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Friday, January 29, 2010

संत कबीर के दोहे-ज्ञान के बिना जीवन में अंधेरा रहता है (gyan aur jivan-hindi sandesh)

चौसठ दीवा जाये के, चौदह चन्दा माहिं।
तेहि घर किसका चांदना, जिहि घर सतगुरु नाहिं।
महात्मा कबीरदास जी कहते हैं कि चौसठ कलाओं और चौदह विद्याओं की जानकारी होने पर पर अगर सत्गुरु का ज्ञान नहीं है तो समझ लीजिये अंधियारे में ही रह रहे हैं।

कबीर गुरु की भक्ति बिन, राज ससभ होय।
माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै कोय।।
महात्मा कबीरदास जी कहते हैं कि गुरु की भक्ति के बिना राजा भी गधा होता है जिस पर कुम्हार दिन भर मिट्टी लादेगा और कोई घास भी नहीं डालेगा।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समाज में बढ़ती भौतिकतावादी प्रवृत्ति ने अध्यात्मिक ज्ञान से लोगों को दूर कर दिया है। हालांकि टीवी चैनलों, रेडियो और समाचार पत्र पत्रिकाओं में अध्यात्मिक ज्ञान विषयक जानकारी प्रकाशित होती है पर व्यवसायिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिये लिखी गयी उस जानकारी में तत्व ज्ञान का अभाव होता है। कई जगह तो अध्यात्मिक ज्ञान की आड़ में धार्मिक कर्मकांडों का प्रचार किया जा रहा है। इसके अलावा टीवी चैनलों में अनेक बाबाओं के अध्यात्मिक प्रवचनों के कार्यक्रम भी प्रस्तुत होते हैं पर उनका उद्देश्य केवल मनोरंजन करना ही है। वैसे भी समाज में ऐसे गुरुओं का अभाव है जो तत्वज्ञान प्रदान कर सकें क्योंकि उसके जानने के बाद तो मनुष्य का हृदय निरंकार में लीन हो जाता है जबकि पेशेवर धर्म विक्रेता अपने शब्दों को सावधि जमा में निवेश करते हैं जिससे कि वह हमेशा पैसा और सम्मान वसूल करते रहें। कभी कभी तो लगता है कि लोग धर्म के नाम पर केवल शाब्दिक बोझा अपने सिर पर ढो रहे हैं।
दूसरी बात यह है कि मनुष्य के हृदय में अगर तत्वज्ञान स्थापित हो जाये तो वह अपने सांसरिक कार्य निर्लिप्त भाव से कार्य करते हुए किसी की परवाह नहीं करता जबकि सभी लोग चाहते हैं कि कोई उनकी परवाह करे। तत्वाज्ञान के अभाव में मनुष्य को एक तरह से गधे की तरह जीवन का बोझ ढोना पड़ता है। यह बात समझ लेना चाहिये कि जीवन तो सभी जीते हैं पर तत्वाज्ञानियों के चेहरे पर जो तेज दिखता है वह सभी में नहीं होता। ज्ञान होने से न केवल आदमी शांत रहता है बल्कि उसका आभास सामने वाले को भी हो जाता है।
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Saturday, January 23, 2010

चाणक्य दर्शन-धर्मग्रंथों की आलोचना वाले कष्ट उठाते हैं (Dhrama granthon ki ninda galat-hindu dharma sandesh)

दारिद्रयनाशनं दानं शीलं दुर्गतिनाशनम्।
अज्ञाननाशिनी प्रज्ञा भावना भयनाशिनी।।
हिंदी में भावार्थ-
दान से दरिद्रता, शील भाव से दुर्भाग्य तथा निष्ठा से भय का नाश होता है।
अन्यथा वेदपाण्डितयं शास्त्रमाचारमन्यतथा।
अन्यथा कुवचः शान्तं लोकाः क्लिश्चन्ति चान्यथा।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो लोग वेदों में वर्णित तत्वज्ञान, शास्त्रों में विधान और उत्तम पुरुषों के चरित्र को गलत बताते हैं वह इस लोक में स्वयं ही भारी कष्ट उठाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-कभी भी किसी भी प्रकार के धर्मग्रंथ की आलोचना या विरोध नहीं करना चाहिये। इसका कारण यह है कि धर्म ग्रंथ तो निश्चित कालावधि में तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार लिखे जाते हैं जबकि पृथ्वी और प्रकृति के स्वरूप में बदलाव के साथ ही मनुष्य की जीवन शैली में बदलाव आता है और इसी कारण धर्मग्रंथों के कुछ संदेश समय के साथ अप्रासंगिक लगते हैं। अतः धर्म ग्रंथों की आलोचना करना उचित नहीं है।
हां, भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों में वर्णित तत्वज्ञान में कभी बदलाव नहीं आता क्योंकि उसमें जीवन के मूल तत्वों की जानकारी देने के साथ ही उसका सदुपयोग करने की प्रक्रिया का भी वर्णन मिलता है। विश्व में भले ही कितने प्रकार के भौतिक परिवर्तन आयें पर जीवन के तत्वों का निर्धारण करने वाली प्रक्रिया में बदलाव संभव नहीं है।

