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Sunday, May 31, 2009

विदुर नीति:अपराधी की संगत पर भी मिल जाती है सजा

अस्तयागात् पापकृतामापापांस्तुल्यो दण्डः स्पृशते मिश्रभावात्।
शुष्केणार्द दह्याते मिश्रभावात् तस्मात् पापैः सहसंधि न कुर्यात्।।
हिंदी में भावार्थ-
दुर्जन व्यक्ति का साथ न छोडने पर निरपराध सज्जन को भी उनके सम्मान ही दण्ड प्राप्त होता है। जैसे सूखी लकड़े के साथ मिल जाने पर गीली भी जल जाती है। इसलिये दुष्ट लोगों की संगत से बचना चाहिये।

दृश्यनते हि महात्मानो वध्यमानाः स्वकर्मभिः।
इद्रियाणामनीशत्वाद राजानो राज्यविभ्रमैः।।
हिंदी में भावार्थ-
बड़े बड़े राजा और साधु भी इंद्रियों के वश होकर भोग विलास में डूब जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इंद्रियों पर नियंत्रण करने का उपदेश देना बहुत सरल है पर स्वयं ऐसा कर पाना एक कठिन कार्य है। कहने को भूमि का राजा कितना भी विशाल हृदय और दृढ़ चरित्र का लगता हो पर इंद्रियों का गुलाम तो वह भी होता है। उसी तरह प्रतिदिन अपने भक्तों को निष्काम भाव का संदेश देने वाले साधु भी इंद्रियों के आगे लाचार हो जाते हैं। कहीं सत्संग के लिये पैसे मांगने के लिये सौदेबाजी करते हैं तो कहीं स्वर्ग दिलाने के लिये दान मांगते हैं। इंद्रियों पर राज्य वही कर सकता है जिसके पास तत्व ज्ञान है। केवल यही नहीं वह उसको हमेशा धारण किये रहता है न कि कहीं केवल बधारने के लिये उसका प्रयोग करता है।

कोयले की दलाली में हाथ काले-यह कहावत तो सभी ने सुनी होगी। यही स्थिति पूरे जीवन में ही रहती है। दुष्टों की संगत में रहते हुए अपने सामने संकट आने की आशंका हमेशा रहती है। अतः प्रयास करना चाहिये कि उनकी संगत से दूर रहा जाये। आदमी स्वयं भले ही सचरित्र हो पर अगर वह दुष्टों के साथ रहता है तो उसकी छबि भी उन जैसी बनती है।
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Saturday, May 30, 2009

संत कबीर के दोहे-मन के होते हैं अनेक मत

संत कबीरदास कहते हैं कि
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मन के मते न चालिये, मन के मते अनेक
जो मन पर असवार है,सौ साधु कोय एक

संत कबीरमन के मते न चालिये, मन के मते अनेक
जो मन पर असवार है,सौ साधु कोय एक

मन के अनुसार हमेशा मत चला क्योंकि उसमें हमेशा विचार आते रहते हैं। बहुत कम ऐसे लोग ऐसे हैं जिन पर मन सवारी नहीं करता बल्कि वह उस पर सवारी करते हैं। ऐसे ही लोग साधु कहलाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य की पहचान उसके मन से है जो उसे चलाता है पर यह गलतफहमी उसे होती है कि वह स्वयं चल रहा है। वैसे बिना मन के कोई मनुष्य तो चल ही नहीं सकता पर अंतर इतना है कि कुछ लोग मन पर सवारी करते हैं और कुछ लोगों पर मन सवार हो जाता है। सामान्य मनुष्य के मन में अनेक इच्छायें जाग्रत होती हैं और वह उनके वशीभूत होकर जीवन भर भटकते हैं। एक पूरी होती है तो दूसरी जाग्रत होती है और फिर तीसरी और चौथी। इच्छा पूरी होने पर मनुष्य प्रसन्न होता है और न पूरी होने पर दुःखी । इस तरह वह जीवन भर अज्ञान के अंधेरे में भटकता है। दूसरे वह लोग होते हैं जो अपने अंदर उत्पन्न इच्छाओं को दृष्टा की तरह देखते हैं। ऐसे लोग साधु कहलाते हैं और वह अपने देह के लिये आवश्यक वस्तुओं को जुटाते हुए अपना जीवन व्यतीत करते हैं पर सुविधा और विलास की वस्तुओं के प्रति उत्पन्न मोह को वह अपने अंदर अधिक देर तक टिकने नहीं देते। ऐसा नहीं है कि उनके मन में उन चीजों को पाने की इच्छा नहीं आती पर वह उनको अनावश्यक समझकर उसे अधिक तवज्जो नहीं देते। वह हर वस्तु के पीछे अंधे होकर नहीं भागते।
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Thursday, May 28, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-अवसर देखकर शत्रु पर सिंह की तरह वार करें

मतप्रमतवत् स्थित्वा ग्रसदुत्पलुत्य पण्डितः।
अपरिभश्यमानं हि क्रमप्राप्ते मृगेन्द्रवत्।।
हिंदी में भावार्थ-
बुद्धिमान व्यक्ति को मत्त और प्रमत्त के समान दिखावे में स्थित होकर शत्रु पर ऐसे ही प्रहार करते हैं जैसे सिंह करता है। उसका वार कभी खाली नहीं जाता।
कौमे संकोचभास्य प्रहारमपि मर्धयेत्।
काले प्रापते तु मतिमानुत्तिश्ठेत्क्रूरसर्पवत्।।
हिंदी में भावार्थ-
अपने समय के अनुसार जीवन में रणनीति बनाते हुए कछुए के समान अंग समेटकर शत्रु का प्रहार भी सहन करें तो और उचित अवसर देखकर सांप के समान प्रहार भी करें।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में कई बार ऐसा अवसर आता है जब हमें दूसरे के शब्दिक और शारीरिक आक्रमण को झेलना पड़ता है। उस समय हमें अपनी स्थितियों और शक्ति का अवलोकन करते हुए इस बात को भी देखना चाहिये कि हमारे सहयोगी कौन है? अगर समय हमारे अनुकूल न हो तो अपनी सहनशक्ति को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि उस समय क्रोध या निराशा में उठाया गया कदम आत्मघाती होता है।
इसके विपरीत जब हमारा समय अनुकूल हो और लगता हो कि हमारे मित्र और सहयोगी साथ देने के लिये तैयार हैं और शत्रु या विरोधी को दबाया जा सकता है तब उस पर शाब्दिक या शारीरिक आक्रमण किया जा सकता है। वैसे आजकल के सभ्य युग में शारीरिक कम शाब्दिक संघर्ष अधिक होते हैं। चाहे किस प्रकार का भी आक्रमण हो उसकी तैयारी विवेक से करना चाहिये। कहीं कहीं हम पर शाब्दिक आक्रमण भी होता है और अगर लगता है कि वहंा प्रत्युत्तर देने का उचित समय नहीं है तो मौन रहना ही बेहतर है परंतु यदि लगता है कि उससे सामने वाले को अनावश्यक लाभ मिल रहा है तो स्थिति देखकर उस पर पलटवार करना बुरा नहीं है।
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Tuesday, May 26, 2009

