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Sunday, April 26, 2009

भर्तृहरि नीति शतक: दोस्त के राज दूसरों को नहीं बताएं

महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि
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पापान्निवारयति योजयते हिताय
गुह्मं निगूहति गुणान्प्रकटीकरोति।
आपद्गतं च न जहाति ददाति काले
सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः

हिन्दी में भावार्थ- अपने मित्र को अधर्म और पाप से बचाना, उसके हित में संलग्न रहते हुए उसके गुप्त रहस्य किसी अन्य व्यक्ति के सामने प्रकट न करना, विपत्ति काल में भी उसके साथ रहना और आवश्यकता पड़े तो उसकी तन, मन और धन से सहायता करना यही मित्रता का लक्षण है।
संक्षिप्त व्याख्या-अक्सर हम लोग कहते है कि अमुक हमारा मित्र है और यह दावा करते हैं कि समय आने पर वह हमारे काम आयेगा। आजकल यह दावा करना मिथ्या है। देखा जाये तो लोग अपने मित्रों पर इसी विश्वास के कारण संकट में आते हैं। सभी परिचित लोगों को मित्र मानने की प्रवृत्ति संकट का कारण बनती है। कई बार हम लोग अपने गुप्त रहस्य किसी को बिना जांचे-परखे मित्र मानकर बता देते हैं बाद में पता लगता है कि उसका वह रहस्य हजम नहीं हुए और सभी को बताता फिर रहा है। वर्तमान में युवा वर्ग को अपने मित्र ही अधिक भ्रम और अपराध के रास्ते पर ले जाते हैं।

आजकल सच्चे और खरे मित्र मिलना कठिन है इसलिये सोच समझकर ही लोगों को अपना मित्र मानना चाहिए। वैसे कहना तो पड़ता ही है कि‘अमुक हमारा मित्र है’ पर वह उस मित्रता की कसौटी पर वह खरा उतरता है कि नहीं यह भी देख लेना चाहिए। भले जुबान से कहते रहे पर अपने मन में किसी को मित्र मान लेने की बात बिना परखे नहीं धारण करना चाहिए।
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Saturday, April 25, 2009

भर्तृहरि नीति शतक: योगियों की साधना और कामियों का काम बढ़ा देता है ज्ञान

राजा भर्तृहरि कहते हैं कि
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ज्ञानं सतां मानमदादिननाशं केषांचिदेतन्मदमानकारणम्
स्थानं विविक्त्तं यमिनां विमुक्त्तये कामातुराणामपिकामकारणम्

हिंदी में भावार्थ-संत और सज्जन पुरुषों जब ज्ञान को धारण करते हैं तो उनके मन में सम्मान का मोह और मद नष्ट हो जाता है पर वही ज्ञान दुष्टों को अहंकारी बना देता है। जिस प्रकार एकांत स्थान योगियों को साधना के लिये प्रेरित करता है वैसे कामी पुरुषों की काम भावना को बढ़ा देता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भारतीय अध्यात्म ज्ञान की यही खूबी है कि वह ज्ञानी आदमी को महाज्ञानी बना देता है पर अगर दुष्ट हो तो वह उसे अहंकारी बना देता है। शायद यही कारण है कि श्रीगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अपना ज्ञान केवल भक्तों में प्रचारित करने के लिये कहा है। ‘यह जीवन नश्वर है’-यह भाव जब सज्जन में आता है तब वह यही प्रयास करता है कि वह उसका सदुपयोग करते हुए उसे परोपकार,ज्ञानार्जन और दान करते बिताये पर यही ज्ञान जब किसी दुष्ट को प्राप्त हो जाये तो वह हिंसा,लूट और भोग विलास में लगा देता है यह सोचकर कि यह जीवन तो कभी न कभी नष्ट हो जायेगा।
कथित साधु संत भारतीय धर्म ग्रंथों से ज्ञान रटकर देश विदेश में घूमते हैं अपने लिये धनार्जन करते हुए वह इस बात का ध्यान नहीं करते कि इस तरह सार्वजनिक रूप से ज्ञान चर्चा नहीं की जाती। अनेक योग शिक्षक भी भारत की इस विद्या का प्रचार उन लोगों में कर रहे हैं जो भारतीय अध्यात्म ज्ञान को समझते नहीं है। सच बात तो यह है कि योगासन करने से देह में एक स्फूर्ति आती है पर अगर ज्ञान नहीं है तो कोई भी भटक सकता है। देह के साथ मन की शुद्धि के लिये मंत्रादि जपना चाहिये और विचारों की शुद्धता के लिये ध्यान करना अनिवार्य है। योग शिक्षक इसका महत्व नहीं समझते बस! शरीर को स्वस्थ रखने के लिये योगासन का प्रचार करते हैं जबकि इसके लिये यह अनिवार्य है कि साधक भारतीय अध्यात्म ज्ञान से परिचित हो। जो भारतीय अध्यात्म ज्ञान से परिचित नहीं है तो वह योगासन से अच्छा स्वास्थ प्राप्त कर भी कोई भला काम करे यह संभव नहीं है पर कोई बुरा काम तो कर ही सकता है। इसलिये भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान की शिक्षा उन्हें ही दिया जाना चाहिये जो सज्जन हो। दुष्ट लोगों को देने से कोई लाभ नहीं क्योंकि या तो वह उसका मजाक बनाते हैं या दुरुपयोग करने के लिये तैयार हो जाते हैं।
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Friday, April 24, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-यह दुनियाँ तो बदलती रहती है