भारतीय वेदों तथ अन्य धर्मग्रंथों की आलोचना करने वाले अपना उल्लू सीधा करने करने के लिये भारतीय धर्मग्रंथों के ऐसे चंद श्लोक या दोहे लेकर लोगों को बरगलाते हैं जो अब अप्रासांगिक हो गये हैं या लोग उस पर ध्यान नहीं देते। ऐसे लोग अज्ञान के अंधेरे में रहते हैं क्योंकि वह उनमें वर्णित तत्वज्ञान को नहीं जानते। ऐसे लोग भले ही चाहे कितनी भी प्रतिष्ठा या धन अर्जित कर लें पर सुखी नहीं रहते। वह नहीं जानते कि समाज के सहज संचालन के लिये भारतीय अध्यात्मिक दर्शन बहुत महत्वपूर्ण है। वह धनिक लोगों को दान देने के लिये प्रेरित करता है ताकि समाज की गरीब पर नियंत्रण हो। इतना ही नहीं उत्तम चरित्र से ही व्यक्ति के साथ ही समाज का निर्माण होता है। अक्सर लोग दूसरों के चरित्र पर तो लांछन लगाते हैं पर अपनी तरफ नहीं देखते। अगर सभी लोग तय करें तकि हम अपना चरित्र सही रखेंगे तो निश्चित रूप से देश में एक महान समाज का निर्माण होगा। यही बात भय के संबंध में भी कही जा सकती है। जब व्यक्ति की सब तरफ निष्ठा समाप्त हो जाती है तो वह अपने आप को एकाकी अनुभव करता है जिससे उसके मन भय का निर्माण होता है। इसलिये भगवान भक्ति से पुण्य मिले या नहीं पर अपने अंदर एक भय होता है जिससे हम निजात पा सकते हैं। कहने का का तात्पर्य यह है कि भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथो की आलोचना करने वाले न अपने को सुखी रख पाते हैं न उन लोगों को लाभ होता है जो उनका अनुसरण करते हैं। सच बात तो यह है कि दूसरे की आस्था और भक्ति पर सवाल उठाने की बजाय अपने चरित्र और स्थितियों का मंथन करना चाहिये। भारतीय धर्म ग्रंथों पर आक्षेप करने वाले यह भूल जाते हैं कि उनमें वर्णित ऐसा ज्ञान है जिसकी आज विदेशों में भी साख है।
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Tuesday, January 19, 2010

