समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Thursday, February 25, 2010

भर्तृहरि नीति शतक-ज्ञानी रत्न का अपमान करने वाला निंदा योग्य

शास्त्रोपस्कृतशब्द सुंदरगिरः शिष्यप्रदेयाऽऽगमा विख्याताः कवयो वसन्ति विषये यस्य प्रभर्निर्धनाः।
तज्जाड्यं वसुधाधिपस्य कवयस्त्वर्थ विनाऽपीश्वराः कुत्स्या स्युः कुपरीक्षका हि मणयो यैरर्घतः पातिताः।।
हिन्दी में भावार्थ-
ग्रंथों का अध्ययन से उसमें वर्णित शब्दों के ज्ञान को धारण कर सुंदर वाणी बोलने के साथ ही शिष्यों को उनका उपदेश करने वाले विद्वान तथा काव्य की मधुर धारा प्रवाहित करने वाले कवि जिस राज्य में निर्धन होते हैं, उसका राजा या राज्य प्रमुख अयोग्य कहा जाता है। विद्वान धनहीन होने पर भी रत्न के समान है और उसका सम्मान सभी जगह होता है और जो ऐसे रत्नों का अपमान करता है वह निंदा योग्य है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हम इस संदेश को आज की नई सभ्यता में देखें तो यह दायित्व पूरे समाज का है कि वह लोगों को तत्व ज्ञान तथा सत्य का उपदेश देने वाले विद्वानो के साथ ही कवियों और लेखकों को भी संरक्षण दे। राज्य प्रमुख का तो यह उच्चतर दायित्व है पर आजकल जिस तरह पूंजीवाद ने व्यापक आधार बनाया है तो उसके शिखर पुरुषों को भी इस तरह ध्यान देना चाहिए। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक शिखरों पर बैठे माननीय लोगों की उपेक्षा का ही यह परिणाम है कि आजकल समाज में कोई अपने बच्चे को अध्यात्मिक ज्ञान न तो देना चाहता है न ही किसी से प्राप्त करने के लिये प्रेरित करता है। यही हाल साहित्य का है। इस देश में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो अपने लड़के या लड़की का किसी भी भाषा का लेखक होना पसंद करे-सिवाय अंग्रेजी के। इसका कारण यही है कि हमारे उच्च शिखर पुरुषों ने यह मान लिया है कि समाज को वैचारिक, साहित्यक तथा अध्यात्मिक मार्ग पर आगे ले जाने वाले विद्वानों, कवियों और लेखकों को संरक्षण देने की आवश्यकता नहीं है। उनकी उपेक्षा का ही यह परिणाम है कि समाज में हर कोई अपने बच्चे को चिकित्सक, अभियंता, उच्च श्रेणी का अध्यापक तथा प्रशासनिक अधिकारी बनाना चाहता है जो अधिक से अधिक धन का स्वयं दोहन कर सके क्योंकि विद्वानों या लेखकों को आश्रय देने वाला कोई नहीं है।
इसी कारण हमारे समाज में एक ‘खिचड़ी संस्कृति’ बन गयी है। आपने देखा होगा कि आजकल अनेक लोग यह शिकायत करते हैं कि ‘बुढ़ापे में बच्चे उनकी देखभाल नहीं करते।’ उनसे पूछिये कि ‘क्या आप इसके लिये जिम्मेदार नहीं हैं क्योंकि आपने ही ऐसे संस्कार नहीं दिये।’
हमारे शिखर पुरुष कानून के द्वारा समाज को नियंत्रित करने का प्रयास कर रहे हैं। यह एक बेकार का प्रयास है। एक तरफ आप पूरी तरह पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण न केवल स्वयं कर रहे बल्कि अपने बच्चों को भी उस पर चलते देखना चाहते हैं। फिर उनसे देशी व्यवहार की आशा करना कहां तक उचित है?
देश की सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक प्रक्रिया में विद्वानों की निष्क्रियता समाज के लिये घातक होती है, इसलिये जितना हो सके सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक शिखर बैठे लोग उनको संरक्षण दें या फिर समाज के बिगड़ने का रोना बंद कर दें। विद्वानों के नाम पर चाटुकारों की फौज खड़ी करने से समाज का उद्धार नहीं हो सकता। समाज में सहज विकास की धारा तभी प्रवाहित हो सकती है जब उसका बौद्धिक रूप सेे मार्गदर्शन करने वाले विद्वानों को संरक्षण मिले।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Tuesday, February 23, 2010

