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Saturday, November 28, 2009

यो नोद्धतं कुरुते जातु वेषं न पोरुषेणापि विकत्धरोऽन्यान्।
न मूर्चि्छत्रः कटुकान्याह किंचित् प्रियं सदा तं कुरुते जनति।।
हिंन्दी में भावार्थ-
जो कभी उद्दण्ड जैसा वेष नहीं बनाता, दूसरों के सामने अपने पराक्रम की डींग नहीं हांकता, गुस्सा होने पर कट् वाक्य नहीं बोलता वह सभी का प्यारा हो जाता है।

न स्वे सुखे वै कुरुते नान्यस्य दुःखे भवित प्ररहृष्टः।
दत्तवा च पश्चात्कुरुतेऽनुतायं स कथ्यते सत्पुरुषार्यशीलः।।
हिंदी में भावार्थ-
महात्मा विदुर के कथानुसार जो अपने सुख में दूसरे के दुःख में प्रसन्न नहीं होता और दान देकर उसका स्मरण नहीं करता वही सदाचारी है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर हम देश के वातावरण को देखें तो अनुभव होगा कि आजकल भले काम कम किये जाते हैं पर उनका प्रचार अधिक होता है। देशभर की सामाजिक तथा आर्थिक हालत देखें तो ऐसे विरोधाभास सामने आते हैं जिनसे इस बात की अनुभूति होती है कि लोगों की चिंतन क्षमता अपह्त कर ली गयी है। टीवी, अखबार और रेडियो पर विज्ञापन देखने और सुनने के आदी हो चुके लोग अपना विज्ञापन स्वयं करने लगते हैं भले ही अपने परिवार के बाहर किसी का भला नहीं करते हों।
एक मजे की बात है कि इस देश में इतने महापुरुष और सामाजिक कार्यकर्ता हैं जिनके नाम पर जन्म दिन मनते हैं या उनकी तस्वीरों को लोग अपने घर में लगाकर उनकी पूजा करते हैं फिर भी इस देश की इतनी दुर्दशा क्यों है, इस पर कोई विचार नहीं करता। फिल्मों में कल्पित पात्रों की भूमिका निभाने वाले पात्रों को लोगों ने अपना भगवान मान लिया है। लोग अपनी हालतों से इतना डरते हैं कि वह प्रचार माध्यमों से बने हुए भगवानों की चर्चा अधिक करते हैं।
उसके बाद जो समय बचता है उसमें वह आत्म विज्ञापन में व्यतीत करते हैं। हर आदमी यह बताता है कि ‘उसने अमुक भला काम किया’। अब उसका प्रमाण कौन ढूंढने जाता है।
इससे दूसरे शब्दों में कहें तो लोग दूसरे से सदाचार की अपेक्षा करते हैं पर स्वयं उस राह पर चलना नहीं चाहते। समाज में प्रतिष्ठा अर्जित करने के लिये अपने व्यवहार को सयंमित रखना पड़ता है। उद्दण्डता के व्यवहार से दूसरे आदमी में भय पैदा किया जा सकता है प्रेम नहीं।
कभी कभी तो ऐसा लगता है कि लोग अपने दुःख से कम दूसरे के सुख से अधिक दुःखी हैं। यह विकृत मानसिकता है और जितना हो सके इससे बचा जाये। अपने मुख से अपनी तारीफ करना व्यर्थ है। इसकी बनिस्पत अगर दूसरे का वास्तव में भला किया जाये तभी यह अपेक्षा की जा सकती है कि सम्मान प्राप्त हो। साथ ही यह भी दूसरे का भला कर उसे गाने का लाभ नहीं है इससे एक तो आत्मप्रवंचना हो जाती है दूसरा पुण्य भी नहीं मिलता। जो चुपचाप ही समाज सेवा और भक्ति करता है वही सच्चा संत है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Saturday, November 21, 2009

चाणक्य नीति-शील स्वभाव हो तो कुरूपता कौन देखता है (shital savbhaav- chankya niti in hindi)

दरिद्रता श्रीरतया विराजते कुवस्त्रता शुभ्रतया विराजते।
कदन्नता चोष्णतया विराजते कुरूपता शीतया विराजते।।
हिंदी में भावार्थ-
अगर मनुष्य में धीरज हो तो गरीबी की पीड़ा नहीं होती। घटिया वस्त्र धोया जाये तो वह भी पहनने योग्य हो जाता है। बुरा अन्न भी गरम होने पर स्वादिष्ट लगता है। शील स्वभाव हो तो कुरूप व्यक्ति भी सुंदर लगता है।

