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Sunday, November 30, 2008

संत कबीरदास सन्देश:जंग लड़ने वाले नहीं बल्कि मिलबांटकर खाने वाले हैं सच्चे योद्धा

कबीर तो सांचै मतै, सहै जू सनमुख वार
कायर अनी चुभाय के, पीछे झखै अपार


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहत हैं कि सच्चा वीर तो वह है जो सामने आकर लड़ता है पर जो कायर है वर पीठ पीछे से वार करता है।

तीर तुपक सों जो लड़ैं, सो तो सूरा नाहिं
सूरा सोइ सराहिये, बांटि बांटि धन खांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो अस्त्र शस्त्र से लड़ते है। उनको वीर नहीं कहा जा सकता है। सच्चे शूरवीर तो हैं जो आपस में मिल बैठकर खाते हैं। वह जो भी कमाते हैं उसे समान रूप से आपस में बांटते हैं।

वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-शूरवीर हमेशा उसे ही माना जाता है जो अस्त्र शस्त्र का उपयोग करता है। उनमें भी वही वीर है जो सामने से वार करता है पर जो कायर हैं वह पीठ पीछे वार करते हैं। वैसे अस्त्र शस्त्र से लड़ने में भी साहस की आवश्यकता कहां होती है। अगर अस्त्र शस्त्र हाथ में हों तो वेसे भी मनुष्य के मन में दुस्साहस आ ही जाता है और कोई भी उपयोग कर सकता है। कुछ लोग कहते हैं कि हथियार रखने से क्या होता है उसे चलाने के लिये साहस भी होना चाहिये-विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर लोहे से बना कोई हथियार मनुष्य के हाथ में हो तो उसमें आक्रामता आ ही जाती है।

असली साहस तो अपने कमाये धन का दूसरे के साथ बांटकर खाने में दिखाना चाहिये। आदमी जब धन कमाता है तो उसके प्रति उसका मोह इतना हो जाता है कि वह उसे किसी को थोड़ा देने में भी हिचकता है। मिलकर बांटने की बात तो छोडि़ये अपनी रोटी का छोटा टुकड़ा देने में भी आदमी की जान जाती है।

हमारे प्राचीन मनीषियों ने दान की महिमा को इसलिये प्रतिपादित किया कि समाज में सामाजिक समरसता का भाव रहे। हमारे अध्यात्म में इतना तक कहा गया है कि किसी को दान देते हुए आंखें नीची करना चाहिये ताकि दूसरे को हमारा अहंकार नहीं दिखाई दे और उसके अंदर अपने प्रति कुंठा भाव न उत्पन्न हो। मगर अब तो समाज कल्याण की बात राज्य के भरोसे छोड़ दी गयी है और वही लोग जन कल्याण के लिये मैदान में उतर रहे हैं जिनको उससे कुछ आर्थिक फायदा है। यह लोग कायर होते हैं क्योंकि दान और कल्याण क लिये प्राप्त धन का वह हरण करते हैं।

कलुषित तरीके से प्राप्त धन का भी वह दान करने का साहस नहीं कर पाते। अपने धन देने में सभी का हृदय कांपने लगता है। सच है कि जो दानी है वही सच्चा शूरवीर है। वह भी सच्चा वीर है जो अस्त्र शस्त्र लेकर कहकर सामने से प्रहार करता है पर आजकल तो कायरों की पूरी फौज है जो पीठ पीछे से वार करती है। चोर और डकैतों द्वारा किये गये और अपराध और निरंतर बम धमाकों की बढ़ती घटनायें इस बात का प्रमाण हैं।
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Saturday, November 29, 2008