संत कबीर के दोहे-कामना सहित भक्ति में निराशा भी हाथ लगती है

मान बड़ाई देखि कर, भक्ति करै संसार।
जब देखैं कछु हीनता, अवगुन धरै गंवार।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि दूसरों की देखादेखी कुछ लोग सम्मान पाने के लिये परमात्मा की भक्ति करने लगते हैं पर जब वह नहीं मिलता वह मूर्खों की तरह इस संसार में ही दोष निकालने लगते हैं।
मान बड़ाई ऊरमी, ये जग का व्यवहार।
दीन गरीबी बन्दगी, सतगुरु का उपकार।।
संत शिरोमणि कबीरदास का कहना है कि जिस तरह दुनियां का व्यवहार है उससे देखकर तो यही आभास होता है कि मान और बड़ाई दुःख का कारण है। सतगुरु की शरण लेकर उनकी कृपा से जो गरीब असहाय की सहायता करता है, वही सुखी है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भक्त और ज्ञानी की पहचान यह है कि वह कभी अपनी भक्ति और ज्ञान शक्ति का बखान नहीं करते बल्कि निर्लिप्त भाव से समाज सेवा करते हुए अपना जीवन यापन करते हैं। अपनी सच्ची भक्ति और ज्ञान के कारण कुछ लोग महापुरुषों की श्रेणी में आ जाते हैं उनको देखकर अन्य लोग भी यही प्रयास करते हैं कि उनकी पूजा हो। यह केवल अज्ञान का प्रमाण है अलबत्ता अपने देश में धार्मिक प्रवचन एक व्यवसाय के रूप में चलता रहा है। इस कारण तोते की तरह किताबों को रटकर लोगों को सुनाते हुए खूब कमाते हैं। उनको देखकर कुछ लोग यह सोचते हुए भक्ति का दिखावा करते हैं कि शायद उनको भी ऐसा ही स्वरूप प्राप्त हो। अनेक लोग संतों की सेवा में इसलिये जाते हैं कि हो सकता है कि इससे उनको किसी दिन उनकी गद्दी प्राप्त हो जाये। ऐसे में भक्ति और ज्ञान तो एक अलग विषय हो जाता है और वह मठाधीशी के चक्कर में राजनीति करने लगते हैं। किताबों को रटने की वजह से उनको शब्द ज्ञान याद तो रहता है ऐसे में वह थोड़ा बहुत प्रवचन भी कर लेते हैं पर उनकी भक्ति और ज्ञान प्रमाणिक नहीं है। वैसे भी अपने पौराणिक ग्रंथों का अध्ययन हर आदमी इतना तो कर ही लेता है कि उसे सारी कथायें याद रहती हैं। नहीं भी अध्ययन करे तो इधर उधर सुनकर उसे बहुत सारी कथायें याद आ ही जाती हैं। । किसी आदमी ने वह भी नहीं किया हो तो अपने अध्यात्मिक दर्शन के कुछ सूक्ष्म सत्य-निष्काम कर्म करो, परोपकार करो, दया करो और माता पिता की सेवा करे जैसे जुमले- सुनाते हुए श्रोताओं और दर्शकों की कल्पित कहानियों से मनोरंजन करता है। उनको सम्मानित होते देख अन्य लोग भक्ति में जुट जाते हैं यह अलग बात है कि कामना सहित यह भक्ति किसी को भौतिक फल दिलाती है किसी को नहीं।
फिर भक्ति हो या ज्ञानार्जन अगर कामना सहित किया जाये और सफलता न मिले तो आदमी संसार में दोष ढूंढने लगता है। यह केवल भक्ति या ज्ञान के विषय में नहीं है बल्कि साहित्य और कला के विषयों में भी यही होता है। आदमी आत्ममुग्ध होकर अपना काम शुरु करता है पर जब उसे सफलता नहीं मिलती तो वह निराश हो जाता है। निष्कर्ष यह है कि सम्मान पाने का मोह आदमी के लिये दुःख का कारण बनता है। एक बात याद रखें सम्मान पाने की चाह पूरी नहीं हुई तो दुःख तो होगा और अगर पूरी भी हो गयी तो अपमान भी हो सकता है। जहां सुख है वहां दुःख भी है। जहां आशा है वहां निराशा भी है। जहां सम्मान है वहां अपमान भी है। अगर सम्मान मिल गया तो चार लोग आपके दोष निकालकर अपमान भी कर सकते हैं।
इसलिये अच्छा यही है कि अपने कर्म निष्काम भाव से करें। इस संसार में निर्विवाद सम्मान पाने का बस एक ही तरीका है कि आप गरीब को धन और अशिक्षित को शिक्षा प्रदान करें। प्रयोजन रहित दया करें। ऐसे काम बहुत कम लोग करते हैं। जो सभी कर रहे हैं उसे आप भी करें तो कैसा सम्मान होगा? सम्मान तो उसी काम में ही संभव है जो दूसरे लोग न करते हों। अगर संसार के लोगों से प्रथक कोई समाज हित का काम किया जाये तभी सम्मान मिल सकता है। दूसरी बात यह भी है कि हम धन संपदा का संग्रह अपने लिये करते हैं तब दूसरे से यह आशा कैसे करें कि वह सम्मान करे क्योंकि सभी तो यही काम कर रहे हैं।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Sunday, February 21, 2010

