता है। आखिर मनुष्य धन किसी लिये प्राप्त करता है? यश अर्जित करने के लिये! अगर शत्रु के आगे सिर झुका दिया तो फिर वह  सम्मान कहां रह जायेगा।
मनुष्य को कभी अपनी प्रशंसा स्वयं नहीं करना चाहिये।  दरअसल आज यह स्थिति यह है कि हर आदमी अपने मुख से अपनी प्रशंसा स्वयं करता है। इसका कारण यह है कि लोगों ने परोपकार तथा परमार्थ का काम करना छोड़ दिया है और उनके बिना सम्मान मिल नहीं सकता। इसलिये ही जिसे देखो आत्मप्रवंचना करने लगे में लगा है। ‘मैंने यह किया’ और ‘मैंने वह किया’ जैसी बातें कर लोग दूसरों से प्रशंसा पाना चाहते हैं। कई तो ऐसे हैं जिन्होंने कभी किसी का भला नहीं किया पर दावे बहुत करते हैं।  यह सब अज्ञानी लोगों का काम है। ज्ञानी लोग भला काम करते है पर आत्मप्रवंचना से दूर रहते हैं क्योंकि उनके काम की प्रशंसा स्वयं ही होती है। 
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Friday, May 14, 2010

मनुस्मृति-भोजन करते समय मन को प्रसन्न रखें (hindu dharma sandesh-tanavmukt hokar bhojan grahan karen)

पूजयेदशनं नित्यमद्याच्चेतकुत्सयन्
दृष्टवा हृध्येत्प्रसीदेच्च प्रतिनन्देच्च सर्वशः।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुष्य को जैसा भोजन मिले उसे देखकर प्रसन्नता हासिल करना चाहिए। उसे ईश्वर प्रदत्त मानकर गुण दोष न निकालते हुए उदरस्थ करें। भोजन करते हुए अपनी झूठन न छोड़ें। यह कामना करें कि ऐसा अन्न हमेशा ही मिलता रहे।
पूजितं ह्यशनं नित्यं बलमूर्ज च यच्छाति।
अपूजितं च तद्भुक्तमूभयं नाशयेदिदम्।।
हिंदी में भावार्थ-
सदाशयता से ग्रहण किया भोजन बल और वीर्य में वृद्धि करता है जब निंदा करते हुए उदरस्थ करने से उसके तत्व नष्ट होते हैं। 
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिनको भोजन आराम से मिलता है उनको उसका महत्व नहीं पता इसलिये वह उसे ऐसे करते हैं जैसे कि उसकी उनको परवाह ही नहीं है। भोजन करते समय उनको यह अहंकार आता है कि यह तो हमारा अधिकार ही है और हमारे लिये बना है। सच तो यह है कि भोजन का महत्व वही लोग जानते हैं जिनको यह नसीब में पर्याप्त मात्रा में नहीं होता। स्वादिष्ट भोजन की चाह आदमी को अंधा बना देती है। अनेक बार ऐसा समय आता है जब वह सब्जी के कारण भोजन नहीं करता या उसे त्याग देता है। भोजन करते समय उसकी निंदा करेंगे। शादी विवाह में तो अब यह भी होने लगा है कि लोग भोजन थाली में भरकर लेते हैं पर उसमें से ढेर सारा झूठन में छोड़े देते हैं। सार्वजनिक अवसरों पर ऐसे भोजन की बरबादी देखी जा सकती है।
 हमें यह समझ लेना चाहिये कि भोजन तो ईश्वरीय कृपा से मिलता है। यह सही है कि दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम, पर यह भी नहीं भूलना कि अपने कर्म और भाव से भी भाग्य का निर्माण होता है। अगर हम भोजन करते हुए अहंकार पालेंगे तो संभव है कि दानों पर लिखा हमारा नाम मिट भी जाये। अपनी गृहिणी को कभी भी सब्जी आदि को लेकर ताना नहीं देना चाहिये। यह भगवान की कृपा समझें कि एक ऐसी गृहिणी आपके साथ है जो अपने हाथ से खाना बनाकर देती है वरना तो अनेक लोग घर के खाने के लिये तरस जाते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि खाते हुए अपना भाव सौम्य और सरल रखना चाहिए तभी भोजन के तत्व संपूर्ण रूप से काम करते हैं अगर मन में क्लेश या अप्रसन्नता है तो फिर खाना न खाना बराबर है। एक बात निश्चित है कि अगर तनाव में खाना खाया तो समझ लीजिये केवल पेट भरा पर उससे मिलने वाली ऊर्जा निरर्थक हो जाती है। आपने अक्सर सुना होगा कि जिनको दिमागी तनाव रहता है उन्हीं को उच्च रक्तचाप और मधुमेह की शिकायत होती है।
आजकल समस्या यह है कि लोग कमाने को ही सवौपरि मानते हैं और भोजन करना उनको बोझ जैसा लगता है इसलिये फास्ट फूड का सेवन करते हैं जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। यही कारण है कि छोटी आयु में अनेक लोगों को ऐसे रोग होने की बातेें सामने आती हैं जो बड़ी आयु में होते हैं। दूसरा यह भी है कि आज के युवक युवतियां अतिशीघ्र खास इंसान बनने की चाहते में इतना तनाव अपने सिर पर लेते हैं कि भोजन भी आराम से नहीं करते। इससे उनको बचना चाहिये। याद रखें पैसा भगवान नहीं है भोजन को भगवान ही समझें।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Wednesday, May 12, 2010

