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Friday, January 30, 2009

रहीम संदेश: ज्ञान और भक्ति के तेज से चेहरा चमकता है

उत्तम जाती ब्राह्मनी, देखत चित्त लुभाय
परम पाप पल में हरत, परसत वाके पाय


ज्ञानी मनुष्य की पहचान तो स्वतः ही उसके गुणों और लक्षणों से हो जाती है। ब्रह्मज्ञानी का चेहरा मात्र देखते ही आदमी का चित्त आनन्द विभोर हो उठता है। ऐसे ब्रह्मज्ञानी के दर्शन मात्र से पाप परे हो जाते हैं और उसके चरणों कें शीश झुकाने का मन करता है।
वर्तमान संदभ में संपादकीय व्याख्या-यह बिल्कुल सत्य बात है कि आदमी के चेहरे पर वही भाव स्वतः रहते हैं जो उसके मन में विद्यमान हैं। किसी प्रकार के ज्ञान और विज्ञान में श्रेष्ठता का भाव प्रदर्शन करना व्यर्थ है। आदमी के गुण स्वतः ही दूसरों के सामने प्रकट होते हैंं। दूसरे के अंदर अगर झांकना हो तो उसके चेहरे को पढ़ें। कई बार ऐसा होता है कि हम दूसरों के कहने में आकर किसी को श्रेष्ठ समझ बैठते हैं यह देखने का प्रयास ही नहीं करते कि उस व्यक्ति का आचरण कैसा है या उसमें वह गुण है भी कि नहीं जिसका बखान किया जा रहा है।

अनेक गुरु ऐसे हैं जो रटारटाया ज्ञान तो बताते हैं पर उनके चेहरे देखकर नहीं लगता कि वह कोई ब्रह्मज्ञानी हैं। योग साधना,ध्यान और धार्मिक ग्रंथों से चिंतन और मनन से ज्ञान प्राप्त होता है और जिसने वह धारण कर लिया उसका चेहरा स्वतः खिल उठता है और अगर नहीं खिला तो इसका आशय यह है कि मन में भी तेज नहीं है। इसलिये किसी के कहने में आकर कोई गुरु नहीं बनाना चाहिये। जिन लोगों में ज्ञान है तो उनका चेहरा ही बता देता है और उनका आचरण और व्यवहार उसे पुष्ट भी करता है। अतः ऐसे लोगों को ही अपना गुरु बनाना चाहिये। जिनके पास ज्ञान और भक्ति की शक्ति है उनके चेहरे पर तेज का भाव दिखाई देता है।
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Thursday, January 29, 2009

भर्तृहरि शतकः ज्ञानियों से चर्चा में उतर जाता है अंहकार का ज्वार

वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रान्तं वनचरैः सह
न मूर्खजनसम्पर्कः सुरेन्द्रभवनेष्वपि
हिंदी में अर्थ- बियावान जंगल और पर्वतों के बीच खूंखार जानवरों के साथ रहना अच्छा है किंतु अगर मूर्ख के साथ इंद्र की सभा में भी बैठने का अवसर मिले तो भी उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।
यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवम्
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिपतं मम मनः
यदा किञ्चित्किाञ्चिद् बुधजनसकाशादवगतम्
तदा मूर्खोऽस्मीति जवन इव मदो में व्यपगतः

हिंदी में अर्थ-जब मुझे कुछ ज्ञान हुआ तो मैं हाथी की तरह मदांध होकर उस पर गर्व करने लगा और अपने को विद्वान समझने लगा पर जब विद्वानों की संगत में बैठा और यथार्थ का ज्ञान हुआ तो वह अहंकार ज्वर की तरह उतर गया तब अनुभव हुआ कि मेरे समान तो कोई मूर्ख ही नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-आजकल जिसे देखो उसक पास ही कोई न कोई उपाधि है पर जीवन और अध्यात्म का ज्ञान कितना है यह तो समय आने पर ही पता चलता है। आधुनिक साधनों की वजह से लोगों का जीवन एकाकी हो गया है और सत्संग में कम जाने के कारण उनको पता ही नहीं लगता कि आखिर अध्यात्म ज्ञान होता क्या है? फिर आधुनिक शिक्षा से भौतिक ज्ञान तो इतना प्राप्त हो जाता है कि लोग उसे ही सम्पूर्ण समझने लगते हैं और भक्ति और अध्यात्म विषय उनके लिये पौंगापंथी हैं। जब भौतिकता से ऊब जाते हैं तो फिर ढूंढते हैं धार्मिक लोगों में शांति। ऐसे में धार्मिक ग्रंथ पढ़कर अपने को गुरु कहलाने वाले ढोंगी उनका शोषण करत हैं। होता यह है कि कोई अध्यात्म ज्ञान न होने के कारण लोग उनकी बात को ही सत्य समझने लगते हैं। फिर जब कभी वास्तविक ज्ञानी से भेंट होती है तब पता लगता है कि ज्ञान क्या है? इसलिये ज्ञानियों की संगत करना चाहिये।

कहते हैं कि नादान मित्र से दाना शत्रु भला, यह एकदम सच बात है। मूर्ख के साथ कब कहां फंस जायें पता ही नहींे लगता। मूर्ख का काम होता है बिना सोचे समझे काम करना। कुछ लोग तो ऐसे होते हैं जो दूसरों को पीड़ा देने में अपने को प्रसन्न अनुभव करते हैं। ऐसे मूर्ख लोगों से बचकर रहना चाहिये क्योंकि वह कभी भी हमारे पर प्रहार कर सकते हैं।
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Wednesday, January 28, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र: धर्महीन मनुष्य से कभी संधि न करें

1. दूर्भिक्ष और आपत्तिग्रस्त स्वयं ही नष्ट होता है और सेना का व्यसन को प्राप्त हुआ राज प्रमुख युद्ध की शक्ति नहीं रखता।
2. विदेश में स्थित राज प्रमुख छोटे शत्रु से भी परास्त हो जाता है। थोड़े जल में स्थित ग्राह हाथी को खींचकर चला जाता है।
3. बहुत शत्रुओं से भयभीत हुआ राजा गिद्धों के मध्य में कबूतर के समान जिस मार्ग में गमन करता है, उसी में वह शीघ्र नष्ट हो जाता है।
4.सत्य धर्म से रहित व्यक्ति के साथ कभी संधि न करें। दुष्ट व्यक्ति संधि करने पर भी अपनी प्रवृति के कारण हमला करता ही है।
5.डरपोक युद्ध के त्याग से स्वयं ही नष्ट होता है। वीर पुरुष भी कायर पुरुषों के साथ हौं तो संग्राम में वह भी उनके समान हो जाता है।अत: वीर पुरुषों को कायरों की संगत नहीं करना चाहिऐ।
6.धर्मात्मा राजप्रमुख पर आपत्ति आने पर सभी उसके लिए युद्ध करते हैं। जिसे प्रजा प्यार करती है वह राजप्रमुख बहुत मुश्किल से परास्त होता है।
7.संधि कर भी बुद्धिमान किसी का विश्वास न करे। 'मैं वैर नहीं करूंगा' यह कहकर भी इंद्र ने वृत्रासुर को मार डाला।
8.समय आने पर पराक्रम प्रकट करने वाले तथा नम्र होने वाले बलवान पुरुष की संपत्ति कभी नहीं जाती। जैसे ढलान के ओर बहने वाली नदियां कभी नीचे जाना नहीं छोडती।

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Monday, January 26, 2009

रहीम संदेश: अवसर चूकने का कष्ट हमेशा रहता है

समय लाभ सम लाभ नहिं, समय चूक सम चूक
चतुरन चित रहिमन लगी, समय चूक की हूक

कविवर रहीम कहते हैं कि समय ही लाभ है तथा समय ही हानि भी है। चतुर लोग समय अवसर का लाभ उठा लेते हैं और अगर चूक जाते हैं तो उनके मन में त्रास हमेशा ही बना रहता है।

समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जात
सदा रहै नहीं एक सी, का रहीम पछतात


कविवर रहीम कहते हैं कि समय के अनुसार अपने निश्चित समय पर ही पेड़ पर फल लगता है और समय के अनुसार ही झड़ जाता है। समय कभी एक जैसा नहीं रहता इसलिये कभी अपने बुरे समय को देखकर परेशान नहीं होना चाहिये।

वतंमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समय चक्र घूमता रहता है और मनुष्य की जीवन धारा भी उसी के अनुसार बहती जाती है। अपने जीवन से असंतुष्ट लोग अक्सर कहते हैं कि ‘मैंने अमुक की बात मान ली होती तो आज मैं कुछ और होता‘,या मैंने अमुक काम किया होता तो धनाढ्य होता‘। समय और सृष्टि का यह नियम होता है कि एक बार आदमी को इस संसार में उपलब्धि प्राप्त कराने के लिये अवसर अवश्य आता है बस उसे पहचान कर उसका उपयोग करने की बुद्धि होना चाहिए। कई लोग जो दूसरों की बुद्धि के अनुसार चलने के आदी हैं वह ऐसी शिकायतें करते हैं हमने अमुक की बात मानकर गलती की थी। यह सब अपनी गलतियां और बौद्धिक आलस्य की कमी छिपाने का बहाना है। जो लोग अपने कर्तव्य पथ पर चलने के लिये दृढ़संकल्पित होते हैं वह बिना किसी की परवाह किये चलते जाते हैंं और अपने लक्ष्य का चरम शिखर प्राप्त करते हैं।
समय का पहिया ऊपर नीचे घूमता है और राजा हो या रंक उसके लिये अच्छा बुरा समय आता रहता है। ज्ञानी लोग इस रहस्य को जानते हैं और इसलिये विचलित नहीं होते।
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Saturday, January 24, 2009

कबीर के दोहे: ज्ञान चर्चा चौराहे पर और ध्यान एकांत में ही करो

अष्ट सिद्धि नव निधि लौं, सबही मोह की खान
त्याग मोह की वासना, कहैं कबीर सुजान


संत श्री कबीरदास का कथन है कि आठों सिद्धियां और नवों निधियां तो मोह की खान है। अतः इस मोह को त्याग करना ही श्रेयस्कर है।

चर्चा करु तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय
ध्यान करो तब एकिला, और न दूजा कोय


संत श्री कबीरदास जी का कथन है जब ज्ञान चर्चा चौराहै पर करो पर जब उसका अध्ययन करना हो तो दो लोगों की बीच में ही ठीक है। ज्ञान के बारे में जब ध्यान, चिंतन और मनन करना हो तो उसे एकांत में ही रहे जहां कोई दूसरा व्यक्ति न हो।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हम लोग अक्सर यह कहते हैं कि अमुक संत सिद्ध है और उसकी शरण लेना चाहिए या वह तो बहुत पहुंचे हुए हैं। कई कथित संत और साधु अपने लिये बकायदा विज्ञापन करते हैं जैसे कि बहुत बड़े सिद्ध हों। यह सब ढोंग हैं। अनेक लोग मंत्रों आदि के द्वारा काम सिद्ध करने का दावा करते हैं। यह सब मोह से उपजा भ्रम है। सिद्धियां और निधियों की आड़ में अनेक लोग धंधा कर रहे हैं। सिद्धि केवल मन की शांति के रूप में ही है बाकी तो दुनियां चलती है। माया का भंडार पास में हो पर अगर मन अशांत हो तो वह भी व्यर्थ नजर आता है। इस प्रकार की मानसिक शांति लिये तत्व ज्ञान होना चाहिये। वैसे तो इसके लिये गुरु का होना जरूरी है पर न मिले तो किसी समक+क्ष व्यक्ति के साथ बैठकर स्वाध्याय करना चाहिये। उसके बाद अकेले ध्यान में बैठकर अपने द्वारा ग्रहण तत्व पर विचार करना ही ठीक है। हां, उसकी चर्चा चार लोगों के करने में कोई बुराई नहीं है। इस चर्चा से न केवल अपने दिमाग में मौजूद ज्ञान का पूर्नस्मरण हो जाता है और वह पुष्ट भी होता है।

हम जो ज्ञान प्राप्त करें उससे अपने आपको सिद्ध मान लेना मूर्खता है क्योंकि तत्व ज्ञान का रूप अत्यंत सूक्ष्म है पर उसका विस्तार इतना दिया जाता है कि लोग उसका लाभ व्यवसायिक रूप से उठाते हैं। अनेक सिद्धियों और निधियों का प्रचार इस तरह किया जाता है जैसे वह दुनियां में रह मर्ज की दवा हैं। इनसे दूर होकर अपने स्वाध्याय, ध्यान और ज्ञान से अपने मन के विकार दूर करते रहना चाहिये।
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Friday, January 23, 2009

कबीर के दोहे: वक्ता तो वाद सुनाये, श्रोता अनसुना कर जाए

संत शिरोमणि कबीरदास जी के अनुसार
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करनी का रजमा नहीं, कथनी मेरू समान
कथता बकता मर गया, मूरख मूढ़ अजान

कुछ लोग अपनी आत्मप्रवंचना अधिक ही करते हैं-खासतौर से वह लोग जिन्होंने धार्मिक किताबों को तोते की तरह रट लिया होता है। उनके कथन तो पहाड़ के समान होते हैं पर उनके कर्म का कुछ अता पता नहीं होता। वह अपनी बात बकते हुए इस दुनियां से विदा हो जाते हैं।
स्त्रोता तो घर ही नहीं, वक्ता बकै सो बाद
स्त्रोता वक्ता एक घर, तब कथनी को स्वाद

वक्ता अपनी बात करता रहे पर श्रोता कुछ सुने ही नहीं तो ऐसी बकवाद किस काम की। फिर जो लोग अपनी विद्वता दिखाते हैं उनके घर के लोग ही उनकी बात नहीं मानते। सही मायने में सत्संग तो तभी हो सकता है जब वक्ता और श्रोता का ध्यान अपने ठिकाने पर हो।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-देश में जगह जगह धार्मिक कार्यक्रम होते हैं पर फिर भी नफरत और हिंसा को जोर बढ़ रहा है। अनेक कथित धर्मों के आचार्य अपने धर्मों के लोगों के शांति, अहिंसा,प्रेम और दया का संदेश देते फिरते हैं पर वह निष्प्रभावी होता है क्योंकि न तो सुनने वाला हृदय से सुनता है और न कहने वाला ही अपने ज्ञान को धारण किये रहता है। समाज को अनेक भागों में बांटकर उनका नेतृत्व करने वाले सभी धर्मों के विद्वान केवल कहने के लिये कहते हैं पर उनको सुनने वालों का ध्यान कहीं अन्यत्र होता है। यही कारण है कि जितने धार्मिक कार्यक्रम होते हैं उनका परिणाम शून्य ही होता है।
कई बार तो अजीब बात होती है। कहीं तनाव होता है तो वहां समस्त समूहों के धार्मिक विद्वान सड़क पर आकर शान्ति यात्रा निकालते हैं। उनसे पूछिये कि वह प्रतिदिन लोगों को शिक्षित करते हैं पर ऐसी नौबत आती क्यों है?
इसका उत्तर किसी के पास नहीं होता। वजह! ज्ञान देने वाले तोते की तरह उसे रटे होते हैं पर उसको धारण नहीं कर पाते। वह पुराने प्रसंगों को पुराने ही ढंग से सुनाते हैं। नये ढंग से नये संदर्भ में उनको व्याख्या करना ही नहीं आती। यह तभी संभव है जब वह कथित ज्ञानी विद्वान अपने किताबों के लिखे ज्ञान को धारण किये हुए हों साथ ही उनकी कथनी और करनी में अंतर श्रोताओं को नहीं दिखता हो।

धार्मिक विद्वानों की कथनी और करनी के अंतर के कारण ही जो लोग उनके कार्यक्रमों में जाते हैं उनका उद्देश्य समय पास करना होता है न कि ज्ञान प्राप्त करना। यही कारण है कि वक्ता तो अपनी बात कहते हैं पर श्रोता का दिमाग अपने घर में नहीं होता। और अच्छे खासे सत्संग केवल दिखावा बनकर रह जाते हैं। समाज सेवा और अध्यात्मिक ज्ञान देना एक तरह से व्यवसाय बन गया है। समाज सेवा करे या नहीं पर प्रचार कर कोई भी शिखर पर बैठ जाता है और इसी तरह ज्ञान बेचने वाले कथित रूप से धार्मिक गुरु कहलाते हैं।
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Wednesday, January 21, 2009

भर्तृहरि संदेशः ज्यादा पैसा हो तो राज्य से डर पैदा होता है

भोग रोगभयं कुले च्यूतिभयं वित्ते नृपालाद् भयं
माने दैन्यभयं बले रिपुभर्य रूपे जरायाः भयम्
शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद् भयं
सर्व वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्