कौटिल्य दर्शन-निंदा रहित मनुष्य देवता समान

स्वभावेन हरेन्मित्रं सद्भावेन व बान्धवान्।
स्त्रीभृत्यान् प्रेमदानाभ्यां दाक्षिण्येनेतरं जनम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
स्वभाव से मित्र, सद्भाव स बंधुजन, प्रेमदान से स्त्री और भृत्यों को चतुराई से वश में करें।
ये प्रियाणि प्रभाषन्ते प्रयच्छन्ति च सत्कृतिम्।
श्रीमन्तोऽनिद्य चरिता देवास्ते नरविग्रहाः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो मनुष्य सदैव प्रिय और मधुर वाणी बोलने के साथ ही सत्पुरुषों की निंदा से रहित होते हैं उनको शरीरधारी देवता ही समझना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कौटिल्य का अर्थशास्त्र न केवल अध्यात्मिक ज्ञान बल्कि जीवन जीने की कला का रूप भी हमारे सामने प्रस्तुत करता है। अगर हम गौर करें तो देखेंगे कि हम अपने शत्रु और मित्र स्वयं ही बनाते हैं। अपने लिये सुख और कष्ट का प्रबंध हमारे व्यवहार से ही होता है। अक्सर हम लोग ऐसे व्यक्ति की निंदा करते हैं जो हमारे सामने मौजूद नहीं रहता। यह प्रवृत्ति बहुत आत्मघाती होती है क्योंकि हम स्वयं भी इस बात से आशंकित रहते हैं कि हमारे पीछे कोई निंदा न करे। एक बात पर ध्यान दें कि कुछ ऐसे लोग हमारे आसपास जरूर विचरण करते हैं जो दूसरे की निंदा आदि में नहीं लगे रहते उनकी छवि हमेशा ही अच्छी रहती है। महिलाओं में परनिंदा की प्रवृत्ति अधिक देखी जाती है पर जो महिलाऐं इससे दूर रहती हैं अन्य महिलायें स्वयं उनको देखकर अचंभित रहती हैं-वह स्वयं ही कहती हैं कि ‘अमुक स्त्री बहुत शालीन है और किसी की निंदा वगैरह जैसे कार्य में लिप्त नहीं होती।’
दूसरे की बुराई कर अपनी श्रेष्ठता का प्रचार मानवीय मन की स्वभाविक बुराई है और जो इससे परे रहता है उसे तो शरीरधारी देवता शायद इसलिये ही समझा जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिन लोगों को अपनी छवि बनाने का मोह हो वह परनिंदा करना छोड़ दें तो उनको  अपना लक्ष्य पाने में अत्यंत सहजता और सरलता अनुभव होगी।  वैसे हम सामान्य जीवन में भी देखें तो वही लोग सभी को पसंद  आते हैं जो निंदा रहित होते हैं।  परनिंदा का खेल तो चूहे बिल्ली की तरह है।  एक आदमी दूसरे की तो दूसरा तीसरे की निंदा करने में लगा रहता है।  इससे वैमनस्य बढ़ता है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Wednesday, February 17, 2010