विदुर नीति-अनुशासनहीनता से ऐश्वर्य नष्ट हो जाता है

अर्थानामीश्वरो यः स्यादिन्द्रियाणमीनश्वरः।
इन्द्रियाणामनैश्वर्यर्दिश्वर्याद भ्रश्यते हि सः।।
हिन्दी में भावार्थ-
अधिक धन का स्वामी होने भी इंद्रियों पर अधिकार करने की बजाय उसके वश में हो जाने वाला भी मनुष्य ऐश्वर्य से भ्रष्ट हो जाता है।
धर्मार्थोश्यः परित्यज्य स्यादिन्द्रियवशानगुः।
श्रीप्राणधनदारेभ्यः क्षिप्र स परिहीयते।।
हिन्दी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर के कथनानुसार जो मनुष्य धर्म और अर्थ इंद्रियों के वश में हो जाता है वह शीघ्र ही अपने ऐश्वर्य, प्राण, धन, स्त्री को अपने हाथ से गंवा बैठता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अनेक लोगों को यह लगता है कि अगर अधिक धन आ गया तो जैसे सारा संसार जीत लिया। इस भ्रम में अनेक लोग धन के कारण अनुशासहीनता पूर्वक जीवन व्यतीत करने लगते हैं जिसका परिणाम यह होता है कि शीघ्र ही न केवल अपना वैभव गंवाते हैं बल्कि कहीं कहीं उनको शारीरिक हानि भी झेलनी पड़ती हैं। जीवन में दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये धन का होना जरूरी है। अधिक धन है तो भी समाज में सम्मान प्राप्त होता है पर इसका आशय यह कतई नहीं है कि अनुशासनहीनता बरती जाये। ऐसे ढेर सारे उदाहरण है जिसमें अनेक धनपतियों की औलादें मदांध होकर ऐसे अपराधिक कार्य इस आशय से करती हैं कि उनके पालक धन से कानून खरीद लेंगे। ऐसा होता भी है पर उसकी एक सीमा होती है जहां उसका अतिक्रमण होता है वहां फिर सींखचों के अंदर भी जाना पड़ता है। इस समय ऐसा दौर भी है जिसमें धनपति स्वयं और उनकी औलादें समाज में अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिये अनुशासन हीनता दिखाते हैं। धन उनकी आंखों बंद कर देता है और उनको यह ज्ञान नहीं रहता कि आजकल प्रचार माध्यम सशक्त हो गये हैं जिनकी वजह से हर समाचार बहुत जल्दी ही लोगों तक पहुंचता है। भले ही यह प्रचार माध्यम भी धनपतियों के हैं पर उनको अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये सनसनीखेज खबरों की आवश्यकता होती है और ऐसे में किसी धनी, प्रतिष्ठित या बाहुबली द्वारा किसी प्रकार के अपराध की जानकारी मिलने पर उसे जोरदार ढंग से प्रसारित भी करते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि अब वह समय चला गया जब धन और वैभव का प्रदर्शन करने के लिये अनुशासनहीनता बरतना आवश्यक लगता था।
आदमी के पास चाहे कितना भी धन हो उसे जीवन में अनुशासन अवश्य रखना चाहिये। याद रहे धन की असीमित शक्ति है पर देह की सीमायें हैं और किसी प्रकार की अनुशासनहीनता का दुष्परिणाम उसे ही भोगना पड़ता है। आजकल धनी लोगों द्वारा अनुशासनहीनता के कारण ही समाज में वैमनस्य फैल रहा है और अपराध बढ़ रहे हैं। सच तो यह है कि समाज के उच्च वर्ग के प्रति सामान्य वर्ग लोगों के मन में अब सद्भावना रही नहीं है भले ही उसका दिखावा करते हों
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Friday, January 15, 2010

चाणक्य की नीति-पुरानी बातों को याद करने से लाभ नहीं

अहो बत विचित्राणि चरितानि महाऽऽत्मनाम्।
लक्ष्मीं तृणाय मन्यन्ते तद्भारेण नमन्ति च।।
हिंदी में भावार्थ-
अहे! महात्माओं का चरित्र भी बहुत विचित्र होता है। एक तरफ वह धन को तिनके समान मानते हैं किन्तु उसके भार से झुक जाते हैं।
गते शोको न कत्र्तव्यो भविष्यं नैव चिनतयेत्।
वर्तमानेन कालेन प्रवर्तन्ते विचक्षणाः।।
हिंदी में भावार्थ-
पहले हुई घटना को याद करने से कोई लाभ नहीं है। इससे अच्छा है भविष्य की चिंता करें। बुद्धिमान लोग हमेशा ही वर्तमान काल में कार्य करने के लिये प्रवृत्त होते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर दिन नया है यही मानने वाले इस जीवन का आनंद उठाते हैं। पहले की न केवल बुरी बल्कि अच्छी घटनाओं का भी भुला दें। कल जो बीत गया वह लौट कर नहीं आयेगा। अपनी असफलता को ही नहीं वरन् सफलता को भी भूल जायें। यही जीवन के आनंद उठाने का नियम है।
यदि कल हुए अपमान का स्मरण किया तो आज भी तकलीफ देगा। अगर कल हुए सम्मान को दिमाग में संजोया तो आज कर्म करने के लिये मन प्रवृत्त नहीं होगा। कल अपने दैहिक कर्म से जो सांसरिक उपलब्धि पायी उस पर गर्व किया तो फिर आज कोई अच्छा कर्म नहीं कर सकते। अगर कल कहीं कोई नाकामी मिली तो उसका स्मरण किसी नये कार्य में मन नहीं लगने देगा। कहने का मतलब है कि अपने स्मृतियों से जितना दूर रहें अच्छा है वह आंनद दें या कष्ट पर अगले कार्य के लिये व्यवधान पैदा करती हैं। मनुष्य जीवन में स्वच्छंद ढंग से कार्य करने का जो अवसर मिलता है वह परमात्मा की कृपा समझना चाहिये। दुःख सुख, मान अपमान और सफलता और सफलता केवल दृश्य मात्र है और उसके दृष्टा की तरह देखें तो उनका अच्छा प्रभाव अहंकार नहीं आने देता और बुरा विचलित नहीं करता।
इस संसार में अनेक ऐसे लोग हैं जो कहते हैं कि धन तिनके के समान है पर उसका भार हर कोई नहीं उठा पाता। अगर सज्जन आदमी है तो धन आने पर अधिक विनम्र हो जाता है और अगर दुर्जन है तो उसे अहंकार आ जाता है। यह भी अजीब बात है कि सभी धन को सामान्य मानते हैं पर दोनों ही प्रकार के लाग उसका भार नहीं उठा पाते। सच तो यह है कि जितना इस संसार में परमात्मा की भूमिका है उतनी ही माया भी निभाती है और कभी कभी तो उससे भी ज्यादा जब उसे पाकर आदमी परमात्मा को भी भूल जाता है। कुल मिलाकर यह संसार विचित्र बातों से भरा पड़ा है और उसे समझने के लिये बुद्धि और ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है जो कि स्वाध्याय से ही प्राप्त किया जा सकता है।
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Sunday, January 10, 2010