हिंदी में भावार्थ- इस संसार में आने पर रोग का भय, ऊंचे कुल में पैदा हानेपर नीच कर्मों में लिप्त होने का भय, अधिक धन होने पर राज्य का भय, मौन रहने में दीनता का भय, शारीरिक रूप से बलवान होने पर शत्रु का भय, सुंदर होने पर बुढ़ापे का भय, ज्ञानी और शास्त्रों में पारंगत होने पर कहीं वाद विवाद में हार जाने का भय, शरीर रहने पर यमराज का भय रहता है। संसार में सभी जीवों के लिये सभी पदार्थ कहीं न कहीं पदार्थ भय से पीडि़त करने वाले हैं। इस भय से मन में वैराग्य भाव स्थापित कर ही बचा जा सकता है

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर आदमी कहीं न कहीं भय से पीडि़त होता है। अगर यह देह है तो अनेक प्रकार के ऐसे कार्य करने पड़ते हैं जिससे उसका पालन पोषण हो सके पर इसी कारण अनेक त्रुटियां भी होती हैं। इन्हीं त्रुटियों के परिणाम का भय मन को खाये जाता है। इसके अलावा जो वस्तु हमारे पास होती है उसके खो जाने का भय रहता है। इससे बचने का एक ही मार्ग है वह वैराग्य भाव। श्रीमद्भागवत गीता मेें इसे निष्काम भाव कहा गया है। वैराग्य भाव या निष्काम भाव का आशय यह कतई नहीं है कि जीवन में कोई कार्य न किया जाये बल्कि इससे आशय यह है कि हम जो कोई भी कार्य करें उसके परिणाम या फल में मोह न पालेंं। दरअसल यही मोह हमारे लिये भय का कारण बनकर हमारे दिन रात की शांति को हर लेता है। हमारे पास अगर नौकरी या व्यापार से जो धन प्राप्त होता है वह कोई फल नहीं है और उससे हम अन्य सांसरिक कार्य करते हैं-इस तरह अपने परिश्रम के बदल्र प्राप्त धन को फल मानने का कोई अर्थ ही नहीं है बल्कि यह तो कर्म का ही एक भाग है। हम अपने पास पैसा देखकर उसमें मोह पाल लेते हैं तो उसके चोरी होने का भय रहता है। अधिक धन हुआ तो राज्य से भय प्राप्त होता है क्योंकि कर आदि का भुगतान न करने पर दंड का भागी बनना पड़ता है।

इसी तरह ज्ञान हो जाने पर जब उसका अहंकार उत्पन्न होता है तब यह डर भी साथ में लग जाता है कि कहीं किसी के साथ वाद विवाद में हार न जायें। यह समझना चाहिये कि कोई सर्वज्ञ नहीं हो सकता है। भले ही एक विषय के अध्ययन या कार्य करने में पूरी जिंदगी लगा दी जाये पर सर्वज्ञ नहीं बना जा सकता है। समय के साथ विज्ञान के स्वरूप में बदलाव आता है और इसलिये नित नये तत्व उसमें शामिल होते हैं। जिस आदमी में ज्ञान होते हुए भी नयी बात को सीखने और समझने की जिज्ञासा होती है वही जीवन को समझ पाते हैं पर ज्ञानी होने का अहंकार उनको भी नहीं पालना चाहिये तब किसी हारने का भय नहीं रहता।

कुल मिलाकर सांसरिक कार्य करते हुए अपने अंदर निष्काम या वैराग्य भाव रखकर हम अपने अंदर व्याप्त भय के भाव से बच सकते हैं जहां मोह पाला वह अपने लिये मानसिक संताप का कारण बनता है।
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Tuesday, January 20, 2009

भर्तृहरि संदेशः जब तक इच्छा की अग्नि न जले तभी तब रहते हैं गुण

तावन्महत्तवं पाण्डित्यं कुलीनत्वं विवेकता
यावज्जवलति नांगेषु हतः पञ्वेषु पावकः


हिंदी में भावार्थ-हृदय में विद्वता, कुलीनता और विवेक का प्रभाव तब तक ही रहता है जब तक ही जब तक कामना, वासना और इच्छा की अग्नि प्रज्जवलित नहीं हो उठती है। मन में लोभ और लालच का भाव आते ही सब सदगुण नष्ट हो जाते है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में मनुष्य के जीवन व्यतीत करने के दो ही मार्ग हैं-एक है ज्ञान मार्ग और दूसरा मोहमाया का मार्ग। मनुष्य तो अपने मन का दास है जैसे वह कहता है उसकी पांव वही चलते जाते है। यह उसका भ्रम है कि वह स्वयं चल रहा है। कुछ मनुष्य अपना जीवन ज्ञान के साथ व्यतीत करते हैं। वह सासंरिक कार्य करते हुए भी धन और मित्र के संग्रह में लोभ नहीं करते। जितना धन मिल गया उसी में संतुष्ट हो जाते हैं पर कुछ लोगों की लालच और लोभ का अंत ही नहीं है। वह धन और मित्र संग्रह से कभी संतुष्ट नहीं होते हैं और मोहमाया के मार्ग पर चलते जाते हैं।

हां, कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अधिक अवसर न मिल पाने की वजह से धन और मित्र संग्रह सीमित मात्रा में कर पाते हैं। वह तब खूब ज्ञान की बातें सुनते और करते हैं। उनकी बातों ये यह भ्रम भी हो जाता है कि वह संत या साधु प्रवृत्ति के हैं पर ऐसे लोगों को जब धन और मित्र बनाने के अधिक अवसर अचानक प्राप्त होते हैं तब वह सारा ज्ञान भूलकर उसका लाभ उठा लेते है।। तब उनका सारा ज्ञान एक तरह से बह जाता है। फिर वह पूरी तरह से धन संपदा और अपने निजी संबंधों के विस्तार पर अपना ध्यान केंद्रित कर देते हैं और उनके लिये पहले अर्जित ज्ञान निरर्थक हो जाता है।
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Monday, January 19, 2009

भर्तृहरि शतकः अज्ञानी लोग ही स्त्रियों की निंदा करते हैं

स्वपरप्रतारकोऽसौ निन्दति योऽलीकपण्डितो युवतीः
यस्मात्तपसोऽपि फलं स्वर्गस्तयापि फलं तथाप्सरसः


हिंदी में भावार्थ- जो शास्त्र ज्ञान में अधकचरे पण्डित स्त्रियों की निंदा करते हैं वे अपने और पराए सभी को धोखा देते हैं, क्यों तपस्या से जिस स्वर्ग की प्राप्ति होती है, उस स्वर्ग का फल भी अप्सराओं के साथ भोग विलास ही है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- अनेक कथित ज्ञानी लोग स्त्री को नरक का द्वार कहते हुए उससे दूर रहने का उपदेश देते हैं। ऐसे लोग केवल पाखंड के अलावा कुछ नहीं करते। वास्तविकता यह है कि वह अपने कथित ज्ञान से वह जिस तपस्या आदि करने का प्रचार करते हैं वह केवल कल्पित स्वर्ग की प्राप्ति करवाने वाला होता है। उसमें भी अप्सराओं से मिलन का सुख बखान किया जाता है। भर्तुहरि कहते हैं कि जब अप्सराओं जैसी सुंदर स्त्रियां इस धरती पर ही मिल जातीं हैं तो उनकी अवहेलना क्यों की जाये। एक तरफ स्वर्ग में अप्सराओं से मिलने के मोह में तप आदि का उपदेश करना और इस धरती की नारी से दूर रहने की बात करना पाखंड के सिवाय कुछ नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में इस बात का उल्लेख करना दिलचस्प रहेगा कि फिल्मों और टीवी चैनलों से जुड़ी अभिनेत्रियों को कहीं सैक्सी और सर्वाधिक सुंदर कहकर इसी संसार में काल्पनिक स्वर्ग की अनुभूति करवाकर यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि अन्य कहीं भी स्त्री सुंदर नहीं है। यह भी एक एसा भ्रम है जिसमें युवक अपने हृदय में उनके चेहरे स्थापित कर लेते हैं। सामान्य लड़कियों में भी पर्दे की कथित सुंदरियों जैसा आकर्षण ढूंढने लगते है। अपनी जेब में उनके फोटो रखने लगते हैं। वह जिस सौंदर्य को वास्तविक समझते हैं केवल उन कथित पर्दे वाली सुंदरियों द्वारा उपयोग में लायी गयी सौदर्य प्रसाधन सामग्री और कैमरे का कमाल होता है। अतः कथित अप्सराओं के सौदर्य की कल्पना-चाहे वह धार्मिक संतों द्वारा प्रचारित हो या अन्य प्रचार माध्यमों द्वारा-में बहना नहीं चाहिए क्योंकि ऐसा करना व्यर्थ है।
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Sunday, January 18, 2009