संत कबीर के दोहे-शब्द किसी का मुख नहीं ताकते

शब्द न करैं मुलाहिजा, शब्द फिरै चहुं धार।
आपा पर जब चींहिया, तब गुरु सिष व्यवहार।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि शब्द किसी का मूंह नहीं ताकता। वह तो चारों ओर निर्विघ्न विचरण करता है। जब शब्द ज्ञान से अपने पराये का ज्ञान होता है तब गुरु शिष्य का संबंध स्वतः स्थापित हो जाता है।

कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार।
साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कटु वचन बहुत बुरे होते हैं और उनकी वजह से पूरा बदन जलने लगता है। जबकि मधुर वचन शीतल जल की तरह हैं और जब बोले जाते हैं तो ऐसा लगता है कि अमृत बरस रहा है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- पिछले दिनों समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ कि अब लोगों में अपशब्द बोलना एक तरह से फैशन बनता जा रहा है। लोग अंतर्जाल पर गाली गलौच लिखना एक फैशन बना रहे हैं। यह वर्तमान विश्व समुदाय में अज्ञान और अहंकार की बढ़ती प्रवृत्ति का परिचायक है। पहले तो यह विचार करना जरूरी है कि हमारे शब्दों का प्रभाव किसी न किसी रूप में होता ही है। एक बात यह भी है कि हम जो शब्द बोलते हैं वह समाप्त नहीं हो जाता बल्कि हवा में तैरता रहता है। फिर समय पढ़ने पर वह उसी मुख की तरफ भी आता है जहां से बोला गया था। ऐसे में अगर हम अपने मुख से अपशब्द प्रवाहित करेंगे तो वह लौटकर कभी न कभी हमारे पास ही आने हैं। आज हम किसी से अपशब्द अपने मुख से बोलेंगे कल वही शब्द किसी अन्य द्वारा हमारे लिये बोलने पर लौट आयेगा। इस तरह तो अपशब्द बोलने और सुनने का क्रम कभी नहीं थमेगा।

इसलिये अच्छा यही है कि अपने मुख मधुर और दूसरे को प्रसन्न करने वाले शब्द बोलें जाये। लिखने का सौभाग्य मिले तो पाठक का हृदय प्रफुल्लित हो उठे ऐसें शब्द लिखें। पूरे विश्व समुदाय में गाली गलौच का प्रचलन कोई अच्छी बात नहीं है। ब्रिटेन हो या भारत या अमेरिका इस तरह की प्रवृत्ति ही विश्व में तनाव पैदा कर रही है। हम आज आतंकवाद और मादक द्रव्यों से विश्व समुदाय को बचाने का प्रयास कर रहे हैं पर इसके के लिये यह जरूरी है कि अपने शब्द ज्ञान का अहिंसक उपयोग करें तभी अन्य को समझा सकते हैं।
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Saturday, May 23, 2009

चाणक्य नीति-विद्यार्थी के लिए कामनाओं का त्याग ज़रूरी

नीति विशारद चाणक्य का कहना है कि
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सुखार्थी वा त्यजेविद्वधां विद्याथी वा त्यजेत् सुखम्
सुखार्थिनः कुतो विद्वा विद्यार्थिनः कुतो सुखम्।।

                    हिंदी में भावार्थ- सुख की कामना हो तो विद्या की इच्छा त्याग दें और यदि विद्या प्राप्त करने का उद्देश्य हो तो सुख की कामना त्याग दें। सुख की चाहत करने वालों को विद्या और विद्या प्राप्त की चाहता करने वाले का सुख का विचार नहीं करना चाहिये।
                       वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-पहले गुरुकुलों में शिक्षा दी जाती थी जहां शिष्य को हर तरह के विषय का ज्ञान प्रदान किया जाता था । जब गुरुकुल से शिष्य निकलता था तो वह हर विधा में पारंगत होता था। राजा महाराजा तक के बच्चे वहां गुरु और आश्रम की सेवा में ऐसे काम करते थे जिनको मजदूर करते हैं। इस तरह अधिक शिक्षि होने पर भी उनमें छोटे काम के प्रति उपेक्षा का भाव नहीं होता था।
आधुनिक शिक्षा में छात्रों को अपने ही छात्रावास में अनेक प्रकार की सुविधा दिलाने के विज्ञापन देखने पर यह आभास होता है कि विद्यालयों और महाविद्यालयों में विद्या कम सुविधायें अधिक देने पर विचार होता है। फिर अपने घर पर ही शिक्षा प्राप्त करने की प्रवृत्ति ने छात्रों के ज्ञान को सीमित कर दिया है। वह विद्यालयों और महाविद्यालयों में अपने विषय से संबद्ध शिक्षा प्राप्त तो कर लेते हैं पर जीवन के रहस्य, चरित्र और नैतिकता के सिद्धांतों को उनको ज्ञान नहीं रहता।

                        शिक्षित तो हमारे समाज में बहुत हैं पर विद्याधर और ज्ञानी कितने हैं यह हम देख ही रहे हैं। सारे सुख और सुविधायें होते हुए अक्षर ज्ञान तो प्राप्त किया जा सकता है पर अक्षर विद्या बहुत बृहद है उसे समझने के लिये यह जरूरी है कि सुखों का त्याग किया जाये। विद्या से आशय अपने विषय के साथ ही अध्यात्मिक ज्ञान होने से भी है जो आजकल बहुत कम लोगों के पास है। इसका कारण यह है कि छात्रों को शिक्षा के दौरान ही विलासित की वस्तुओं के उपभोग की आदत पड़ जाती है। वैसे भी आजकल सुख सुविधाओं के साधनों प्रचुरता है। घर में टीवी, कूलर, फ्रिज तथा तीव्रगामी वाहनों की उपलब्धता ने आज की पीढ़ी की संघर्ष क्षमता को कम किया है। यही कारण है कि अनेक शिक्षा मंडलों के परीक्षा परिणाम कभी निराशाजनक रहे हैं। मनोरंजन के साधन इतने हैं कि उनसे विद्यार्थियों का ध्यान हटाना आसान काम नहीं रहा। इस पर इतने सारे चैनल और एफ. एम. रेडियो स्टेशन है कि विद्यार्थी उनसे मनोरंजन प्राप्त करें कि पढ़ें यह समझ में नहीं आता।
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Friday, May 22, 2009