पतंजलि योग साहित्य-जात पांत से मुक्त होने पर ही जीवन का आनंद

जातिदेशकालसमयानमच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्।
हिन्दी में भावार्थ
-जाति, देश, काल तथा व्यक्तिगत सीमा से रहित होकर सावैभौमिक विचार का हो जाने पर मनुष्य एक महावत की तरह हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-महर्षि पतंजलि यहां पर मनुष्य को संकीर्ण विचाराधाराओं से बाहर आने का संदेश दे रहे हैं। योगासन और प्राणायाम के बाद मनुष्य की देह तथा मन में स्फूर्ति आती है तब उसके हृदय में कुछ नया कर गुजरने की चाहत पैदा होती है। ऐसे में वह अपने लक्ष्य निर्धारित करता है। उस समय उसे अपने मस्तिष्क की सारी खिड़कियां खुली रखना चाहिए।
हमारे देश में जाति, भाषा, वर्ण तथा क्षेत्र को लेकर संकीर्णता का भाव लोगों में बहुत देखा जाता है। सभी लोग अपने समाज की श्रेष्ठता का बखान करते हुए नहीं थकते। हमारे देश में समाज का विभाजन कर कल्याण की योजनायें बनायी जाती हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप से काम करने में जातीय, भाषाई, तथा क्षेत्रीय भावनाओं की प्रधानता देखती है जाती है। इस संकीर्ण सोच ने हमारे देश के लोगों को कायर और अक्षम बना दिया है। भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल रहा है क्योंकि हर आदमी अपने व्यक्तिगत दायरों में होकर सोचता है और उसे समाज से कोई सरोकार नहीं  है।
जिन लोगों को कुशल महावत की तरह अपने जिंदगी रूपी हाथी पर नियंत्रण करना है उनको अपने अंदर किसी प्रकार की संकीर्ण सोच को स्थान नहीं देना चाहिये। जब आदमी जातीय, भाषाई, वर्णिक तथा क्षेत्रीय सीमाओं के सोचता है तो उसकी चिंता अपने समाज पर ही क्रेद्रित होकर रह जाती है। तब उसे लगता है कि वह कोई ऐसा काम न करे करे जिससे उसका समाज नाराज न हो जाये। यहां तक कि इस डर से वह दूसरे समाज के लिये हित का न तो सोचता है न करता है कि वह उसके समाज का विरोधी है। इससे उसके अंदर असहजता का भाव उत्पन्न होता है। जब आदमी उन्मुक्त होकर जीवन में में विचरण करता है तब वह विभिन्न जातीय, भाषाई, तथा क्षेत्रीय समूहों में भी उसको प्रेम मिलता है जिससे उसका आनंद बढ़ जाता है। सच बात तो यह मनुष्य जीवन आनंद लेने के लिए है और यह तभी संभव है जब संकीर्ण मानसिकता से मुक्त हों।
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Saturday, May 08, 2010

मनुदर्शन-धर्म के विषय पर झूठ बोलने वाला नरक में गिरता है (manu smriti-dharma aur jhooth)

अवाविशरास्समस्यन्धे कित्वषी नरकं व्रजेत्।
च प्रश्नवितर्थ ब्रूयात्पृष्ठः सनधर्मनिश्चये।।
हिन्दी में भावार्थ-
धर्म के विषय पर पूछे जाने पर उसका उत्तर झूठा देने वाला भयानक अंधेरे से भरे नरक में गिरता है।

