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Friday, July 31, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-समय के अनुसार रणनीति बनाकर काम करें (kotilya ka arthshastra-jivan aur ranniti)

मतप्रमतवत् स्थित्वा ग्रसदुत्पलुत्य पण्डितः।
अपरिभश्यमानं हि क्रमप्राप्ते मृगेन्द्रवत्।।
हिंदी में भावार्थ-
बुद्धिमान व्यक्ति को मत्त और प्रमत्त के समान दिखावे में स्थित होकर शत्रु पर ऐसे ही प्रहार करते हैं जैसे सिंह करता है। उसका वार कभी खाली नहीं जाता।

कौमे संकोचभास्य प्रहारमपि मर्धयेत्।
काले प्रापते तु मतिमानुत्तिश्ठेत्क्रूरसर्पवत्।।
हिंदी में भावार्थ-
अपने समय के अनुसार जीवन में रणनीति बनाते हुए कछुए के समान अंग समेटकर शत्रु का प्रहार भी सहन करें तो और उचित अवसर देखकर सांप के समान प्रहार भी करें।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में कई बार ऐसा अवसर आता है जब हमें दूसरे के शब्दिक और शारीरिक आक्रमण को झेलना पड़ता है। उस समय हमें अपनी स्थितियों और शक्ति का अवलोकन करते हुए इस बात को भी देखना चाहिये कि हमारे सहयोगी कौन है? अगर समय हमारे अनुकूल न हो तो अपनी सहनशक्ति को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि उस समय क्रोध या निराशा में उठाया गया कदम आत्मघाती होता है।
इसके विपरीत जब हमारा समय अनुकूल हो और लगता हो कि हमारे मित्र और सहयोगी साथ देने के लिये तैयार हैं और शत्रु या विरोधी को दबाया जा सकता है तब उस पर शाब्दिक या शारीरिक आक्रमण किया जा सकता है। वैसे आजकल के सभ्य युग में शारीरिक कम शाब्दिक संघर्ष अधिक होते हैं। चाहे किस प्रकार का भी आक्रमण हो उसकी तैयारी विवेक से करना चाहिये। कहीं कहीं हम पर शाब्दिक आक्रमण भी होता है और अगर लगता है कि वहंा प्रत्युत्तर देने का उचित समय नहीं है तो मौन रहना ही बेहतर है परंतु यदि लगता है कि उससे सामने वाले को अनावश्यक लाभ मिल रहा है तो स्थिति देखकर उस पर पलटवार करना बुरा नहीं है।
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Thursday, July 30, 2009

कबीर के दोहे-शब्द किसी का मुख नहीं ताकता (sant kabir vani-shabd aur mukh)

शब्द न करैं मुलाहिजा, शब्द फिरै चहुं धार।
आपा पर जब चींहिया, तब गुरु सिष व्यवहार।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि शब्द किसी का मूंह नहीं ताकता। वह तो चारों ओर निर्विघ्न विचरण करता है। जब शब्द ज्ञान से अपने पराये का ज्ञान होता है तब गुरु शिष्य का संबंध स्वतः स्थापित हो जाता है।
कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार।
साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कटु वचन बहुत बुरे होते हैं और उनकी वजह से पूरा बदन जलने लगता है। जबकि मधुर वचन शीतल जल की तरह हैं और जब बोले जाते हैं तो ऐसा लगता है कि अमृत बरस रहा है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- पिछले दिनों समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ कि अब लोगों में अपशब्द बोलना एक तरह से फैशन बनता जा रहा है। लोग अंतर्जाल पर गाली गलौच लिखना एक फैशन बना रहे हैं। यह वर्तमान विश्व समुदाय में अज्ञान और अहंकार की बढ़ती प्रवृत्ति का परिचायक है। पहले तो यह विचार करना जरूरी है कि हमारे शब्दों का प्रभाव किसी न किसी रूप में होता ही है। एक बात यह भी है कि हम जो शब्द बोलते हैं वह समाप्त नहीं हो जाता बल्कि हवा में तैरता रहता है। फिर समय पढ़ने पर वह उसी मुख की तरफ भी आता है जहां से बोला गया था। ऐसे में अगर हम अपने मुख से अपशब्द प्रवाहित करेंगे तो वह लौटकर कभी न कभी हमारे पास ही आने हैं। आज हम किसी से अपशब्द अपने मुख से बोलेंगे कल वही शब्द किसी अन्य द्वारा हमारे लिये बोलने पर लौट आयेगा। इस तरह तो अपशब्द बोलने और सुनने का क्रम कभी नहीं थमेगा।

इसलिये अच्छा यही है कि अपने मुख मधुर और दूसरे को प्रसन्न करने वाले शब्द बोलें जाये। लिखने का सौभाग्य मिले तो पाठक का हृदय प्रफुल्लित हो उठे ऐसें शब्द लिखें। पूरे विश्व समुदाय में गाली गलौच का प्रचलन कोई अच्छी बात नहीं है। ब्रिटेन हो या भारत या अमेरिका इस तरह की प्रवृत्ति ही विश्व में तनाव पैदा कर रही है। हम आज आतंकवाद और मादक द्रव्यों से विश्व समुदाय को बचाने का प्रयास कर रहे हैं पर इसके के लिये यह जरूरी है कि अपने शब्द ज्ञान का अहिंसक उपयोग करें तभी अन्य को समझा सकते हैं।
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Wednesday, July 29, 2009

चाणक्य नीति-धर्म स्थानों पर तोड़फोड़ करने वाले म्लेच्छ (chankya niti on dharm sthan)

परकार्यविहन्ता च दाम्भिकः स्वार्थसाधकः।
छली द्वेषी मृदः क्रूरो विप्रो मार्जार उच्यते।।
हिंदी में भावार्थ-
जो मनुष्य दूसरे के कार्यों को बिगाड़ने वाला, पाखंडी, अपना मतलबी साधने वाला, छलिया, दूसरों की उन्नति देखकर जलने वाला तथा बाहर से कोमल और अंदर कपट भाव रखने वाला है वह भले ही विद्वान क्यों न हो पशु के समान है।
चापी-कूप-तडागानामाराम-सुर-वेश्मनाम्।
उच्छेद निरऽऽशंकः स विप्रो म्लेच्छ उच्यते।।
हिंदी में भावार्थ-
जो मनुष्य बावड़ी, कुआं तालाब, बगीचे और धर्म स्थानों में तोड़फोड़ और उनको नष्ट करने से जो डरते नहीं है वह भले ही विद्वान हों म्लेच्छ कहलाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सभी को अपने जीवन में अपना स्वयं के धर्म और कर्म केंद्रित करना चाहिये। कुछ ऐसे मनुष्य भी हैं जो केवल धर्म का दिखावा करते हैं पर उनका लक्ष्य उसकी आड़ में व्यवसाय या उसके सहारे अपना समाज पर वर्चस्व स्थापित करना है। ऐसे लोग धर्म के आधार पर निकृष्ट कर्म करते हैं जो केवल पाप की श्रेणी में आते हैं। हालांकि कहा जाता है अशिक्षित और गंवार लोग ही ऐसे हैं जो धर्म की आड़ में पाप काम करते हैं पर चाणक्य महाराज की बात को देखें तो यह काम पहले भी विद्वान और शिक्षित लोगों के द्वारा होता रहा है। बस अंतर इतना है कि अब यह काम केवल विद्वान आर शिक्षित लोग ही कर नजर आते हैं। कथित अशिक्षित और गंवार लोगों को तो अपनी रोजी रोटी कमाने से ही आजकल फुरसत कहां मिल पाती है?
देश, प्रदेश, और शहर की संपत्ति और धार्मिक स्थानों पर तोड़फोड़ करने वाले भारी पाप करते हैं और उनको एक तरह से म्लेच्छ कहा जाता है। चाहे अपने धर्म का हो या दूसरे धर्म का उसमें तोड़फोड़ करने वाले महापापी हैं और उनका कभी समर्थन न करे। ऐसे लोग धर्म के नाम पर विवाद कर समाज का ध्यान अपनी ओर ध्यान आकर्षित कर उसका लाभ उठाते हैं। अगर हम उनकी तरफ देखें तो भी समझ लेना चाहिये कि पाप हो गया।
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Tuesday, July 28, 2009

संत कबीर वाणी-आपस में मिल बाँट कर खाना है शूरवीरता (sant kabir ke dohe in hindi)