संत कबीर के दोहे-धर्म का असली स्वरूप समझना जरूरी

संत शिरोमणि कबीरदास अपने समय के धार्मिक विवादों की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं कि
---------------------------------------------------------------------
कहै हिन्दु मोहि राम पिआरा, तुरक कहे रहिमाना।
आपस में दोऊ लरि-लरि मुए, मरम न कोऊ जाना।।
एक तरफ भारतीय हैं जो कहते हैं कि हमें राम प्यारा है दूसरी तरफ तुर्क हैं जो कहते हैं कि हम तो रहीम के बंदे हैं। दोनों आपस में लड़कर एक दूसरे को तबाह कर देते हैं पर धर्म का मर्म नहीं जानते।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जैसा कि इतिहास गवाह है कि भारत पर विदेशी हमले हुए। शुरुआती दौर में हमलावर केवल धन के लिये आये पर बाद में उनको लगा कि यह देश सोने का अंडा देने वाली मुर्गी है तो यहीं अपना स्थाई निवास बना लिया। उनका उद्देश्य यहां शासन करना था पर इसमें भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान शक्ति उनके लिये बाधा थी। वह आसानी शासन करते पर भारत में ऐसे लोगों की तादाद अधिक थी जो किसी के राजा होने की परवाह नहीं करते थे। उनके लिये भगवान के बाद राजा का नंबर आता था जबकि विदेशी शासक चाहते थे कि भगवान से पहले उनकी प्रतिष्ठा बने। इसलिये उन्होंने अपने साथ कथित रूप से धार्मिक संत भी रखे। इसके अलावा शासन के कार्यक्षेत्र का विस्तार किया जिससे कि यहां के लोगों के जनजीवन में राज्य का दखल अधिक हो। कुछ लोग कहते हैं कि विदेशी लोगों ने इस देश को सभ्य बनाया है-यह दावा हास्यास्पद है। दरअसल विदेशी लोगों ने राज्य का समाज के कार्यक्षेत्र में दखल बढ़ाया ही है। यही कारण है कि अनेक ऐसे क्षेत्र जहां राज्य का काम नहीं है वहां भी उसका विस्तार इस तरह हो गया जिससे समाज कमजोर हो गये हैं। फिर फूट डालो राज्य करो की तर्ज पर विदेशी शासक यहां जमे रहे और उन्हें अपने धर्म से इस देश की अध्यात्मिक विचाराधारा का कमतर साबित करने का प्रयास किया। इसलिये झगड़े बढ़े और आज तक उनको देखा जा सकता है। तुर्क यानि मध्य एशिया के देशों के लोग अपने रहीम (कविवर रहीम नहीं) को मानते जबकि भारत में तो भगवान राम की महिमा गायी जाती रही है। इस तरह झगड़े शुरु हुए जो अभी तक जारी हैं जिससे देश का आर्थिक, सामाजिक, तथा वैचारिक विकास अवरुद्ध हो गया है।
मुख्य बात है धर्म का मर्म। भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथ किसी धर्म की संज्ञावाचक पहचान नहीं देते बल्कि कर्म की शुद्धता ही धर्म की पहचान मानी जाती है। इसके विपरीत बाहर से आयी विचाराधारायें न केवल नाम से पहचाने जाते हैं बल्कि उनके इष्ट की पूजा के तरीके और स्वयं के पहनावे को लेकर भी अनेक प्रतिबंध हैं। भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान शुद्ध निष्काम कर्म और हृदय से की गयी भक्ति को ही धर्म का रूप मानता है जबकि बाहर से आयातित विचार तो आदमी के जन्म और मरण में भी रीतियां सिखाते हैं। भारतीय अध्यात्मिक गंथों में धर्म का अर्थ भले ही छोटा है पर उसका दायरा व्यापक है। सबसे बड़ी बात यह है कि अहिंसा धर्म की प्रधानता है जबकि विदेशी हमलावर यहां लूटने आये तो उनके लिये हिंसा करने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। इस तरह के हमलों ने ही यहां के निवासियों को शायद इतना विचलित कर दिया कि उन्हें अपने नाम और पहचार के साथ हिन्दू धर्म जोड़कर संगठित होने का विचार किया। इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि अंततः यह एक राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति का एक अच्छा प्रयास रहा होगा जिसकी बाध्यता रही होगी।
बहरहाल जो बीत गया उसे भुलाना चाहिये था पर आज भी कुछ लोग ऐसे हैं जो इस प्रकार के विवाद का जारी रखना चाहते हैं। जब हमारे लिये धर्म का सूक्ष्म अर्थ होते हुए भी उसका दायरा बड़ा है तो हमें किसी भी विचाराधारा या धर्म पर आक्षेप न करते हुए अपने भारतीय होने की अनुभूति के साथ जीना चाहिये। हम अगर इतिहास गर्व या कुंठा के साथ जीना चाहेंगे तो सिवाय संताप के कुछ नहीं मिलना है। इस देश में विभिन्न देशों से लोग आये पर अब यहीं के होेकर रह गये। अब हमें नये सिरे से सोचना चाहिए पर समस्या यह है कि समाज में संघर्ष पैदा कर कुछ लोग अपने हित साध रहे हैं। वह धर्म पर बहसें और विवाद खड़े करते हैं पर जानते ही नहीं कि उसका आशय क्या है? सच तो यह है कि भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान ही सत्य की अनुभूति कराता है जहां तक धर्म का सवाल है तो उसके नाम पर ढेर सारे भ्रम हैं और इतिहासकार क्या कहते हैं यह अलग बात है पर हमारा विचार तो यह है कि कोई धार्मिक विचाराधारा केवल राजनीतिक संबल पाने के लिये प्रतिपादित की गयी हैं और उनका उद्देश्य प्रेम या अमन लाना नहीं है जैसा कि कुछ शायर यह कवि कहते हैं। बेहतर यही है कि हम अपना मार्ग भारतीय आध्यात्मिक ग्रंथों में ही ढूंढें। उससे भी बड़ी बात यह है कि हम दूसरों को हानि पहुंचाने वाले विचारों से परे होकर सभी के सुख पर विचार करें। यह प्रेम कोई सिखाने या समझाने का विषय नहीं है। मनुष्य में यह गुण स्वाभाविक रूप से रहता है। कहने का अभिप्राय यह है कि हमें अपने प्राचीन ग्रंथो का निरंतर अध्ययन करते रहना चाहिये ताकि हमें ज्ञान प्राप्त हो और किसी द्वारा बताये गये गलत मार्ग का अनुसरण न करें।
..................................................
संकलक एवं व्याख्याकार -दीपक भारतदीप
http://rajlekh.blogspot.com/
 ..........................................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Saturday, February 13, 2010