राजा भर्तृहरि कहते हैं कि
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परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते
स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम्

हिंदी में भावार्थ-परिवर्तन होते रहना संसार का नियम। जो पैदा हुआ है उसकी मृत्यु होना निश्चित है। जन्म लेना उसका ही सार्थक है जो अपने कुल की प्रतिष्ठा में वृद्धि करता है अर्थात समस्त समाज के लिये ऐसे काम करता है जिससे सभी का हित होता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अगर आदमी को किसी से भय लगता है तो वह अपने आसपास परिवर्तन आने के भय से। कहीं भाषा तो कहीं धर्म और कहीं क्षेत्र के विवाद आदमी के हृदय में व्याप्त इसी भय की भावना का दोहन करने की दृष्टि से उनके मुखिया उपयोग करते हैं।कई लोगों के हृदय में ऐसे भाव आते है जैसे- अगर पास का मकान बिक गया तो लगता है कि पता नहीं कौन लोग वहां रहने आयेंगे और हमसे संबंध अच्छे रखेंगे कि नहीं। उसी तरह कई लोग स्थान परिवर्तन करते हुए भय से ग्रस्त होते हैं कि पता नहीं कि वहां किस तरह के लोग मिलेंगे। जाति के आधार पर किसी दूसरे जाति वाले का भय पैदा किया जाता है कि अमुक जाति का व्यक्ति अगर यहां आ गया तो हमारे लिए विपत्ति खड़ी कर सकता है। अपने क्षेत्र में दूसरे क्षेत्र से आये व्यक्ति का भय पैदा किया जाता है कि अगर वह यहंा जम गया तो हमारा अस्तित्व खत्म कर देगा।

ऐसे भाव लाने का कोई औचित्य नहीं है। यह मान लेना चाहिए कि परिवर्तन आयेगा। आज हम जहां हैं वहां कल कोई अन्य व्यक्ति आयेगा। जहां हम आज हैं वह पहले कोई अन्य था। कई परिवर्तनों की अनुभूति तो हमें हो ही नहीं पाती। बचपन के मित्र युवावस्था में नहीं होते। युवावस्था के मित्र नौकरी में साथ नहीं होते। इस संसार में समय का चक्र घूमता है और उसमें परिवर्तन तो होते ही रहना है और हमें उनको दृष्टा होकर देखना चाहिए।
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Thursday, April 23, 2009

भर्तृहरि नीति शतक: सहृदय मनुष्य मदद कर दिखावा नहीं करते

राजा भर्तृहरि कहते हैं कि
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पद्माकरं दिनकरो विकची करोति
चन्द्रो विकासयति कैरवचक्रवालम्
नाभ्यर्थितो जलधरोऽपि जलं ददाति
संत स्वयं परहिते विहिताभियोगाः