कबीर तो सांचै मतै, सहै जू सनमुख वार
कायर अनी चुभाय के, पीछे झखै अपार

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहत हैं कि सच्चा वीर तो वह है जो सामने आकर लड़ता है पर जो कायर है वर पीठ पीछे से वार करता है।
तीर तुपक सों जो लड़ैं, सो तो सूरा नाहिं
सूरा सोइ सराहिये, बांटि बांटि धन खांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो अस्त्र शस्त्र से लड़ते है। उनको वीर नहीं कहा जा सकता है। सच्चे शूरवीर तो हैं जो आपस में मिल बैठकर खाते हैं। वह जो भी कमाते हैं उसे समान रूप से आपस में बांटते हैं।
वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-शूरवीर हमेशा उसे ही माना जाता है जो अस्त्र शस्त्र का उपयोग करता है। उनमें भी वही वीर है जो सामने से वार करता है पर जो कायर हैं वह पीठ पीछे वार करते हैं। वैसे अस्त्र शस्त्र से लड़ने में भी साहस की आवश्यकता कहां होती है। अगर अस्त्र शस्त्र हाथ में हों तो वेसे भी मनुष्य के मन में दुस्साहस आ ही जाता है और कोई भी उपयोग कर सकता है। कुछ लोग कहते हैं कि हथियार रखने से क्या होता है उसे चलाने के लिये साहस भी होना चाहिये-विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर लोहे से बना कोई हथियार मनुष्य के हाथ में हो तो उसमें आक्रामता आ ही जाती है।

असली साहस तो अपने कमाये धन का दूसरे के साथ बांटकर खाने में दिखाना चाहिये। आदमी जब धन कमाता है तो उसके प्रति उसका मोह इतना हो जाता है कि वह उसे किसी को थोड़ा देने में भी हिचकता है। मिलकर बांटने की बात तो छोडि़ये अपनी रोटी का छोटा टुकड़ा देने में भी आदमी की जान जाती है।

हमारे प्राचीन मनीषियों ने दान की महिमा को इसलिये प्रतिपादित किया कि समाज में सामाजिक समरसता का भाव रहे। हमारे अध्यात्म में इतना तक कहा गया है कि किसी को दान देते हुए आंखें नीची करना चाहिये ताकि दूसरे को हमारा अहंकार नहीं दिखाई दे और उसके अंदर अपने प्रति कुंठा भाव न उत्पन्न हो। मगर अब तो समाज कल्याण की बात राज्य के भरोसे छोड़ दी गयी है और वही लोग जन कल्याण के लिये मैदान में उतर रहे हैं जिनको उससे कुछ आर्थिक फायदा है। यह लोग कायर होते हैं क्योंकि दान और कल्याण क लिये प्राप्त धन का वह हरण करते हैं।

कलुषित तरीके से प्राप्त धन का भी वह दान करने का साहस नहीं कर पाते। अपने धन देने में सभी का हृदय कांपने लगता है। सच है कि जो दानी है वही सच्चा शूरवीर है। वह भी सच्चा वीर है जो अस्त्र शस्त्र लेकर कहकर सामने से प्रहार करता है पर आजकल तो कायरों की पूरी फौज है जो पीठ पीछे से वार करती है। चोर और डकैतों द्वारा किये गये और अपराध और निरंतर बम धमाकों की बढ़ती घटनायें इस बात का प्रमाण हैं।
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Monday, July 27, 2009

चाणक्य नीति-मनुष्य को पाप पुण्य का फल अकेले भोगना है (chankya niti in hindi)

जन्ममृत्यु हि यात्येको भुनक्त्येकः शुभाऽशुभम्।
नरकेषु पतत्येक एको याति परां गतिम्।।

हिंदी में भावार्थ-मनुष्य अकेला ही जन्म लेकर मुत्यु को प्राप्त होता है। अपने हाथ से ही अकेले शुभ अशुभ कर्म करता है और अपने पाप पुण्य का फल अकेले ही भोगता और मोक्ष प्राप्त करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-जन्म के साथ ही मनुष्य के अनेक प्रकार के संबंध स्थापित होते हैं और मृत्यु के साथ ही बिखर जाते हैं। मनुष्य जन्म से स्थापित इन्हीं संबंधों को सत्य मानकर उनके इर्दगिर्द घूमते हुए परमात्मा की भक्ति से जीवन भर विरक्त रहता है। वह अपने लिये जीवन का सुख केवल इन्हीं संबंधों में ढूंढता है जो कभी नहीं मिलता। कहीं दायित्व तो कहीं अधिकार के नाम पर मनुष्य जीवन भर इन संबंधों में लिप्त रहता है पर उसे मिलता कुछ नहीं है कभी तो उसके लिये यह संबंध तनाव का कारण भी बनते हैं।
अपने परिवार के आहार विहार के लिये मनुष्य हर तरह के कर्म करता है। कहीं शिष्टाचार तो कहीं भ्रष्टाचार करने के लिये तत्पर मनुष्य यह नहीं जानता कि उसके फल और कुफल के लिये वह स्वयं जिम्मेदार होगा। महर्षि बाल्मीकि का चरित्र सभी जानते हैं। वह एक दस्यु के रूप में अपने परिवार वालों के लिये कमाई करते थे। एक बार जब उन्होंने कुछ साधुओं को पकड़ लिया और उन्होंने उनसे कहा कि ‘अपने परिवार के सदस्यों से पहले पूछकर आओ कि क्या तुम्हारे कुफल में वह भागीदार बनेंगे।
महर्षि बाल्मीकि ने जब अपने परिवार के सदस्यों से उक्त प्रश्न किया तो सभी ने उनको ‘ना’ में उत्तर दिया। वहां से उनको ऐसा ज्ञान प्राप्त हुआ कि उन्होंने रामायण जैसा महाग्रंथ रच डाला और उनका नाम आज भी जाना जाता है। यह कथा इस बात का प्रमाण है कि मनुष्य अपने कर्म के लिये स्वयं ही जिम्मेदार होता है।
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Sunday, July 26, 2009

मनु स्मृति-अपशब्द बोलने वाले को दंड देना जरूरी ( manu smruti-apshabd bolne par dand jaroori)

काणं वाप्यथवा खंजमन्यं वाणि तथाविधम्।
तथ्येनापि ब्रुपन्दाप्यो दण्डं कार्षापणा वरम्।।

हिंदी में भावार्थ-मनु महाराज के अनुसार किसी विकलांग व्यक्ति को उसके अंगदोष से पुकारने वाले को-काना या लंगड़ा कहकर बुलाने वाला- दंडित किया जाना चाहिये।
मातरं पितरं जायां भ्रातरं तनयं गुरुम्।
आक्षारयच्छत दाप्यः पन्थानं चाददद्गुरोः।।

हिंदी में भावार्थ-मनु महाराज के अनुसार जो व्यक्ति माता पिता, पत्नी, और भाई को अपशब्द कहता है तथा अपने गुरु के आने पर उसे सम्मान नहीं देता उसे भी दंडित किया जाना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे समाज में जन्मजात अंगदोष वाले व्यक्ति को घृणित दृष्टि से देखने की बहुत बुरी भावना है। मनु महाराज इसका विरोध करते हैं। होता यह है कि अंगदोष वाले व्यक्ति कहीं बैठते हैं और किसी की बात का प्रतिकार करते हैं तो सामने वाला व्यक्ति हाल ही उसे अंगदोष से पुकारने लगता है। यह पापकर्म और अपराध है। देखा तो यह गया है कि इस तरह अंगदोष वाले लोग समाज से हमेशा अपमानित होने के कारण हीनभावना से भर जाते हैं। कहने को तो हमारा देश संस्कारवान लोगों से संपन्न कहा जाता है पर गांव हो या शहर अंगदोष वाले व्यक्तियों से कई बार बदतमीजी की जाती है। ऐसे लोगों की निंदा करने के साथ मनुमहाराज के अनुसार उनको आर्थिक दंड भी देना चाहिये।
वर्तमान विश्व समाज का एक वर्ग अपशब्दों के प्रयोग में अपने को सभ्य समझने लगा है। अभी हाल ही में प्रचार माध्यमों में आए एक विश्लेषण के अनुसार आजकल के युवक युवतियां वार्तालाप में अपशब्द बोलना फैशन की तरह अपनान लगे हैं। तय बात है कि वह कोई अपने से ताकतवर या समकक्ष व्यक्ति के प्रति ऐसा अपराध करने का साहस नहीं कर सकते और उनकी अभद्रता का शिकार उनसे छोटे वर्ग और सज्जन प्रकृति के लोग होते हैं। ऐसे लोगों की भी निंदा करने के साथ मनु महाराज के अनुसार दंड की व्यवस्था करना चाहिये।
वैसे यहां इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि अधिकतर देशों में अंगदोष का उल्लेख कर बुलाना या अपशब्दों का प्रयोग करना कानूनी अपराध है। यह अलग बात है कि पीड़ित लोग झमेले में फंसने की बजाय खामोश रहना पसंद करते हैं पर उनके मन की पीड़ा से निकली हाय अपराधी को कभी न कभी लगती ही है।
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Saturday, July 25, 2009

संत कबीर के दोहे-नमक वाली खिचड़ी उदर के लिए सुपाच्य (sant kabir ke dohe-khichdi khana chahiye)

खुश खाना है खीचड़ी, माहिं पड़ा टुक लौन
मांस पराया खाय के, गला कटावै कौन

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि उदर के लिये सबसे अच्छा भोजन खिचड़ी है जिसमें थोड़ा नमक डाला गया है। दूसरे जीव का मांस खाकर अपना गला कौन कटाये?