श्रीमद्भागवत गीता-ज्ञानी के लिये मिट्टी, पत्थर और सोना एक समान (shri madbhagvat geeta in hindi)

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रिय।
युक्त इत्युच्यते योगी समोलोष्टाश्मकांचनः।।
हिंदी में भावार्थ-
भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि जो ज्ञान और विज्ञान से तृप्त है, जिसकी स्थिति विकार रहित है, जिसकी इंद्रियां भलीभांति जीती हुई है और जिसके लिये मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण समान है वह योगी, युक्त अर्थात भगवत्प्राप्त ऐसा कहा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अनेक कथित विद्वान भगवान श्रीकृष्ण के निष्काम भाव से कर्म के संदेश का गलत भाव ही लेते हैं। दरअसल इसका स्पष्ट आशय यह है कि मनुष्य कभी स्थिर नहीं रह सकता और इसलिये समाज भी परिवर्तन शील है और सभी मनुष्यों को भक्ति और ज्ञान के साथ अपना दायित्व निर्वाह भी करना चाहिए। वह ज्ञान के साथ विज्ञान की प्राप्ति पर भी अपना मत व्यक्त करते हैं। इसका अर्थ स्पष्ट है कि मनुष्य को निंरतर सक्रिय रहना चाहिये तभी वह अपनी रक्षा कर सकता है। उसमें नित नयी चीजों के निर्माण और उनके प्रयोग की प्रवृत्ति हो न कि रूढ़ियों और अंधविश्वासों में बंधकर यथास्थितिवादी होकर वह रहे।
वह एक सक्रिय समाज चाहते हैं। आपने सुना होगा कि अनेक मूर्ख लोग कहते हैं कि ‘अमुक ज्ञानी है तो फिर काम क्यों करता है?’
जो वास्तव में ज्ञानी होगा वह हमेशा सक्रिय रहेगा। हां, वह अपने दैहिक कर्म से मिलने वाले फलरूपी धन या साधन को अंतिम नहीं मानता क्योंकि उससे प्राप्त फल तो अन्य दैहिक दायित्वों की पूर्ति में लगाता है। जो लोग श्रीगीता को सन्यास के लिये प्रवृत्त करने वाली बताते हैं वह घोर अज्ञानी है यह इसी श्लोक से समझा जा सकता है। सन्यास निष्क्रियता में नहीं वरन् फल के स्वरूप को समझने में है। सच बात तो यह है कि कुछ विद्वान श्रीगीता की सही व्याख्या न कर उसे केवल भक्ति करने वाला ही ग्रंथ इसलिये प्रचारित करते हैं क्योंकि उनको नहीं लगता कि समाज में चेतना आये।
हमारा अध्यात्मिक दर्शन ज्ञान के साथ विज्ञान में भी पारंगत होने की प्रेरणा देता है ताकि इस पृथ्वी पर जीवन का सहजता से विचरण हो। श्रीमद्भागवतगीत हमारा ऐसा आधार ग्रंथ है जिस पर पूरा विश्व यकीन करता है।
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Saturday, January 09, 2010

मनुस्मृति-विषयासक्त राजा दुष्टों को दंड नहीं दे पाता (raja aur dosht-hindi sandesh)