भर्तृहरि संदेशः परिवर्तन इस संसार का नियम है

परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते
स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम्

हिंदी में भावार्थ-परिवर्तन होते रहना संसार का नियम। जो पैदा हुआ है उसकी मृत्यु होना निश्चित है। जन्म लेना उसका ही सार्थक है जो अपने कुल की प्रतिष्ठा में वृद्धि करता है अर्थात समस्त समाज के लिये ऐसे काम करता है जिससे सभी का हित होता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अगर आदमी को किसी से भय लगता है तो वह अपने आसपास परिवर्तन आने के भय से। कहीं भाषा तो कहीं धर्म और कहीं क्षेत्र के विवाद आदमी के हृदय में व्याप्त इसी भय की भावना का दोहन करने की दृष्टि से उनके मुखिया उपयोग करते हैं।कई लोगों के हृदय में ऐसे भाव आते है जैसे- अगर पास का मकान बिक गया तो लगता है कि पता नहीं कौन लोग वहां रहने आयेंगे और हमसे संबंध अच्छे रखेंगे कि नहीं। उसी तरह कई लोग स्थान परिवर्तन करते हुए भय से ग्रस्त होते हैं कि पता नहीं कि वहां किस तरह के लोग मिलेंगे। जाति के आधार पर किसी दूसरे जाति वाले का भय पैदा किया जाता है कि अमुक जाति का व्यक्ति अगर यहां आ गया तो हमारे लिए विपत्ति खड़ी कर सकता है। अपने क्षेत्र में दूसरे क्षेत्र से आये व्यक्ति का भय पैदा किया जाता है कि अगर वह यहंा जम गया तो हमारा अस्तित्व खत्म कर देगा।

ऐसे भाव लाने का कोई औचित्य नहीं है। यह मान लेना चाहिए कि परिवर्तन आयेगा। आज हम जहां हैं वहां कल कोई अन्य व्यक्ति आयेगा। जहां हम आज हैं वह पहले कोई अन्य था। कई परिवर्तनों की अनुभूति तो हमें हो ही नहीं पाती। बचपन के मित्र युवावस्था में नहीं होते। युवावस्था के मित्र नौकरी में साथ नहीं होते। इस संसार में समय का चक्र घूमता है और उसमें परिवर्तन तो होते ही रहना है और हमें उनको दृष्टा होकर देखना चाहिए।
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Friday, January 16, 2009

कबीर के दोहे:काजल कालापन और मोती सफेदी नहीं त्यागता

दुक्ख महल को ढाहने, सुक्ख महल रहु जाय
अभि अन्तर है उनमुनी, तामें रहो समाय


संत कबीरदास जी के अनुसार इस संसार में रहना है तो दुख के महल को गिराकर सुख महल में रहो। यह तभी संभव है जब जो हमारे अंदर आत्मा है उसमें ही समा जायें।

काजल तजै न श्यामता, मुक्ता तर्ज न श्वेत
दुर्जन तजै न कुटिलता, सज्जन तजै न हेत


आशय यह है कि जिस तरह काजल अपना कालापन और मोती अपनी सफेदी को नहीं त्यागता वेसे ही दुर्जन अपनी कुटिलता और सज्जन अपनी सज्ज्नता नहीं त्यागता।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-देने वाला परमात्मा है और जो कर्म करता है उसे उसका परिणा मिलता ही है। फिर भी आदमी में अपना अहंकार है कि 'मैं कर्ता हूं।' वह अपने देह से किये गये कर्म से प्राप्त माया के भंडार को ही अपना फल समझता है और बस उसकी वृद्धि में ही अपना जीवन धन्य समझता है और भक्ति भाव को वह केवल एक समय पास काम मानता है। कितना बड़ा भ्रम मनुष्य में है यह अगर हम अपना आत्म मंथन करें तो समझ में आ जायेगा। हम कहीं दुकान कर रहे हैं या नौकरी उससे जो आय होती है वह फल नहीं होता। वह जो पैसा प्राप्त होता है उससे अपने और परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति पर ही व्यय करते हैं। वह पैसा प्राप्त करना तो हमारे ही कर्म का हिस्सा है। कहीं से मजदूरी या वेतन प्राप्त होता है वह भला कैसे फल हो सकता है जबकि उसे प्राप्त करना भी हमारा कर्तव्य है ताकि हम अपनी इस देह का और साथ ही अपने परिवार का भरण भोषण कर सकें। इसलिये माया की प्राप्त को फल समझना एक तरह से दुःख का महल है और उसे एक सामान्य कर्म मानते हुए उसे त्याग कर देना चाहिये। भगवान की भक्ति करना ही सुख के महल में रहना है।

अगर हमें यह अनुभूति हो जाये कि अमुक व्यक्ति के मूल स्वभाव में ही दुष्टता का भाव है तो उसे त्याग देना चाहिये। यह मानकर चले कि यहां कोई भी अपना स्वभाव नहीं बदल सकता। जिसत तरह काजल अपनी कालापन और मोती आपनी सफेदी नहीं छोड़ सकता वैसे ही जिनके मूल में दुष्टता का भाव है वह उसे नहीं छोड़ सकता। उसी तरह जिन में हमें सज्जनता का भाव लगता है उनका साथ भी कभी नहीं छोड़ना चाहिये।
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Thursday, January 15, 2009

मनुस्मृति: व्यापार में सत्यता का प्रदर्शन करें

नान्यदन्येन संसृष्टरूपं विक्रयमर्हति
न चासारं न च न्यून न दूरेण तिरोहितम्

हिंदी में आशय -मनुष्य किसी विशेष वस्तु के बदले किसी दूसरी वस्तु, सड़ी गली, निर्धारित वजन से कम, केवल दूर से ठीक दिखने वाली तथा ढकी हुई वस्तु न बेचे। विक्रेता को चाहिये कि वह ग्राहक को अपनी वस्तु की स्थिति ठीक बता दे।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-ऐसा लगता है कि आजकल धर्म के प्रति लोग इसलिये भी अधिक आकर्षित हो रहे हैं क्योंकि उनके नित्य कर्म में अशुद्धता का बोध उन्हें त्रस्त कर देता है। वह न केवल अपने ही कर्मों से असंतुष्ट हैं बल्कि दूसरे के अपने प्रति किया गया व्यवहार भी उन्हें खिन्न कर देता हैं। अब यह तो संभव नहीं है कि हम स्वयं बेईमानी का व्यवहार करते हुए दूसरों से ईमानदारी की आशा करें। नौकरी और व्यापार में कहीं न कहीं झूठ और बेईमानी करनी ही पड़ती है-यह सोचना अपने आपको धोखा देना है। दूसरे की बेेईमानी तो सभी को दिखती है अपना कर्म किसी ज्ञानी को ही दिखाई देता है। धन तो सभी के पास आता जाता है पर कुछ लोगों को धन का लोभ अनियंत्रित होकर उन्हें बेईमानी के रास्ते पर ले जाता है।

त्यौहारों के अवसर पर जब बाजार में मांग बढ़ती है तब दूध में मिलावट की बात तो होती थी पर अब तो सिंथेटिक दूध बिकने लगा है कि जिसका एक अंश भी शरीर के लिये सुपाच्य नहीं है अर्थात जो पेट में जाकर बैठता है तो फिर वहां पर बीमारी पैदा किये बिना नहीं रहता। तय बात है कि आदमी को डाक्टर के पास जाना है। दूध ऐसा जिसे दूध नहीं कहा जा सकता है मगर बेचने वाले बेच रहे है। कई जगह बड़े व्यापारी जानते हुए भी उसे खरीदकर खोवा बना रहे हैं। हलवाई मिठाई बनाकर बेचे रहे है। फिर जब दीपावली का दिन आता है तो भगवान श्रीनारायण और लक्ष्मी की मूर्तियां सजाकर अपने व्यवसायिक स्थानों की पूजा कर अपने धर्म का निर्वाह भी करते हैं। एसा पाखंड केवल इसी देश में ही संभव है। नकली दूध तथा अन्य वस्तुऐं बेचने वाले व्यापारी रौरव नरक के भागी बनते हैं यह बात मनुस्मृति में स्पष्ट की गयी है। मनु द्वारा स्थापित धर्म को मानने वाले उनकी पूजा भी करते हैं पर उनके ज्ञान को धारण नहीं करते।