संत कबीरदास सन्देश:कलियुग में होता है मसखरों का सम्मान

कबीर कलियुग कठिन हैं, साधू न मानै कोय
कामी क्रोधी मसखरा तिनका आदर होय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अब इस घोर कलियुग में कठिनाई यह है कि सच्चे साधू को कोई नहीं मानता बल्कि जो कामी, क्रोधी और मसखरे हैं उनका ही समाज में आदर होने लगा है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर हम कबीरदास जी के इस कथन के देखें तो हृदय की पीडा कम ही होती है यह सोचकर कि उनके समय में भी ऐसे लोग थे जो साधू होने के नाम पर ढोंग करते थे। हम अक्सर सोचते हैं कि हम ही घोर कलियुग झेल रहे हैं पर ऐसा तो कबीरदास जी के समय में भी होता था। धर्म प्रवचन के नाम पर तमाम तरह के चुटकुले सुनकर अनेक संत आजकल चांदी काट रहे हैं। कई ने तो फाईव स्टारआश्रम बना लिए हैं और हर वर्ष दर्शन और समागम के नाम पर पिकनिक मनाने तथाकथित भक्त वहाँ मेला लगाते हैं। सच्चे साधू की कोई नहीं सुनता। सच्चे साधू कभी अपना प्रचार नहीं करते और एकांत में ज्ञान देते हैं और इसलिए उनका प्रभाव पड़ता है। पर आजकल तो अनेक तथाकथित साधू-संत चुटकुले सुनाते हैं और अगर अकेले में किसी पर नाराज हो जाएं तो क्रोध का भी प्रदर्शन करते हैं। उनके ज्ञान का इसलिए लोगों पर प्रभाव नहीं पड़ता भले ही समाज में उनका आदर होता हो।
अनेक कथित संत और साधु अपने प्रवचनों के चुटकलों के सहारे लोगों का प्रभावित करने का प्रयास करते हैं। लोग भी चटखारे लेकर अपने दिल को तसल्ली देते हैं कि सत्संग का पुण्य प्राप्त कर रहे हैं। यह भक्ति नहीं बल्कि एक तरह से मजाक है। न तो इससे मन में शुद्धता आती है और न ज्ञान प्राप्त होता है। सत्संग करने से आशय यह होता है कि उससे मन और विचार के विकार निकल जायें और यह तभी संभव है जब केवल अध्यात्मिक ज्ञान की चर्चा हो। इस तरह चुटकुले तो मसखरे सुनाते हैं और अगर कथित संत और साधु अपने प्रवचन कार्यक्रमों में सांसरिक या पारिवारिक विषय पर सास बहु और जमाई ससुर के चुटकुले सुनाने लगें तो समझ लीजिये कि वह केवल मनोरंजन करने और कराने के लिये जोगी बने है। ऐसे में न तो उनसे लोक और परलोक सुधरना तो दूर बिगड़ने की आशंका होती है।
आदमी के मन को मनोरंजन की आवश्यकता होती है तो उसे कभी अध्यात्मिक भूख भी लगती है उस समय वह अपने आपको जानना चाहता है। कथित संत लोग एक साथ दोनों की कमी पूरी कर समाज में पुजते हैंं। मनोरंजन करने वाले तो केवल अपना काम करते हैं जबकि संत अपने लोगों को अध्यात्मक की आड़ में चुटकुले सुनाकर भटकाते हैं। अध्यात्मिक साधना का मतलब है एकांत में अपने आपसे सहजता से संपर्क कर अपने हृदय को शांत करना।
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Friday, November 28, 2008

चाणक्य नीति:शठ के साथ सख्ती कर ही अपनी रक्षा संभव

1-पाँव धोने का जल और संध्या के उपरांत शेष जल विकारों से युक्त हो जाता अत: उसे उपयोग में लाना अत्यंत निकृष्ट होता है। पत्थर पर चंदन घिसकर लगाना और अपना ही मुख पानी में देखना भी अशुभ माना गया है।
2-बिना बुलाए किसी के घर जाने की बात, बिना पूछे दान देना और दो व्यक्तियों के बीच वार्तालाप में बोल पडना भी अधम कार्य माना जाता है।
3-शंख का पिता रत्नों की खदान है। माता लक्ष्मी है फिर भी वह शंख भीख माँगता है तो उसमें उसके भाग्य का ही खेल कहा जा सकता है।
4-उपकार करने वाले पर प्रत्युपकार, मारने वाले को दण्ड दुष्ट और शठ के सख्ती का व्यवहार कर ही मनुष्य अपनी रक्षा कर सकता है।
5-धूर्तता, अन्याय और बैईमानी आदि से अर्जित धन से संपन्न आदमी अधिक से अधिक दस वर्ष तक संपन्न रह सकता है, ग्यारहवें वर्ष में मूल के साथ-साथ पूरा अर्जित धन नष्ट हो जाता है।
*इसका सीधा आशय यह है कि भ्रष्ट और गलत तरीके से कमाया गया पैसा दस वर्ष तक ही सुख दे सकता है, हो सकता है कि इससे पहले ही वह नष्ट हो जाय।
6- अर्थाभाव में मित्र, स्त्री, नौकर स्नेहीजन भी व्यक्ति का आदर नहीं करते, यदि वही व्यक्ति पुन: संपन्न हो जाये तो अनादर करने वाले फिर आदर करने लगते हैं।