एकोऽहमस्मीत्यात्मानं यत्तवं कल्याण मन्यसे।
नित्यं स्थितस्ते हृद्येष पुण्यपापेक्षिता मुनिः।।
हिन्दी में भावार्थ-
यदि कोई मनुष्य यह सोचकर झूठा साक्ष्य दे रहा है कि वह अकेला है और उसे कोई नहीं देख रहा तो वह गलती पर है क्योंकि पाप और पुण्य को देखने वाला परमात्मा सभी के हृदय में रहता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कुछ लोगों की आदत होती है कि वह धर्म के नाम पवित्र ग्रंथों में लिखी गयी सामग्री की झूठी मूठी व्याख्या कर लोगों को बहकाते हैं। अनेक लोग इसका आर्थिक लाभ उठाते हैं तो अनेक सामजिक रूप से सम्मानीय बनने के लिये धर्मग्रंथों के संदेशों को तोड़ मरोड़कर लोगों भ्रमित करते हैं। सच बात तो यह है कि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में अनेक बातें व्यंजना विद्या में लिखी गयी है और उसके लिये भाषा, व्याकरण और साहित्य की समझ होना जरूरी है केवल शाब्दिक अर्थ से ही उनकी व्याख्यान करना अल्पज्ञान का प्रमाण देना ही है। इसके अलावा इन प्राचीन ग्रंथों में अनेक बार उसमें कही गयी बातों में विरोधाभास भी लगता है क्योंकि धार्मिक पुस्तकों में अलग अलग प्रसंगों में विद्वानों ने समय के अनुसार अपने विचार व्यक्त किये हैं। इसका लाभ कुछ अल्पज्ञानी अपने आपको ज्ञानवान प्रमाणिक करने के लिये उनकी गलत व्याख्या कर उठाते हैं। ऐसे लोग बहुत बड़े अपराध के भागी बनते हैं क्योंकि उनका यह दुष्कृत्य झूठी गवाही देने के समान है।
अनेक बार विवादों में लोग झूठे गवाह बन जाते हैं। तब वह सोचते हैं कि कोई उनको देख नहीं रहा पर यह उनका भ्रम है। हमारी देह में रहने वाला आत्मा तो परमात्मा का ही अंश है जो सब देखता है और कहीं न कहीं अपने अपराध के लिये धिक्कारता है यह अलग बात है कि कुछ लोग उसे समझ पाते हैं कुछ नहीं।फिर एक बात याद रखना चाहिए कि हमारे द्वारा बोला गया झूठ कभी न कभी पकड़ा जायेगा और उसके दुष्परणिाम भी हमको भोगने होंगे।  इसलिये कभी भी न तो किसी पर झूठा अभियोगलगाना चाहिये न किसी झूठे के लिये गवाही देना चहिये।
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Thursday, May 06, 2010

कौटिल्य दर्शन-डरपोक की संगत करना भी ठीक नहीं

प्रकृतिभिर्विरक्तप्रकृतिर्युधि।
सुखाभियोज्यो भवति विषयेऽप्यतिसक्तिमान्।।
हिन्दी में भावार्थ-
विरक्त प्रकृति वाले राजा को उसके लोग युद्ध में ही छोड़कर चले जाते हैं और विषयों में आसक्त पुरुष को थोड़ा सुख देकर ही जीत लिया जाता है।

भीरुर्यद्धपमित्यागात्स्वयमेवावसीदति।
धीरोऽप्यवीपुरुषै-संग्रामे तैर्विपुच्यते।।
हिन्दी में भावार्थ-
कायर मनुष्य युद्ध के त्याग से स्वयं ही नष्ट होता है। वीर पुरुष भी अगर युद्ध में किसी कायर को ले जाये तो स्वयं भी कायरता को प्राप्त होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में हर मनुष्य को संघर्ष करना पड़ता है। समय अत्यंत बलवान है अतः जब कष्ट और विरोधी सशक्त होकर आक्रमण कर रहे हों तब धीरज से काम लेकर मैदान में डटे रहना चाहिए। अपने अभियान या लक्ष्य का त्याग कर विरक्त होना कभी ठीक नहीं होता। जो मनुष्य अपने संकट और विरोधी देखकर अपने अभियान या लक्ष्य से विरक्त होकर बैठ जाता है उसके मित्र तथा सहयोग भी छोड़ जाते हैं। अतः चाहे जो भी हो मनुष्य को मैदान में डटे रहना चाहिये। जीवन में कभी कायरता नहीं दिखाना चाहिये और न ही ऐसे लोगों से संपर्क रखना चाहिये जो हमारे अन्दर डर पैदा करते हैं ।
एक समय जो लक्ष्य या अभियान विरोधियों की शक्ति और संकट के गहरे होने के कारण पूरा होता नहीं दिखता वही परिस्थितियां और समय बदलते हुए पूरा भी हो सकता है। ऐसा समय भी आ सकता है कि जब विरोधी निशक्त हो जायें और संकट स्वयं ही क्षीणता को प्राप्त हो तब मनुष्य को अपने लक्ष्य और अभियान में सफलता मिल सकती है।
अपने कार्य की सिद्धि के लिये साम, दाम, दण्ड और भेद की नीति का पूरी तरह प्रयोग करना चाहिये। जहां व्यक्ति अपने से अधिक ताकतवर हो वहां उसकी यह कमजोरी देखना चाहिये कि वह किस प्रकार के सुख से जीता जा सकता है अर्थात उसे दाम का सुख देकर अपने वश में करना चाहिए। जीवन के हर क्षण में अपने अन्दर दृढ भाव रखना चाहिए। जब हम अपने जीवन के मोर्चे पर डटे रहेंगे तभी दूसरे लोग भी हमारा साथ देंगे।
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Saturday, May 01, 2010