धर्म का आशय यही है कि हमारे आचार, विचार और व्यवहार में शुद्धता होना चाहिये। यह भ्रम नहीं रखना चाहिये कि ईमानदारी से इस संसार में काम नहीं चलता। नकली और विषैली वस्तुयें बेचना पाप है यही सोचकर अपना व्यापार करना चाहिये।
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Wednesday, January 14, 2009

कबीर के दोहे:बुरे की निंदा से भले की प्रशंसा करें

संत श्री कबीरदास जी के अनुसार
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काहू का नहिं निन्दिये, चाहै जैसा होय
फिर फिर ताको बन्दिये, साधु लच्छ है सोय


किसी भी व्यक्ति का दोष देखकर भी उसकी निंदा न करें। अपना कर्तव्य तो यही है कि जो साधु और गुणी हो उसका सम्मान करें और उसकी बातों को समझें

तिनका कबहू न निंदिये, पांव तले जो होय
कबहुं उडि़ आंखों पड़े, पीर घनेरी होय


आशय यह है कि दूसरे के दोष देखकर उसकी निंदा से बचने का प्रयास करना चाहिये। तिनके तक की निंदा भी नहीं करना चाहिये। पता नहीं कब आंखों में गिरकर त्रास देने लगे।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिसे देखो वही दूसरों की निंदा करने में लगा है। इसी प्रवृत्ति के कारण एक दूसरे से दूर हो जाते हैं। सक एक दूसरे की सामने तो प्रशंसा करते हैं पर पीठ पीछे निंदा पर आमादा हो जाते हैंं। यही कारण है कि किसी का किसी पर यकीन नहीं हैंं। अगर हम किसी की यह सोचकर निंदा करते हैं कि उससे क्या डरना वह कुछ नहीं कर सकता। यह भ्रम है। इस जीवन में पता नहीं कब किसकी आवश्यकता पड़ जाये-यही सोचकर किसी की निंदा नहीं करना चाहिये। दोष सभी में होते हैं। मानव देह तो दोषों का पुतला है फिर निंदा कर दूसरे लोगों से अपना वैमनस्य क्यों बढ़ाया जाये?

बजाय दूसरों की निंदा करने के ऐसे लोगों से संपर्क रखना चाहिये जो साधु प्रवृत्ति के हों। उनके सद्गुणों की चर्चा करना चाहिये। यह तय बात है कि हम अपने मूंह से अगर किसी के लिये बुरे शब्द निकालते हैं तो उसका हमारी मानसिकता पर ही बुरा प्रभाव पड़ता है। अगर किसी के बारे मे सद्चर्चा की जाये तो उसका सकारात्मक प्रभाव दिखता है।
हमने देखा होगा कि समाज में वैमनस्य केवल इसलिए बढ़ रहा क्योंकि लोग एक दूसरे के सामने तो प्रशंसा करते हैं पर पीठ पीछे निंदा करते हैं। इससे समाज में आपसी विश्वास की कमी जो बढ़ी है उससे लोगों को मानसिक संताप तथा अकेलेपन की भावना आहत कर देती हैं जो कि स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छी बात नहीं है।
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Tuesday, January 13, 2009

कबीर के दोहे: राम नाम का विक्रय कर गुरु करते हुए शिष्य से आशा

गुरवा तो सस्ता भया, पैसा केर पचास
राम नाम धन बेचि के, शिष्य करन की आस

संत श्री कबीरदास जी के समय में भी गुरुओं की माया ऐसी हो गयी थी कि उनको कहना पड़े कि गुरु तो अब सस्ते हो गये हैं। पैसे के दम पर पचास गुरु कर लो। ऐसे गुरु राम नाम को बेच कर धन कमाते हैं और यह आशा करते हैं कि उनको शिष्य मिलें।

जा गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रांति न जिया की जाये
सो गुरु झूठा जानिए, त्यागत देर न जाए


संत शिरोमणि कबीरदास के अनुसार जिस गुरु के पास जाकर मन के भ्रम का निवारण नहीं होता उसे झूठा समझ कर त्याग दें। भ्रम के साथ जीवन जीना बेकार है और जो गुरु उसका निवारण नहीं कर सकता वह ढोंगी है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कितनी आश्चर्य की बात है कि सैंकड़ों वर्ष पूर्व संत कबीरदास जी द्वारा कही गयी बात आज भी प्रासंगिक लगती है। यही कारण है कि भारतीय अध्यात्म विश्व में किसी अन्य ज्ञान से अधिक सत्य के निकट है पर यहां सर्वाधिक भ्रम में लोग रहते हैं। सब जानते हैं कि माया मिथ्या है पर उसी के इर्द गिर्द घूमते हैं। मजे की बात यह है कि भारतीय अध्यात्म के कथित ढोंगी प्रचारक प्राचीन ग्रंथों में वर्णित केवल उन्हीं प्रसंगों को उठाते हैं जिससे लोगों का मनोरंजन हो पर तत्वाज्ञान से वह अवगत न हों। कहानियां और किस्से सुनाकर लोगों को मनुष्य जीवन का रहस्य समझाते है पर तत्व ज्ञान की चर्चा ऐसे करते हैं जैसे देह से ही उसका संबंध हो। कर्मकांडों और यज्ञों के लिये प्रेरित करते हैं ताकि उसकी आड़ में उनको गुरुदक्षिणाा मिलती रहे।

गुरुओं को शिष्य हमेशा यही कहते हैं कि ‘हमारा तो गुरू बैठा है’। मतलब यह है कि उनके लिये वही भगवान है।’

बलिहारी गुरु जो आपकी जो गोविंद दिया दिखाय-इस वाक्य का उच्चारण हर गुरु करता है पर वह किसी को गोविंद नहंी दिखा पाता। लोग भी बिना गोविंद को देखे अपने गुरु को ही गोविंद जैसा मानने लगते हैं। गोविंद को केवल तत्वज्ञान से ही अनुभव किया जा सकता है पर न तो गुरु उसको बताते हैं और न ही शिष्य उसका मतलब जानते हैं। गोल गोल केवल इसी माया के चक्कर में दोनों घूमते हैं। यही कारण है कि भारतीय समाज अपने ही देश में प्रवर्तित अध्यात्म ज्ञान से परे हैं जिसे आज पूरा विश्व मानता है।
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Sunday, January 11, 2009

रहीम संदेश: दु:ख में भी मानसिक रूप से दृढ़ होना चाहिए

सरवर के खग एक से, बाढ़त प्रीति न धीम
पै मराल को मानसर, एकै ठौर रहीम


अधिकतर पक्षी एक समान होते हैं। उनका अपने जल स्त्रोंतो से लगाव तभी तक रहता है जब तक उसमें उनके लिये सुविधानुसार जल रहता है वरना इधर उधर से डोलते रहते हैं पर हंस केवल मानसरोवर में रहता है। यह उसकी दृढ़ता का प्रतीक है।

संपादकीय व्याख्या-इस संसार में सामान्य लोग स्वार्थ के आधार पर ही अपने संबंध बनानते और बिगाड़ते है। अब तो यह हालत यह हो गयी है कि लोग उन्हीं रिश्तेदारों के नाम सुनाते हैं जो प्रतिष्ठित और धनवान हैं। आपसी वार्तालाप में लोग अपने उन रिश्तेदारों और मित्रों का जिक्र अवश्य करते हैं जो पद, प्रतिष्ठा और पैसे की दृष्टि से शिखर पर है पर उन लोगों का नाम नहीं लेते जो सामान्य जीवन व्यतीत करते हैं। इतना ही नहीं वह आते जाते भी उन लोगों के पास हैं जहां कभी उनका स्वार्थ सिद्ध होने की संभावना होती है। यह निम्न कोटि की प्रवृत्ति है। उच्च प्रवृत्ति के लोग सभी के प्रति समान दृष्टिकोण रखते हैं। ऐसे ही लोग सभी जगह सम्मान भी प्राप्त करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण जी श्रीगीता में यह स्पष्ट कथन है कि जो प्रिय को देखकर प्रसन्न नहीं होते और जो अप्रिय को देख दुःखी नहीं होते वही स्थिरप्रज्ञ है।