पतंजलि योग दर्शन-सवितर्क और निर्वितर्क समाधि (patanjali yog darshan-samadhi)

तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्ति।।
हिन्दी में भावार्थ-
यह समाधि की प्रारंभिक अवस्था है जिसमें मनुष्य का ध्यान सासंरिक विषयों से पृथक तो हो जाता है पर शब्द, अर्थ और ज्ञान का आभास कहीं ने कहीं उसके मस्तिष्क में बना रहता है।  इसे सवितर्क समाधि भी कहा जाता है।
स्मृतिपरिशुद्धो स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का।
हिन्दी में भावार्थ-
जब मस्तिष्क में स्मृति पूर्णतया विलुप्त हो जाये और केवल शून्य रूप का आभास हो और  निरंकार स्वरूप पर ध्यान केंद्रित हो तो इसे निर्वितर्क समाधि कहा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-
शब्दिक गूढ़ता में पड़ने की बजाय हम सवितर्क समाधि को आंशिक तथा निर्वितर्क समाधि को पूर्ण समाधि भी कह सकते हैं।  दरअसल ध्यान लगाना बहुत कठिन काम है पर अगर अभ्यास हो जाये तो इतना सहज हो जाता है कि लगता ही नहीं है कि हम कोई विशेष काम कर रहे हैं। 
शुरुआत में ध्यान लगाते समय दिमाग में अनेक प्रकार के वही विचार आते हैं जो सामान्य अवस्था में आते हैं।  अक्सर लोग इससे विचलित हो जाते हैं और ध्यान की प्रक्रिया को कठिन मानकर उसे छोड़ देते हैं।
ध्यान की अवस्था की चरमा सीमा पर पहुंचना कोई सरल काम नहीं है पर अगर संकल्प लेकर अभ्यास किया जाये तो यह कठिन भी नहीं है। भ्रुकुटि पर (दोनों आंखों के बीच और नाक के ठीक ऊपर) ध्यान लगाने की प्रक्रिया प्रारंभ करें।  सांसरिक विषय आते हैं तो चिंता की बात नहीं। दरअसल यह विचार ऐसे विकार हैं जो प्रज्जवलित होकर नष्ट होने लगते हैं और उनका धुंआ उठकर हमारे ध्यान के केंद्र बिंदु पर आता है। जिस तरह हम कचड़ा जलाते हैं और वह नष्ट होते ही धुंआ विसर्जित करता है और हम अगर पास खड़े होते हैं तो धुंआं आंखों में घुसने लगता है।  हम उस धुंऐं से बचने के लिये उस आग पर पानी डालते क्योंकि हमें पता होता है कि यह थोड़ी देर की बात है और इससे कचड़ा नष्ट हो जायेगा। यही स्थिति ध्यान में आने वाले विचारों की है। धीरे धीरे ध्यान का समय बढ़ाते जायें और यह निश्चय कर लें कि किसी भी तरह ऐसी स्थिति प्राप्त करेंगे जिससे उस दौरान कोई विचार वहां न आये।  मगर यह भी आंशिक स्थित ही है क्योंकि तब भी हमारे दिमाग में इंद्रियों की उपस्थिति का आभास बना रहता है और आगे चलकर पूर्ण समाधि की स्थिति प्राप्त करना आवश्यक है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Friday, February 12, 2010

वेदांत दर्शन-ब्रह्म ज्ञान से पुरुषार्थ की सिद्धि (vedant darshan-brahmagyan aur purusharth)