अधमा धनमिच्छन्ति मानं च मध्यमाः।
उत्तमा मानमिच्छन्ति मानो हि महतां धनम्।।
हिंदी में भावार्थ-
अधम प्रकृत्ति का मनुष्य केवल धन की कामना करता है जबकि मध्यम प्रकृत्ति के धन के साथ मान की तथा उत्तम पुरुष केवल मान की कामना करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस विश्व में धन की बहुत महिमा दिखती है पर उसकी भी एक सीमा है। जिन लोगों के अपने चरित्र और व्यवहार में कमी है और उनको इसका आभास स्वयं ही होता है वही धन के पीछे भागते हैं क्योंकि उनको पता होता है कि वह स्वयं किसी के सहायक नहीं है इसलिये विपत्ति होने पर उनका भी कोई भी अन्य व्यक्ति धन के बिना सहायक नहीं होगा। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने ऊपर यकीन तो करते हैं पर फिर भी धन को शक्ति का एक बहुत बड़ा साधन मानते हैं। उत्तम और शक्तिशाली प्रकृत्ति के लोग जिन्हें अपने चरित्र और व्यवहार में विश्वास होता है वह कभी धन की परवाह नहीं करते।
धन होना न होना परिस्थितियों पर निर्भर होता है। यह लक्ष्मी तो चंचला है। जिनको तत्व ज्ञान है वह इसकी माया को जानते हैं। आज दूसरी जगह है तो कल हमारे पास भी आयेगी-यह सोचकर जो व्यक्ति धीरज धारण करते हैं उनके लिये धनाभाव कभी संकट का विषय नहीं रहता। जिस तरह पुराना और घटिया वस्त्र धोने के बाद भी स्वच्छ लगता है वैसे ही जिनका आचरण और व्यवहार शुद्ध है वह निर्धन होने पर भी सम्मान पाते हैं। पेट में भूख होने पर गरम खाना हमेशा ही स्वादिष्ट लगता है भले ही वह मनपसंद न हो। इसलिये मन और विचार की शीतलता होना आवश्यक है तभी समाज में सम्मान प्राप्त हो सकता है क्योंकि भले ही समाज अंधा होकर भौतिक उपलब्धियों की तरफ भाग रहा है पर अंततः उसे अपने लिये बुद्धिमानों, विद्वानों और चारित्रिक रूप से दृढ़ व्यक्तियों की सहायता आवश्यक लगती है। यह विचार करते हुए जो लोग धनाभाव होने के बावजूद अपने चरित्र, विचार और व्यवहार में कलुषिता नहीं आने देते वही उत्तम पुरुष हैं। कहने का आशय यह है कि अगर अपने अदंर गुण पैदा करें तो फिर चेहरे की सुंदरता का कोई अर्थ नहीं हर जाता। सुंदरता से अधिक देर तक सम्मान नहीं मिलता जबकि गुणों की वजह से हमेशा लोग प्यार करते हैं।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Tuesday, November 17, 2009

विदुर नीति-बुद्धिमान को सहारा देते हैं संत (buddhiman aur sant-hindu adhyatmik sandesh)

गतिरात्मवतां सन्तः सन्त एवं सतां गतिः।
असतां च गतिः सन्तो न त्वसन्तः सतां गतिः।।
हिंदी में भावार्थ-
मतिमान और गतिमान पुरुषों को सहारा देने वाले संत हैं। संतों को भी सहारा देने वाले संत हैं। असत्य पुरुषों को भी संत सहारा देते हैं पर दुष्ट लोग किसी को सहारा नहीं देते।
विद्यामदो धनमदस्तृतीयोऽभिजनो मदः।
मदा एतेऽवलिसानामेत एवं सतां दमः।।
हिंदी में भावार्थ-
विद्या, धन, और अभिजातीय वर्ग होने का मद अहंकारी के लिए दोष तथा सज्जन पुरुषों के लिये शक्ति होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जैसे संसार भौतिकवादी होता जा रहा है वैसे मनुष्य की बुद्धि कुंठित होती जा रही है। शिक्षा और धन की अधिक उपलब्धता ने अभिजातीय वर्ग का दिमाग सातवें आसमान पर पहुंचा दिया है। लोग इस बात से संतुष्ट नहीं है कि उनके संपन्नता और प्रतिष्ठा है बल्कि वह उसका प्रमाणीकरण चाहते हैं। अपनी योग्यता से अधिक धन प्राप्त करने वाले लोगों का अहंकार तो देखते ही बनता है। समय ने ऐसी करवट ली है कि परिश्रम से काम करने वालों का सम्मान कम होता गया है और झूठ, अपराधी तथा ठगी से पैसा कमाने वालों को-उनके दोष जानते हुए भी-समाज के लोग इज्जतदार मानते हैं। ऐसे लोग किसी का भला करने से तो रहे। सच तो यह है कि अगर आप शिक्षित, धनी और अभिजात वर्ग के हैं तो तभी सज्जन माने जा सकते हैं जब अपने गुण से किसी अन्य की सहायता करें। शक्ति और गुण होने पर केवल उसका दिखावा करें तो अहंकारी कहलायेंगे।