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आदमी भोजन करने के विषय में केवल अपने जीभ के स्वाद का विचार करता है जबकि उस समय उसे केवल उसी वस्तु का भक्षण करने का प्रयास करना चाहिये जो पेट के लिये सुपाच्य हो। जब किसी का पेट खराब होता है तो चिकित्सक उसे आज भी खिचड़ी खाने की सलाह देते हैं। हमारे यहां तो अनेक लोग आज भी नियमित रूप से खिचड़ी का सेवन करते हैं। यहां बात केवल खिचड़ी की नहीं है बल्कि खाने में सादा भोजन लेने से भी है। तेज मसाले से बनी बाजार की चीजों का सेवन करने से जीभ को स्वाद तो बहुत मिलता है पर वह पेट के लिये हानिकारक होती हैं। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी मानता है कि पेट की खराबी से ही अधिकतर बीमारियां होती हैंं। ऐसे में भोजन और पेय पदार्थों में वही वस्तुऐं ग्रहण करना चाहिये जो पेट के पाचन तंत्र पर दुष्प्रभाव न डालती हों।

कुछ चिकित्सा विज्ञानी मानते हैं कि किसी भी प्रकार का मांस मनुष्य शरीर के लिये हितकारक नहीं हैंं। मांस में किसी प्रकार की शक्ति होती है यह भी केवल भ्रम हैं। कहा जाता है जैसा आदमी खाता है वैसे ही उसके विचार होते हैं। इसलिये अपने विचार शुद्ध बने रहे और तो मन में कभी निराशा या दुःख के भाव नहीं आते। यह विचार करते अपने भोजन में सात्विक वस्तुऐं ही ग्रहण कराना चाहिये जिसमें मौसमी फल भी शामिल होते हैं।
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Friday, July 24, 2009

संत कबीर के दोहे-राम नाम का महत्व समझना जरूरी (kabir ke dohe--ram nam ka mahatva)

राम नाम जाना नहीं, जपा न अजपा जाप
स्वामिपना माथे पड़ा, कोइ पुरबले पाप

संत कबीरदास जी कहते हैं कि राम नाम को महत्व जाने बिना उसे जपना तो न जपने जैसा ही है क्योंकि जब तक मस्तिष्क पर देहाभिमान की छाया है तब तक अपने पापों से छुटकारा नहीं मिल सकता।
कबीर व्यास कथा कहैं, भीतर भेदे नाहिं
औरों कूं परमोधतां, गये मुहर का माहिं

कबीरदास जी का यह आशय है कि सभी को वेदव्यास रचित ग्रथों का ाान देने वाले स्वयं ही आत्मा और परमात्मा का भेद नहीं जानते इसलिये उनकी बातों का प्रभाव श्रोताओं पर नहीं होता। वह दूसरों को उपदेश तो बहुत देते हैं परंतु स्वयं धन एकत्रित कर पतन की गर्त में गिर जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-राम का नाम जपने वाले ढेर सारे हैं पर वह केवल दिखावा करते हैं। राम के नाम का महत्व समझे बिना उसे जपना न जपने के ही बराबर है। भगवान श्रीराम के चरित्र को मन में धारण कर उन पर निरंतर मनन और चिंतन करने से राम के नाम का महत्व समझा जा सकता है। नित्य एकाग्रचित होकर उनका जाप किया जाये तो स्वयं ही मन के विकास दूर होने लगते हैं। यदि राम का नाम वाणी से जपते रहें और मन में माया के विचारों का चक्र घूमता रहे तो इसका आशय यह है कि राम का नाम धारण नहीं किया गया। कई लोग ऐसे हैं जो केवल राम का नाम दिखावे के लिये जगते हैं । आखें बंद कर राम का नाम जपते हुए एक आंख खोलकर देखते हैं कि उनके आसपास क्या हो रहा है? ऐसे लोग दूसरों को नहीं बल्कि अपने आपको धोखा देते हैं।

वेद व्यास रचित महाग्रंथों की कथायें कहने वाले अनेक लोग हैं जो लोगों के बीच जाकर कथित रूप से धर्म प्रचार करते हैं पर यह उनका धार्मिक अभियान नहीं बल्कि व्यवसाय होता है। आत्मा और परमात्मा के भेद को वह बयान जरूर करते हैं पर एक तोते की तरह, जबकि तत्व ज्ञान को वह धारण नहीं किये होते। कहने को किसी ने अपनी पीठ बना ली है पर वह अपने और परिवार के लिये संपत्ति बनाने के अलावा उनका कोई उद्देश्य नहीं होता। ऐसे लोगों को सुनना तो चाहिये पर उनका सुनकर स्वयं अपना ध्यान और मनन कर ज्ञान को धारण करें तो ठीक रहेगा। उनको गुरु न मानकर अपने स्वाध्याय को अपना गुरु बनायें।

कोई ढोंगी हो या पाखंडी यह तो समझ में आ जाता है पर उन पर अधिक विचार न कर हमें अपना ध्यान अपने इष्ट के स्मरण और ध्यान पर लगाना चाहिये। आत्मिक शांति के लिये भक्ति मन में होना आवश्यक है और उसका दिखावा करने का भाव जब हमारे अंदर आता है तो समझ लें कि हमारे किये कराये पर पानी फिर रहा है। यह एकांत साधना है और इस पर किसी से अधिक चर्चा करना ठीक नहीं है। अंदर अपने इष्ट का ध्यान कर जो आनंद प्राप्त होता है उसकी तो बस अनुभूति ही की जा सकती है।

आज रामनवमी के अवसर पर समस्थ पाठकों, ब्लाग लेखक मित्रों और सहृदय धार्मिक सज्जनों को बधाई। यह पर्व समस्त समाज के जीवन में खुशियां बिखेरे ऐसी कामना सभी को करना चाहिये।

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Thursday, July 23, 2009

मनु स्मृति-दान कर उपभोग करना उचित

यानाश्य्यासनान्यस्य, कूपोद्यान ग्रह्यणि च।
अदत्तान्युपयु´्जानः एनसः स्वात्तुरीभाक्।।
हिंदी में भावार्थ-
वाहन, शैय्या, आसन, कुआं, उद्यान और भवन आदि का उपभोग कुछ दान कर ही करना लाभदायक होता है।

परकीयनियानुषु न स्नायाद्धि कदाचन।
नियानकत्र्तुः स्नात्वा तु दुष्कृतांशेन लिप्यते।।
हिंदी में भावार्थ-
अन्य व्यक्तियों द्वारा बनवाये गये स्नान के लिये बनाये गये स्थानों-स्नानगृहों,सरोवरों और कुऐं आदि-पर नहाना नहीं चाहिए। वह स्नानगृह अगर पापों के धन से बनाये गये हैं तो उसमें नहाने वाला भी उसका भागी बनता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल की व्यस्त एवं दीर्घसूत्रीय जिंदगी में यह देखना कठिन काम है कि हम कहीं बाहर जाकर रुक रहे हैं तो वहां का स्थान किस प्रकार के धन से बनाया गया है। वैसे भी आजकल बिना काले धन के यह कैसे संभव है कि समाज का भौतिक विकास इतनी तीव्र गति से हो। ऐसे में भ्रष्ट और अनैतिक रूप से कमाये गये धन से बने आवास और स्नानगृहों में रहने और नहाने का प्रतिबंध स्वीकार करना संभव नहीं लगता। बड़े बड़े शहरों में बड़े और आलीशान होटल बन गये हैं जिनमें स्वीमिंग पूल भी होते हैं। अब यह कैसे कहा जा सकता है कि वह भ्रष्ट या अनैतिक धन से बने हैं या सात्विक धन से। वैसे तो आजकल धर्नाजन के कई ऐसे óात पवित्र माने जाते हैं जिनको पहले अपवित्र माना जाता था। अतः इस बारे में अपने विवेक से विचार करना चाहिये।