हिंदी में आशय-बिना याचना किये सूर्य नारायण संसार में प्रकाश का दान करते है। चंद्रमा कुमुदिनी को उज्जवलता प्रदान करता है। कोई प्रार्थना नहीं करता तब भी बादल वर्षा कर देते हैं। उसी प्रकार सहृदय मनुष्य स्वयं ही बिना किसी दिखावे के दूसरों की सहायता करने के लिये तत्पर रहते हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समाज सेवा करना फैशन हो सकता है पर उससे किसी का भला होगा यह विचार करना भी व्यर्थ है। टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में समाज सेवा करने का समाचार आना एक विज्ञापन से अधिक कुछ नहीं होता। कैमरे के सामने बाढ़ या अकाल पीडि़तों को सहायता देने के फोटो देखकर यह नहीं समझ लेना चाहिये कि वह मदद है बल्कि वह एक प्रचार है। बिना स्वार्थ के सहायत करने वाले लोग कभी इस तरह के दिखावे में नहीं आते। जो दिखाकर मदद कर रहे हैं उनसे पीछे प्रचार पाना ही उनका उद्देश्य है। इससे समाज का उद्धार नहीं होता। समाज के सच्चे हितैषी तो वही होते हैं जो बिना प्रचार के किसी की याचना न होने पर भी सहायता के लिये पहुंच जाते हैं। जिनके हृदय में किसी की सहायता का भाव उस मनुष्य को बिना किसी को दिखाये सहायता के लिये तत्पर होना चाहिये-यह सोचकर कि वह एक मनुष्य है और यह उसका धर्म है। अगर आप सहायता का प्रचार करते हैं तो दान से मिलने वाले पुण्य का नाश करते हैं।
कहते हैं कि दान या सहायता देते समय अपनी आँखें याचक से नहीं मिलाना चाहिए क्योंकि इससे अपने अन्दर अंहकार और उसके मन में कुंठा के भाव का जन्म होता है। दान या सहायता में अपने अन्दर इस भाव को नहीं लाना चाहिए कि "मैं कर रहा हूँ*, अगर यह भाव आया तो इसका अर्थ यह है कि हमने केवल अपने अहं को तुष्ट किया।
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Tuesday, April 21, 2009

कबीर के दोहे: फल चाहने वाला मन से सेवा नहीं कर पाता

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
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फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम
कहैं कबीर सेवक नहीं, कहैं चौगुना दाम


जो मनुष्य अपने मन में इच्छा को रखकर निज स्वार्थ से सेवा करता है वह सेवक नही क्योंकि सेवा के बदले वह कीमत चाहता है। यह कीमत भी चौगुना होती है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-हमने देखा होगा कई लोग समाज की सेवा का दावा करते हैं पर उनका मुख्य उद्देश्य केवल आत्मप्रचार करना होता है। कई लोग ऐसे भी हैं जिन्होने अपने नाम से सेवा संस्थान बना लिए है और दानी लोगों से चन्दा लेकर तथाकथित रूप से समाज सेवा करते हैं और मीडिया में अपनी ‘समाजसेवी’की छबि का प्रचार करते हैं ऐसे लोगों को समाज सेवक तो माना ही नहीं जा सकता। इसके अलावा कई धनी लोगों ने अपने नाम से दान संस्थाए बना रखी हैं और वह उसमें पैसा भी देते हैं पर उनका मुख्य उद्देश्य करों से बचना होता है या अपना प्रचार करना-उन्हें भी इसी श्रेणी में रखा जाता है क्योंकि वह अपनी समाज सेवा का विज्ञापन के रूप में इस्तेमाल करते हैं।
कुल मिलाकर समाजसेवा आजकल एक व्यापार की तरह हो गयी है। सच्चा सेव तो उसे माना जाता है जो बिना प्रचार के निष्काम भाव से सच्ची सेवा करते हैं। अपने भले काम का प्रचार करने का आशय यही है कि कोई आदमी उसका प्रचार कर फायदा उठाना चाहता है। कई बार ऐसा भी होता है कि हम जब कोई भला काम कर रहे होते हैं तो यह भावना मन में आती है कि कोई ऐसा करते हुए हमें देखें तो इसका आशय यह है कि हम निष्काम नहीं हैं-यह बात हमें समझ लेना चाहिये। जब हम कोई भला काम करें तो यह ‘हमारा कर्तव्य है’ ऐसा विचार करते हुए करना चाहिये। उसके लिये प्रशंसा मिले यह कभी नहीं सोचें तो अच्छा है। इससे एक तो प्रशंसा न मिलने पर निराशा नहीं होगी और काम भी अच्छा होगा।
संत कबीर संदेशः फल की चाहा में मन से काम नहीं होता
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Thursday, April 16, 2009