स्वराष्ट्रे न्यायवृत् स्याद् भृशदण्डश्च शत्रुषु।
सहृत् स्वजिह्मः स्निगधेषु ब्राह्मणेषु क्षमान्वितः।।
हिंदी में भावार्थ-
राजा को चाहिए कि वह प्रजा के शत्रुओं को उग्र दंड दे। प्रजा के मित्रों से सौहार्दपूर्ण तथा राज्य के विद्वानों से उदारता के साथ ही क्षमा का व्यवहार करे।
सोऽसहायेन मूढेन लुब्धेनाकृतबुद्धिना।
न शक्तो न्यायतो नेतुं सक्तेन विषयेनणु च।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस राजा के सहायक न हों या फिर मूर्ख, लालची, बुद्धिहीन हों एवं स्वयं भी जो विषय और कामनाओं में लीन रहता हो ऐसे राजा को दंड का उपयोग उचित ढंग से प्रयोग करना नहीं आता।
स्वराष्ट्रे न्यायवृत् स्याद् भृशदण्डश्च शत्रुषु।
सहृत् स्वजिह्मः स्निगधेषु ब्राह्मणेषु क्षमान्वितः।।
हिंदी में भावार्थ-
राजा को चाहिए कि वह प्रजा के शत्रुओं को उग्र दंड दे। से प्रजा के मित्रों से सौहार्दपूर्ण तथा राज्य के विद्वानों से उदारता के साथ ही क्षमा का व्यवहार करे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-किसी राज्य का राजा हो या समाज तथा परिवार का मुखिया उसे अपने संरक्षितों के शत्रुओं से किसी प्रकार की उदारता न बरतते हुए उनको कड़ा दंड दे या कार्रवाई करे। जहां मुखिया या स्वामी का कोई सहायक न हो और वही शराब जैसे व्यसनों में डूबा रहे उसके समूह का सर्वनाश हो जाता है। विषय और कामनाओं का चिंतन करने वाले मनुष्य की बौद्धिक क्षमता समाप्त हो जाती है। ऐसे में उसके आसपास कामी, क्रोधी, लोभी तथा अहंकारी लोगों का मित्र समूह एकत्रित होकर उसे उल्टी सीधी सलाहें देता है जिससे स्वामी के साथ उसके कुल, राज्य और समाज का भी नाश होता है।
इसलिये जिन लोगों को परमात्मा की कृपा से कहीं स्वामित्व का अधिकार प्राप्त होता है वह अपने सरंक्षित तथा शरणागत जीवों के शत्रुओं के विरुद्ध कठोर दंड का उपयोग करें तथा जो मित्र हों उनके साथ सौहार्द का व्यवहार करते हुए अपने समूह का हित सोचें। इसके साथ ही ऐसे विद्वानों का हमेशा सम्मान करें तो संकट पड़ने पर अपने बौद्धिक कौशल से उसे तथा उसके समूह को उबार सकें। समाज के शीर्षस्थ वर्ग का यह दायित्व है कि वह छोटे वर्ग की रक्षा करे। जब शासक और उच्च वर्ग के लोग विषयास्क्त हो जाते हैं तो उनका सभी से नियंत्रण समाप्त हो जाता है और इससे समाज में अव्यवस्था व्याप्त हो जाती है। आजकल हम अपने समाज की हालत देखकर इस सत्य को समझ सकते हैं।
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Friday, January 08, 2010

संत कबीर के दोहे-स्वाद के कुंऐं में विष पड़ा मिलता है (swad aur vish-hindu dharma sandesh)

माखी गुड़ में गड़ि रही, पंख रही लपटाय।
तारी पीटै सिर धुनै, लालच बुरी बलाय।
भावार्थ-
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मक्खी जब गुड़ की लालच में अपने पंख फंसा देती है तब अपने हाथ पांव पटकने और सिर धुनने के बावजूद भी उसकी मुक्ति नहीं होती। लालच वाकई बुरी बला है।
जीभ स्वाद के कूप में, जहां हलाहल काम।
अंग अविद्या ऊपजै, जाय हिये ते नाम।
भावार्थ-
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक जीभ स्वाद में गहरे कुएं में पड़ी हुई है तब विष का सेवन करेगी जिससे अविद्या और अज्ञान ही पैदा होकर मनुष्य को परमात्मा के नाम से दूर हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल अनेक ऐसी चीजें लोग खा रहे हैं जो न तो स्वास्थ्य के लिये ठीक हैं न उनसे पेट भरता है। फास्ट फूड को पश्चिमी चिकित्सा विशेषज्ञ ही ठीक नहीं मानते पर हमारे देश में खाने पीने के विषय में अपनी सोच कम जमाने के फैशन पर लोग अधिक चलते हैं। इससे देश में बीमारियां बढ़ी रही हैं। पहले तो वर्षा के दिनों में ही चिकित्सकों के अस्पताल भरे रहते थे पर अब तो उनका व्यवसाय सदाबहार पूरे वर्ष चलने वाला हो गया है। इसके पीछे वातावरण का प्रदूषित होना अकेला कारण नहीं है बल्कि लोगों का खान पान तथा मिलावटी खाद्य पदार्थ उपयोग करना भी है। यह समझने वाली बात है कि दूध इतना महंगा हो गया है तो घी, दही, पनीर और खोवा सस्ता कैसे मिल सकता है? कई जगह दुग्ध पदार्थ नकली या मिलावट कर बेचे जाते हैं और सबसे बड़ी बात यह है कि लोग जानते हुए भी उनको खरीद कर उनका उपभोग करते हैं। दूध का महंगा होने के पीछे उसका कम उत्पादन होने के साथ ही पशुओं पर लागत मूल्य अधिक होना है इसलिये उस पर शिकायत नहीं की जा सकती पर इतना तो समझा जा सकता है कि उससे बनने वाले पदार्थ सस्ते नहीं हो सकते पर लोग हैं कि इसके बावजूद ऐसे मिलावटी और नकली पदार्थों का सेवन कर अपने लिये बीमारी मोल लेते हैं। यह जीभ का स्वाद ही है जो हमें बाद में कष्ट देता है। दूध स्वास्थ्य के लिये अच्छा है पर अगर न मिले तो केवल स्वाद के लिये नकली पीकर अपने शरीर को हानि पहुंचाने का कारण कौन समझा सकता है? शरीर दूध न पीने से अधिक स्वस्थ नहीं रहेगा पर मिलावटी या नकली पीने से तो उसकी हानि होगी। रोग प्रतिरोधक क्षमता के अभाव में हमारी देह बीमारी का प्रतिकार नहीं कर पाती-यह सामान्य तथ्य जान लेना चाहिये।हमारे समाज में जिस तरह खाने पीने को लेकर लापरवाही बरती जा रही है उससे ही बीमारियां बढ़ रही हैं। इसे रोकने के लिये यह जरूरी है कि खानपान में सात्विकता बरती जाये।
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Wednesday, January 06, 2010