मगर सच तो यह है कि जिस प्रकार हम अपने जीवन में जिस प्रकार के व्यक्ति या वस्तु के संपर्क में आते हैं उसके पाप पुण्य का प्रभाव हम पर होता है। कहा जाता है कि ‘जैसे खायें अन्न वैसा हो मन’। इसका आशय यह तो है ही कि जिस प्रकार की वस्तु का हम उपभोग करेंगे वैसे ही प्रभाव हमारी देह के साथ ही हमारे मन और विचारों पर होगा। साथ ही यह भी कि उसके आने का सात्विक मार्ग है या असात्विक इस बात का प्रभाव भी उसके उपभोग करने वाले पर होता है। तात्पर्य यह है कि अगर हमें लगता है कि कोई व्यक्ति या वस्तु-जिसके बारे में यह यकीन हो कि वह असात्विक प्रकृत्ति की है तो उससे अपने आपको दूर रखना चाहिये। यह ठीक है कि आजकल की भागम भाग जिंदगी में यह कहना कठिन है कि किसका धन एक नंबर का है या दो नंबर का पर थोड़ा विवेक का इस्तेमाल करें तो सभी समझ में आ जाता है। दूसरा सच यह भी कि हम किसी बड़े शहर में जाकर अपने लिये सस्ता और अच्छा स्थान रहने के लिये ढूंढते हैं पर तब यह देखने का न तो समय होता है न जरूरत कि वह किस प्रकार के धन से बना है। हालांकि अनजान रहने पर किसी वस्तु का उपभोग करने पर उसके पाप का भागी नहीं बनते यह भी हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है।
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Sunday, July 19, 2009

चाणक्य नीति-ज्ञान प्राप्ति में आसक्ति बाधक chankya niti-gyan prapti men askti badhak)

न दुर्जनः साधुदशामुपैति बहुप्रकारैरपि शिक्ष्यमाणः।
आमूलसिक्तः पया घृतेन न निम्बवृक्षो मधुरत्वमेति।।
हिंदी में भावार्थ-
दुर्जन व्यक्ति को कितना भी प्रेम से समझाया जाये पर वह किसी भी हालत में सज्जन भाव को प्राप्त नहीं होता, जैसे नीम का वृक्ष दूध और घी से सींचा जाये पर उसमें मधुरता नहीं आती।

गृहाऽसक्तस्य नो विद्या नो दया मांसभोजिनंः।
द्रव्ययालुब्धस्य नो सत्यं स्त्रेणस्य न पवित्रता।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद चाणक्य महाराज के मतानुसार जिसकी घर में आसक्ति अधिक है उसे कभी विद्या प्राप्त नहीं होती। मांस का सेवन करने वाले में कभी दया नहीं होती। जिसके मन में धन का लोभ है वह कभी सत्य की सहायता नहीं लेता। दुराचारी, व्याभिचारी तथा भोग विलास वाले व्यक्ति से पवित्रता की आशा करना व्यर्थ है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-नीति विशारद चाणक्य महाराज कहते हैं कि जिस व्यक्ति को अपने घर के मामलों में अधिक रुचि है वह कोई अन्य विद्या या ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता।
मांसाहार के विषय में अनेक प्रकार की बहस होती है। अब तो यह पश्चिमी स्वास्थ्य और मनोचिकित्सक भी मानने लगे है कि मांसाहार से व्यक्ति में हिंसा की प्रवृ त्ति आती है। भारतीय अध्यात्मिक संदेश भी यही कहता है कि मनुष्य देह पंचतत्वों से बनी है और उनके गुणों के प्रभाव से ही उसका संचालन होता है। इसका सीधा आशय यह कि जिस तरह का खानपान मनुष्य ग्रहण करेगा उसके गुण दोषों के अनुसार ही उसकी सोच का निर्माण होगा। अगर मनुष्य सात्विक भोजन ग्रहण करेगा तो उसमें स्वाभाविक रूप से दया, प्रेम और अहिंसा के भाव आयेंगे। यदि वह तामसिक पदार्थों का भक्षण और सेवन करेगा तो उसकी मूल प्रवृत्ति में क्रोध, हिंसा और घृणा के भाव स्वयं ही आयेंगे। इस विषय में किसी तर्क वितर्क की गुंजायश नहीं है भले ही कहने वाले कुछ भी कहते रहें। जैसे गुण हम बाहर से अपने अंदर ग्रहण करेंगे वैसे ही बाहर विसर्जन भी होगा।
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Friday, July 17, 2009

विदुर नीति-पेट में जो पचे वही भोजन ग्रहण करना उत्तम (vidur niti-jo bhojan pache vahi khayen)

नीति विशारद विदुर महाराज कहते हैं कि
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भक्ष्योत्तमप्रतिच्छन्नं मत्स्यो वङिशमायसम्।
लोभाभिपाती ग्रसते नानुबन्धमवेक्षते।।
यच्छक्यं ग्रसितुं ग्रस्यं ग्रस्तं परिणमेच्च यत्।
हितं च परिणामे यत् तदाद्यं भतिमिच्छता।।
हिंदी में भावार्थ
-मछली कांटे से लगे चारे को लोभ में पकड़ कर अपने अंदर ले जाती है उस समय वह उसके परिणाम पर विचार नहीं करती। उससे प्रेरणा ग्रहण कर उन्नति चाहने वाले पुरुष को ऐसा ही भोजन ग्रहण करना चाहिये जो खाने योग्य होने के साथ पेट में पचने वाला भी हो। जो भोजन पच सकता है वह ग्रहण करना ही उत्तम है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-हमारे देश में फास्ट फूड संस्कृति का प्रचार निरंतर बढ़ता जा रहा हैं। क्या जवान, क्या अधेड़ और बूढ़े और क्या स्त्री और पुरुष, बाजारों में बिकने वाले फास्ट फूड पदार्थों को खाने में आनंद अनुभव करते हैं। यह पश्चिम से आया फैशन है पर वहीं के स्वास्थ्य विशेषज्ञ उसे पेट के लिये खराब और अस्वास्थ्यकर मानते हैं। इसके अलावा मांस खाना भी पश्चिम के ही विशेषज्ञ गलत मानते हैं।
इन्हीं पश्चिमी स्वास्थ्य विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि मांस खाने से मनुष्य में अनावश्यक आक्रामकता आती है और वह जल्दी ही हिंसा पर उतारु हो जाता है। यह जरूरी नहीं है कि भोजन में विष मिला हो तभी वह बुरा प्रभाव डालता है। विष मिले भोजन को पता तो तत्काल चल जाता है क्योंकि उसकी देह पर तत्काल प्रतिक्रिया होती है पर असात्विक और बीमारी वाले भोजन का पता थोड़े समय बाद चलता है। खाने के बाद भोजन पचने से आशय केवल उसका भौतिक रूप नहीं है बल्कि भावनात्मक रूप से पचने से है। अगर मांस वाला भोजन किया तो लगता है कि वह पच गया पर उसके लिये जिस जीव की हत्या हुई उसकी भावनायें भी उसी मांस में मौजूद होती है और सभी जानते है कि भावनाओं का कोई भौतिक स्वरूप नहीं होता जो किसी को दिखाई दे। अतः मांस खाने वाले के पेट में वह कलुषित भावनायें भी चली जाती हैं जो उस समय उस जीव के अंदर मौजूद थी जब उसे काटा गया। यही हाल ऐसे भोजन का भी है जिसके बहुत से पदार्थ अपच्य है पर वह पेट में धीरे धीरे जमा होकर बड़ी बीमारी का स्वरूप लेते हैं। ऐसा अशुद्ध पेय पदार्थों के सेवन पर भी होता है।
श्रीमदभागवत गीता में ‘गुण ही गुणों के बरतते है’ का जो सिद्धांत बताया गया है उसका यह भी तात्पर्य है कि जैसे अन्न और जल का भोजन हम करते हैं वैसा ही उसका प्रभाव हम पर होता है और हम उससे बच नहीं सकते। अतः प्रयास यही करना चाहिये कि सात्विक भोजन करें ताकि हमारे विचार भी पवित्र रहें जो कि आनंदपूर्ण जीवन के अति आवश्यक हैं।
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Wednesday, July 15, 2009

मनु स्मृति-काम और क्रोध की जननी है लालच

द्वयोरप्येत्योर्मूलं यं सर्वे कवयो विदुः
तं त्यनेन ज्येल्लोभं त्ज्जावेतातुभौ गणौ
हिंदी में भावार्थ- काम तथा क्रोध से ही सारे व्यवसन होते हैं। इनकी जननी लालच है अतः सभी लोगों को अपने मन पर आने वाली लालच की भावना पर नियंत्रण करना चाहिये।

पैशुन्यं साहसं मोहं ईष्र्याऽसूयार्थ दूषणाम्
वाग्दण्डजं च पारुघ्यं क्रोधजोऽपिगणोष्टकः