रहीम के दोहे: पशु अपना हित करने वाला गुड़ कभी नहीं खाते

कविवर रहीम कहते हैं
रहिमन आलस भजन में, विषय सुखहिं लपटाय
घास चरै पसु स्वाद तै, गुरु गुलिलाएं खाय

मनुष्य भजन में तो आलस्य कर जाता है पर जिन विषयों में सुख लिप्त है उनको अपने साथ सदैव लिपटाये रहता है। जैसे पशू बेस्वाद घास को तो स्वयं ही खाते हैं पर जो गुड़ उनके स्वास्थ्य के लिये हितकर है वह कभी भी अपने आप नहीं खाते। वह तभी खाते हैं जब उनके मूंह में जबरन ठूंसा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-यह मनुष्य स्वभाव है जहां से उसे थोड़ी बहुत प्रसन्नता या धन मिलने की संभावना होती है वहां वह दौड़ा चला जाता है पर जहां मन की शांति और एकांत मिलता है वहां से वह भागता है। उसे लगता है कि धन और मान पाने में ही सारे सुख अंतर्निहित हैं और वह जीवन भर उसके पीछे दौड़ता है। भगवान का भजन, ध्यान, स्मरण और सत्संग उसको सुखद नहीं लगते क्योंकि उसमें कोई देखने वाला नहीं होता और एकांत में मिलने वाले उस सुख के लिये अपने मित्रों, रिश्तेदारों और परिवार के सदस्यों से उसे कुछ देर अपना मन विरक्त करना पड़ता है और सभी लोग इससे घबड़ाते हैं। उनको लगता है कि इस विरक्ति के दौरान कहीं उनके मन में पूर्ण सन्यास भाव न पैदा हो जाये और फिर वह अपने पर आश्रित लोगों को दुःख में छोड़ कर संसार में स्वतंत्र रूप से विचरण करने लगें। मतलब वह अपने ही मन से स्वयं डरते हैं और विषयों की गुलामी में उनको अपना हित लगता है। अगर कोई व्यक्ति उनको ज्ञान देता है तो कहते हैं कि हमें तो भजन आदि के लिये फुरसत ही नहीं मिल पाती। सच तो यह है कि सच्ची भक्ति में कोई आकर्षण नहीं है इसलिये लोग उससे कतराते हैं।
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Wednesday, April 15, 2009

कबीर के दोहे: गाली जलता अंगारा, क्रोध आग और निंदा धुएँ सामान है

कोटि करम लोग रहै, एक क्रोध की लार
किया कराया सब गया, जब आया हंकार

श्री कबीरदास जी के मतानुसार क्रोध करने से अनेक प्रकार के पाप कर्मों की उत्पति होती है। जब आदमी अहंकार में आकर क्रोध करता है तब उसके सब किये कराये पर पानी फिर जाता है।
गार अंगार, क्रोध झल, निन्दा धु्रवा होय
इन तीनो परिहरै, साधु कहावै सोय