यह समदर्शिता का भाव रखना अपने जीवन में ही सुख का कारण होता है। जो मनुष्य यह भाव नहीं रखते उनको ही जीवन में तनाव झेलना पड़ता है। वह प्रतिष्ठत, उच्च पदासीन और पैसे वाले रिश्तेदारों और मित्रों के यहां जाकर कोई सम्मान नहीं पाते। वह यह समझते हैं कि समय आने पर वह काम आयेंगे तो यह भी तभी संभव होता है कि जब वह स्वयं उनका स्वार्थ सिद्ध करने वाले हों। अगर वह ऐसा करने में सक्षम नहीं होते तो समय पड़ने उन्हें अपने से उच्च व्यक्ति की सहायता नहीं मिलती भले ही आश्वासन मिल जाता हो ऐसे में उनको भारी निराशा भी झेलनी पड़ती है। जीवन में दु:ख सुख का दौर तो चलता रहता है पर दु:ख के समय अपने स्थान से हटकर दूसरे स्थान पर जाने का विचार नहीं करना चाहिए। इससे न केवल स्वयं ही मानसिक रूप से कमजोर होते हैं बल्कि दूसरों के सामने बिचारगी की स्थिति में प्रस्तुत होना पड़ता है और हमारा स्वाभिमान आहत होता है।
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Thursday, January 08, 2009

रहीम संदेश: आलोचकों की टिप्पणियों का जवाब न दें

कहते को कहिं जान दे, गुरू की सीख तू लेय
साकट जन और स्वान को, फेरि जवाब न देय


कविवर रहीम कहते है कि कहने वालों को कुछ भी कहने दो अपने गुरू की सीख लें और फिर अपने मार्ग पर चलें। अज्ञानी लोग और श्वान के भौंकने पर ध्यान न दें

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोगों का काम है कहना। सच तो यह है कि अपने जीवन में वह लोग कोई भी उपलब्धि प्राप्त नहीं कर पाते जो जो इस तरह कहने पर ध्यान देकर कोई कदम नहीं उठाते। अपने गुरू से चाहे वह आध्यात्मिक हो या सांसरिक ज्ञान देने वाला उसे शिक्षा ग्रहण कर अपने जीवन पथ पर बेखटके चल देना चाहिए। अगर उसके बाद अगर किसी के कहने पर ध्यान देते हैं तो अकारण व्यवधान पैदा होगा और अपने मार्ग पर चलने में विलंब करने से हानि भी हो सकती है। एक बात मान कर चलिए यहां ज्ञान बघारने वालों की कमी नहीं है। ऐसे लोग जिन्हें किसी भक्ति या सांसरिक क्षेत्र का खास ज्ञान नहीं होता वह खालीपीली अपनी सलाहें देते हैं और अपने अनुभव भी ऐसे बताते हैं जो उनके खुद नहीं बल्कि किसी अन्य व्यक्ति ने उनको सुनाये होते हैं।

इतना ही नहीं जब अपने मार्ग पर चलेंगे तो दस लोग टोकेंगे। आपके कार्यो की मीनमीेख निकालेंगे और तमाम तरह के भय दिखाऐंगे। इन सबकी परवाह मत करो और चलते जाओ। यही जीवन का नियम है। हम देख सकते हैं जो लोग अपने जीवन में सफल हुए हैं उन्होंने अन्य लोगों की क्या अपने लोगों भी परवाह नहीं की। जिन्होनें परवाह की ऐसे असंख्य लोगों को हम अपने आसपास देख सकते हैं।
दूसरों की आलोचना करने वाले लोग स्वयं ही कोई काम नहीं करना जानते। बड़े काम की बात तो छोडि़ये छोटे काम तक के उद्देश्य और प्रक्रिया का ज्ञान उनको नहीं होता। अगर कोई छोटा काम प्रारंभ किया जाये तो लोग अपनी प्रतिकूल टीका टिप्पणी से बाज नहीं आते ऐसे में अगर कोई बड़ा और महत्वपूर्ण कार्य प्रारंभ किया जाये तो उस पर तो लोग अनावश्यक रूप से वैसे ही अंटसंट बोलते रहते हैं। ऐसे में अगर हमने कोई महत्वपूर्ण काम प्रारंभ किया है तो फिर लोगों की आलोचना की परवाह नहीं करना चाहिये क्योंकि केवल टीका टिप्पणियां करने वाले लोग स्वयं निष्क्रिय होते हैं या अपना समय व्यर्थ के कार्यों में नष्ट करते हैं।
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Wednesday, January 07, 2009

विदुर नीति: रूखी वाणी मर्म को दग्ध कर देती है

1.दूसरों के अभद्र शब्द सुनकर भी स्वयं उन्हें न कहे। क्षमा करने वाला अगर अपने क्रोध को रोककर भी बदतमीजी करने वाले का नष्ट कर और उसके पुण्य भी स्वयं प्राप्त कर लेता है।
2.दूसरों से न तो अपशब्द कहे न किसी का अपमान करें, मित्रों से विरोध तथा नीच पुरुषों की सेवा न करें।सदाचार से हीन एवं अभिमानी न हो। रूखी तथा रोष भरी वाणी का परित्याग करं।
3.इस जगत में रूखी या शुष्क वाणी, बोलने वाले मनुष्य के ही मर्मस्थान हड्डी तथा प्राणों को दग्ध करती रहती है। इस कारण धर्मप्रिय लोग जलाने वाली रूखी वाणी का उपयोग कतई न करें।
4.जिसकी वाणी रूखी और शुष्क है, स्वभाव कठोर होने के साथ ही वह जो दूसरों के मर्म कटु वचन बोलकर दूसरों के मन पर आघात और मजाक उड़ाकर पीड़ा पहुंचाता है वह मनुष्यों में महादरिद्र है और वह अपने साथ दरिद्रता और मृत्यु को बांधे घूम रहा है।
5.कोई मनुष्य आग और सूर्य के समान दग्ध करने वाले तीखे वाग्बाणों से बहुत चोट पहुंचाए तो विद्वान व्यक्ति को चोट खाकर अत्यंत वेदना सहते हुए भी यह समझना कि बोलने वाला अपने ही पुण्यों को नष्ट कर रहा है।
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Tuesday, January 06, 2009

रहीम संदेश: ताकत की पहचान है नम्रता का गुण

रहिमन करि सम बल नहीं, मानत प्रभू की धाक
दांत दिखावत दी ह्यै, चलत घिसावत नाक


कविवर रहीम जी के मतानुसार हाथी के समान किसी में बल नहीं है पर वह भी भगवान की शक्ति को मानता है और अपनी नाक जमीन पर रगड़ता हुआ चलता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यहां रहीम ने विनम्रता के गुण का बखान किया है। भौतिकतावाद ने लोगों के संस्कारों को एकदम नष्ट कर दिया है। यही कारण है कि लोगों मेें अहंकार की प्रवृत्ति भयानक रूप से बढ़ गयी है। अपने आगे कोई किसी को समझता ही नहीं। सभी अपना सिर उठाये ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे कि उनके पास ही सारी दुनियां के सुख साधन हैं। हालत यह है कि सुविधाओं की उपलब्धि के कारण शारीरिक व्यायाम तो कम हो गया है पर किसी को पकड़ कर जमीन पर पटकने की प्रवृत्ति जोर मारने लगी है। ताकत कम गुस्सा ज्यादा मार खाने की निशानी। यही कारण है कि छोटा हो या बड़ा किसी में सहनशीलता नहीं है। जहां देखो वही झगड़े पर आमदा लोग देखे जा सकते हैं। बातचीत में विनम्रता तो है ही नहीं। सभी के शब्दों में अहंकार भरा पड़ा है।

हाथी जो सभी जीवों में शक्तिशाली है वह जमीन पर सूंढ़ को रगड़ता हुआ चलता है। यह इस बात का प्रमाण है कि शक्तिशाली व्यक्ति को विनम्र होना चाहिये। जिसमें विनम्रता नहीं है वह शक्तिशाली नहीं होता। बरगत को पेड़ झुका है तभी किसी को छाया दे पाता है। यानि शक्तिशाली लोग दूसरों को आसरा देते हैं न कि किसी को डरा घमका कर काम चलाते हैं। अगर कोई अकड़ दिखाता है समझ लो कि वह कमजोर आदमी है और उससे संपर्क रखना ही गलत है। अगर कोई विनम्रता से व्यवहार कर रहा है तो समझ लो कि वह शक्तिशाली है और ऐसे व्यक्ति से संपर्क बढ़ाने से जीवन में सहयोग की आशा भी की जा सकती है। एक बात और है कि अगर हमारे अंदर कोई विशेष गुण या वस्तु है तो उसका भी अहंकार न कर दूसरों के साथ उसका लाभ बांटना चाहिये। यही होता है आदमी की शक्ति का प्रमाण कि वह दूसरे में हौंसला और विश्वास बढ़ाये न कि उसे गिराये।
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Monday, January 05, 2009