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Wednesday, November 26, 2008

संत कबीरदास सन्देश:ह्रदय की तृष्णा भटकाती है

आस आस घर घर फिरै, सहै दुखारी चोट
कहैं कबीर भरमत फिरै,ज्यों चैसर की गोट

संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि अपने हृदय में आशा कर मनुष्य घर घर भटकता है पर पर उसे दूसरे के मुख से अपने लिये अपमान के वचन सुनने पड़ते हैं। केवल आशा पूरी होने के लिये अपनी अज्ञानता के कारण मनुष्य चैसर के गोट की तरह कष्ट उठाता है।
आशा तृस्ना सिंधु गति, तहां न मन ठहराय
जो कोइ आसा में फंसा, लहर तमाचा खाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं आशा और तृष्णा और समुद्र की लहरों के समान है हो उठती और गिरती हैं जो मनुष्य इसके चक्कर में फंसता है वह इसके तमाचा खाता रहता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अपना हर कार्य अपने ऊपर ही रखना चाहिए। इस सांसरिक जीवन में सारे कार्य अपने नियत समय पर होते हैं और मनुष्य को केवल निष्काम भाव से कार्य करते हुए ही सुख की प्राप्त हो सकती हैं। श्रीगीता में निष्काम भाव से कार्य करने का उपदेश इसलिये दिया गया है। यह संसार अपनी गति से चल रहा है और उसमें सब कर्मों का फल समय पर प्रकट होता। मनुष्य सोचता है कि मैं इसे चला रहा हूं इसलिये वह अपने ऐसे कार्यों के लिये दूसरों से आशा करता है जो स्वतः होने हैं और अगर मनुष्य उसके लिये अपने कर्म करते हुए परिणाम की परवाह न करे तो भी फलीभूत होंगे। जब अपने आशा पूर्ति के लिये आदमी किसी दूसरे घर की तरफ ताकता है तो उसे उसे अपना आत्मसम्मान भी गिरवी रखना पड़ता है। वैसे अपना कर्म करते जाना चाहिये क्योंकि फल तो प्रकट होगा ही आखिर वह भी इस संसार का एक ही भाग है। आशा और कामना का त्याग कर इसलिये ही निष्काम भाव से कार्य करने का संदेश दिया गया है।
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Thursday, November 20, 2008

संत कबीरदास सन्देश: जो गुरु भ्रम न मिटा सके उससे त्याग दें

गुरवा तो सस्ता भया, पैसा केर पचास
राम नाम धन बेचि के, शिष्य करन की आस

संत श्री कबीरदास जी के समय में भी गुरुओं की माया ऐसी हो गयी थी कि उनको कहना पड़े कि गुरु तो अब सस्ते हो गये हैं। पैसे के दम पर पचास गुरु कर लो। ऐसे गुरु राम नाम को बेच कर धन कमाते हैं और यह आशा करते हैं कि उनको शिष्य मिलें।

जा गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रांति न जिया की जाये
सो गुरु झूठा जानिए, त्यागत देर न जाए


संत शिरोमणि कबीरदास के अनुसार जिस गुरु के पास जाकर मन के भ्रम का निवारण नहीं होता उसे झूठा समझ कर त्याग दें। भ्रम के साथ जीवन जीना बेकार है और जो गुरु उसका निवारण नहीं कर सकता वह ढोंगी है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कितनी आश्चर्य की बात है कि सैंकड़ों वर्ष पूर्व संत कबीरदास जी द्वारा कही गयी बात आज भी प्रासंगिक लगती है। यही कारण है कि भारतीय अध्यात्म विश्व में किसी अन्य ज्ञान से अधिक सत्य के निकट है पर यहां सर्वाधिक भ्रम में लोग रहते हैं। सब जानते हैं कि माया मिथ्या है पर उसी के इर्द गिर्द घूमते हैं। मजे की बात यह है कि भारतीय अध्यात्म के कथित ढोंगी प्रचारक प्राचीन ग्रंथों में वर्णित केवल उन्हीं प्रसंगों को उठाते हैं जिससे लोगों का मनोरंजन हो पर तत्वाज्ञान से वह अवगत न हों। कहानियां और किस्से सुनाकर लोगों को मनुष्य जीवन का रहस्य समझाते है पर तत्व ज्ञान की चर्चा ऐसे करते हैं जैसे देह से ही उसका संबंध हो। कर्मकांडों और यज्ञों के लिये प्रेरित करते हैं ताकि उसकी आड़ में उनको गुरुदक्षिणाा मिलती रहे।