श्री कबीरदास जी कहते हैं कि गाली जलते अंगारे, क्रोध उसकी आग और निंदा उसका धुआं है। जो इन तीन से परे है वही साधु कहा जा सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य के अंदर अहंकार स्वाभाविक रूप से रहता है पर आजकल खान पान मेंे कृत्रिमता होने से वैसे भी लोगों की देह में वैसे भी शक्ति नहीं है और फिर जीवन इतना कठिन हो गया है कि उसका संघर्ष आदमी के अंदर निराशा उत्पन्न कर देता है। कहा भी जाता है कि जैसा अन्न वैसा मन। देखा जाये तो खाद्य पदार्थों का उत्पादन बढ़ाने के लिये जिस तरह कृत्रिम साधनों का प्रयोग बढ़ रहा है उससे आदमी की देह में शक्ति कम विकार अधिक उत्पन्न होता है ऐसे में लोगों जरा जरा सी बात पर उत्तेजित होना, अपशब्द कहना और निराशा हो जाना एक तरह से आम बात हो गयी है। समाज में एक ऐसा तनाव है जिसे वही देख सकता है जो दृष्टा की तरह देख रहा हो।

लोग आपस में बात करते हुए लड़ पड़ते हैं और गालिया बकने लगते है। सामान्य बातचीत में लोग ऐसे ही गंदे शब्द अनावश्यक रूप से प्रयोग करते हैं। यह मनोदशा ठीक होने का प्रमाण नहीं हैं। सबसे बड़ी समस्या तो लोगों को अपने अंदर अहंकार आना है। जहां भी आंख उठाकर देखिए लोग देहाभिमान में फूले जा रहे हैं और इसी कारण भीड़ में भी अकेला अनुभव करते हैं।

आपने देखा होगा कि बूढ़े लोग बहुत कष्ट उठाते दिखते हैं पर सच तो यह है कि वह इस अहंकार में रहते हैं कि वह तो अब बूढें हो गये हैं और हर किसी की दया के पात्र हैं तब वह अपने ही बच्चों के साथ ऐसे पेश आते हैं कि वह बदनामी के डर से उनको अधिक सम्मान देंगे पर होता इसका उल्टा ही है और फिर वह रोते हैं कि बहू सम्मान नहीं करती बेटा पूछता नहीं। अनेक वृद्ध दंपत्ति अकेले जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इसका कारण उनका अहंकार ही है जो उन्होंने अपने बच्चों में भी भरा। अधिकतर लोग इस बात का ध्यान नहीं करते और वह बच्चों को केवल अपना परिवार पालने की प्रेरणा ही देते हैं फिर जब बच्चे बड़े हो जाते हैं तो अपने घर में लग जाते हैं और मां बाप तो उनकी गृहस्थी से बाहर हो जाते हैं। ऐसे में फिर वह शिकायत करते हैं तो उनको सोचना चाहिये कि यह उनके ही अहंकार का नतीजा है। उन्होंने ही अपने बच्चों मेंे अपने परिवार के अहंकार का भाव भरा जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें अकेला दुःख भोगना पड़ता है।
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Thursday, April 09, 2009

सेवा करते हुए स्वामी जैसा प्राप्त किया सम्मान, जय श्री हनुमान-आलेख

आज हनुमान जयंती है। हनुमान जी में हृदय से भक्तिभाव रखने वाले लोग उनके प्रभाव को जानते है। हनुमान जी के चरित्र को आज के संदर्भों में देखें तो ऐसा लगता है कि उनमें भक्तिभाव रखने के साथ उनके चरित्र की भी चर्चा करना चाहिए। श्री हनुमान जी के चरित्र के मूल में हमें उनका भगवान श्रीराम के प्रति ‘सेवाभाव‘ और ‘भक्ति भाव’’ और श्री सुग्रीव के प्रति मैत्रीभाव सदैव आकर्षित करता रहा है। हम जब उनका स्मरण करता हैं तो ‘सेवक से स्वामी’और ‘भक्त से भगवान’ बनने वाले एक इष्ट की तस्वीर हमारे मस्तिष्क में उभरती है। यह तस्वीर भक्तों के मन और मस्तिष्क में इस तरह स्थापित है कि जब वह प्रति मंगलवार और शनिवार जब मंदिर जाते हैं तो उनकी वहां स्थापित तस्वीर से अधिक भक्तों के हृदय में स्थापित तस्वीर उनको आकर्षित करती है और उनको लगता है की साक्षात हनुमान जी उनके सामने है।वर्तमान में जब हम जब समाज की हालत देखते हैं तो लगता है कि हनुमान जी चरित्र के मूल गुणों की भी अधिक मुखर होकर करना व्याख्या करना चाहिए ताकि लोग सेवा करने का महत्व समझें और केवल स्वामीपन के अंहकार में न फंसे रहें ।