विदुर दर्शन-क्षमावन पुरुष की राह देवता भी देखते हैं (kshamavan purush aur devata)

अतिवादं न प्रवदेव वाद्येद् योऽनाहतः प्रतहन्यान्न घातयेत्।
हन्तुं च यो नेच्छति पापकं वै तस्मै देखाः समुहयन्त्यागताय।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो स्वयं किसी के प्रति बुरी बात न स्वयं कहता न दूसरे को कहने के लिये प्रेरित करता, बिना मार खाये किसी को नहीं मारता और न मरवाता है, अपराधी को भी क्षमा करता है, ऐसे मनुष्य के आगमन की तो देवता भी बाट जोहते हैं।
यदि सन्तं सेवति यद्यसन्तं तपस्विनं यदि वा स्तेनमेव।
वासो तथा रंगवश्र प्रयानि तथा तेषा वशमभ्युवैति।।
हिन्दी में भावार्थ-
जैसे कोई वस्त्र जिस रंग में रंगा जाये, वैसा ही हो जाता है उसी तरह जब कोई सज्जन आदमी किसी तपस्वी, दुष्ट या चोर की सेवा करता है तो उनके वश में हो जाता है-उनका रंग उस पर चढ़ता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-कहा जाता है कि शक्ति ही सहनशीलता की पहचान होती है। जिसमें शक्ति नहीं है वह बहुत जल्दी उत्तेजित हो जाता है। आजकल तो सहनशीलता का लोगों को सर्वथा अभाव दिखता है। अशुद्ध खानपान, भौतिक पदार्थों के प्रति अधिक आकर्षण तथा विलासिता को जीवन के लिये अनिवार्य मानने की प्रवृत्ति ने लोगों को शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक रूप से कमजोर बना दिया है। किसी को न तो अपनी स्वयं की आलोचना सहन होती है और न ही कोई अपने विचार पर बहस सुनना चाहता है। कहते हैं कि थोथा चना, बाजे घना-इसके दर्शन अब हर कदम पर किये जा सकते हैं। अल्पज्ञानियों का झुंड बहस करता है। निष्कर्ष कुछ नहीं निकलता उल्टे झगड़े ही होते हैं। स्थिति यह है कि अमन का प्रयास करने के के लिये एक साथ निकलने वाले लोग आपस में लड़ पड़ते हैं।
यह सब हमारे समाज और लोगों की कमजोरी की निशानी है। अशुद्ध तथा मिलावटी पदार्थों के सेवन से हमारे देश के नागरिकों की शारीरिक शक्ति नित प्रतिदिन कम होती जा रही है। यह शक्तिहीनता अंततः चिढ़ में बदल जाती है। फिर संगत करने के लिये ऐसे ही लोग मिलते हैं तो जो सहज और सज्जन भाव वाले होते हैं उन पर भी रंग चढ़ जाता है। बहुत कम लोग हैं जो शांति के लिये सक्रिय रहते हैं वरना तो अधिकतर झगड़ा कर उसे देखने का शौक रखते हैं। अतः जहां तक हो सके अपने खान पान में शुद्धता के साथ अपने निजी संपर्क भी ऐसे तरह बनाये जहां से वैमनस्य फैलाने का संदेश न मिलता हो। एक बात याद रखें कि आदमी पर संगत की रंगत चढ़ती ही है, अत: इसकी उपेक्षा नहीं करना चाहिये।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

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