गुरुओं को शिष्य हमेशा यही कहते हैं कि ‘हमारा तो गुरू बैठा है’। मतलब यह है कि उनके लिये वही भगवान है।’

बलिहारी गुरु जो आपकी जो गोविंद दिया दिखाय-इस वाक्य का उच्चारण हर गुरु करता है पर वह किसी को गोविंद नहंी दिखा पाता। लोग भी बिना गोविंद को देखे अपने गुरु को ही गोविंद जैसा मानने लगते हैं। गोविंद को केवल तत्वज्ञान से ही अनुभव किया जा सकता है पर न तो गुरु उसको बताते हैं और न ही शिष्य उसका मतलब जानते हैं। गोल गोल केवल इसी माया के चक्कर में दोनों घूमते हैं। यही कारण है कि भारतीय समाज अपने ही देश में प्रवर्तित अध्यात्म ज्ञान से परे हैं जिसे आज पूरा विश्व मानता है।
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Sunday, November 09, 2008

भृतहरि शतक:बड़े लोगों को हमेशा प्रसन्न रखना संभव नहीं

दुरारध्याश्चामी तुरचलचित्ताः क्षितिभुजो वयं
तु स्थूलेच्छाः सुमहति बद्धमनसः
जरा देहं मृत्युरति दयितं जीवितमिदं
सखे नानयच्छ्रेयो जगति विदुषेऽन्यत्र तपसः


हिंदी में भावार्थ- जिन राजाओं का मन घोड़े की तरह दौड़ता है उनको कोई कब तक प्रसन्न रख सकता है। हमारी अभिलाषायें और आकांक्षायें की तो कोई सीमा ही नहीं है। सभी के मन में बड़ा पद पाने की लालसा है। इधर शरीर बुढ़ापे की तरह बढ़ रहा होता है। मृत्यु पीछे पड़ी हुई है। इन सभी को देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि भक्ति और तप के अलावा को अन्य मार्ग ऐसा नहीं है जो हमारा कल्याण कर सके।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोगों के मन में धन पाने की लालसा बहुत होती है और इसलिये वह धनिकों, उच्च पदस्थ एवं बाहुबली लोगों की और ताकते रहते हैं और उनकी चमचागिरी करने के लिये तैयार रहते हैं। उनकी चाटुकारिता में कोई कमी नहीं करते। चाटुकार लोगांें को यह आशा रहती है कि कथित ऊंचा आदमी उन पर रहम कर उनका कल्याण करेगा। यह केवल भ्रम है। जिनके पास वैभव है उनका मन भी हमारी तरह चंचल है और वह अपना काम निकालकर भूल जाते हैं या अगर कुछ देेते हैं तो केवल चाटुकारित के कारण नहीं बल्कि कोई सेवा करा कर। वह भी जो प्रतिफल देते हैं तो वह भी न के बराबर।

सच तो यह है कि आदमी का जीवन इसी तरह गुलामी करते हुए व्यर्थ चला जाता हैं। जो धनी है वह अहंकार में है और जो गरीब है वह केवल बड़े लोगों की ओर ताकता हुआ जीवन गुंजारता है। जिन लोगों का इस बात का ज्ञान है वह भक्ति और तप के पथ पर चलते हैं क्योंकि वही कल्याण का मार्ग है।
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Saturday, November 08, 2008

संत कबीर सन्देश:सुई बराबर धन दान कर स्वर्ग के विमान की तरफ देखते हैं

अहिरन की चोरी करै, करे सुई का का दान
ऊंचा चढि़ कर देखता, केतिक दूर विमान

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य अपने जीवन में तमाम तरह के अपराध और चालाकियां कर धन कमाता है पर उसके अनुपात में नगण्य धन दान कर अपने मन में प्रसन्न होते हुए फिर आसमान की ओर दृष्टिपात करता है कि उसको स्वर्ग में ले जाने वाला विमान अभी कितनी दूरी पर रह गया है।