हिंदी में भावार्थ- क्रोध से आठ प्रकार के दोष उत्पन्न होते हैं-चुगली या निंदा करना, दुस्साहस, नकारात्मक विचार,ईष्र्या,दूसरों में दोष देखना,पराये धन के अपहरण की प्रवृत्ति,अभद्र शब्द बोलना और दुव्र्यवहार करना।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सच बात यह है कि इस विश्व में जितने भी प्रकार के अपराध हैं वह काम और क्रोध से उत्पन्न होते हैं। उनकी जननी लालच है। मनुष्य अपने जीवन में जितना कमाता है उतना व्यय नहीं करता पर धन और संपत्ति संग्रह की लालच उसे कही भी रुकने नहीं देती। अगर यह लालच का भाव मनुष्य में नहीं होता तो शायद कोई अपराध इस संसार में नहीं होता। लोग कहते हैं कि भुखमरी से अपराध बढ़ते हैं पर सामाजिक और अपराध विशेषज्ञ इसे नहीं मानते क्योंकि जो अपराधी पकड़े जाते हैं उनमें से कोई ही शायद भूख की वजह से अपराध करता हो। हम देश में फैले सार्वजनिक, सामाजिक और निजी क्षेत्रों में व्याप्त भ्रष्टाचार को देखें तो उस अपराध में कोई छोटा आदमी नहीं होता। लोगों के अच्छे खासे वेतन मिलते हैं पर वह फिर भी अपने से कमजोर आदमी से पैसा मांगते या उनको ठगते हुए शर्म नहीं अनुभव करते। जिन लोगों पर दया करना चाहिये उनका ही जेब काटने में उनकी रुचि होती हैं। कल्याण कामों के लिये दान या भाग में रूप में दिया उपलब्ध धन या सामान का अपहरण करने वाले भ्रष्टाचारी लोग केवल उससे अपने घर भरते हैं। समाजसेवा एक तरह से व्यापार हो गया है। दान लेने वाले कुपात्र हैं तो देने वाले भ्र्रष्ट।

हम अपने धर्म,संस्कृति और संस्कारों की दुहाई देते नहीं थकते पर लालच की प्रवृत्ति ने आदमी को लालची बना दिया है। इससे वह कामी और क्रोधी हो गया है। सामाजिक और निजी भ्रष्टाचार में आदमी अगर स्वयं लिप्त हो तो उसे नजर नहीं आता और दूसरा हो तो वह उस पर क्रोध करता है।
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Tuesday, July 14, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-सत्यमार्गी कभी गुस्से में नहीं आते (gyani kabhi krodh nahin karte)

चाण्डालः किमयं द्विजातिरथवा शूद्रोऽथ किं तापसः किं वा तत्तविवेकपेशलमतियोंगीश्वरः कोऽपि किम्।
इत्युत्पन्नविकल्पजल्पमुखरैराभाष्यमाणा जनैनं क्रुद्धाः पथि नैव तुष्टमनसो यांन्ति स्वयं योगिनः।।
हिन्दी में भावार्थ-
महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि कोई चाण्डाल है अथवा ब्राह्मण, शूद्र है अथवा तपस्वी या फिर सत्य ज्ञान धारण करने वाला कोई योगी? जिन लोगों ने तत्वज्ञान प्राप्त कर लिया है वह सत्य के मार्ग पर चलते हुए किसी के द्वारा विद्वान कहने पर न तो प्रसन्न होते हैं न मूर्ख या दुष्ट कहने पर क्रोध में आते हैं।
वहति भुवन श्रेणिं शेषंः फणाफलक स्थितां कमठपतिना मध्ये पृष्ठं सदा स च धार्यते।
तमपि कुरुते क्रोडाधीनं पयोधिरनादरादहह! महतां निःसीमानश्चरित्रविभूतयः।।
हिंदी में भावार्थ-
महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि भगवान शेष जी ने इस विशाल पृथ्वी को अपने सिर पर धारण कर रखा है तो उनको भी कच्छप जी ने अपनी पीठ पर धारण किया हुआ है। उन्हीं कच्छप जी को भी समुद्र ने अपनी गोद में स्थान दिया है। यही महापुरुषों का महिमागान करने योग्य चरित्र है।
वर्तमान संदर्भ में संपाकदीय व्याख्या-अपने कर्म करने के पश्चात् उस पर अहंकार न दिखाना ज्ञानी पुरुषों की पहचान है। इंसान ही नहीं बल्कि हर जीव इस धरती पर आने के बाद कर्म कर ही जीवित रहता है। अंतर यह है कि मनुष्यों में सामान्य प्रवृत्ति वाले जीवन भर केवल अपने लिये कर्म करते हुए इतराते है और कुछ ज्ञानी दूसरे के लिये कर्म कर भी उसका प्रचार नहीं करते।
आजकल तो अहंकार दिखाने वाले सभी जगह मिल जाते हैं। अपने लिये मकान बनाया, कार खरीदा, और बेटे या बेटी को अच्छी नौकरी लगी और उनका विवाह कराया-इसका प्रचार करते हुए लोग एसा अनुभव कराते हैं कि जैसे उन्होंने कोई महत्व्पूर्ण काम कर दिया। जीवन के यह कार्य तो स्वाभाविक रूप से होते हैं पर अज्ञानी लोगों का जनसमूह इनको ही जीवन की उपलब्धि मान लेता है। फिर भी कुछ लोग ऐसे हैं जो पूरे जीवन में अपना काम करते हुए परोपकार भी करते हैं फिर भी प्रचार नहीं करते-ऐसे लोग तो तो तत्वाज्ञनी होते हैं।
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Sunday, July 12, 2009

चाणक्य नीति-दरिद्र का सभा में जाना विषप्रद (daridra ka sabha men jana vishprad-chankya niti)

यह ब्लाग/पत्रिका विश्व में आठवीं वरीयता प्राप्त ब्लाग पत्रिका ‘अनंत शब्दयोग’ का सहयोगी ब्लाग/पत्रिका है। ‘अनंत शब्दयोग’ को यह वरीयता 12 जुलाई 2009 को प्राप्त हुई थी। किसी हिंदी ब्लाग को इतनी गौरवपूर्ण उपलब्धि पहली बार मिली थी।
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नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि
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अनभ्यासे विषं शास्त्रमजीर्णे भोजनं विषम्।
दरिद्रस्य विषं गोष्ठी वृद्धस्य तरुणी विषम्।।

हिंदी में भावार्थ-अगर शास्त्र का निंरतर अभ्यास न करना, पेट खराब होने पर भोजन करना, दरिद्र व्यक्ति के लिये सभा में जाना और वृद्ध पुरुष के लिये युवा स्त्री विष की तरह होती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में हर व्यक्ति किसी किसी प्रकार की पुस्तकों से शिक्षा प्राप्त करता है। शिक्षा प्राप्त करने का उसका उद्देश्य ज्ञान और रोजगार प्राप्त करना-दोनों ही या दोनों में से कोई एक-हो सकता है। ऐसे में उसे अपनी पुस्तकों या शास्त्रों का नियमित अभ्यास करते रहना चाहिये। अगर वह ऐसा नहीं करता तो उसके लिये अलाभकर स्थिति हो जाती है। एक तो वह पूर्ण रूप से अपने विषय या ज्ञान में पारंगत नहीं हो पाता जिसकी वजह से उसे सफलता नहीं मिलती और मन अशांत रहता है दूसरा यह कि उसे पहले पढ़े हुए विषय दिमाग में घूमते रहते हैं और कुछ नया सोच ही नहीं सकता। इस तरह उसके जीवन के विकास का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। वैसे आजकल इंसान के लिये स्वतंत्र रूप से अपने व्यवसाय करना कठिन हो गया है। इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद अगर आदमी को उससे संबंधित रोजगार न मिले तो उसका अभ्यास नहीं रह जाता। आजकल रोजगार की जो स्थिति है उससे तकनीकी, विज्ञान, वाणिज्य तथा साहित्य विषयों में उपाधियां प्राप्त करने वाले सभी लोगों को उससे संबंधित काम नहीं मिल पाता और अनेक लोगों को जीवन यापन के लिये जब उसे कोई अन्य नौकरी या व्यवसाय करना पड़ता है पर अपनी पूर्व शिक्षा के कारण उनको बहुत मानसिक कष्ट होता है। तब उन्हें अपना जीवन ही विषैला लगता है।
उसी तरह अगर कोई ज्ञान जीवन के लिये प्राप्त किया है तो उसका निंरतर अभ्यास करना चाहिये ताकि वह याद रहे और समय आने पर उस ज्ञान से हम अपनी रक्षा कर सकें।
यही स्थिति भोजन की है। जब हमारा पेट खराब हो तब भोजन नहीं करना चाहिये। ऐसे में अगर जबरन भोजन किया तो अपना स्वास्थ्य अधिक बिगड़ जाता है। वैसे भी कहते हैं कि भूख से कम, खाने से लोग अधिक बीमार पड़ते हैं। शरीर की बीमारियों का मुख्य कारण पेट का खराब होना ही है।
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Saturday, July 11, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-सिंह का वार कभी खाली नहीं जाता (shatru par singh ki tarah var karen-kautilya ka arthshastra)