भले आदमी का काम है सभी की अपने आसपास गरीब और बेसहारा की सहायता करे न कि मूंह फेरकर अपने अभिमान में चलता जाये। किसी की भी सहायता करने वाला व्यक्ति ही सज्जन कहलाता है और जो समर्थ होते हुए भी ऐसा नहीं करता उसे अहंकारी और दुष्ट कहा जाता है। जब हम यह कहते हैं कि मनुष्य को समाज की साथ चलना चाहिए तब यह भी जरूरी है कि समर्थ और ज्ञानी लोग निरीह आदमी के सहायता करें। यही मनुष्यता का प्रमाण है।
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Saturday, November 14, 2009

विदुर नीति-पाप से परे होने पर ही आती है बुद्धि (paap aur buddhi-hindu adhyatmik sandesh(

यस्यात्मा विरतः पापाद कल्याणे च निवेशितः।
तेन स्र्वमिदं बुद्धम् प्रकृतिर्विकृतिश्चय वा।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर कहते हैं कि जिसकी बुद्धि पाप से परे होकर कल्याण के मार्ग पर आ जाये वह इस संसार में हर वस्तु कि प्रकृतियों और विकृतियों को अच्छी तरह से जान लेता है।

अर्थसिद्धि परामिच्छन् धर्ममेवादितश्चरेत्।
न हि धर्मदपैत्यर्थः स्वर्गलोकादिवामृतम्।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर कहते हैं कि जिस मनुष्य के हृदय में अर्थ प्राप्त करने की इच्छा है उसे धर्म का दृढ़तापूर्वक पालन करना चाहिए। जिस तरह स्वर्ग से अमृत दूर नहीं होता उसी प्रकार धर्म से अर्थ को अलग नहीं किया जा सकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह कहना गलत है धर्म के मार्ग पर अर्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती। धर्म-ईमानदारी, सहजता, परमार्थ, और अपने कर्तव्य से प्रतिबद्धता-का परिणाम ही अर्थ की प्राप्ति ही है। यह अलग बात है कि जल्दी अमीर बनने या आवश्यकता से अधिक धनार्जन के के लिये लोग अपने जीवन में आक्रामक और बेईमानी की प्रवृत्ति अपना लेते हैं। इस संसार में ऐसे लोग भी है जो बेईमानी से धन कमाकर कथित रूप से प्रतिष्ठा अर्जित करते हैं। ऐसे लोगों के व्यक्तित्व का आकर्षण समाज के युवाओं को आकर्षित करता है पर उनको यह समझ लेना चाहिये कि बेईमान और भ्रष्ट लोगों को धन, प्रतिष्ठा और बाहुबल की शक्ति की वजह से सामने कोई कुछ नहीं कहता पर पीठ पीछे सभी लोग उनके प्रति घृणा का भाव दिखाने से नहीं चूकते। फिर भ्रष्ट और बेईमान लोग का धन जिस तरह बर्बाद होता है उसे भी देखना चाहिये।

नीति विशारद विदुर जी के अनुसार जिस व्यक्ति ने ज्ञान प्राप्त कर लिया वह इस संसार में व्यक्तियों, वस्तुओं और स्थितियों की प्रकृतियों और विकृतियों को अच्छी तरह समझ जाते हैं। इस ज्ञान से वह विकृतियों से परे रहने में सफल रहते हैं और प्रकृतियां उनका स्वतः ही मार्ग प्रशस्त करती हैं। अत: जितना हो सके योग साधना तथा अन्य उपायों द्वारा अपनी बुद्धि को शुद्ध रखने का प्रयास करना चाहिए।
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Friday, November 13, 2009

कबीर के दोहे-भक्ति के रूप बदलना अपराधपूर्ण (bhakti ke roop-kabir sandesh)

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
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मुख से नाम रटा करैं, निस दिन साधुन संग
कहु धौं कौन कुफेर तें, नाहीं लागत रंग

साधुओं के साथ नियमित संगत करने और रात दिन भगवान का नाम जाप करते हुए भी उसका रंग इसलिये नहीं चढ़ता क्योंकि आदमी अपने अंदर के विकारों से मुक्त नहीं हो पाता।