आंखि न देखि बावरा, शब्द सुनै नहिं कान
सिर के केस उज्जल भये, अबहुं निपट अजान


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं आंखों से देख नहीं पाता, कानों से शब्द पर रहे जाते हैं और सिर के बाद सफेद होने के बावजूद भी मनुष्य अज्ञानी रह जाता है और माया के जाल में फंसा रहता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-बिना अफरातफरी के कोई भी धनी नहीं बन सकता है-ऐसा मानने वाले बहुत हैं तो हम स्वयं देख भी सकते हैं। धनी होने के बाद समाज में प्रतिष्ठा पाने के मोह से लोग दान करते हैं। कहीं मंदिर में घंटा चढ़ाकर, पंखे या कूलर लगवाकर या बैंच बनवाकर उस पर अपना नाम खुदवाते हैं। एक तीर से दो शिकार-दान भी हो गया और नाम भी हो गया। फिर मान लेते हैं कि उनको स्वर्ग का टिकट मिल गया। यह दान कोई सामान्य वर्ग के व्यक्ति नहीं कर पाते बल्कि जिनके पास तमाम तरह के छल कपट और चालाकियों से अर्जित माया का भंडार है वही करते हैं। उन्होंने इतना धन कमाया होता है कि उसकी गिनती वह स्वयं नहीं कर पाते। अगर वह इस तरह अपने नाम प्रचारित करते हुए दान न करें तो समाज में उनका कोई नाम भी न पहचाने। कई धनपतियों ने अपने मंदिरों के नाम पर ट्रस्ट बनाये हैं। वह मंदिर उनकी निजी संपत्ति होते हैं और वहां कोई इस दावे के साथ प्रविष्ट नहीं हो सकता कि वह सार्वजनिक मंदिर है। इस तरह उनके और कुल का नाम भी दानियों में शुमार हो जाता है और जेब से भी पैसा नहीं जाता। वहां भक्तों का चढ़ावा आता है सो अलग। ऐसे लोग हमेशा इस भ्रम में जीते हैं कि उनको स्वर्ग मिल जायेगा।
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शब्दयोग सारथी-पत्रिका

Friday, November 07, 2008

संत कबीर सन्देश:परनिंदा से बढ़ता है वैमनस्य

संत श्री कबीरदास जी के अनुसार
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काहू का नहिं निन्दिये, चाहै जैसा होय
फिर फिर ताको बन्दिये, साधु लच्छ है सोय


किसी भी व्यक्ति का दोष देखकर भी उसकी निंदा न करें। अपना कर्तव्य तो यही है कि जो साधु और गुणी हो उसका सम्मान करें और उसकी बातों को समझें

तिनका कबहू न निंदिये, पांव तले जो होय
कबहुं उडि़ आंखों पड़े, पीर घनेरी होय


आशय यह है कि दूसरे के दोष देखकर उसकी निंदा से बचने का प्रयास करना चाहिये। तिनके तक की निंदा भी नहीं करना चाहिये। पता नहीं कब आंखों में गिरकर त्रास देने लगे।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिसे देखो वही दूसरों की निंदा करने में लगा है। इसी प्रवृत्ति के कारण एक दूसरे से दूर हो जाते हैं। सब एक दूसरे की सामने तो प्रशंसा करते हैं पर पीठ पीछे निंदा पर आमादा हो जाते हैंं। यही कारण है कि किसी का किसी पर यकीन नहीं हैंं। अगर हम किसी की यह सोचकर निंदा करते हैं कि उससे क्या डरना वह कुछ नहीं कर सकता। यह भ्रम है। इस जीवन में पता नहीं कब किसकी आवश्यकता पड़ जाये-यही सोचकर किसी की निंदा नहीं करना चाहिये। दोष सभी में होते हैं। मानव देह तो दोषों का पुतला है फिर निंदा कर दूसरे लोगों से अपना वैमनस्य क्यों बढ़ाया जाये?

बजाय दूसरों की निंदा करने के ऐसे लोगोंे से संपर्क रखना चाहिये जो साधु प्रवृत्ति के हों। उनके सद्गुणों की चर्चा करना चाहिये। यह तय बात है कि हम अपने मूंह से अगर किसी के लिये बुरे शब्द निकालते हैं तो उसका हमारी मानसिकता पर ही बुरा प्रभाव पड़ता है। अगर किसी के बारे मे सद्चर्चा की जाये तो उसका सकारात्मक प्रभाव दिखता है।
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Tuesday, November 04, 2008

संत कबीर सन्देश:किसी निर्धन का तिरस्कार न करें

अहं अगनि हिरदै, जरै, गुरू सों चाहै मान
जिनको जम नयौता दिया, हो हमरे मिहमान


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब किसी मनुष्य में अहंकार की भावना जाग्रत होती है तो वह अपने गुरू से भी सम्मान चाहता है। ऐसी प्रवृत्ति के लोग अपने देह को कष्ट देकर विपत्तियों को आमंत्रण भेजते हैं और अंततः मौत के मूंह में समा जाते हैं।