मतप्रमतवत् स्थित्वा ग्रसदुत्पलुत्य पण्डितः।
अपरिभश्यमानं हि क्रमप्राप्ते मृगेन्द्रवत्।।
हिंदी में भावार्थ-
बुद्धिमान व्यक्ति को मत्त और प्रमत्त के समान दिखावे में स्थित होकर शत्रु पर ऐसे ही प्रहार करते हैं जैसे सिंह करता है। उसका वार कभी खाली नहीं जाता।
कौमे संकोचभास्य प्रहारमपि मर्धयेत्।
काले प्रापते तु मतिमानुत्तिश्ठेत्क्रूरसर्पवत्।।
हिंदी में भावार्थ-
अपने समय के अनुसार जीवन में रणनीति बनाते हुए कछुए के समान अंग समेटकर शत्रु का प्रहार भी सहन करें तो और उचित अवसर देखकर सांप के समान प्रहार भी करें।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में कई बार ऐसा अवसर आता है जब हमें दूसरे के शब्दिक और शारीरिक आक्रमण को झेलना पड़ता है। उस समय हमें अपनी स्थितियों और शक्ति का अवलोकन करते हुए इस बात को भी देखना चाहिये कि हमारे सहयोगी कौन है? अगर समय हमारे अनुकूल न हो तो अपनी सहनशक्ति को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि उस समय क्रोध या निराशा में उठाया गया कदम आत्मघाती होता है।
इसके विपरीत जब हमारा समय अनुकूल हो और लगता हो कि हमारे मित्र और सहयोगी साथ देने के लिये तैयार हैं और शत्रु या विरोधी को दबाया जा सकता है तब उस पर शाब्दिक या शारीरिक आक्रमण किया जा सकता है। वैसे आजकल के सभ्य युग में शारीरिक कम शाब्दिक संघर्ष अधिक होते हैं। चाहे किस प्रकार का भी आक्रमण हो उसकी तैयारी विवेक से करना चाहिये। कहीं कहीं हम पर शाब्दिक आक्रमण भी होता है और अगर लगता है कि वहंा प्रत्युत्तर देने का उचित समय नहीं है तो मौन रहना ही बेहतर है परंतु यदि लगता है कि उससे सामने वाले को अनावश्यक लाभ मिल रहा है तो स्थिति देखकर उस पर पलटवार करना बुरा नहीं है।
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Friday, July 10, 2009

चाणक्य नीति-अपने अच्छे बुरे काम के लिए आदमी ख़ुद ही जिम्मेदार (apne kam ke liye aadmi khud jimmedar-chankya niti

जन्ममृत्यु हि यात्येको भुनक्त्येकः शुभाऽशुभम्।
नरकेषु पतत्येक एको याति परां गतिम्।।

हिंदी में भावार्थ-मनुष्य अकेला ही जन्म लेकर मुत्यु को प्राप्त होता है। अपने हाथ से ही अकेले शुभ अशुभ कर्म करता है और अपने पाप पुण्य का फल अकेले ही भोगता और मोक्ष प्राप्त करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-जन्म के साथ ही मनुष्य के अनेक प्रकार के संबंध स्थापित होते हैं और मृत्यु के साथ ही बिखर जाते हैं। मनुष्य जन्म से स्थापित इन्हीं संबंधों को सत्य मानकर उनके इर्दगिर्द घूमते हुए परमात्मा की भक्ति से जीवन भर विरक्त रहता है। वह अपने लिये जीवन का सुख केवल इन्हीं संबंधों में ढूंढता है जो कभी नहीं मिलता। कहीं दायित्व तो कहीं अधिकार के नाम पर मनुष्य जीवन भर इन संबंधों में लिप्त रहता है पर उसे मिलता कुछ नहीं है कभी तो उसके लिये यह संबंध तनाव का कारण भी बनते हैं।
अपने परिवार के आहार विहार के लिये मनुष्य हर तरह के कर्म करता है। कहीं शिष्टाचार तो कहीं भ्रष्टाचार करने के लिये तत्पर मनुष्य यह नहीं जानता कि उसके फल और कुफल के लिये वह स्वयं जिम्मेदार होगा। महर्षि बाल्मीकि का चरित्र सभी जानते हैं। वह एक दस्यु के रूप में अपने परिवार वालों के लिये कमाई करते थे। एक बार जब उन्होंने कुछ साधुओं को पकड़ लिया और उन्होंने उनसे कहा कि ‘अपने परिवार के सदस्यों से पहले पूछकर आओ कि क्या तुम्हारे कुफल में वह भागीदार बनेंगे।
महर्षि बाल्मीकि ने जब अपने परिवार के सदस्यों से उक्त प्रश्न किया तो सभी ने उनको ‘ना’ में उत्तर दिया। वहां से उनको ऐसा ज्ञान प्राप्त हुआ कि उन्होंने रामायण जैसा महाग्रंथ रच डाला और उनका नाम आज भी जाना जाता है। यह कथा इस बात का प्रमाण है कि मनुष्य अपने कर्म के लिये स्वयं ही जिम्मेदार होता है।
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Tuesday, July 07, 2009

चाणक्य नीति-पराया धन मिट्टी समझें (chankya niti)

यो मोहन्मन्यते मूढो रक्तेयं मयि कामिनी।
स तस्य वशगो मूढो भूत्वा नृत्येत् क्रीडा-शकुन्तवत्।।

हिंदी में भावार्थ-नीति विशारद चाणक्य के अनुसार कुछ पुरुषों में विवेक नहीं होता और वह सुंदर स्त्री से व्यवहार करते हुए यह भ्रम पाल लेते हैं कि वह वह उस पर मोहित है। वह भ्रमित पुरुष फिर उस स्त्री के लिये ऐसे ही हो जाता है जैसे कि मनोरंजन के लिये पाला गया पक्षी।
मातृवत् परदारांश्चय परद्रव्याणि लोष्ठवत्।
आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति स नरः।।

हिंदी में भावार्थ-दूसरों की पत्नी को माता तथा धन को मिट्टी के ढेले की भांति समझना चाहिये। इस संसार में वह यथार्थ रूप से मनुष्य है जो सारे प्राणियों को अपनी आत्मा की भांति देखने वाला मानता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर व्यक्ति को अपने अंदर विवेक धारण करना चाहिये। कुछ लोग स्त्रियों के विषय में अत्यंत भ्रमित होते हैं। उनको लगता है कि कोई स्त्री उनसे अच्छी तरह बात कर रही है तो इसका आशय यह है कि वह उन पर मोहित है-यह उनका केवल एक भ्रम है। स्त्रियों का स्वभाव तथा वाणी कोमल होती है और इसी कारण वह हमेशा मृदभाषा से पुरुषों का मन मोह लेती हैं पर कुछ अज्ञानी और अविवेकी पुरुष यह भ्रम पाल कर अपने आपको ही कष्ट देते हैं कि वह उनके प्रति आकर्षित है।
नीति विशारद चाणक्य ऐसे व्यक्तियों की तरफ संकेत करते हुए कहते हैं कि दूसरे की स्त्री को माता के समान समझना चाहिये। उसी तरह दूसरे के धन को मिट्टी का ढेला समझना चाहिये। वह यह भी कहते हैं कि इस संसार में वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो सभी लोगों को देह नहीं बल्कि इस संसार में दृष्टा की तरह उपस्थित आत्मा ही मानता है।
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Monday, July 06, 2009

मनुस्मृति-ज्ञान के बिना मन को वश में करना संभव नहीं ( manu smruti )

वशे कृत्वेन्दिियग्रामं संयम्य च मनस्तथा।
सर्वान्संसाधयेर्थानिक्षण्वन् योगतस्तनुम्।।

हिंदी में भावार्थ-मनुष्य के लिये यही श्रेयस्कर है कि वह अपने मन और इंद्रियों पर नियंत्रण रखे जिससे धर्म,अर्थ,काम तथा मोक्ष चारों प्रकार का लक्ष्य प्राप्त किया जा सके।