रहीम के दोहे-मतलब का प्यार जल्दी कम हो जाता है (matala ka pyar-hindu dharama sandesh)

वहै प्रीति नहिं रीति वह, नहीं पाछिलो हेत
घटत घटत रहिमन घटै, ज्यों कर लीन्हे रेत

स्वाभाविक रूप से जो प्रेम होता है उसकी कोई रीति नहीं होती। स्वार्थ की वजह से हुआ प्रेम तो धीरे धीरे घटते हुए समाप्त हो जाता है। जब आदमी के स्वार्थ पूरे हो जाते हैं जब उसका प्रेम ऐसे ही घटता है जैसे रेत हाथ से फिसलती है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जीवन में कई ऐसे लोग आते हैं जिनका साथ हमें बहुत अच्छा लगता है और हम से प्रेम समझ बैठते हैं। फिर वह बिछड़ जाते हैं तो उनकी याद आती है और फिर एकदम बिसर जाते हैं। उनकी जगह दूसरे लोग ले लेत हैं। यह प्रेमी की ऐसी रीति है जो देह के साथ आती है। यह अलग बात है कि इसमें बहकर कई लोग अपना जीवन दूसरे को सौंप कर उसे तबाह कर लेते हैं।

सच्चा प्रेम तो परमात्मा के नाम से ही हो सकता है। आजकल के फिल्मी कहानियों में जो प्रेम दिखाया जाता है वह केवल देह के आकर्षण तक ही सीमित है। फिर कई सूफी गाने भी इस तरह प्रस्तुत किये जाते हैं कि परमात्मा और प्रेमी एक जैसा प्रस्तुत हो जाये। सूफी संस्कृति की आड़ में हाड़मांस के नष्ट होने वाली देह में दिल लगाने के लिये यह संस्कृति बाजार ने बनाई है। अनेक युवक युवतियां इसमें बह जाते हैं और उनको लगता हैकि बस यही प्रेम परमात्मा का रूप है।

सच तो यह है परमात्मा को प्रेम करने वाली तो कोई रीति नहीं है। उसका ध्यान और स्मरण कर मन के विकार दूर किये जायें तभी पता लगता है कि प्रेम क्या है? यह दैहिक प्रेम तो केवल एक आकर्षण है जबकि परमात्मा के प्रति ही प्रेम सच्चा है क्योंकि हम उससे अलग हुई आत्मा है। इस संसार में दिखावे का प्रेम करने वाले बहुत मिल जाते हैं। कार्यस्थलों और मित्र मंडली में कार्य, व्यवसाय और रहन सहन की एकरूपता के कारण अनेक लोग मित्र बन जाते हैं पर वह तभी तक प्रेम करते हैं जब तक वह आधार विद्यमान है। उसके हटते ही वह मित्रता और प्रेम खत्म हो जाता है। अतः किसी भी मनुष्य के प्रेम का स्थाई नहीं मानना चाहिये।
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Monday, January 04, 2010