आजकल लोग सेवक की बजाय स्वामी बनने के लिये आतुर रहते है और जिनके हाथ में वैभव का भंडार है वह भगवान बनकर अपने लिये भक्तों को खरीदना चाहते है। हनुमान जी का राम और सुग्रीव के प्रति जो समर्पण था वह सत्य और धर्म की वजह से था-न कि उसके पीछे उनका कोई स्वार्थ था। श्री राम मर्यादा पुरुषोतम थे ओर किसी भी स्थिति में उन्होंने धर्म से मूंह नहीं मोड़ा था। सुग्रीव ने हर स्थिति में श्रीराम को सहायता का आश्वासन दिया था। जब राजपाट मिल गया और वह वैभव और व्यसनों के मायाजाल में फंसकर अपना मूल कर्तव्य भुला बैठे तब एक हनुमान ही थे जो उन्हें लगातार समझाते रहे कि उन्हें अपने कर्तव्य का स्मरण करना चाहिए। यह उनके सेवा और भक्ति की सही शक्ति थी जो अपने स्वामी से सत्य कहने का सहस प्रदान करती है। श्रीसुग्रीव ने उनकी बात मान ली और अपनी सेना को तैयार होने का आदेश दिया। इसी बीच कुपित लक्ष्मण जब उनके महल में दाखिल हो गये तो सबसे पहले हनुमानजी ने ही उन्हें प्रसन्न करने के लिए समझाया था। श्रीलक्ष्मण जी उनकी बात सुनकर ही शांत हुए थे। इस प्रसंग में यह स्मष्ट होता है कि श्रीहनुमान जी न वरन् समय, देशकाल तथा राज्य की परिस्थितियों का ज्ञान रखते थे बल्कि उन्हें राजनीति का भी अच्छा ज्ञान था।

किष्किंधा में सुग्रीव के बाद श्री हनुमान जी को ही सम्मान प्राप्त था। यह उनके बाहूबल के साथ उनके बुद्धिमान होने का भी प्रमाण था। जब सीता जी की खोज में सब वानर थक गये तब उनके नेता अंगद का धीरज टूट गया और वह आमरण अनशन पर बैठ गये। श्री हनुमान ने तब विचार किया कि इस तरह तो अंगद संभवतः सुग्रीव का राज्य छीन लेंगे-कारण वानरों में कष्ट सहने की क्षमता वैसे ही कम होती है, और जब भूख से यह लोग बिलबिलाऐंगे ओर उनको परिवार की याद आयेगी तो वह उग्र हो जायेंगे और सुग्रीव का भय इनमें समाप्त हो जायेगा। तब वह अंगद को आगे कर उनसे लड़ने को भी तैयार हो जायेंगे।विचार करते हुए श्रीहनुमान जी ने वहां सब वानरों को पृथक-पृथक समझाकर कर अंगद से अलग कर दिया और फिर उन्हें समझाने लगे कि यह वानर आपका लंबे समय तक साथ देने वाले नहीं है पर इससे आप सुग्रीव को जरूर नाराज कर लेंगे। उनकी बात का अंगद पर प्रभाव हुआ और वह अपना अभियान आगे जारी रखने को तैयार हुए। इस प्रसंग से श्री हनुमान जी के रणनीतिक चातुर्य और बौद्धिक कौशल की जो अनूठी मिसाल मिलती है वह विरले ही चरित्रों में होती है। उनका एक गुण जिसने उनके चरित्र को भगवान पद पर प्रतिष्ठित किया वह है अहंकार रहित होना। इतने शक्तिशाली और बुद्धिमान होते हुए भी किसी को हानि पहुंचाना या अपमानित करने जैसा कार्य उन्होंने कभी नहीं किया। वह अपनी शक्ति का स्मरण तक नहीं करते थे। जब लंका जाने का प्रश्न आया तो सब घबड़ा गये तब जाम्बवान ने जब श्रीहनुमान को अपनी शक्ति का स्मरण कराकर इस कार्य के लिये प्रेरित किया तब वह तैयार हो गये। जरा हम आजकल लोगों के चरित्र पर दृष्टिपात करें जो थोड़ा धन, छोटा पद, और छोटी सफलता में ही मतमस्त हो जाते है। उन्हें श्रीहनुमान जी के चरित्र का अध्ययन कर यह सीखना चाहिए कि शक्ति का प्रदर्शन दूसरों का दिखाने के लिये नहीं वरन् समाज और राष्ट्र हित के लिये करना चाहिए। हमने श्रीहनुमान जी के चरित्र की जो चर्चा की उसे हर कोई जानता है।