न तथैंतानि शक्यन्ते सन्नियंतुमसेवया।
विषयेषु प्रजुष्टानि यथा ज्ञानेन नित्यशः

हिन्दी में भावार्थ-जब तक इंद्रियों और विषयों के बारे में जानकारी नहीं है तब तब उन पर निंयत्रण नहीं किया जा सका। इंद्रियों पर नियंत्रण करना कोई आसान काम नहीं है। इसके लिये यह आवश्यक है कि विषयों की हानियों और दोषों पर विचार किया जाये
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इंद्रियों पर नियंत्रण और विषयों से परे रहने का संदेश देना आसान है पर स्वयं उस पर नियंत्रण करना कोई आसान काम नहीं है। आप चाहें तो पूरे देश में ऐसे धार्मिक मठाधीशों को देख सकते हैं जो श्रीगीता का ज्ञान देते हुए निष्काम भाव से कर्म करने का संदेश देते हैं पर वही अपने प्रवचन कार्यक्रमों के लिये धार्मिक लोगों से सौदेबाजी करते हैं। लोगों को सादगी का उपदेश देने वाले ऐसे धर्म विशेषज्ञ अपने फाइव स्टार आश्रमों से बाहर निकलते हैं तो वहां भी ऐसी ही सुविधायें मांगते हैं। देह को नष्ट और आत्मा को अमर बताने वाले ऐसे लोग स्वयं ही नहीं जानते कि इंद्रियों पर नियंत्रण करते हुए विषयों से परे कैसे रहा जाता है। उनके लिये धार्मिक संदेश नारों की तरह होते हैं जिसे वह लगाये जाते हैं।
दरअसल ऐसे लोगों से शास्त्रों से अपने स्वार्थ के अनुसार संदेश रट लिये हैं पर वह इंद्रियों और विषयों के मूलतत्वों को नहीं जानते। इंद्रियों पर नियंत्रण तभी किया जा सकता है जब विषयों से परे रहा जाये। यह तभी संभव है जब उसके दोषों को समझा जाये। वरना तो दूसरा कहता जाये और हम सुनते जायें। ढाक के तीन पात। सत्संग सुनने के बाद घूम फिरकर इस साँसससिक दुनियां में आकर फिर अज्ञानी होकर जीवन व्यतीत करें तो उससे क्या लाभ?
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Sunday, July 05, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-तत्वज्ञानी गुस्से में नहीं आते

वहति भुवन श्रेणिं शेषंः फणाफलक स्थितां कमठपतिना मध्ये पृष्ठं सदा स च धार्यते।
तमपि कुरुते क्रोडाधीनं पयोधिरनादरादहह! महतां निःसीमानश्चरित्रविभूतयः।।
हिंदी में भावार्थ-
महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि भगवान शेष जी ने इस विशाल पृथ्वी को अपने सिर पर धारण कर रखा है तो उनको भी कच्छप जी ने अपनी पीठ पर धारण किया हुआ है। उन्हीं कच्छप जी को भी समुद्र ने अपनी गोद में स्थान दिया है। यही महापुरुषों का महिमागान करने योग्य चरित्र है।

चाण्डालः किमयं द्विजातिरथवा शूद्रोऽथ किं तापसः किं वा तत्तविवेकपेशलमतियोंगीश्वरः कोऽपि किम्।
इत्युत्पन्नविकल्पजल्पमुखरैराभाष्यमाणा जनैनं क्रुद्धाः पथि नैव तुष्टमनसो यांन्ति स्वयं योगिनः।।
हिन्दी में भावार्थ-
महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि कोई चाण्डाल है अथवा ब्राह्मण, शूद्र है अथवा तपस्वी या फिर सत्य ज्ञान धारण करने वाला कोई योगी? जिन लोगों ने तत्वज्ञान प्राप्त कर लिया है वह सत्य के मार्ग पर चलते हुए किसी के द्वारा विद्वान कहने पर न तो प्रसन्न होते हैं न मूर्ख या दुष्ट कहने पर क्रोध में आते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपाकदीय व्याख्या-अपने कर्म करने के पश्चात् उस पर अहंकार न दिखाना ज्ञानी पुरुषों की पहचान है। इंसान ही नहीं बल्कि हर जीव इस धरती पर आने के बाद कर्म कर ही जीवित रहता है। अंतर यह है कि मनुष्यों में सामान्य प्रवृत्ति वाले जीवन भर केवल अपने लिये कर्म करते हुए इतराते है और कुछ ज्ञानी दूसरे के लिये कर्म कर भी उसका प्रचार नहीं करते।
आजकल तो अहंकार दिखाने वाले सभी जगह मिल जाते हैं। अपने लिये मकान बनाया, कार खरीदा, और बेटे या बेटी को अच्छी नौकरी लगी और उनका विवाह कराया-इसका प्रचार करते हुए लोग एसा अनुभव कराते हैं कि जैसे उन्होंने कोई महत्व्पूर्ण काम कर दिया। जीवन के यह कार्य तो स्वाभाविक रूप से होते हैं पर अज्ञानी लोगों का जनसमूह इनको ही जीवन की उपलब्धि मान लेता है। फिर भी कुछ लोग ऐसे हैं जो पूरे जीवन में अपना काम करते हुए परोपकार भी करते हैं फिर भी प्रचार नहीं करते-ऐसे लोग तो तो तत्वाज्ञनी होते हैं।
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Saturday, July 04, 2009

चाणक्य नीति-अच्छा काम कर आदमी मुहूर्त भर भी जिए तो ठीक (chankya niti)

गते शोको न कत्र्तव्यो भविष्यं नैव चिन्तयेत्।
वर्तमानेन कालेन प्रवर्तन्ते विचक्षणाः।।
हिंदी में भावार्थ-
भूतकाल में किये गये कार्य का शोक नहीं करते हुए भविष्य की चिंता करना चाहिये। विद्वान लोग वर्तमान के अनुसार अपने कार्य को योजनाबद्ध ढंग से करते हुए भविष्य संवारते हैं।

मुहूर्तमपि जीवेच्च नरः शुक्लेन कर्मणा।
न कल्पमपि कष्टेन लोक़द्वयविरोधिना।।
हिदी में भावार्थ-
अगर अच्छे काम करते हुए मनुष्य एक मुहूर्त भी जीवित रहे तो वह उत्तम है पर दूसरे के संकट खड़ा करने के साथ अनावश्यक विरोध करने वाला लंबे समय तक जीवित रहे तो भी अच्छा नहीं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्यों में कुछ देवत्व और राक्षसत्व दोनों भाव रहते हैं। मुख्य बात यह है कि मनुष्य चलना किस राह चाहते हैं और इसी आधार पर उनके द्वारा व्यवहार किया जाता है। जिन लोगों के मस्तिष्क में लोभ, लालच और अहंकार की प्रवृत्ति की प्रधानता है वह सिवाय अपने स्वार्थ की पूर्ति के अलावा कुछ अन्य नहीं देखते। धीरे धीरे वह इतने आत्मकेंद्रित हो जाते हैं कि वह किसी दूसरे का काम बनता देख उनके हृदय ईष्र्या और द्वेष के भाव पैदा होने लगते हैं। इतना ही नहीं किसी दूसरे का काम बिगाड़ने में भी उनको मजा आता है। ऐसे लोगों की जिंदगी पशु के समान हो जाती है और वह समाज के लिये कष्टदायी होते हैं। इसके विपरीत कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो पाखंड से परे होकर शांति से परोपकार का कार्य करते हुए प्रचार से दूर रहते हैं। ऐसे लोगों को पूरा समाज आदर भी करता है।
जो बीत गया सो बीत गया। अपने हाथ से कोई अच्छा काम हुआ हो या कोई गलती हो गयी हो तो उसकी चिंता को छोड़ते हुए भविष्य की योजना बनाना चाहिए। अपने वर्तमान में ही ऐसे कार्य करने की सोचना चाहिये जिससे भूतकाल की गल्तियां स्वतः सुधरने के साथ ही भविष्य में भी लाभ होता है।
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Friday, July 03, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-गिरने का भय और गिरा देता है