भेदभाव करने वाले सुखी नहीं रहते-अध्यात्मिक संदेश

न वै भिन्ना जातुं चरन्ति धर्म न वै सुखं प्राप्तनुतीह भिन्नाः।
न वै भिन्ना गौरवं प्राप्नुवन्ति न वै भिन्ना प्रशमं रोचवन्तिः।।
हिंदी में भावार्थ-
जो परस्पर भेदभाव रखते हैं वे कभी धर्म का आचरण नहीं करते जिसके कारण उनको कभी सुख नहीं मिलता। उनको कभी गौरव नहीं प्राप्त होता तथा कभी शांति वार्ता भी उनको अच्छी लगती।
स्वास्तीर्णानि शयनानि प्रपन्ना वै भिन्ना जातु निद्रां लभन्ते।
न स्त्रीषु राजन् रतिमाष्नुवन्ति न मागधैः स्तुवमाना न सूतैः।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर कहते हैं कि आपस में फूट रखने लोग अच्छे बिछौने से युक्त पलंग पाकर भी उस पर सुख की नींद नहीं सो पाते। सुंदर स्त्रियों के साथ रहने तथा सूत और मागधों द्वारा की गयी स्तुति भी उनको प्रसन्न नहीं कर पाती।
वर्तमान संदर्भ मं संपादकीय व्याख्या-आज के संदर्भ में हम देखें तो विदुर महाराज की इन पंक्तियों का महत्व है। परिवार हो या समाज किसी प्रकार का भेदभाव उसके सदस्यों के लिये हारिकारक होता है। अक्सर हमारे देश में जातीय एवं भाषाई भेदभाव को लेकर टीका टिप्पणी की जाती है और भारतीय धर्म ग्रंथों पर आक्षेप किये जाते हैं पर यह संदेश इस बात का प्रमाण है कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन किसी भी प्रकार के भेदभाव की इजाजत नहीं देता। छोटे बड़े और अमीर गरीब का भेद दिखाकर समाज में जो वैमनस्य का वातावरण बनाया जा रहा है उसका कारण यह है कि भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान को सामान्य शिक्षा से इस तरह दूर किया गया है कि लोग नैतिक और व्यवाहारिक रूप से परिपक्व न हों जिससे उन पर बौद्धिक रूप से शासन किया जा सके।
समाज में स्त्री पुरुष, उत्तम निम्न , सवर्ण अवर्ण और अमीर गरीब का भेद भुलाकर सभी को अपनी योग्यता के अनुसार सम्मान मिलना चाहिये। समाज को सुव्यवस्थित ढंग से चलाने के लिये यह बहुत जरूरी है। पुरुष को अधिक सम्मान नहीं मिलना चाहिये पर स्त्री उत्थान के नाम पर बेकार और निरर्थक प्रचार भी व्यर्थ है। आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से कमतर वर्ग के लोगों के प्रति सामान्य सद्भाव दिखाना आवश्यक है पर अगर गरीब उसी तरह ऊंच, सवर्ण और अमीर के प्रति भी दिखावे का दुर्भाव या प्रचार करना बेकार की बात है जबकि सच बात तो यह है कि समाज में ऐसे भेद प्रचलित होने की बात कहकर बौद्धिक रूप से शासन करने वाले इन्हीं बड़े लोगों की सहायत लेते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि समाज निर्माण में सभी व्यक्तियों को समान मानते हुए ही कार्य करना चाहिये। भेदभाव करने से परिवार, समाज और राष्ट्र में वैमनस्या बढ़ता है जो कालांतर में घातक होता है।
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Sunday, January 03, 2010

भर्तृहरि नीति शतक-नालायक से दया और दोस्त से पैसा मांगना ठीक नहीं (hindu dharma sandesh-dost ka paisa n mangen)