सौं बरसां भक्ति करै, एक दिन पूजै आन
सौ अपराधी आतमा, पड़ै चैरासी खान


कई बरस तक भगवान के किसी स्वरूप की भक्ति करते हुए किसी दिन दुविधा में पड़कर उसके ही किसी अन्य स्वरूप में आराधना करना भी ठीक नहीं है। इससे पूर्व की भक्ति के पुण्य का नाश होता है और आत्मा अपराधी होकर चैरासी के चक्कर में पड़ जाती है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भगवान का नाम लेना और साधुओं के आश्रमों में जाकर हाजिरी देना कोई भक्ति का प्रमाण नहीं हैं। भीड़ में बैठकर भगवान का नाम लेकर शोर मचाने से भी कोई भक्ति नहीं हो जाती। लोग बरसों तक ऐसा करते हैं पर मन में फिर भी चैन नहीं पाते। मन में शांति तभी संभव है जब एकाग्र होकर हृदय भगवान के नाम का स्मरण किया जाये। ऐसा नहीं कि आंखें बंद कर मूंह से भगवान का नाम जाप कर रहे हैं और अंदर कुछ और ही विचार आ रहे हैं। कुछ लोग विशेष अवसर पर प्रसिद्ध मंदिरों और आश्रमों में जाकर मत्था टेक कर अपनी भक्ति को धन्य समझते हैं-ऐसा करना भगवान को नहीं बल्कि अपने आपको धोखा देना है। सबसे बड़ी बात यह है कि अगर अपने आचरण में पवित्रता नहीं है तो इसका मतलब यह है कि भक्ति एक धोखा है। जब तक आचार विचार और व्यवहार में पवित्रता नहीं रहेगी तब तक भगवान के नाम लेने का सकारात्मक प्रभाव नहीं हो सकता।

कुछ लोग अपने जीवन में बरसों तक भगवान के किसी एक ही स्वरूप की आराधना करते हैं। धीरे धीरे उनके अंदर भक्ति का रंग चढ़ने लगता है पर अचानक ही उनको कोई दूसरे स्वरूप या गुरु को पूजने के लिये प्रेरित करता है तो वह उसकी तरफ मुड़ जाते हैं। यह उनकी बरसों से की गयी भक्ति की कमाई को नष्ट कर देता है। जब सभी कहते हैं कि भगवान तो एक ही फिर उसके लिये स्वरूप में बदलाव करना केवल धोखा है यह अलग बात है कि उसकी प्रेरणा देने वाला भक्त को कोई दे रहा है या भक्त स्वयं ही उसकी लिये उत्तरदायी है। इतना तय है कि भगवान का रूप बदलकर उसका स्मरण करना अपने कष्ट का कारण बनता है।
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Thursday, November 12, 2009

रहीम सन्देश-गरीब पर कृपा करे वही है बड़ा आदमी (garib aur amir-rahin ke dohe)

जे गरीब पर हित करै, ते रहीम बड़लोग
कहाँ सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग


कविवर रहीम कहते हैं जो छोटी और गरीब लोगों का कल्याण करें वही बडे लोग कहलाते हैं। कहाँ सुदामा गरीब थे पर भगवान् कृष्ण ने उनका कल्याण किया।

आज के संदर्भ में व्याख्या- आपने देखा होगा कि आर्थिक, सामाजिक, कला, व्यापार और अन्य क्षेत्रों में जो भी प्रसिद्धि हासिल करता है वह छोटे और गरीब लोगों के कल्याण में जुटने की बात जरूर करता है। कई बडे-बडे कार्यक्रमों का आयोजन भी गरीब, बीमार और बेबस लोगों के लिए धन जुटाने के लिए कथित रूप से किये जाते हैं-उनसे गरीबों का भला कितना होता है सब जानते हैं पर ऐसे लोग जानते हैं कि जब तक गरीब और बेबस की सेवा करते नहीं देखेंगे तब तक बडे और प्रतिष्ठित नहीं कहलायेंगे इसलिए वह कथित सेवा से एक तरह से प्रमाण पत्र जुटाते हैं। मगर असलियत सब जानते हैं इसलिए मन से उनका कोई सम्मान नहीं करता।

जिन लोगों को इस इहलोक में आकर अपना मनुष्य जीवन सार्थक करना हैं उन्हें निष्काम भाव से अपने से छोटे और गरीब लोगों की सेवा करना चाहिऐ इससे अपना कर्तव्य पूरा करने की खुशी भी होगी और समाज में सम्मान भी बढेगा। झूठे दिखावे से कुछ नहीं होने वाला है।वैसे भी बड़े तथा अमीर लोगों को अपने छोटे और गरीब पर दया के लिये काम करते रहना चाहिये क्योंकि इससे समाज में समरसता का भाव बना रहता है। जब तक समाज का धनी तबका गरीब पर दया नहीं करेगा तब तक आपसी वैमनस्य कभी ख़त्म नहीं हो सकता है।


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Wednesday, November 11, 2009