पुरुषार्थोऽतश्शब्दादिति बादरायणः।।
हिन्दी में भावार्थ-पुरुषार्थ की सिद्धि ब्रह्मज्ञान से होती है क्योंकि शब्द से ही यह सिद्ध होता है कि इसे बादरायण कहते हैं।
आचारदर्शनात्।
हिन्दी में भावार्थ-श्रेष्ठ पुरुषों का आचरण देखने से सिद्ध होता है कि ब्रह्म विद्या उनके कर्मों का अंग है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-ब्रह्मज्ञान या आध्यात्मिक ज्ञान के बिना मनुष्य ऐसे ही हो जाता है जैसे कि पशु। बस अंतर यह है कि पशु की गर्दन में रस्सी बांधकर हांका जाता है जबकि मनुष्य के मन में लालच, लोभ और मोह की रस्सी बांध कर उसे दूसरा मनुष्य हांक सकता है।  कहीं अहंकार, क्रोध और निराशा वश आदमी स्वयं भी दूसरे के चंगुल में फंस जाता है।  इससे बचने का यही उपाय है कि तत्व ज्ञान को कहीं से ग्रहण किया जाये। वर्तमान युग में अर्थ की अधिक प्रधानता है इसलिये धर्म का लोप करने का प्रयास वणिक वर्ग करता है क्योंकि अधिक धन होने के कारण उसे बढ़ाने का उपाय वही जानता है।  इस मार्ग पर उसकी बुद्धि चलती है इसलिये जो सामान्य वर्ग है उसके लिये एक तरह ये दोहन की वस्तु है। वणिक वर्ग  उसे अपने जाल में फंसाने के लिये मोह, लालच और लोभ के फंदों का निर्माण करता है।
अपने देश का अध्यात्मिक ज्ञान सत्य रूप है पर उसे पश्चिमी देश तथा उन जैसी वणिक वृत्ति के यहीं के लोग उसे दबाना चाहते हैं।  देश  के शैक्षणिक संस्थानों में भारतीय अध्यात्म का ज्ञान नहीं दिया जाता।  यही नहीं अपने देश में धर्म परिवर्तन की घटनायें भी करायी जाती हैं ताकि भारतीय अध्यात्म को हेय समझा जाये।  देखा जाये तो धर्म को किसी नाम से पुकाराना ही एक तरह का भ्रम है क्योंकि वह तो श्रेष्ठ आचरण का प्रतीक भर है। भारतीय धर्मग्रंथें में धर्म शब्द है पर उससे कोई दूसरा शब्द नहीं जुड़ा क्योंकि उसे आचरण का प्रतीक माना गया है। इसके विपरीत विदेशी विचारक अपने धर्मों को नाम लेकर श्रेष्ठ बताते हैं। दरअसल यह उनका भ्रम हैं। मजे की बात यह है कि अनेक धर्मों के लोग अपने धर्म का विस्तार करने तथा पहचान बचाने के लिये जूझ रहे हैं।  ऐसे भ्रमित लोग भी हैं जो सारे धर्मों को एक बताकर अपनी लोकप्रियता  बढ़ाते  हैं जबकि धर्म तो बस धर्म है फिर उनमें एक होने की बात कहां से आती है। अगर यह तत्व ज्ञान भारतीय लोग धारण कर लें तो वह ऐसे फंदों में नहीं फंसेंगे। 
इसके विपरीत जो ज्ञानी हैं वह केवल आचरण की बात करते हैं।  उनको एकता आदि विषय ढोंग का विषय लगते हैं क्योंकि मनुष्य का सहज स्वभाव है कि जिसमें उसके स्वार्थ है उससे वह स्वयमेव जुड़ता है।  ऐसे में लोगों की आपस में एकता स्थापित करने की बात बेमानी लगती है पर इसे समझने के लिये तत्वज्ञान का होना जरूरी है। 
इस नश्वर संसार को सही ढंग से समझने वाले लोग ही विद्वान हैं और वह कर्म करते हुए फल के भाव लिप्त नहीं होते।  समय के अनुसार वह इतिहास में एक श्रेष्ठ पुरुष के रूप में उनका नाम दर्ज होता है।

संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Wednesday, February 10, 2010

वेदशास्त्रों से-परमात्मा के अलावा किसी अन्य की स्तुति नहीं करो (vedshastron se-pramatma ki stuti)