अपने देश के अध्यात्मिक लोग मानते हैं ऐसी सत्संग चर्चा होती रहना चाहिए। जब हम किसी के अच्छे गुणों की चर्चा करते है तो वह धीरे धीरे हम में भी स्थापित हो जाते है और हम कभी किसी के बुराईयों की चर्चा करते हैं तो वह भी हमारे अंदर आ जाती है। अत: अपने इष्टों की भक्ति के साथ उनके गुणों का भी बखान करते रहना चाहिए उनसे प्रेरणा मिले। इस पावन अवसर पर हम भगवान श्री हनुमान का स्मरण करते हुए उनको प्रणाम करते हैं। इस अवसर पर समस्त पाठकों और ब्लॉग लेखक मित्रो को बधाई।
दीपक भारतदीप
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Sunday, April 05, 2009

कबीर के दोहे: सच बोलने पर लोग लड़ने दौड़ पड़ते हैं

सांच कहै तो मारि है, यह तुरकानी जोर
बात कहै सतलोक की, कर गहि पकड़ै चोर


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सच बोलने पर दुनियां के लोग मारने और लड़ने को दौड़ पड़ते हैं। इस संसार के लोग तो सच बोलने वाले को चोर कहकर उसका हाथ पकड़ लेते हैं।
सांचै कोइ न पतीयई, झूठै जग पतियाय
पांच टका का धोपटी, सात टके बिक जाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सत्य में कोई विश्वास नहीं करता और लोग झूठ के झांस में आसानी से फंस जाते हैं। यही कारण है कि झूठ बोलने वाले व्यापारी का सामान अधिक दाम पर बिक जाता है।

सांचे कोई न पतीयई, झूठै जग पतिपाय
गलीगली गो रस फिरै, मदिरा बैठ बिकाय


संत शिरोमणि कबीरदास जी के अनुसार सत्य के महत्व कोई नहीं जानता और इसलिये उसका साथ नहीं देता। जैसे दूध और दही बेचने वाले तो घूमकर उसे बेचते हैं पर शराब दुकान पर ही बैठे बिक जाती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-संत कबीर दास जी के संदेशों को देखें तो यह बात समझ में आती है कि समाज में वह सारे दोष उनके समय में भी मौजूद थे जैसे आज हैं। हमारे देश में शायद ज्ञान का भंडार इसलिये ही भरता रहा है क्योंकि यहां अज्ञानियां और अल्प ज्ञानियों की संख्या अधिक रही है। इसे हम यह भी कह सकते हैं कि अपने देश के लोग सीदे सादे और सहजता से विश्वास करने वाले हैं। सच हमेशा बिना लाग लपेटे के कहा जाता है इसलिये किसी के समझ में नहीं आता। झूठ हमेशा शाब्दिक सौंदर्य और चतुराई से कहा जाता है इसलिये लोग उस पर यकीन कर लेते हैं। इसलिये ही झूठे और मक्कार लोगों का सिक्का आसानी से चल जाता है। इसके अलावा एक बात यह भी है कि अपने देश में अधिकतर लोगों को अपनी झूठी प्रशंसा सुनने की आदत होती है। उनको अगर कोई अपने बारे में कटु सत्य कहा जाये तो वह झगड़े पर आमादा हो जाते हैं।
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Saturday, April 04, 2009