कौटिल्य दर्शन-बुद्धि से कार्य करने पर संपन्न हो जाते हैं

सम्यगारभ्यमानं हि कार्ये यद्यपि निष्फलम्।
न तत्तथा तापयपि यथा मोहसनीहितम्।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस कार्य को शास्त्रों के अनुसार बुद्धिपूर्वक संपन्न करने का प्रयास किया जाता है वह शीघ्र फल दिलाने वाले होते हैं।
प्रारब्धानि यथाशास्त्रं कार्याण्यासनबुद्धिभिः।
बनानीय मनोहारि प्रयच्छन्त्यचिसत्फलम्।।
हिंदी में भावार्थ-
भली प्रकार प्रारंभ किया कोई काम या अभियान निष्फल भी हो जाये तो उससे मन को कष्ट नहीं होता जैसा कि मोह या अभिमान के वशीभूत होकर करने से होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-अपने जीवन में कोई उद्देश्य निर्धारित करने से पहले उसका सही स्वरूप, अपने सामथ्र्य तथा उससे प्राप्त होने वाले फल पर विचार कर लेना चाहिए। कोई व्यक्तिगत कार्य बिना किसी उद्देश्य के केवल इसलिये नहीं प्रारंभ करना चाहिए कि उसके न करने से अपने परिवार, रिश्तेदार या मित्र समूह में प्रतिष्ठा खराब होगी। यह भ्रम हैं। अगर हमें कार नहीं चलाना आता तो केवल इसलिये दिखाने के लिये उसे चलाने का प्रयास नहीं करना चाहिए कि किसी व्यक्ति ने हमको चुनौती दी है या किसी के सामने अपनी कला का अनावश्यक प्रदर्शन करना है। अगर आप देश में दुर्घटनाओं का अवलोकन करें तो पायेंगे कि उसमें अधिकतर शिकार लोग अपने सामथ्र्य से अधिक कार्य करने के लिये प्रेरित होने के कारण कष्ट में आये।

तात्पर्य यह है कि अपना दिमागी संतुलन बनाये रखना चाहिए। किसी छोटे या बड़े काम को पूरी तरह से विचार कर प्रारंभ करना चाहिए। ऐसे काम में नाकाम होने पर भी दुःख नहीं होता। तब हमें इस बात का अफसोस नहीं होता कि हमने अपने कर्म में कोई कमी की। अगर बिना विचारे काम प्रारंभ किये जाते हैं तो उनमें शक्ति भी अधिक खर्च होती है और उनमें नाकामी मन को बहुत परेशान भी कर देती है। अत:अपना दिमागी संतुलन कभी नहीं खोना चाहिए।
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Tuesday, November 10, 2009

चाणक्य दर्शन-इंसान जैसा अन्न खाता है वैसे ही उसके विचार होते हैं jaisa anna vaisa man-chankya darshan)

दीपो भक्षयते थ्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते।
यदन्नं भक्षयतेन्नित्यं जायते तादृशी प्रजा।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि जिस तरह दीपक अंधेरे को खाकर काजल को उत्पन्न करता है वैसे ही इंसान जिस तरह का अन्न खाता है वैसे उसके विचार उत्पन्न होते हैं और उसके इर्दगिर्द लोग भी वैसे ही आते हैं। उनकी संतान भी वैसी ही होती है।
अधमा धनमिच्छन्ति धनं माने च मध्यमा।
उत्तमा मानमिच्छन्ति मानो हि महतां धनम्।।
हिंदी में भावार्थ-
अधम केवल धन की कामना करता है जबकि मध्यम पुरुष धन और मान दोनों की इच्छा करता है किन्तु उत्तम पुरुष केवल मान की कामना करते हुए अपन कर्म करता है। उसके लिये मान ही धन्न है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या -यह एक तरह का दर्पण है जिसमें हर इंसान अपने चरित्र का चेहरा देख सकता है। केवल धन की कामना पूरी करने के लिये कोई भी कार्य करने के लिये तैयार होना निम्नकोटि होने का प्रमाण है। कहने को तो सभी कहते हैं कि यह पेट के लिये कर रहे हैं पर जिनके पास वास्तव में धन और अन्न का अभाव है वह आजकल किसी अपराध में नहीं लिप्त दिखते जितने धन धान्य से संपन्न वर्ग के लोग बुरे कामों में व्यस्त हैं। धन का आकर्षण लोगों को लिये इतना है कि वह उसके लिये अपना धर्म बदलने और बेचने के लिये तैयार हो जाते हैं। उनके लिये मान और अपमान का अंतर नहीं रह जाता। आजकल शिक्षित और सभ्रांत वर्ग के लोगों ने यह मान्यता पाल ली है कि धन से सम्मान होता है और वह स्वयं भी निर्धनों से घृणा करते हैं। सच बात तो यह है कि अधम प्रकृति के लोग धन प्राप्त कर उच्चकोटि का दिखने का प्रयास करते हैं।
समाज में अनैतिक धनार्जन की बढ़ती प्रवृति ने नैतिक ढांचे को ध्वस्त कर दिया है और जिस वर्ग के लोगों पर समाज का मार्गदर्शन करने का दायित्व है वही कदाचार और ठगी में लगे हुए हैं। परिणामतः उनके इर्दगिर्द ऐसे ही लोगों का समूह एकत्रित हो जाता है और उनकी संतानें भी अब ऐसे काम करने लगी हैं जो पहले नहीं सुने जाते थे। नयी पीढ़ी की बौद्धिक और चिंतन क्षमता का हृास हो गया है और कहीं पुत्र तो कहीं पुत्री ही माता पिता पर दैहिक आक्रमण के लिये आरोपित हो जाती है। नित प्रतिदिन समाचार पत्रों और टीवी चैनलों पर ऐसे समाचार आते हैं जिसमें संतान ही उस माता पिता को तबाह कर देती है जिसकों उन्होंने जन्म दिया है।
ऐसे में ज्ञानी लोगों को यह ध्यान रखना चाहिये कि जो धन वह कमा रहे हैं उनका स्त्रोत पवित्र हो। अल्प धन होने से कोई समस्या नहीं है क्योंकि चरित्र से सम्मान सभी जगह होता है पर बेईमानी और ठगी से कमाया गया धन अंततः स्वयं के लिये कष्टदायी होता है।
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Saturday, November 07, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-कामना की अग्नि कुलीनता को जला देती है (hindu adhyatm-kulinta aur kamana)