विदुर नीति-मियाँ बीवी के बीच में फसाद कराना ठीक नहीं

मद्यपापनं कलहं पुगवैरं भार्यापत्योरंतरं ज्ञातिभेदम्।
राजद्विष्टं स्त्रीपुंसयोर्विवादं वज्र्यान्याहुवैश्चं पन्थाः प्रदुष्टः।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर कहते हैं कि शराब पीना, कलह करना, अपने समूह के साथ शत्रुता, पति पत्नी और परिवार में भेद उत्पन्न करना, राजा के साथ क्लेश करने तथा किसी स्त्री पुरुष में झगड़ा करने सहित सभी बुरे रास्तों का त्याग करना ही श्रेयस्कर है।
सामुद्रिकं वणिजं चोरपूर्व शलकाधूर्तं च चिकित्सकं सं।
अरि च मित्रं च केशलीचवं च नैतान् त्वधिकुवीत सप्तः।।
हिंदी में भावार्थ-
नीतिवेता विदुर कहते हैं कि हस्तरेखा विशेषज्ञ, चोरी का व्यापार करने वाला,जुआरी,चिकित्सक,शत्रु,मित्र और नर्तक को कभी अपना गवाह नहीं बनायें।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कभी अगर किसी मुकदमे का सामना करना पड़े तो ऐसे व्यक्ति को ही अपना गवाह बनाना चाहिये जो सत्य कहने के साथ अपना न तो आत्मीय मित्र हो न ही शत्रु। इसके अलावा कुछ व्यवसायों में कुशल लोगों-चिकित्सक,हस्तरेखा विशेषज्ञ,नर्तक,जुआरी, तथा चोरी का व्यापार करने वाले को भी अपना गवाह नहीं बनाना चाहिये। दरअसल मित्र जहां हमारे दोषों को जानते हैं पर कहते नहीं है पर जब वह कहीं गवाही देने का समय आये तो उनकी दृष्टि में हमारे दोष भी आते हैं इसलिये भावनात्मक रूप से हमारे हितैषी होने के बावजूद वह वाणी से हमारी दृढ़ता पूर्वक समर्थन नहीं कर पाते या वह लड़खड़ाती है।
शराब पीना तो एक बुरा व्यसन है पर साथ दूसरे के घरों में पति पत्नी या परिवार के अन्य सदस्यों के बीच भी झगड़ा कराना एक तरह से पाप है। अनेक जगह लोग स्त्रियों और पुरुषों के बीच झगड़ा कराने के लिये तत्पर रहते हैं। इस तरह का मानसिक विलास भी एक बुरा काम है और इनसे बचना चाहिये।
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Thursday, May 21, 2009

रहीम के दोहे: अहंकारी आदमी को जगाना व्यर्थ

कविवर रहीम कहते हैं कि
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कदल सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन
जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दीन

स्वाति नक्षत्र की वर्षा की बूंदें कदली में प्रवेश कर कपूर बना जाता है, समुद्र की सीपी में जाकर मोती का रूप धारण कर लेता है और वही जल सर्प के मुख में जाकर विष बन जाता है।

अनकीन्ही बातें करै, सोवत जागै जोय
ताहि सिखाय जगायबो, रहिमन उचित न होय

कविवर रहीम कहते हैं कि कई लोग ऐसे हैं जो कहते कुछ और हैं और करते कुछ और हैं। ऐसे लोग जागते हुए भी सोते हैं। ऐसे अहंकारी व्यक्ति को सिखाना या जागृत करना बिल्कुल व्यर्थ है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में ऐसे व्यक्तियों की अभाव नहीं है जो अपनी कथनी और करनी में भारी भेद प्रकट करते हुए थोड़ा भी संकोच अनुभव नहीं करते। एक तरफ वह आदर्श की बात करते हुए नहीं थकते पर दिन भर वह माया के फेरे में सारी नैतिकता को तिलांजलि देते हैंं। अगर ऐसा न होता तो इस देश में इतने सारे साधु और संत और उनके करोड़ों शिष्य हैं फिर भी पूरे देश मेंे अनैतिकता, भ्रष्टाचार, गरीबों और परिश्रमियों का दोहन तथा अन्य अपराधों की प्रवृतियों वाले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। आजकल ईमादारी से संग्रह करना कठिन हो गया है। इसका आशय यह है कि जो कमा रहे हैं वही दान कर रहे हैं और अपने गुरुओं के आश्रमों में भी उपस्थिति दिखाते हैं। हर जगह धन सम्राज्य है पर माया से दूर रहने की बात सभी करते हैं। अपराधी हो या सामान्य आदमी भक्ति जरूर करते दिखते हैं। अपराधी अपने दुष्कर्म से बाज नहीं आता और सामान्य आदमी को अपने काम से ही समय नहीं मिलता। बातें सभी आदर्श की करते हैं। यही भेद है जिसके कारण देश में अव्यवस्था फैली है।

इसके अलावा सभी लोग भले आदमी से संगति तो करना ही नहीं चाहते। जो समाज को अपनी शक्ति से आतंकित कर सकता है लोग उससे अपने संपर्क बनाने को लालायित रहते हैं। वह सोचते हैं कि ऐसे असामाजिक तत्व समय पर उनके काम में आयेंगे पर धीरे-धीरे उनके संपर्क में रहते हुए उनका स्वयं का नैतिक आचरण पतन की ओर अग्रसर हो जाता है। संगति का प्रभाव होता है-यह बात निश्चित है। अगर किसी शराबी के पास कोई व्यक्ति बैठ जाये तो उसकी बातें सुनकर उसका स्वयं का मन वितृष्णा से भर जाता है और वही व्यक्ति किसी सत्संगी के पास बैठे तो उसमें अच्छे और सुंदर भावों का प्रवाह अनभूति कर सकता है। अतः अपने लिये हमेशा अच्छी संगति ही ढूंढना चाहिए।
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Wednesday, May 20, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र: असाधु पुरूष को निचोड़ लेना ही ठीक

कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार
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आस्रावयेदुपचितान् साधु दुष्टऽव्रणनि।
आमुक्तास्ते च वतैरन् वह्मविव महीपती।।
हिंदी में भावार्थ-
दुष्ट व्रणों की तरह पके हुए धन से संपन्न असाधु पुरुष को निचोड़ लेना ही ठीक है वरना वह दुष्ट स्वभाव वाले अग्नि के समान राज्य के साथ व्यवहार कर उसे त्रस्त करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-धन कमाने के दो ही मार्ग है-एक प्राकृतिक व्यापार से और दूसरा अप्राकृतिक व्यापार। जिन लोगों के पास अप्राकृतिक व्यापार से धन आता है वह न केवल स्वयं दुष्ट प्रवृत्ति के होते हैं बल्कि दूसरों को भी अपराध करने के लिये उकसाते हैं। वह अवैध रूप से धन कमाने के लिये राज्य का ध्यान भटकाने के उद्देश्य से ऐसे अपराधियों को साथ रखते हैं जो उनकी इस काम में सहायता करें। अधिक धन से पके हुए ऐसे दुष्ट पुरुष राज्य के लिये आग के समान होते हैं भले ही वह प्रत्यक्ष रूप से समाज का हितैषी होने का दावा करते हैं पर अप्रत्यक्ष रूप से वह असामजिक तत्वों और अपराधियों की सहायता कर पूरे राज्य में कष्ट पैदा करते हैं। वैसे आजकल तो प्राकृतिक व्यापार और अप्राकृतिक व्यापार का अंतर ही नहीं दिखाई देता क्योंकि लोग दिखावे के लिये सफेद धंधा करते हैं पर उनको काला धंधा ही शक्ति प्रदान करता है। राज्य को चाहिये कि ऐसे लोगों पर दृष्टि रखते हुए उनको निचोड़ ले।
भले राज्य के प्रसंग में बात कही गयी है पर एक आम व्यक्ति के रूप में भी ऐसे धनिकों से सतर्क रहना चाहिये जो अप्राकृतिक और काला व्यापार करते हैं। ऐसे लोग धन कमाकर अहंकार के भाव को प्राप्त हो जाते हैं। इनसे संपर्क रखना मतलब आपने लिये आफत मोल लेना है। वह अपना उद्देश्य से कभी भी उपयोग कर किसी भी व्यक्ति को संकट में डाल सकते हैं। इतना ही नहीं संबंध होने पर अगर किसी काम के लिये मना किया जाये तो वह उग्र होकर बदला भी लेते हैं। उनके लिये स्त्री हो या पुरुष पर काम निकालते हुए वह उसे केवल एक वस्तु या हथियार ही समझते हैं। अपना काम न करने पर पूरे परिवार के लिये अग्नि के समान व्यवहार करते हैं। धन के बदले काम लेकर ही यह संतुष्ट नहीं होते बल्कि आदमी को अपना गुलाम समझकर उसे त्रास भी देते हैं।
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Monday, May 18, 2009

मनुस्मृति-अध्यात्मिक उत्थान के प्रयास आवश्यक

अध्यात्मरतिरासीनो निरपेक्षो निरामिषः
आत्मनैव सहायेन सुखार्थी विचरेदिह

हिंदी में भावार्थ-अध्यात्म विषयों में अपनी रुचि रखते हुए सभी वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति निरपेक्ष भाव रखना चाहिये। इसके साथ ही शाकाहारी तथा इद्रियों से संबंधित विषयो में निर्लिप्त भाव रखते हुए अपने अध्यात्मिक उत्थान के लिये अपने प्रयास करते रहना चाहिये। इससे मनुष्य सुखपूर्वक इस दुनियां में विचरण कर सकता है।

अति वादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन
न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित्
न क्रुद्धयंन्तं प्रतिक्रुध्येदाक्रृष्टः कुशलं वदेत्
सप्तद्वाराऽवकीर्णां च न वाचमनृतां वदेत्


हिंदी में भावार्थ-दूसरे के कड़वे वचनों को सहना करना चाहिये। अभद्र शब्द (गाली)का उत्तर कभी वैसा ही नहीं देना चाहिये। न ही किसी का अपमान करना चाहिये। यह शरीर तो नश्वर है इसके लिये किसी से शत्रुता करना ठीक नहीं माना जा सकता।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-खानपान और रहन सहन में आई आधुनिकता ने लोगों की सहनशीलता को कम कर दिया है। लोग जरा जरा सी बात पर उत्तेजित होकर झगड़ा करने पर आमादा है। स्वयं के पास कितना भी बड़ा पद,धन और वैभव हो पर दूसरे का सुख सहन नहीं कर पाते। गाली का जवाब गाली से देना के लिये सभी तत्पर हैं। अध्यात्म विषय के बारे में लोगों का कहना है कि उसमें तो वृद्धावस्था में ही जाकर दिलचस्पी रखना चाहिये। इस अज्ञानता का परिणामस्वरूप आदमी वृद्धावस्था में अधिक दुखी होता हैं। अगर बचपन से ही अध्यात्म में रुचि रखी जाये तो फिर बुढ़ापे में आदमी को अकेलापन नहीं सताता। जिसकी रुचि अध्यात्म में नहीं रही वह आदमी वृद्धावस्था में चिढ़चिढ़ा हो जाता है। ऐसे अनेक वृद्ध लोग हैं जो अपना जीवन शांतिपूर्वक व्यतीत करते हैं क्योंकि वह बचपन से मंदिर आदि में जाकर अपने मन की शुद्धि कर लेते हैंं और अध्यात्म विषयों पर चिंतन और मनन भी करते हैं।

बदले की भावना इंसान को पशु बना देती हैं और वह तमाम तरह के ऐसे अपराध करने लगता है जिससे समाज में उसे बदनामी मिलती है। कई लोग ऐसे हैं जो गाली के जवाब में गाली देकर अपने लिये शत्रुता बढ़ा लेते है। कुछ लोग ऐसे हैं जिनको अभद्र शब्द बोलने और लिखने में मजा आता है जबकि यह अंततः अपने लिये ही दुःखदायी होता है। अपने मस्तिष्क में अच्छी बात सोचने से रक्त में भी वैसे ही कीटाणु फैलते हैं और खराब सोचने से खराब। यह संसार वैसा ही जैसा हमारा संकल्प होता है। अतः अपनी वाणी और विचारों में शुद्धता रखना चाहिये। दूसरे के व्यवहार या शब्दों से प्रभावित होकर उनमें अशुद्धता लाना अपने आपको ही कष्ट देना है।
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Sunday, May 17, 2009