भर्तृहरि संदेश: मदक्षीण होते हुए भी हाथी की शोभा नहीं जाती

मणिः शाणोल्लीढः समर विजयी हेतिदलितो
मदक्षीणो नागः शरदि सरितः श्यानपुलिनाः


हिंदी में भावार्थः शान (खराद) द्वारा तराशा गया मणि, हथियारों से घायल होने पर युद्धविजेता, मदक्षीण हाथी,शरद ऋतु में किनारे सूखे होने पर नदियां, कलाशेष चंद्रमा, और पवित्र कार्यों में धन खर्च कर निर्धन हुए मनुष्य की शोभा नहीं जाती।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोग अपने चेहरे पर निखार लाने के लिये श्रृंगार का सामान उपयोग लाते हैं। पहले तो स्त्रियों ही अपनी सजावट के लिये श्रृंगार का उपयोग करती थीं पर अब तो पुरुष भी उनकी राह चलने लगे हैं। अपने शरीर पर कोई पसीना नहीं देखना चाहता। लोग दिखावे की तरफ अधिक आकर्षित हो रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि शारीरिक श्रम को लोग पहले से अधिक हेय समझने लगे हैं। स्मार्ट दिखने के लिये सभी जगह होड़ लगी है। सच तो यह है कि दैहिक आकर्षण थोड़ी देर के लिये प्रभाव डालता है पर अपने हाथों से निरंतर पवित्र कार्य किये जायें तो चेहरे और व्यक्तित्व में स्वयं ही निखार आ जाता है। जो लोग सहजता पूर्वक योग साधना, ध्यान, सत्संग और दान के कार्य मेें लिप्त होते हैं उनका व्यक्ति इतना प्रभावी हो जाता है कि अपरिचित भी उनको देखकर आकर्षित होता है।

कितना भी आकर्षक क्यों न हो धनी होते हुए भी अगर वह परोपकार और दान से परे हैं तो उसका प्रभाव नहीं रहता। खालीपीली के आकर्षण में कोई बंधा नहीं रहता। धनी होते हुए भी कई लोगों को दिल से सम्मान नहीं मिलता और निर्धन होते हुए भी अपने पूर्व के दान और पुण्र्य कार्यों से अनेक दानवीरों को सम्मान मिलता है। सच तो यह है कि अपने सत्कर्मों से चेहरे में स्वतः ही निखार आता है और स्वार्थी और ढोंगी लोग चाहे कितना भी श्रृंगार कर लें उनके चेहरे पर चमक नहीं आ सकती।
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Sunday, January 04, 2009

कबीर के दोहे: दुविधा में पड़कर अन्य स्वरूप की भक्ति न करें


मुख से नाम रटा करैं, निस दिन साधुन संग
कहु धौं कौन कुफेर तें, नाहीं लागत रंग

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि साधुओं के साथ नियमित संगत करने और रात दिन भगवान का नाम जाप करते हुए भी उसका रंग इसलिये नहीं चढ़ता क्योंकि आदमी अपने अंदर के विकारों से मुक्त नहीं हो पाता।

सौं बरसां भक्ति करै, एक दिन पूजै आन
सौ अपराधी आतमा, पड़ै चैरासी खान


कई बरस तक भगवान के किसी स्वरूप की भक्ति करते हुए किसी दिन दुविधा में पड़कर उसके ही किसी अन्य स्वरूप में आराधना करना भी ठीक नहीं है। इससे पूर्व की भक्ति के पुण्य का नाश होता है और आत्मा अपराधी होकर चैरासी के चक्कर में पड़ जाती है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भगवान का नाम लेना और साधुओं के आश्रमों मेंे जाकर हाजिरी देना कोई भक्ति का प्रमाण नहीं हैं। भीड़ में बैठकर भगवान का नाम लेकर शोर मचाने से भी कोई भक्ति नहीं हो जाती। लोग बरसों तक ऐसा करते हैं पर मन में फिर भी चैन नहीं पाते। मन में शांति तभी संभव है जब एकाग्र होकर हृदय भगवान के नाम का स्मरण किया जाये। ऐसा नहीं कि आंखें बंद कर मूंह से भगवान का नाम जाप कर रहे हैं और अंदर कुछ और ही विचार आ रहे हैं। कुछ लोग विशेष अवसर पर प्रसिद्ध मंदिरों और आश्रमों में जाकर मत्था टेक कर अपनी भक्ति को धन्य समझते हैं-ऐसा करना भगवान को नहीं बल्कि अपने आपको धोखा देना है। सबसे बड़ी बात यह है कि अगर अपने आचरण में पवित्रता नहीं है तो इसका मतलब यह है कि भक्ति एक धोखा है। जब तक आचार विचार और व्यवहार में पवित्रता नहीं रहेगी तब तक भगवान के नाम लेने का सकारात्मक प्रभाव नहीं हो सकता।

कुछ लोग अपने जीवन में बरसोंे तक भगवान के किसी एक ही स्वरूप की आराधना करते हैं। धीरे धीरे उनके अंदर भक्ति का रंग चढ़ने लगता है पर अचानक ही उनको कोई दूसरे स्वरूप या गुरु को पूजने के लिये प्रेरित करता है तो वह उसकी तरफ मुड़ जाते हैं। यह उनकी बरसों से की गयी भक्ति की कमाई को नष्ट कर देता है। जब सभी कहते हैं कि भगवान तो एक ही फिर उसके लिये स्वरूप में बदलाव करना केवल धोखा है यह अलग बात है कि उसकी प्रेरणा देने वाला भक्त को दे रहा है या भक्त स्वयं ही उसकी लिये उत्तरदायी है।
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Saturday, January 03, 2009

श्रीसीता जी ने अहिंसा धर्म का प्रतिपादन किया था-आलेख

बाल्मीकी रामायण एक प्राचीनतम ग्रंथ है। देखा जाये तो भगवान श्री रामचंद्र जी का चरित्र अत्यंत प्राचीनतम माना जाता है। वैसे तो हमारे यहां भगवान के अवतार उनसे पूर्व भी हुए हैं पर भगवान श्रीरामचंद्र जी से एक ऐसी सभ्यता प्रारंभ होती है जिसे आचरण की दृष्टि से मजबूत माना जाता है। हम इस समय विश्व में प्रचलित धर्म या विचाराधाराओं को देखें तो उसमें भगवान श्रीरामचंद्र जी का चरित्र सबसे अधिक प्राचीन है। एक बात जो महत्वपूर्ण है वह यह कि विश्व में अहिंसा धर्म की बहुत चर्चा होती है तो उसकी चर्चा भी उसी में मिलती है। वैसे भगवान श्रीकृष्ण जी ने भी अहिंसा धर्म का प्रतिपादन किया है पर भगवान श्रीरामचंद्र के काल में उनकी पत्नी श्रीसीता जी ने भी अपने पति को अहिंसा धर्म के प्रेरित किया था। इस संबंध में इस लेखक ने एक पाठ लिखा था जो आज प्रस्तुत किया जा रहा है। वैसे अधिकतर लोग कहते हैं कि सभी प्रकार के विचार या धर्म पुरुषों द्वारा सृजित किये गये हैं। उनका यह तर्क भारतीय दृष्टिकोण से तो ठीक नहीं हैं क्योंेकि हमारे यह सभी धार्मिक महानायकों के साथ उनकी स्त्रियों को भी उतनी ही श्रद्धा से देखा जाता है क्योंकि वह अपने समय कोइ निष्क्रिय भूमिका में नहीं रहतीं थीं। यह अलग बात है कि कालांतर में उनको ऐसा प्रस्तुत किया गया। ऐसे में यह पाठ इस आशय से प्रस्तुत किया जा रहा है कि हमारे समाज के निर्माण में स्त्रियों की भूमिका भी कोई कम नहीं है।