तावन्महत्तवं पाण्डित्यं कुलीनत्वं विवेकता
यावज्जवलति नांगेषु हतः पञ्वेषु पावकः


हिंदी में भावार्थ-हृदय में विद्वता, कुलीनता और विवेक का प्रभाव तब तक ही रहता है जब तक ही जब तक कामना, वासना और इच्छा की अग्नि प्रज्जवलित नहीं हो उठती है। मन में लोभ और लालच का भाव आते ही सब सदगुण नष्ट हो जाते है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में मनुष्य के जीवन व्यतीत करने के दो ही मार्ग हैं-एक है ज्ञान मार्ग और दूसरा मोहमाया का मार्ग। मनुष्य तो अपने मन का दास है जैसे वह कहता है उसकी पांव वही चलते जाते है। यह उसका भ्रम है कि वह स्वयं चल रहा है। कुछ मनुष्य अपना जीवन ज्ञान के साथ व्यतीत करते हैं। वह सासंरिक कार्य करते हुए भी धन और मित्र के संग्रह में लोभ नहीं करते। जितना धन मिल गया उसी में संतुष्ट हो जाते हैं पर कुछ लोगों की लालच और लोभ का अंत ही नहीं है। वह धन और मित्र संग्रह से कभी संतुष्ट नहीं होते हैं और मोहमाया के मार्ग पर चलते जाते हैं।

हां, कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अधिक अवसर न मिल पाने की वजह से धन और मित्र संग्रह सीमित मात्रा में कर पाते हैं। वह तब खूब ज्ञान की बातें सुनते और करते हैं। उनकी बातों ये यह भ्रम भी हो जाता है कि वह संत या साधु प्रवृत्ति के हैं पर ऐसे लोगों को जब धन और मित्र बनाने के अधिक अवसर अचानक प्राप्त होते हैं तब वह सारा ज्ञान भूलकर उसका लाभ उठाते है।। तब उनका सारा ज्ञान एक तरह से बह जाता है। फिर वह पूरी तरह से धन संपदा और अपने निजी संबंधों के विस्तार पर अपना ध्यान केंद्रित कर देते हैं और उनके लिये पहले अर्जित ज्ञान निरर्थक हो जाता है। मन में जो आदमी अंदर इच्छाएं पैदा होती हैं उसका चिंतन करते हुए आदमी अपने गुणों पर दृष्टिपात नहीं करता और इसी वजह से उनका क्षय हो जाता है।
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Friday, November 06, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-मित्र वह जो अधर्म से बचाए (bhartrihari shatak-mitra dharm)

पापान्निवारयति योजयते हिताय
गुह्मं निगूहति गुणान्प्रकटीकरोति।
आपद्गतं च न जहाति ददाति काले
सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः


हिन्दी में भावार्थ- अपने मित्र को अधर्म और पाप से बचाना, उसके हित में संलग्न रहते हुए उसके गुप्त रहस्य किसी अन्य व्यक्ति के सामने प्रकट न करना, विपत्ति काल में भी उसके साथ रहना और आवश्यकता पड़े तो उसकी तन, मन और धन से सहायता करना यही मित्रता का लक्षण है।