प्रमाणश्चधिकश्यापि महत्सत्वमधष्ठितः।
पदं स दत्ते शिरसि करिणः केसरी यथा।।
हिंदी में भावार्थ-
प्रमाणित योग्यता से अधिक पद की इच्छा करने वाला व्यक्ति भी उस महापद पर विराजमान हो जाता है उसी प्रकार जैसे सिंह हाथी पर अधिष्ठित हो जाता है।
उच्चेरुच्चस्तरामिच्छन्पदन्यायच्छतै महान्।
नवैनींचैस्तरां याति निपातभयशशकया।।
हिंदी में भावार्थ-
जीवन में ऊंचाई प्राप्त करने वाला व्यक्ति महान पद् पर तो विराजमान हो जाता है पर उससे नीचे गिरने की भय और आशंका से वह नैतिक आधार पर नीचे से नीचे गिरता जाता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समाज के सभी क्षेत्रों में शिखर पर विराजमान पुरुषों से सामान्य पुरुष बहुत सारी अपेक्षायें करते हैं। वह उनसे अपेक्षा करते हैं कि आपात स्थिति में उनकी सहायता करें। ज्ञानी लोग ऐसी अपेक्षा नहीं करते क्योंकि वह जानते हैं कि शिखर पर आजकल कथित बड़े लोग कोई सत्य या योग्यता की सहायता से नहीं पहुंचते वरन कुछ तो तिकड़म से पहुंचते हैं तो कुछ धन शक्ति का उपयोग करते हुए। ऐसे लोग स्वयं ही इस चिंता से दीन अवस्था में रहते हैं कि पता नहीं कब उनको उस शिखर से नीचे ढकेल दिया जाये। चूंकि उच्च पद पर होते हैं इसलिये समाज कल्याण का ढकोसला करना उनको जरूरी लगता है पर वह इस बात का ध्यान रखते हैं कि उससे समाज का कोई अन्य व्यक्ति ज्ञानी या शक्तिशाली न हो जाये जिससे वह शिखर पर आकर उनको चुनौती दे सके। उच्च पद या शिखर पर बैठे लोग डरे रहते हैं और डर हमेशा क्रूरता को जन्म देता है। यही क्रूरता ऐसे शिखर पुरुषों को निम्न कोटि का बना देती है अतः उनमें दया या परोपकार का भाव ढूंढने का प्रयास नहीं करना चाहिए।
यही हाल उन लोगों का भी है जिनको योग्यता से अधिक सम्मान या पद मिल जाता है। मायावी चक्र में सम्मान और पद के भूखे लोगों से ज्ञानी होने की आशा करना व्यर्थ है। उनको तो बस यही दिखाना है कि वह जिस पद पर हैं वह अपनी योग्यता के दम पर हैं और इसलिये वह बंदरों वाली हरकतें करते हैं। अपनी अयोग्यता और अक्षमता उनको बहुत सताती है इसलिये वह बाहर कभी मूर्खतापूर्ण तो कभी क्रूरता पूर्ण हरकतें कर समाज को यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि वह योग्य व्यक्ति हैं। ऐसे लोगों की योग्यता को अगर कोई चुनौती दे तो वह उसे अपने पद की शक्ति दिखाने लगते हैं। अपनी योग्यता से अधिक उपलब्धि पाने वाले ऐसे लोग समाज के विद्वानों, ज्ञानियों और सज्जन पुरुषों को त्रास देकर शक्ति का प्रदर्शन करते हैं। वह अपने मन में अपनी अयोग्यता और अक्षमता से उपजी कुंठा इसी तरह बाहर निकालते हैं। अतः जितना हो सके ऐसे लोगों से दूर रहा जाये। कहा भी जाता है कि घोड़े के पीछे और राजा के आगे नहीं चलना चाहिये।
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Thursday, July 02, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-हर हाल में ॐ नमो शिवाय: मंत्र का जाप करें

भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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अहौ वा हारे बलवति रिपौ वा सुहृदि वा
मणौ वा लोष्ठे वा कुसुमशयने वा दृषदि वा।
तृणे वा स्त्रैणे वा मम समदृशो यान्ति दिवसः
क्वचित् पुण्यारण्ये शिव-शिव शिवेति प्रलपतः।।


हिंदी में भावार्थ-सांप का हो या फूलों का हार, क्रूर शत्रु हो या सहृदय मित्र, कीमती हीरा हो या मिट्टी का ढेला, फूलों की सेज हो या पत्थर का बिस्तर, कांटों में रहना हो या स्त्रियों के मध्य अपना तो यही विचार है कि समदर्शी भाव से किसी पवित्र स्थान रहकर शिव के मंत्र का जाप करते हुए जीवन व्यतीत करें।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में शिव को सत्य का प्रतीक माना जाता है। अनेक सच्चे संत और साधु इसलिये ही लोगों को शिव का मंत्र जाप करने का संदेश देते हैं। इस संसार में स्थितियां बदलती रहती हैं। कभी सोने के लिये अच्छा बिस्तर मिलता है तो कभी पत्थर पर ही सोना पड़ता है। कभी हीरा मिलता है तो कभी पत्थर का टुकड़ा हाथ में आता है। हमारे अंदर कामनाओं का भाव रहता है जो कभी निराशा मेें तो कभी प्रसन्नता में स्थित करता है। दोनों ही दुःखकारक हैं। निराशा तो है ही प्रसन्नता के बाद अगर कोई तकलीफ वाली बात सामने आती है तो मन में तनाव भी अधिक होता है।

इसलिये हमारे प्राचीन काल के ऋषि और मुनि जीवन में समदर्शी और निष्काम भाव से रहने का संदेश देते हैं। इसके लिये ‘ओम नमो शिवायः’ मंत्र का जाप किया जाये तो बहुत अच्छा है। इससे मन और विचारों से मुक्ति मिलती है और अध्यात्मिक भाव स्वतः ही पैदा होता है। राजा भर्तृहरि की तरह ही अनेक अध्यात्मिक मनीषियों ने मनुष्यों को समदर्शी और निष्काम भाव से जीवन में कार्य करने का संदेश इसलिये ही दिया क्योंकि जहां आसक्ति है वहीं विरक्ति भी है। मगर आसक्ति आसानी से पीछा नहीं छोड़ती और विरक्ति को हम चाहते नहीं है। यह द्वंद्व जीवन में अशांति फैलाता है। इससे बचने का उपाय है कि भगवान शिव की आराधना की जाये। शिव सत्य के प्रतीक हैं और उनके मंत्र का जाप करने से हृदय में आत्मविश्वास की भावना तथा कार्य करने की शक्ति उत्पन्न होती है। कहते हैं भी कि बाबा भोल जिस आसानी से प्रसन्न होते हैं उतना कोई दूसरा देवता नहीं होता।
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Wednesday, July 01, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-मतलबी आदमी को भले बुरे का ज्ञान नहीं रहता

कृमिकुलचितं लालाक्लिन्नं विगन्धिजुगुप्सितम्, निरुपमरसं प्रीत्या खादन्नस्थि निरामिषम्
सुरपतिमपि श्वा पाश्र्वस्थं विलोक्य न शंकते
न हि गणयति क्षुद्रो जन्तुः परिग्रहफल्गुताम्


हिदी में भावार्थ-कीड़ों,लार,दुर्गंध और देखने में गंदी रसहीन हड्डी को कुत्ता बहुत शौक से चबाता है। उस समय इंद्रदेव के अपने आने की परवाह भी नहीं होती। यही हालत स्वार्थी और नीच प्राणी की भी होती है। वह जो वस्तु प्राप्त कर लेता है उसे उपभोग में इतना लीन हो जाता है कि उसे उसकी अच्छाई बुराई का पता भी नहीं चलता।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह संसार स्वार्थ और परमार्थ दो तरह के मार्गों का समागम स्थल है। अधिकतर संख्या स्वार्थियों की है जो अपने देहाभिमान वश केवल अपना और परिवार का भरण भोषण कर यह संसार चला रहे हैं। उनके लिये परिवार और पेट भरना ही संसार का मूल नियम हैं। दूसरी तरफ परमार्थी लोग भी होते हैं जो यह सोचकर दूसरो कें हित में सलंग्न रहते हैं कि इंसान होने के नाते यह उनका कर्तव्य है। वही लोग श्रेष्ठ हैं। सच तो यह है कि हम अपने हित पूर्ण करते हुए अपना पूरा जीवन इस विचार में गुजार देते हैं कि यही भगवान की इच्दा है और परमार्थ करने का विचार नहीं करते। स्वार्थ या प्रतिष्ठा पाने के लिये दूसरे का काम करना कोई परमार्थ नहीं होता। निष्प्रयोजन दया ही वास्तविक पुण्य है। अगर हम सोचते हैं कि सारे लोग अपने स्वार्थ पूरे कर काम कर लें तो संसार स्वतः ही चलता जायेगा तो गलती कर रहे हैं। कई बार हमारे जीवन में ऐसा अवसर आता है जब कोई हमारी निष्प्रयोजन सहायता करता है पर हम अपना कठिन समय बीत जाने पर उसे भूल जाते हैं और जब किसी अन्य को हमारी सहायता की जरूरत होती है तब मूंह फेर जाते हैं। यह श्वान की प्रवृत्ति का परिचायक है। भगवान ने हमें यह मनुष्य यौनि इसलिये दी है कि हम अन्य जीवों की सहायता कर उसकी सार्थकता सिद्ध करें। यह सार्थकता स्वार्थ सिद्धि में नहीं परमार्थ करने में है।
अगर मनुष्य के लिये परमार्थ करना एक धर्म नहीं होता तो फिर ं लोग किसी का परोपकार करने वाली काल्पनिक कथायें क्यों सुनाते? स्पष्टतः मनुष्य का मन अपने आपको बिना परमार्थी साबित किये बिना नहीं मानता। इतना ही नहीं अगर किसी से स्वार्थी कहा जाये तो वह उसे गाली की तरह लगता है।
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