चाणक्य नीति: आचरण में न आने वाली शिक्षा व्यर्थ

नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि
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हर्त ज्ञार्न क्रियाहीनं हतश्चाऽज्ञानतो नर।
हर्त निर्नायकं सैन्यं स्त्रियो नष ह्यभर्तृकाः ।।

हिंदी में भावार्थ- जिस ज्ञान को आचरण में प्रयोग न किया जाये वह व्यर्थ है। अज्ञानी पुरुष हमेशा ही संकट में रहता हुआ ऐसे ही शीघ्र नष्ट हो जाता है जैसे सेनापति से रहित सेना युद्ध में स्वामीविहीन स्त्री जीवन में परास्त हो जाती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- मनुष्य का सेनापित उसका ज्ञान होता है। उसके बिना वह किसी का गुलाम बन जाता है या फिर पशुओं की तरह जीवन जीता है। ज्ञान वह होता है जो जीवन के आचरण में लाया जाये। खालीपीली ज्ञान होने का भी कोई लाभ नहीं है जब तक उसको प्रयोग में न लाया जाये। हमारे देश में ज्ञानोपदेश करने वाले ढेर सारे लोग है जो ‘दान, तत्वज्ञान, तपस्या, धर्म, अहिंसा, प्रेम, और भक्ति की महिमा’ का बखान करते हैं पर उनका जीवन उसके विपरीत विलासिता, धन संग्रह, और अपने बड़े होने के अभिमान में व्यतीत होता है। देखा जाये तो उनके लिये ज्ञान विक्रय और उनके अनुयायियों के लिये क्रय की वस्तु होती है। उसके आचरण से न तो गुरु का और न ही शिष्य का लेना देना होता है।

यही कारण है कि हमारा समाज जितना धार्मिक माना जाता है उतना ही व्यवसायिक भी। भारतीय प्राचीन ग्रथों का तत्वज्ञान का मूल सभी जानते हैं पर उसके भाव को कोई नहंीं जानता। अनेक गुरु ज्ञानोपदेश करते हुए बीच में ही यह बताने लगते हैं कि ‘धर्म के प्रचार के लिये धन की आवश्यकता है’। वह अपने भक्तों में दान और त्याग का भाव पैदा कर अपने लिये धन जुटाते है। भक्त भी अपने मन में स्थित दान भाव की शांति के लिये उनकी बातों में आकर अपनी जेब ढीली कर देते हैं। कथित गुरु अपने शिष्यों को ज्ञान के पथ पर लाकर उनका भौतिक दोहन कर फिर उनको अज्ञान के पथ पर ढकेल देते हैं। यही कारण है कि अध्यात्मिक गुरु कहलाने वाला अपना देश भौतिकता के ऐसे जंजाल में फंस कर रह गया है जहां विकास केवला एक नारा है जिसकी अंतिम मंजिल विनाश है।
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Saturday, May 16, 2009

श्री गुरु ग्रंथ साहिब से-कीर्तन से बुद्धि शुद्ध होती है

‘जो जो कथै सुनै हरि कीरतन ता की दुरमति नासु।’
सगन मनोरथ पावै नानक पूरन होवै आसु।।’’
हिंदी में भावार्थ-
श्रीगुरु ग्रंथ साहिब वाणी के अनुसार जो व्यक्ति हरि का कीर्तन सुनते है उनकी दुर्बुद्धि का नाश होता है। श्री गुरुनानक जी कहते हैं कि उनकी सारी आशायें पूरी हो जाती हैं।
‘कलजुग महिं कीरतन परधाना।‘
हिंदी में भावार्थ-
श्रीगुरु ग्रंथ साहिब वाणी के अनुसार कलियुग में केवल कीर्तन ही प्रमुख है।
‘कीरतन निरमोलक हीरा‘।
हिंदी में भावार्थ-
श्रीगुरु ग्रंथ साहिब वाणी के अनुसार कीर्तन (सत्संग) एक अनमोल हीरा है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल की भागदौड़ की जिंदगी में काम करने के बाद हर आदमी अपना दिल बहलाने के लिये मनोरंजन चाहता है। अवकाश के दिन आदमी अपने दिमागी मनोरंजन की तलाश करता है। टीवी चैनलों के धारावाहिकों और फिल्मों के दृश्यों से बह दिल बहलाने का प्रयास करता है। मगर विचार करें तो उनमें क्या दिखाया जाता है? डरावने दृश्य,दिल दिमाग में तनाव पैदा करने संवाद और कल्पनातीत कहानियों से भला कहीं दिल बहलता है? इसके विपरीत दिमाग की नसों पर नकारात्मक प्रभाव उसे अधिक कष्ट पहुंचाता है। अपना दिमागी तनाव दूर करने के लिये नई ऊर्जा को मनोरंजन से प्राप्त करने का प्रयास व्यर्थ है बल्कि अपने मौजूद विकार बाहर निकालने की आवश्यकता होती है और यह केवल सत्संग या कीर्तन से ही संभव है।
टीवी चैनलों के धारावाहिकों और फिल्मों के दृश्यों में द्वंद्वात्मक प्रस्तुतियों की भरमार होती हैं। एक कल्पित खलपात्र और एक सहृदय पात्र रचकर जो द्वंद्व होता है उसे देखकर अपने दिल दिमाग को शांति देने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। दिमाग की शांति के लिये द्वंद्वों से पर रहना चाहिये न कि उनमें उनमें शंाति पाने की लालसा करना चाहिये। हमें आवश्यकता होती है अपने अंदर से विकार बाहर निकालने की न कि ग्रहण करने की। इसका एक ही उपाय है कि आदमी नियमित रूप से भगवान का भजन करे। अवकाश के दिन सत्संग में जाये।
इसमें यह नहीं देखना चाहिये कि सत्संग करने वाला कौन है या वहां कौन आता है। मुख्य बात यह है कि हमें अपनी अध्यात्मिक शांति के लिये नियमित रूप से चलने वाले कार्य से हटकर कुछ करने की आवश्यकता है। यह तभी संभव है जब हम कीर्तन और सत्संग में भाग लें।
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Friday, May 15, 2009