संक्षिप्त व्याख्या-अक्सर हम लोग कहते है कि अमुक हमारा मित्र है और यह दावा करते हैं कि समय आने पर वह हमारे काम आयेगा। आजकल यह दावा करना मिथ्या है। देखा जाये तो लोग अपने मित्रों पर इसी विश्वास के कारण संकट में आते हैं। सभी परिचित लोगों को मित्र मानने की प्रवृत्ति संकट का कारण बनती है। कई बार हम लोग अपने गुप्त रहस्य किसी को बिना जांचे-परखे मित्र मानकर बता देते हैं बाद में पता लगता है कि उसका वह रहस्य हजम नहीं हुए और सभी को बताता फिर रहा है। वर्तमान में युवा वर्ग को अपने मित्र ही अधिक भ्रम और अपराध के रास्ते पर ले जाते हैं।

आजकल सच्चे और खरे मित्र मिलना कठिन है इसलिये सोच समझकर ही लोगों को अपना मित्र मानना चाहिए। वैसे कहना तो पड़ता ही है कि‘अमुक हमारा मित्र है’ पर वह उस मित्रता की कसौटी पर वह खरा उतरता है कि नहीं यह भी देख लेना चाहिए। भले जुबान से कहते रहे पर अपने मन में किसी को मित्र मान लेने की बात बिना परखे नहीं धारण करना चाहिए। देखा जाये तो आजकल सबसे अधिक धोखा मित्र बनकर ही दिया जाता है।
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Wednesday, November 04, 2009

योगासन और प्राणायाम के साथ ध्यान भी आवश्यक-आलेख (yogasan, pranayam aur dhyan-hindi lekh)

प्राचीन भारतीय योग साधना पद्धति की तरफ पूरे विश्व का रुझान बढ़ना कोई अस्वाभाविक घटना नहीं है। आज से दस वर्ष पूर्व तक अनेक लोग योगसाधना को अत्यंत गोपनीय या असाधारण बात समझते थे। ऐसी धारणा बनी हुई थी कि योग साधना सामान्य व्यक्ति के करने की चीज नहीं है। इसका कारण यह था कि शरीर के लिये विलासिता की वस्तुओं का उपभोग बहुत कम था और लोग शारीरिक श्रम के कारण बीमार कम पड़ते थे।
आज की नयी पीढ़ी के लोगों जहां भी वाहन का स्टैंड देखते हैं वहां पर पैट्रोल चालित वाहनों को अधिक संख्या में देखते हैं जबकि पुरानी पीढ़ी के लोगों के अनुभव इस बारे में अलग दिखाई देते हैं। पहले इन्हीं स्टैंडों पर साइकिलें खड़ी मिलती थीं। सरकारी कार्यालय, बैंक, सिनेमाघर तथा उद्यानों के बाहर साइकिलों की संख्या अधिक दिखती थी। फिर स्कूटरों की संख्या बढ़ी तो अब कारों के काफिले सभी जगह मिलते हैं। पहले जहां रिक्शाओं, बैलगाड़ियों तथा तांगों की वजह से जाम लगा देखकर मन में क्लेश होता था वहीं अब कारें यह काम करने लगी हैं-यह अलग बात है कि गरीब वाहन चालकों को लोग इसके लिये झिड़क देते थे पर अब किसी की हिम्मत नहीं है कार वाले से कुछ कह सके।

योगसाधना की शिक्षा बड़े लोगों का शौक माना जाता था। यह सही भी लगता है क्योंकि परंपरागत वाहनों तथा साइकिल चलाने वालों का दिन भर व्यायाम चलता था। उनकी थकान उनको रात को चैन की नींद का उपहार प्रदान करती थी। उस समय ज्ञानी लोगों का इस तरफ ध्यान नहीं गया कि लोगों को योगासन से अलग प्राणायाम तथा ध्यान की तरफ प्रेरित किया जाये। संभवतः योगासाधना के आठों अंगों में से पृथक पृथक सिखाने का विचार किसी ने नहीं किया। अब जबकि विलासिता पूर्ण जीवन शैली है तब योगसाधना की आवश्यकता तीव्रता से अनुभव की जा रही है तो उसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए। पहले जब लोग पैदल अधिक चलने के साथ ही परिश्रम करते थे इसलिये उनका स्वास्थ्य सदैव अच्छा रहता था । बाद में साइकिल युग के चलते भी लोगों के स्वास्थ्य में शुद्धता बनी रही। फिर योग साधना को केवल राजाओं, ऋषियों और धनिकों के लिये आवश्यक इसलिये भी माना गया क्योंकि वह शारीरिक श्रम कम करते थे जबकि बदलते समय के साथ इसे जनसाधारण में प्रचारित किया जाना चाहिये था। भले ही शारीरिक श्रम से लोगों का लाभ होता रहा है पर प्राणायाम से जो मानसिक लाभ की कल्पना किसी ने नहीं की। श्रमिक तथा गरीब वर्ग के लिये योगासन के साथ प्राणायाम और ध्यान का भी महत्व अलग अलग रूप से प्रचारित किया जाना जरूरी लगता है। यह बताना जरूरी है कि जो लोग शारीरिक श्रम के कारण रात की नींद आराम से लेते हैं उनको भी जीवन का आनंद उठाने के लिये प्राणायाम और ध्यान करना चाहिये।