असन्तो नाम्यथ्र्याः सुहृदपि न याच्यः कृशधनः प्रियान्याच्या वृत्तिर्मलिनमुसुभंगेऽप्यसुकरं।
चिपद्युच्चैः स्थेयं पदमनृविधेयं च महतां सत्तां केनाद्दिष्टं विषमममसिधाराव्रतमिदम्?
हिंदी में भावार्थ-
दृष्ट लोगों से दया के लिये प्रार्थना और अमीर मित्रों से याचना न कर केवल सत्य आचरण से ही जीवन पथ पर आगे बढ़ना चाहिये-ऐसे विचार का प्रतिपादन सज्जन लोगों के लिये किसने किया? मृत्यु के समक्ष भी उच्च विचारों की रक्षा की जाती है और महापुरुषों के मार्ग का ही अनुसरण करना पड़ता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन के अनेक नियम हैं जिनमें यह भी है कि जो व्यक्ति दुष्ट प्रवृत्ति का है उससे दया की याचना करने का कोई अर्थ नहीं है। उससे अपनी दुष्टता का प्रदर्शन करना ही है। दया दिखाने पर हो सकता है वह कुछ देर अपने दुष्कर्म से रुक जाये पर फिर उसे उसी मार्ग पर जाना है। अतः दुष्ट प्रकृति के लोगों का प्रतिकार करने का सामर्थ्य हमेशा अपने पास रखना चाहिये या फिर उस स्थान से ही चले जाना चाहिये जहां वह निवास करते है।
उसी तरह अपने धनी मित्र से किसी प्रकार की याचना कर अपने संबंध बिगाड़ने की आशंकायें पैदा करना व्यर्थ है। धन एक माया का रूप है और वह सभी को भ्रम, लालच और लोभ की प्रवृत्तियों के कारण अपने बंधन में जकड़े रहती है। अतः अपने धन बंधु-बांधवों और मित्रों से यह आशा करना व्यर्थ है कि वह याचना करने पर आर्थिक सहायता देंगे। जहां तक आर्थिक सहायता का प्रश्न है तो जिसके मन में यह उदार भाव होता है वह बिना मंागे ही करता है और जिसका हृदय संकीर्ण मानसिकता वाला है उससे कितना भी आग्रह करें वह आर्थिक सहायता नहीं करेगा।
जीवन में अपने आत्म सम्मान की रक्षा के लिये जरूरी है कि उसके कुछ नियमों को समझा जाये। महापुरुष द्वारा ने अपने अनुभवों से जो सत्य का मार्ग दिखाया है उस पर चलकर ही सामान्य मनुष्य जीवन में स्वस्थ और प्रसन्न रह सकता है। उससे पृथक चलना अपने आपको ही शारीरिक और मानसिक कष्ट देना है।
किसी दुष्ट आदमी से दया की याचना कर अपने आपको ही अपमानित करना है। उससे तो अच्छा है कि उसके साथ रण किया जाये या उपेक्षा कर उससे दूर हो जायें। उसी तरह मित्र से धन मांगना एक तरह से दीवार खड़ी करना है। हर किसी को धन का मोह होता है और संभव है कि मित्र से धन मांगें तो उसे अच्छा न लगे। वैसे सच्चा मित्र तो वही है जो समय पड़ने पर स्वयं ही धन देने का प्रस्ताव करे
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Friday, January 01, 2010

संत कबीर के दोहे-मन तो पर्वत की तरह विशाल है (sant kabir das ke dohe-man to parvat saman)

संत शिरोमणि कबीरदास जी के मतानुसार
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कबीर यह मन लालची, समझै नहीं गंवार।
भजन करन को आलसी, खाने को तैयार।।

मन खाने में एक तरह से लालची और भजन में आलसी होता है। वह एक गंवार की तरह है जो कोई बात समझना ही नहीं चाहता है।
कबीर मन परबत भया, अब मैं पाया जान
टांकी लागी प्रेम की, निकसी कंचन खान

संत कबीरदास जी के अनुसार अब मैं समझ पाया हूं कि मन तो पर्वत की तरह विशाल है। अगर इसमें प्रेम का टांका लगा दिया जाये तो सोने का भंडार मिलता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे प्राचीन आध्यात्मिक मनीषियों ने यह रहस्या बहुत पहले ही खोज निकाला कि मनुष्य ही नहीं बल्कि हर जीव अपने मन से संचालित होता हैं। पांच तत्वों से बनी इस देह में तीन प्रकृतियां मन, बुद्धि और अहंकार रहती हैं और समय के अनुसार उनका कार्य भी होता हैं। मन को चंचल माना जाता है यही कारण है कि कोई भी जीव एक जगह स्थिर नहीं रह पाता। यह मन शक्तिशाली है इसलिये इस पर नियंत्रण रखा जाये तो जीवन सफल हो जाता है पर अगर इसके नियंत्रण में रहकर काम किया तो पूरा जीवन गुलाम की तरह बिताना पड़ता है। श्रीगीता के अनुसार गुण ही गुणों के बरतते हैं। अगर हम अपने मन में विलासिता, घृणा और लोभ के बीज बोंऐंगे तो उनके पीछे हम अपनी देह साथ ही ले जायेंगे जो कि अंततः हमारें दुःख का कारण बनेगा। उसी तरह अगर उसमें प्रेम, त्याग और विश्वास के बीज बोऐंगे तो उसका फल सुखद होगा। अतः मन को दृष्टा की तरह देखना चाहिये तभी उसे नियंत्रण में ला पायेंगे। कहने का तात्पर्य है कि अगर हम अपने मन पर नियंत्रण कर उसे अपने बुद्धि ज्ञान के द्वारा संचालित करें तो निश्चित रूप से हमें कभी विपत्ति का सामना नहीं करना पड़ेगा। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि हम मन में आया हर काम करें। पहले उस कार्य के परिणाम पर विचार करें कितना फलदायक है न कि बिना किसी योजना के उसे शुरु कर देना।
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