संत कबीर के दोहे:त्रिगुणी मायावृक्ष के नीचे सब ले रहे साँस

संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि
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तीन गुनन की बादरी, ज्यों तरुवर की छाहिं
बाहर रहे सौ ऊबरे, भींजैं मंदिर माहिं

तीन गुणों वाली माया के नीचे ही सभी प्राणी सांस ले रहे हैं। यह एक तरह का वृक्ष है जो इसकी छांव से बाहर रहेगा वही भक्ति की वर्षा का आनंद उठा पायेगा।

जिहि सर घड़ा न डूबता, मैंगल मलि मलि न्हाय
देवल बूड़ा कलस सौं, पंछि पियासा जाय
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जहां कभी सर और घड़ा नहीं डूबता वहां वहां मस्त हाथी नहाकर चला जाता है। जहां कलसी डूब जाती है वहां से पंछी प्यासा चला गया।

संपादकीय व्याख्या-यहां भक्ति और ज्ञान के बारे में कबीरदास जी ने व्यंजना विद्या में अपनी बात रखी है। वह कहते हैं कि प्रारंभ में आदमी का मन भगवान की भक्ति में इतनी आसानी से नहीं लगता। उसे अपने अंदर दृढ़ संकल्प धारण करना पड़ता है। ज्ञान और भक्ति की बात सुनते ही आदमी अपना मूंह फेर लेता है क्योंकि उसका मन तोत्रिगुणी माया में व्याप्त होता है। यह विषयासक्ति उसे भक्ति और ज्ञान से दूर रहने को विवश करती है ऐसे वह भगवान का नाम सुनते ही कान भी बंद कर लेता है। जब उसका मन भक्ति और ज्ञान में रमता है तब वही आदमी संपूर्ण रूप से उसके आंनद में लिप्त हो जाता है-अर्थात जहां सिर रूपी घड़ा नहीं डूबता था ज्ञान प्राप्त होने पर वहां लंबा-चौड़ा हाथी नहाकर चला जाता है। जिसे ज्ञान नहीं है वह हमेशा ही प्यासा रहता है। माया के फेरे में ही अपना जीवन गुजार देता है। इस त्रिगुणी माया की छांव में जो व्यक्ति बैठा रहेगा वह भक्ति कभी नहीं प्राप्त कर सकता है।
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Thursday, May 14, 2009

चाणक्य नीति-अयोग्य राजा के राज्य से राजाविहीन राज्य में रहना अच्छा

नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि
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वरं न राज्यं कुराजराज्यं वरं न मित्रं न कुमित्रमित्रम्।
वरं न शिष्यो कुशिष्यशिष्यो वरं न दारा न कुदारदारा।।

हिन्दी में भावार्थ-अयोग्य राजा के राज्य में रहने से अच्छा है राज्यविहीन राज्य में रहना। दुर्जन मित्र से अच्छा है कोई मित्र ही न हो। मूर्ख शिष्य से किसी शिष्य का न होना ही अच्छा है। बुरे विचारों से वाली नारी से अच्छा है साथ में कोई नारी ही न हो।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-व्यक्ति को अपने जीवन में संगत न मिले पर उसे कुसंग नहीं करना चाहिये। कहते हैं कि गुण ही गुणों को बरतते हैं। जिस तरह की संगत वाले लोग होते हैं वैसे ही वह व्यवहार करते हैं। उनकी वाणी और दृष्टि की अपवित्रता का प्रभाव स्वाभविक रूप से उनकी संगत करने वाले पर होता है। अक्षम, अयोग्य, और बकवाद करने वाला संगी साथी हो तो वह अपने दुष्प्रभाव से जीवन को नरक बना देता है।
मित्रता करने के विषय में लोग अत्यंत लापरवाह होते हैं। कहते हैं कि ‘दुष्ट और नकारा मित्र हो तो हमें क्या फर्क पड़ता है।’ यह सोचना स्वयं को ही धोखा देना है। जिन लोगों के साथ हम रहते हैं उनकी छबि अगर खराब है तो निश्चित रूप से हमारी भी खराब होगी। कभी कभी तो ऐसा भी होता है कि उनके साथ रहने पर उनके ही किये अपराध में हमारा सहयोग होने का संदेह लोगों को होता है। ऐसी अनेक घटनायें हो चुकी हैं जिसमें कपटी, दुष्ट और अपराधी मित्र का दुष्परिणाम उनके मित्रों को ही भोगना पड़ता है।
जिस तरह आजकल छल कपट की प्रवृत्ति बढ़ रही है उसके देखते हुए तो और अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है मगर इसके विपरीत लोग चाहे जिसे अपना मित्र बनाकर अपने लिये संकट का आमंत्रण देते हैं।
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Tuesday, May 12, 2009

मनु स्मृतिः झूठ बोलने के बाद अपनी शुद्धि पानी पीकर करना चाहिए

सुष्त्वा क्षुत्वा च भुक्तवा च निष्ठीव्योक्त्वाऽनुतानि च।
पीत्वाऽध्येघ्यमाणश्च आचामेत्प्रयतोऽपि सन्।।
हिंदी में भावार्थ-
सोने, छींकने,खाने,और झूठ बोलने के बाद अपनी शुद्धि पानी पीकर करनी चाहिऐ। इसके बाद ही अध्ययन करने से पहले एक बार पानी का आचमन करें।
वान्तो विरिक्तिः स्नात्वा तृ घृतप्राशनमारेत्।
आचामेदेव भुक्तवाऽन्नं स्नानं मैथुनिनः स्मृतम्।।
हिंदी में भावार्थ-
उल्टी तथा दस्त करने वाला व्यक्ति नहाकर घी खाने से शुद्धता को प्राप्त कर लेता है। भोजन ग्रहण कर कै करने वाला आचमन करने तथा संभोग करने वाला स्नान करने से शुद्धता को प्राप्त कर लेता है।
उच्छिष्टे तु संस्पृष्टो द्रव्यहस्तः कथंचन।
अनिधायैव तद्द्रव्यमाचान्तः शुचितामियात्।।
हिंदी में भावार्थ-
यदि जूठे मूंह वाले व्यक्ति ने हाथ से किसी द्रव्य को छू लिया तो भी उस द्रव्य को हाथ में लेकर पानी से आचमन करने से मनुष्य की अपवित्रता नष्ट हो जाती है।
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Monday, May 11, 2009