कबीर के दोहे: इच्छाओं के अग्नि जितनी बुझाओ उतनी ही बढ़ती जाती है

त्रिज्ञणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ
जवासा के रूष ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मन में जो त्रृष्णा की अग्नि कभी बुझती नहीं है जैसे उस पर पानी डालो वैसे ही बढ़ती जाती है। जैसे जवासे का पौधा भारी वर्षा होने पर भी कुम्हला जाता है पर फिर हरा भरा हो जाता है।

‘कबीर’ मन फूल्या फिरै, करता हूं मैं ध्रंम
कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम

संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि आदमी अपने सिर पर कर्मकांडों का बोझ ढोते हुए फूलता है कि वह धर्म का निर्वाह कर रहा है। वह कभी अपने विवेक का उपयोग करते हुए इस बात का विचार नहीं करता कि यह उसका एक भ्रम है।


वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-संत कबीरदास जी ने अपने समाज के अंधविश्वासों और कुरीतियों पर जमकर प्रहार किये हैं। कितने आश्चर्य की बात है कि अनेक संत और साधु उनके संदेशों को ग्रहण करने का उपदेश तो देते हैं पर समाज में फैले अंधविश्वास और कर्मकांडों पर खामोश रहते हैं। आदमी के जन्म से लेकर मृत्यु तक ढेर सारे ऐसे कर्मकांडों का प्रतिपादन किया गया है जिनका कोई वैज्ञानिक तथा तार्किक आधार नहीं है। इसके बावजूद बिना किसी तर्क के लोग उनका निर्वहन कर यह भ्रम पालते हैं कि वह धर्म का निर्वाह कर रहे हैं। किसी कर्मकांड को न करने पर अन्य लोग नरक का भय दिखाते हैं यह फिर धर्म भ्रष्ट घोषित कर देते हैं। इसीलिये कुछ आदमी अनचाहे तो कुछ लोग भ्रम में पड़कर ऐसा बोझा ढो रहे हैं जो उनके दैहिक जीवन को नरक बनाकर रख देता है। कोई भी स्वयं ज्ञान धारण नहीं करता बल्कि दूसरे की बात सुनकर अंधविश्वासों और रूढि़यों का भार अपने सिर पर सभी उसे ढोते जा रहे हैं। इस आर्थिक युग में कई लोग तो ऋण लेकर ऐसी परंपराओं को निभाते हैं और फिर उसके बोझ तले आजीवन परेशान रहते हैं। इससे तो अच्छा है कि हम अपने अंदर भगवान के प्रति भक्ति का भाव रखते हुए केवल उसी कार्य को करें जो आवश्यक हो। अपना जीवन अपने विवेक से ही जीना चाहिए।
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Friday, April 03, 2009

विदुर नीति: भौतिक पदार्थों की सत्यता समझे वही है ज्ञानी

1.संपूर्ण भौतिक पदार्थों की वास्तविकता का जो ज्ञान रखता है तथा सभी कार्यों को संपन्न करने का ढंग तथा उसका परिणाम जानता है वही विद्वान कहलाता है।
2.जिसकी वाणी में वार्ता करते हुए कभी बाधा नहीं आती तथा जो विचित्र ढंग से बात करता है और अपने तर्क देने में जिसे निपुणता हासिल है वही पंडित कहलाता है।
3.जिनकी बुद्धि विद्वता और ज्ञान से परिपूर्ण है वह दुर्लभ वस्तु को अपने जीवन में प्राप्त करने की कामना नहीं करते। जो वस्तु खो जाये उसका शोक नहीं करते और विपत्ति आने पर घबड़ाते नहीं हैं। ऐसे व्यक्ति को ही पण्डित कहा जाता है।
4.जो पहले पहले निश्चय कर अपना कार्य आरंभ करता है, कार्य को बीच में नहीं रोकता। अपने समय को व्यर्थ नहीं जाने देता और अपने चित्त को वश में रखता है वही पण्डित कहलाता है।
5.विद्वान पुरुष किसी भी विषय के बारे में बहुत देर तक सुनता है और तत्काल ही समझ लेता है। समझने के बाद अपने कार्य से कामना रहित होकर पुरुषार्थ करने के तैयार होता है। बिना पूछे दूसरे के विषय में व्यर्थ बात नहीं करता। इसलिये वह पण्डित कहलाता है।
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