‘मा चिदन्यद् वि शंसत सखायो मा रिषणयत।’
हिन्दी में भावार्थ-
परमात्मा के अतिरिक्त किसी अन्य की स्तुति मत करो क्योंकि ऐसा करने से अपने मार्ग से हट जाओगे।
‘आ घा गमद्यति श्रवत् सहस्त्रिणीभिरूतिभिः।
वाजेभिरुप नो हवम्।
हिन्दी में भावार्थ-
प्रभु का बल अनंत और उनके पास रक्षा करने के अनेक उपाय हैं। तुम आर्त भाव से उनके पास जाओ तो वह अपनी असीम शक्ति के साथ प्रकट होंगे और उनका वरदहस्त तुम्हें प्राप्त होगा।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-
परमात्मा के अलावा कोई अन्य ऐसी शक्ति नहीं है जो हमारा उद्धार कर सके।  अपने दैनोदिनी जीवन में अनेक प्रभावशाली लोगों से हमारा संपर्क होता है तो हम यह सोचकर उनकी चाटुकारिता करते हैं कि  वह समय पर हमारे काम आयेंगे। कुछ लोग तो सारी सीमायें तोड़कर उनको अपना ईश्वर बताते हुए उनकी स्तुति करने लगते है।  यह निरा अज्ञान मनुष्य को गुलामों जैसा जीवन जीने को बाध्य करता है।
इस संसार में कोई मनुष्य ऐसा नहीं है जो दैहिक गुण दोषों से मुक्त हो।  सभी लोग अपने स्वार्थ से ही संबंध बनाते और बिगाड़ते हैं। अतः किसी भी मनुष्य पर निर्भर रहने की बजाय उस अनंत, असीम तथा महान शक्ति से संपन्न परमात्मा का नित्य स्मरण करना चाहिये।  इस संसार में मुक्त भाव से जीने के लिये इससे अच्छा उपाय कोई नहीं है।  यहां कोई किसी का भाग्य विधाता नहीं है। यदि कोई हमारी समय पर पड़ने पर सहायता करता है तो वह भी ईश्वरीय प्रेरणा से होता है- परमात्मा उसका अपना स्वार्थ हमारे अंदर स्थापित कर देते हैं  जिसकी वजह से सहायता के लिये प्रेरित करते हैं परमात्मा का स्वयं कोई स्वार्थ सिद्ध नहीं होता। धन, बल, पद और प्रतिष्ठा के शिखर पर बैठे लोगों की स्तुति करने का कोई लाभ नहीं है क्योंकि जब तक उनके हजार स्वार्थ सिद्ध नहीं करोगे तब तक वह कोई एक काम नहीं करेंगे। उनके दरबार में उपस्थिति देते हुए चप्पल और जूते घिस जायेंगे अमीर हो या गरीब उस परमात्मा के द्वार पर याचक हो जाते हैं। देने वाला भी वही है तब क्यों किसी देहधारी मनुष्य को अपना भाग्यविधाता समझें? इससे तो अच्छा है सर्वशक्तिमान का ही स्मरण कर खुश रहने का प्रयास करें।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Friday, February 05, 2010

श्रीगुरुवाणी-घमंड से अनेक विकार पैदा होते हैं उत्पन्न (shri guruvani-ghamand aur vikar)

‘हउमै नावै नालि विरोध है, दोए न वसहि इक थाई।।’
हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्गुण अहंकार है और इससे अन्य बुराईयां भी पैदा होती है।
जह गिआन प्रगासु अगिआन मिटंतु।
हिन्दी में भावार्थ-
गुरु ग्रंथ साहिब के मतानुसार जिस प्रकार अंधेरे को दूर करने के लिये चिराग की आवश्यकता होती है उसी तरह अज्ञान रूपी अंधेरे को दूर करने के लिये प्रकाश आवश्यक है।
‘हउमै दीरघ रोग है दारु भी इस माहि।
किरपा करे जो आपणी ता गुर का सब्दु कमाहि।।’
हिन्दी में भावार्थ-
अहंकार एक भयानक रोग है जिसकी जड़ें बहुत गहरे तक फैल जाती हैें। इसका इलाज गुरु की कृपा से प्राप्त शब्द ज्ञान से ही संभव हो सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सभी जानते हैं कि अहंकार करना एक बुराई है पर इस रोग को पहचानना भी कठिन है। इसकी वजह यह है कि पंच तत्वों से बनी इस देह में मन और बुद्धि के साथ अहंकार की प्रकृत्ति भी स्वयंमेव बनती है। अनेक बार एक मनुष्य को दूसरे का अहंकार दिखाई देता है पर स्वयं का नहीं। इतना ही नहीं जब कोई व्यक्ति आक्रामक होकर दूसरों के विरुद्ध विषवमन करता है तब सभी लोग उसे अहंकारी कहते हैं जबकि सच यह है कि अहंकार कभी न कभी किसी में आता है या यूं कहें कि यह सभी में रहता है।
किसी भी कर्म में अपने कर्तापन की अनुभूति करना ही अहंकार है। जब मन में यह विचार आये कि ‘मैंने यह किया’ या ‘वह किया’ तब समझ लीजिये कि वह हमारे अंदर बैठा अहंकार बोल रहा है। फिर इससे आगे यह भी होता है कि जब हम किसी का कार्य करते हैं और उसका प्रतिफल भौतिक रूप से नहीं मिलता तब भारी निराशा घेर लेती है। आजकल आप किसी से भी चर्चा करिये वह अपने रिश्तेदारेां, मित्रों और सहकर्मियों के विश्वासघात की शिकायत करता मिलेगा। अहंकार का एक रूप यह भी है कि किसी से एक मनुष्य का काम कर दिया तो वह इस कारण भी उसका काम नहीं करता क्योंकि उसको लगता है कि वह छोटा हो जायेगा-अधिकतर लोग ऐसे भी हैं जो दूसरे के द्वारा कार्य करने पर अहसान मानने की बजाय हक अनुभव करते हैं तो कुछ लोगों को लगता है कि उनके गुणों के कारण कोई स्वार्थवश सेवा कर रहा है तो यह हमारी श्रेष्ठता का प्रमाण है। यही अहंकार मनुष्यों के बीच संघर्ष का कारण बनता है। समस्या इसे पहचानने की है। सच बात तो यह है कि अगर सभी लोग घमंड करना छोड़ दें तो किसी तरह का विवार कहीं न हो।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Wednesday, February 03, 2010