इस पाठ को पढ़ने से तो यह लगता है कि अहिंसा धर्म की एक तरह से प्रतिपादक थीं। उन्होेंने भगवान श्रीरामचंद्र जी को अहिंसा धर्म में प्रवृत्त रहने का आग्रह किया। भले ही यह स्त्रियो के सुकोमल भाव के कारण उन्होंने ऐसा किया पर फिर भी अहिंसा धर्म के प्रतिपादकों में उनका नाम सबसे पहले आता है। फिर अनेक ज्ञानी और विद्वान लोग अहिंसा के प्रतिपादकों में उनका नाम पहले क्यों नहीं लेते? श्रीसीता जी की तो स्पष्ट मान्यता थी कि हथियार रखने मात्र से ही आदमी के मन में हिंसा का भाव आता है। फिर उन्होंने अहिंसा का धर्म सही रूप में प्रस्तुत किया कि अपने प्रति अपराध न करने वाले व्यक्ति के प्रति हिंसा अनुचित है। अर्थात जो अपराध करता है उसको दंड देने का वह विरोध नहीं करती। ऐसा विचार शायद ही किसी ने रखा हो। बहरहाल यह लेख पुनः प्रस्तुत है।
वाल्मीकि रामायण से-शस्त्रों का संयोग ह्रदय में विकार का उत्पादक
अपने वन प्रवास के दौरान सुतीक्षण के आश्रम से निकलकर जब श्री राम अपनी धर्म पत्नी सीताजी और भ्राता लक्ष्मण में साथ आगे चले। अपने पति द्वारा राक्षसों के वध करने के प्रतिज्ञा से वह दुखी थीं इसलिए उन्होने इससे हटने के लिए उनसे हिंसा छोड़ने का आग्रह किया और निम्नलिखित कथा सुनाई

पूर्वकाल की बात है किसी पवित्र वन में जहाँ मृग और पक्षी बडे आनंद से रहते थे वहीं एक सत्यवादी एवं पवित्र तपस्वी निवास करते थे। उन्हीं की तपस्या में विघ्न डालने के लिए शचिपति इन्द्र किसी योद्धा का रूप धारण कर हाथ में तलवार एक दिन उनके आश्रम पर आये। उन्होने मुनि के आश्रम में अपना उतम खड्ग रख दिया। पवित्र तपस्या में लगे हुए मुनि को धरोहर के रूप में वह खड्ग दे दिया। उस शस्त्र को पाकर मुनि प्रसन्नता के साथ उस धरोहर की रक्षा में लग गए, वे अपने विश्वास की रक्षा के लिए वन में विचरते समय भी उसे अपने साथ रखते थे। धरोहर की रक्षा में तत्पर रहने वाले वे मुनि फल-मूल लेने के लिए जहाँ-कहीं भी जाते, उस खड्ग की साथ लिए बिना नहीं जाते। तप ही जिनका धन था उस मुनि ने प्रतिदिन शस्त्र ढोते रहने के कारण क्रमश: तपस्या का निश्चय छोड़कर अपनी बुद्धि को क्रूरतापूर्ण बना लिया। फिर तो अधर्म ने उन्हें आकृष्ट कर लिया। वे मुनि प्रमादवश रोद्र कर्म में तत्पर हो गये और उस शस्त्र के सहवास से अंतत: उनको में नरक जाना पडा।

इस प्रकार शस्त्र का संयोग होने के कारण पूर्वकाल में उन तपस्वी मुनि को ऐसी दुर्दशा भोगनी पडी। जैसे आग का संयोग ईंधन के जलाने का कारण होता है उसी प्रकार शस्त्रों का संयोग शस्त्रधारी के हृदय में विकार का उत्पादक कहा गया है।

आगे सीता जी कहतीं हैं कि-'मेरे मन में आपके प्रति जो स्नेह और विशेष आदर है उसके कारण मैं आपको उस प्राचीन घटना की याद दिलाती हूँ तथा यह शिक्षा भी देती हूँ कि आपको धनुष लेकर किसी तरह बिना कारण के ही वन में रहने वाले राक्षसों के वध का विचार नहीं करना चाहिए। आपका बिना किसी अपराध के किसी को मारना संसार के लोग अच्छा नहीं समझेंगे। अपने मन और इन्दिर्यों को वश में रखने वाले वीरों के लिए वन में धनुष धारण करने का इतना प्रयोजन है कि वे संकट में पड़े हुए प्राणियों की रक्षा करें।''

अरण्यकाण्ड के नौवें सर्ग से लिए गया यह वृतांत इस उद्देश्य से प्रस्तुत किया गया है कि लोग अस्त्रों-शस्त्रों को शौक के लिए अपने पास भी रखते है और उसके जो परिणाम आते हैं वह बहुत भयावह होते हैं ।
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Friday, January 02, 2009

कबीर के दोहे:हाथी के मुहँ से दाना गिरे तो उसे अन्तर नहीं पड़ता

कुंजी मुख से कन गिरा, खुटै न वाको आहार
कौड़ी कन लेकर चली, पोषन दे परिवार

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि खाते हुए हाथी के मुख से यदि अन्न का दाना गिर जाये तो उसके आहार पर कोई अंतर नहीं पड़ता पर उसे चींटी ले जाकर अपने परिवार का भरण-पोषण करती है। इस तरह यह संसार दया भाव पर चलता है।
भावे जाओ बादरी, भावै जावहु गया
कहै कबीर सुनो भाई साधो, सब ते बड़ी दया

संंत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि चाहे बद्रीनाथ जाओ या गया धाम, जहां अच्छा लगे वहां जाओं पर इस संसार में मन को प्रसन्न करने का केवल एक ही तरीका है कि दूसरे पर दया करो।
जहां दया वहां धर्म है, जहां लोभ तहं पाप
जहां क्रोध वहां काल है, वहां क्षमा वहां आप

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जहां दया है वहीं धर्म स्थित होता है और जहां लोभ है वहां पाप है। जहां क्रोध है वहां काल और जहां क्षमा है वहां परमात्मा का वास है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अधिकतर लोग अपने स्वार्थ की सिद्धि कर ही यह मानते हैं कि उन्होंने अपनी कर्तव्य को पूरा कर लिया। अपने परिवार का भरण भोषण करते हुए उसके सदस्यों की मांगों की पूर्ति करने का अर्थ यह नहीं कि हम संसार चला रहे हैं। सुख और दुःख से कोई मुक्त नहीं है। आपत्ति और प्रसन्नता समय के अनुसार सभी को प्राप्त होती है पर फिर भी हमारे लिये परीक्षा के क्षण तब आते हैं जब कि अन्य व्यक्ति को हमारी जरूरत होती है।

समय आने पर दूसरे की मदद करने वाले लोग भी हो्रते हैं। हम समय पड़ने पर किसी की सहायता न करें पर कोई तो किसी की मदद करता ही है। काम किसी का रुकता नहीं है पर हम अगर यह सोचकर किसी की सहायता नहीं करते कि कोई अन्य आकर कर लेगा तो हम अपने धर्म से विमुख होते हैं।
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Thursday, January 01, 2009

भृतहरि संदेश: मद्यपान से लज्जा समाप्त हो जाती है

दौर्मन्त्र्यान्नृपतिर्विनष्यति यतिः सङगात्सुतालालनात् विप्रोऽन्ध्ययनात्कुलं कुतनयाच्छीलं खलोपासनात्
ह्यीर्मद्यादनवेक्षणादपि कृषिः स्नेहः प्रवासाश्रयान्मैत्री चाप्रणयात्सृद्धिरनयात् त्यागपमादाद्धनम्


हिंदी में भावार्थ-कुमित्रता से राजा, विषयासक्ति और कामना योगी, अधिक स्नेह से पुत्र, स्वाध्याय के अभाव से विद्वान, दुष्टों की संगत से सदाचार, मद्यपान से लज्जा, रक्षा के अभाव से कृषि, परदेस में मित्रता, अनैतिक आचरण से ऐश्वर्य, कुपात्र को दान देने वह प्रमाद से धन नष्ट हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ संक्षिप्त व्याख्या-आशय यह है कि जीवन में मनुष्य जब कोई कर्म करता है तो उसका अच्छा और बुरा परिणाम यथानुसार प्राप्त होता है। कोई मनुष्य ऐसा नहीं है जो हमेशा बुरा काम करे या कोई हमेशा अच्छा काम करे। कर्म के अनुसार फल प्राप्त होता है। अच्छे कर्म से अर्थ और सम्मान की प्राप्ति होती है। ऐसे में अपनी उपलब्ध्यिों से जब आदमी में अहंकार या लापरवाही का भाव पैदा होता है तब अपनी छबि गंवाने लगता है। अतः सदैव अपने कर्म संलिप्त रहते हुए अहंकार रहित जीवन बिताना चाहिये।

यह मानकर चलना चहिये कि हमें मान, सम्मान तथा लोगों का विश्वास प्राप्त हो रहा है वह अच्छे कर्मों की देन है और उनमें निरंतरता बनी रहे उसके लिये कार्य करना चाहिये। अगर अपनी उपलब्धियों से बौखला कर जीवन पथ से हट गये तो फिर वह मान सम्मान और लोगों का विश्वास दूर होने लगता है।
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