अब योग साधना के आठ भाग देखकर तो यही लगता है कि उसके आठ अंगों को -यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि-एक पूरा कार्यक्रम मानकर देखा गया। सच तो यह है कि जो लोग परिश्रम करते हैं या सुबह सैर करके आते हैं उनको नियम, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि जैसे अन्य सात अंगों का भी अध्ययन करना चाहिये। योगासन या सुबह की सैर के बाद प्राणायम और ध्यान की आदत डालना श्रेयस्कर है। जो लोग गरीब, मजदूर तथा अन्य शारीरिक श्रम करते हैं उनके लिये भी प्राणायाम के साथ ध्यान बहुत लाभप्रद है। इस बात का प्रचार बहुत पहले ही होना चाहिये था इसलिये अब इस पर भी इस पर काम होना चाहिये।
प्राणायाम से प्राणवायु तीव्र गति से अंदर जाकर शरीर और मन के विकारों को परे करती है। उसी तरह ध्यान भी योगासन और प्राणायाम के बाद प्राप्त शुद्धि को पूरी देह और मन में वितरित करने की एक प्रक्रिया है। जब कभी आप थक जायें और सोने की बजाय आंखें बंद कर केवल बैठें और अपने ध्यान को भृकुटि पर केंद्रित करके देखें। शुरुआत में आराम नहीं मिलेगा पर पांच दस मिनट बाद आप को अपने शरीर और मन में शांति अनुभव होगी। जैसे मान लीजिये आप किसी समस्या से परेशान हैं। वह उठते बैठते आपको परेशान करती है। आप ध्यान लगा कर बैठें। समस्या हल होना एक अलग मामला है पर ध्यान के बाद उससे उपजे तनाव से राहत अनुभव करेंगे। सच बात तो यह है कि हम अपने दिमाग और शरीर को बहुत खींचते हैं और उसको बिना ध्यान के विराम नहीं मिल सकता। यह को व्यायाम नहीं है एक तरह से पूर्णाहुति है उस यज्ञ की जो हम अपनी देह के लिये करते हैं। शेष फिर कभी।

संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Tuesday, November 03, 2009

कबीर दास के दोहे-मन शांत हो तो कोई शत्रु नहीं (man aur shatru-hindi gyan)

दुख लेने जावै नहीं, आवै आचा बूच।
सुख का पहरा होयगा, दुख करेगा कूच।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि दुःख लेने कोई नहीं जाता। आदमी को दुखी देखकर लोग भाग जाते हैं। किन्तु जब सुख का पहरा होता होता है तो सभी पास आ जाते हैं।
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर अपने मन में शीतलता हो तो इस संसार में कोई बैरी नहीं प्रतीत होता। अगर आदमी अपना अहंकार छोड़ दे तो उस पर हर कोई दया करने को तैयार हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब आदमी के पास कोई दुःख आता है तो रिश्तेदार, मित्र और साथी उसे छोड़कर परे हो जाते हैं। उनको डर लगता है कि उनसे वह आदमी कोई सहायता की याचना न करे। अगर आदमी के पास धन संपदा और पद है तो उसके आसपास अनेक लोग आशाओं के साथ मंडराते हैं कि पता नहीं कब उससे काम पड़ जाये। यह दुनियां का एक नियम हैं। इसलिये अपने जीवन में संयम, शांति और विनम्रता के पथ पर ही अपने पांव रखना चाहिये। किसी के कहने में आकर असंयमित, क्रोधित और अहंकारी होना मनुष्य के लिये हमेशा घातक होता है।

अहंकार तो एक तरह से मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। आदमी को जब धन, पद और प्रतिष्ठा प्राप्त होती है तब वह यह समझता है कि यह सब उसे अपनी मेहनत और पराक्रम से मिला है। तब वह यह विचार नहीं करता कि उस तरह की मेहनत अन्य लोग भी करते हैं पर सभी शिखर पर नहीं पहुंच जाते। इस तरह का अहंकार होने से आदमी अपने लिये शत्रु बना लेता है। अगर आदमी यह अहंकार छोड़ कर मन में विनम्रता का भाव रख तो उसे सभी मित्र नजर आयेंगे। विनम्रता का भाव रखने वाले पर जब कोई विपत्ति आती है तब उसकी सहायता करने के लिये हर कोई तैयार हो जायेगा।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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