मनुस्मृति-दूध से बनी चावल की खीर और रबड़ी हानिकारक

वृथाकृसरसंयावं पायसायूपमेव च।
अनुपाकृतमासानि देवान्नानि हर्वषि च।।
हिंदी में भावार्थ
-तिल, चावल की दूध में बनी खीर,दूध की रबड़ी,मालपुआ आदि स्वास्थ्य के हानिकाकाकर हैं अतः उनके सेवन से बचना चाहिये।
आरण्यानां च सर्वेषां मृगानणां माहिषां बिना।
स्त्रीक्षीरं चैव वन्र्यानि सर्वशक्तुनि चैव हि।।
हिंदी में भावार्थ-
भैंस के अतिरिक्त सभी वनैले पशुओं तथा स्त्री का दूध पीने योग्य नहीं होता। सभी सड़े गले या बहुत खट्टे पदार्थ खाने योग्य नहीं होते। इस सभी के सेवन से बचना चाहिये।
दधिभक्ष्यं च शुक्तेषु सर्वे च दधिसम्भवम्।
यानि चैवाभियूशयन्ते पुष्पमूलफलैः शुभैः।।
हिंदी में भावार्थ-
शुक्तों में दही तथा उससने वाले पदार्थ-मट्ठा तथा छाछ आदि-तथा शुभ नशा न करने वाले फूल, जड़ तथा फल से निर्मित पदार्थ-अचार,चटनी तथा मुरब्बा आदि-भक्षण करने योग्य है।
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Saturday, May 09, 2009

विदुर नीतिः विद्वान लोग प्रयोजन से अधिक काम नहीं करते

जुआरी प्रशंसन्ति कितवाथं प्रशसन्ति धारणाः।।
यं प्रशंसन्ति बंधक्यो न स जीवति मानवः।।
हिंदी में भावार्थ-
जुआरी तथा चारण जिसकी प्रशंसा का गान करते हैं और जिनकी वैश्यायें बड़ाई करते हुए नहीं करते हुए नहीं थकतीं वह मनुष्य जीवित होते हुए भी मृतक समान है।
प्रयोजनेषु ये सक्ता न विशेषेषु भारत।
तानहं पण्डितान मनये विशेषा हि प्रसंगित।।
हिंदी में भावार्थ-
जो विद्वान केवल निर्धारित प्रयोजन तक ही अपना करते हैं वह सफल रहते हैं जो उससे अधिक काम करते हैं उनको निरर्थक संघर्ष में उलझना पड़ता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-अपनी प्रशंसा सुनकर प्रसन्न होना मनुष्य का स्वभाव है पर यह भी देखना चाहिये कि प्रशंसा करने वाला कौन है? जुआरी और सट्टेबाज जब किसी की प्रशंसा करने लगें तो वह व्यक्ति वैसे ही संदेह के दायरे में आ जाता है। उसी तरह वैश्यावृत्ति करने वाली स्त्रियां भी अपने स्वार्थ पूरे करने वाले मनुष्यों की प्रशंसा करती है। तात्पर्य यह है कि जिन स्त्री पुरुषों का चरित्र ही संदेह के दायरे में हैं उनकी वाणी से प्रशंसा पाने वाले व्यक्ति भी उतने ही संदिग्ध हो जाते हैं। दूसरा तात्पर्य यह भी कि ऐसे लोगों से अपना संबंध नहीं रखना चाहिये क्योंकि उनका हित करने से जहां कोई लाभ नहीं होता वहीं अनजाने में अहित होने पर भी वह हमला कर बैठते हैं। वैसे तो उनके साथ संबंध उजागर होने पर भी समाज में बदनामी का भय रहता है।
विद्वान आदमी अपने देह और मन की शक्ति सीमा के अंदर ही काम करते हैं उससे अधिक थकान होने के कारण वह उसे त्याग देते हैं। आज के युग में इस सिद्धांत का विशेष महत्व है। प्रतियोगिता के इस युग में मालिक या उच्चाधिकारी अपने नौकर या मातहत पर अधिक काम का दबाव डालते हैं उसका सात्विक और नियमानुसार तरीके से प्रतिकार करना चाहिए। एक तो अधिक काम करने से त्रुटि होने पर गलती की गुंजायश रहती है और उस पर उनके प्रकोप का सामना करना ही पड़ता है-इस तरह जिस संघर्ष से बचने के लिये अधिक काम करते हैं वह सामने चला ही आता है। दूसरा यह कि अपने काम में अधिक शारीरिक और मानसिक संताप से पैदा थकावट से अपनी संघर्ष और प्रतिकार की क्षमता का हृास होता है। इसके परिणाम स्वरूप आदमी एक बंधुआ बनकर रह जाता है। जहां उसे अपना काम खोने का खतरा परेशान करता है वहीं अन्यत्र रोजगार पाने के प्रयास करने का भी उसके पास अवसर नहीं रहता। अतः चाहे कुछ भी हो काम उतना ही करना चाहिए जिससे अपना दायित्व पूरा होने के साथ ही प्रयोजन भी सिद्ध हो तथा अपनी देह और मन की स्फूर्ति बनी रहे ताकि समय आने पर विपत्तियों का सामना कर सकें।
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Friday, May 08, 2009

संत कबीर वाणी:भाव बिना भक्ति नहीं और भक्ति बिना भाव नहीं होता

भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव
भक्ति भाव इक रूप है, दोअ एक सुभाव


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक हृदय में निच्छल और निर्मल भाव नहीं है तब तक इस जगत में भक्ति का भाव नहीं बन सकता है। भक्ति के भाव तो रूप एक है पर उसके दो प्रकार के स्वभाव हैं-एक सकाम भाव दूसरा निष्काम भाव।

भक्ति दुवारा सांकरा, राई दशवें भाव
मन मैंगल होम रहा, कैसे आये जाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि भक्ति का द्वार कि राई के दाने के दसवें भाग के बराबर संकरा होता है उसमें पागली हाथी की तरह मतवाला विशाल मन में कैसे प्रवेश कर सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भक्ति और ज्ञान का स्वरूप अत्यंत सूक्ष्म है। संत और साधु लोग प्रवचन देते हुए तमाम तरह की कहानियां और संस्मरण जोड़ देते हैं तो ऐसा लगता है कि ज्ञान का कोई बृहद स्वरूप है। अक्सर ऐसे संत लोग कहते हैं कि श्रीगीता का ज्ञान गूढ और रहस्यपूर्ण है पर यह उनका भी भ्रम है। श्रीगीता का ज्ञान सरल और सहज है पर प्रश्न यह है कि उसका अध्ययन और श्रवण करने वाला किस मार्ग पर स्थित है। जो भक्त सकाम भाव में स्थित हैं उसके लिये वह राई के बराबर है और वह उसमें प्रवेश नहीं कर सकता क्योंकि उसका मन तो अपने अंदर इच्छायें और आकांक्षाओं को पालकर मदमस्त हाथी हो जाता है। उसको निष्काम भक्ति का यह द्वार दिखाई ही नहीं देगा। जिसने निष्काम भाव अपनाते हुए श्रीगीता का अध्ययन और श्रवण किया वह सहजता से समझ सकता है.
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Wednesday, May 06, 2009