कौटिल्य दर्शन बुद्धि और उद्यम के संयुक्त प्रयास से फल की प्राप्ति

धातोश्चामीकरमिव सर्पिनिर्मथनादिव।
बुद्धिप्रयत्नोपगताध्यवसायाद्ध्रवं फलम्।।
हिन्दी में भावार्थ-जिस तरह अनेक धातुओं में मिला होने पर भी गलाने से प्रकट होता है तथा दही मथने से घृत प्रगट होता है वैसे बुद्धि और उद्योग से के संयुक्त उद्यम से फल की प्राप्ति भी होती है।
सूक्ष्मा सत्तवप्रयत्नाभ्यां दृढ़ा बुद्धिरधिष्ठिता।

प्रसूते हि फलं श्रीमदरणीय हुताशनम्।।

हिन्दी में भावार्थ-
जो बुद्धि सूक्ष्म तत्त्वगुण का ज्ञान होने से दृढ़ स्थिति में है वह धन रूपी फल को उत्पन्न करती है जिस प्रकार अरणी काष्ट अग्नि को प्रकट करता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-
श्रीगीता में वर्णित ज्ञान की लोग यह सोचकर उपेक्षा करते हैं कि वह तो सांसरिक कार्य से विरक्ति की ओर प्रेरित कर सन्यास मार्ग की ओर ले जाता है। यह अल्पज्ञान का प्रंमाण है। सच तो यह है कि उसमें वर्णित तत्व ज्ञान को जिसने भी धारण कर लिया उसकी बुद्धि दृढ़ मार्ग पर चल देती है। वह छोटी मोटी बातों पर न ध्यान देता है न उसे मान अपमान की चिंता रहती है। जिनसे मनुष्य को विचलित किया जा सकता है वह मायावी प्रयास उसे अपने मार्ग से डिगा नहीं सकते।  यही कारण है कि अपने बौद्धिक संतुलन और एकाग्रता से अन्य के मुकाबले तत्वज्ञानी  अधिक सफल रहता है।  निष्काम भाव से उद्योग करने का आशय यह कतई नहीं है कि सारे संसार के काम को तिलांजलि देकर बैठा जाये बल्कि उपलब्धि प्राप्त होने पर हर्षित होकर चुप न बैठें और न नाकामी होने पर हताश हों, यही उसका आशय है। 

तत्वज्ञान का आशय यह भी है कि जीवन पथ पर उत्साह के साथ बढ़ें। समय के साथ मनुष्य को भी बदलना पड़ता है। अच्छे, बुरे, मूर्ख और चतुर व्यक्तियों से उसका संपर्क होता है, उनसे व्यवहार करने का तरीका केवल तत्वज्ञानी ही जानते हैं। तत्व ज्ञान से जो बुद्धि में स्थिरता आती है उससे दूसरे लोग अपने छल, चालाकियों तथा मिथ्या ज्ञान से विचलित नहीं कर सकते।  वर्तमान में हम देखें तो विश्व आर्थिक शिखर पर बैठे लोगों का  सारा ढांचा ही मिथ्या ज्ञान तथा काल्पनिक स्वर्ग बेचने पर आधारित है। अगर लोगों में तत्व ज्ञान हो तो शायद ऐसे दृश्य देखने को नहीं मिलें जिसमें लोगों को जीते जी जमीन पर मरने पर आसमान में स्वर्ग खरीदते हुए अपना धन तथा समय बरबाद करते हैं। इस दुनियां में अनेक लोगों का व्यापार तो केवल इसलिये ही चल रहा है कि लोगों को अध्यात्म का ज्ञान नहीं है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

अध्यात्मिक पत्रिकायें

वर्डप्रेस की संबद्ध पत्रिकायें

लोकप्रिय पत्रिकायें