कबीर गर्व न कीजिये, रंक न हंसिये कोय
अजहूं नाव समुद्र में, ना जानौं क्या होय


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपनी उपलब्धियों पर अहंकार करते हुए किसी निर्धन पर हंसना नहीं चाहिए। हमारा जीवन ऐसे ही जैसे समुद्र में नाव और पता नहीं कब क्या हो जाये।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अहंकार आदमी का सबसे बड़ा शत्रू होता है। कुछ लोग अपने गुरू से कुछ सीख लेकर जब अपने जीवन में उपलब्धियां प्राप्त कर लेते हैं तब उनमें इतना अहंकार आ जाता है कि वह अपने गुरू से भी सम्मान चाहते हैं। वैसे आजकल के गुरू भी कम नहीं है वह ऐसे ही शिष्यों को सम्मान देते हैं जिसके पास माल टाल हो। यह गुरू दिखावे के ही होते हैं और उन्होंने केवल भारतीय अध्यात्म ग्रंथों की विषय सामग्री को रट लिया होता है और जिसे सुनाकर वह अपने लिये कमाऊ शिष्य जुटाते हैं। गरीब भक्तों को वह भी ऐसे ही दुत्कारते हैं जैसे कोई आम आदमी। कहते सभी है कि अहंकार छोड़ दो पर माया के चक्कर में फंस गुरू और शिष्य इससे मुक्त नहीं हो पाते। ऐसे में यह विचार करना चाहिए कि हमारा जीवन तो ऐसे ही जैसे समुद्र के मझधार में नाव। कब क्या हो जाये पता नहीं। माया का खेल तो निराला है। खेलती वह है और मनुष्य सोचता है कि वह खेल रहा है। आज यहां तो कल वहां जाने वाली माया पर यकीन नहीं करना चाहिए। इसलिये अपने संपर्क में आने वाले व्यक्ति को सम्मान देने का विचार मन में रखें तो बहुत अच्छा।
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Monday, November 03, 2008

संत कबीर सन्देश:अपने गुण और रहस्य सभी जगह प्रकट न करें

हीरा तहां न खोलिए,जहां खोटी है हाट
कसि करि बांधो गठरी, उठि चालो बाट


संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि अगर अपनी गांठ में हीरा है तो उसे वहां मत खोलो जहां बाजार में खोटी मनोवृत्ति के लोग घूम रहे हैं। उस हीरे को कसकर अपनी गांठ में बांध लो और अपने मार्ग पर चले जाओ।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-संत कबीर दास जी ने यह बात व्यंजना विद्या में कही हैं। इसका सामान्य अर्थ तो यह है कि अपनी कीमती वस्तुओं का प्रदर्शन वहां कतई मत करो जहां बुरी नीयत के लोगों का जमावड़ा है। दूसरा इसका गूढ़ आशय यह है कि अगर आपके पास अपना कोई ज्ञान है तो उसे सबके सामने मत बघारो। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो आपकी बात सुनकर अपना काम चलायेंगे पर आपका नाम कहीं नहीं लेंगे या आपके ज्ञान का मजाक उड़ायेंगे क्योंकि आपके ज्ञान से उनका अहित होता होगा। अध्यात्म ज्ञान तो हमेशा सत्संग में भक्तों में ही दिया जाना चाहिए। हर जगह उसे बताने से सांसरिक लोग मजाक उड़ाने लगते हैं। समय पास करने के लिये कहते हैं कि ‘और सुनाओ, भई कोई ज्ञान की बात’।
अगर कोई तकनीकी या व्यवसायिक ज्ञान हो तो उसे भी तब तक सार्वजनिक न करें जब तक उसका कोई आर्थिक लाभ न होता हो। ऐसा हो सकता है कि आप किसी को अपने तकनीकी और व्यवसायिक रहस्य से अतगत करायें और वह उसका उपयोग अपने फायदे के लिये कर आपको ही हानि पहुंचाये।
अक्सर आदमी सामान्य बातचीत में अपने जीवन और व्यवसाय का रहस्य उजागर कर बाद में पछताते हैं। कबीरदास जी के अनुसार अपना कीमती सामान और जीवन के रहस्यों को संभाल कर किसी के सामने प्रदर्शित करना चाहिए।
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