मनुस्मृतिः ज्ञान के बिना इन्द्रियों को काबू करना संभव नहीं

वशे कृत्वेन्दिियग्रामं संयम्य च मनस्तथा।
सर्वान्संसाधयेर्थानिक्षण्वन् योगतस्तनुम्।।

हिंदी में भावार्थ-मनुष्य के लिये यही श्रेयस्कर है कि वह अपने मन और इंद्रियों पर नियंत्रण रखे जिससे धर्म,अर्थ,काम तथा मोक्ष चारों प्रकार का लक्ष्य प्राप्त किया जा सके।
न तथैंतानि शक्यन्ते सन्नियंतुमसेवया।
विषयेषु प्रजुष्टानि यथा ज्ञानेन नित्यशः

हिन्दी में भावार्थ-जब तक इंद्रियों और विषयों के बारे में जानकारी नहीं है तब तब उन पर निंयत्रण नहीं किया जा सका। इंद्रियों पर नियंत्रण करना कोई आसान काम नहीं है। इसके लिये यह आवश्यक है कि विषयों की हानियों और दोषों पर विचार किया जाये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इंद्रियों पर नियंत्रण और विषयों से परे रहने का संदेश देना आसान है पर स्वयं उस पर नियंत्रण करना कोई आसान काम नहीं है। आप चाहें तो पूरे देश में ऐसे धार्मिक मठाधीशों को देख सकते हैं जो श्रीगीता का ज्ञान देते हुए निष्काम भाव से कर्म करने का संदेश देते हैं पर वही अपने प्रवचन कार्यक्रमों के लिये धार्मिक लोगों से सौदेबाजी करते हैं। लोगों को सादगी का उपदेश देने वाले ऐसे धर्म विशेषज्ञ अपने फाइव स्टार आश्रमों से बाहर निकलते हैं तो वहां भी ऐसी ही सुविधायें मांगते हैं। देह को नष्ट और आत्मा को अमर बताने वाले ऐसे लोग स्वयं ही नहीं जानते कि इंद्रियों पर नियंत्रण करते हुए विषयों से परे कैसे रहा जाता है। उनके लिये धार्मिक संदेश नारों की तरह होते हैं जिसे वह लगाये जाते हैं।
दरअसल ऐसे लोगों से शास्त्रों से अपने स्वार्थ के अनुसार संदेश रट लिये हैं पर वह इंद्रियों और विषयों के मूलतत्वों को नहीं जानते। इंद्रियों पर नियंत्रण तभी किया जा सकता है जब विषयों से परे रहा जाये। यह तभी संभव है जब उसके दोषों को समझा जाये। वरना तो दूसरा कहता जाये और हम सुनते जायें। ढाक के तीन पात। सत्संग सुनने के बाद घूम फिरकर इस साँसससिक दुनियां में आकर फिर अज्ञानी होकर जीवन व्यतीत करें तो उससे क्या लाभ?
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Sunday, May 03, 2009

श्रीगुरु ग्रंथ साहिब सेः चित्रगुप्त की सभा में पापों को छिपाने वाला कोई पर्दा नहीं होत (shri guru granth sahib)

देइ किवाड़ अनिक पड़दे महि, परदारा संग फाकै।
चित्रगुप्तु जब लेखा मागहि, तब कउण पड़दा तेरा ढाकै।
(सरल गुरु ग्रंथ साहिब के पृष्ठ 147 से साभार)
हिंदी में भावार्थ-
श्री गुरु ग्रंथ साहिब के मतानुसार चाहे कितने भी दरवाजे बंद कर और ढेर सारे परदे लगाकर कोई भी अनैतिक काम कर लें पर जब चित्र गुप्त महाराज के यहां जाना होगा तब कोई भी परदा उसे नहीं छिपा सकता।
‘चित्रगुप्त सभ लिखते लेखा।
भगत जना कउ दुस्टि न देखा।।
(सरल गुरु ग्रंथ साहिब के पृष्ठ 148 से साभार)
हिंदी में भावार्थ-
श्रीगुरु ग्रंथ साहिब के मतानुसार अगर मनुष्य सच्चे मन से भगवान की भक्ति करे तो उसके मन में चित्रगुप्त के लिखे की चिंता नहीं रहती।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-श्रीगुरुनानक देव ने अपने जीवन काल में देश में धर्म के नाम पर व्याप्त अंधविश्वासों का जमकर विरोध किया और उनकी वाणी का प्रभाव ही है कि इस देश में अंधविश्वासों के विरुद्ध एक लहर चल पड़ी। धर्म के नाम पर पाखंड को लोग अच्छी तरह समझने लगे।
वर्तमान समय में तो धर्म के नाम पर पाखंड की चरमपरकाष्ठा हो गयी है। लोग दिखावे के लिए परमात्मा का नाम लेते हैं पर पाप उनके मन में रहता है। महाराज चित्रगुप्त को सभी मनुष्यों के पाप पुण्यों का लेखा रखने वाला माना जाता है। कुछ लोग बाहर से धर्म की मर्यादा का पालन करने का संदेश देते हुए बंद दरवाजों के पीछे तमाम तरह के अवैध व्यापार और अनैतिक काम करते हैं। सोचते हैं कोई नहीं देख रहा पर ऐसे लोगों की पोल कभी न क्भी खुल ही जाती है। यहां न भी खुले पर महाराज चित्रगुप्त की दरबार में उनके पापों को छिपाने के लिये कोई परदा नहीं होता।

वही श्री गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी के अनुसार वैसे तो भक्त स्वयं कोई आचार विचार मे गलती ं नहीं करते पर अनजाने में हो भी जाये तो भक्ति के कारण वह क्षमा योग्य हैं। इसका सीधा आशय यही है कि अपने नियमित कर्म करते हुए भगवान की भक्ति करनी चाहिये ताकि अनजाने में हुए पापों का प्रायश्चित यहीं हो जाये।
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